Physics

प्रकाश
प्रकाश, ऊर्जा का ही एक रूप है जो हमारी दृष्टिï के संवेदन का कारण है। प्रकाश द्वारा अपनाए गए सरल पथ को किरण (ray) कहते हैं। अनेक किरणों से किरण पुंज (beam) बनता है जो अपसारी (diverging) व अभिसारी (converging) हो सकते हैं।

 

परावर्तन (Reflection)
जब किसी सतह पर प्रकाश पड़ता है तो उसका कुछ भाग सतह द्वारा परावर्तित कर दिया जाता है, किंतु कुछ सतह, जैसे- दर्पण, धातु की पालिश की सतह, आदि आपतित प्रकाश को लगभग पूर्णत: परावर्तित कर देती हैं।
अपवर्तन (Refraction)
जब प्रकाश एक माध्यम से दूसरे माध्यम में तिरछे होकर गमन करता है तो वह अपने पथ से मुड़ा जाता है। इसे प्रकाश का अपवर्तन कहते हैं।
वायुमंडलीय अपवर्तन
पृथ्वी के चारों ओर वायुमंडल में ऊँचाई के साथ-साथ वायु का घनत्व कम होता है। प्रकाश को वायु की परतों से गुरजना पड़ता है और यह भी क्रमश: मुड़ता हुआ वक्र पथ अपना लेता है। पृथ्वी के वायुमंडल में प्रकाश के इसी अपवर्तन प्रभाव के कारण ही वास्तविक सूर्यास्त के बाद भी सूर्य क्षितिज के ऊपर कुछ क्षणों तक दृष्टिïगोचर होता है। तारों का टिमटिमाना भी कुछ इसी प्रकार वायुमंडलीय अपवर्तन के कारण होता है।
पूर्ण आंतरिक परावर्तन
प्रकाश हमेशा ही एक माध्यम से प्रकाशीय रूप से सघन माध्यम में जा सकता है, लेकिन यह विरल माध्यम में हमेशा ही नहीं जा सकता है। जब प्रकाश किरणें सघन माध्यम से विरल माध्यम के पृष्ठï पर आपातित हो रही हों और आपतन कोण क्रांतिक कोण से अधिक हो तब प्रकाश का अपवर्तन नहीं होता, बल्कि संपूर्ण प्रकाश परावर्तित होकर उसी माध्यम में लौट जाता है। इस घटना को पूर्ण आंतरिक परावर्तन (Total Internal Relection) कहते हैं। पूर्ण आंतरिक परावर्तन का एक उपयोगी प्रयोग ऑप्टिकल फाइबर में किया जाता है।
लेंस कैमरों, प्रोजेक्टरों, दूरबीनों, सूक्ष्मदर्शियों आदि प्रकाशीय यंत्रों में लेंसों का उपयोग प्रतिबिम्ब प्राप्त करने के लिए किया जाता है। दृष्टिï दोषों के निवारण हेतु भी लेंस लगे चश्मों का प्रयोग किया जाता है।
दृष्टि का स्थायित्व (Persistance of Vision)
रेटिना पर पडऩे वाले प्रकाश की संवेदना प्रकाश स्रोत या प्रतिरूप के हटने के कुछ क्षण बाद तक रहती है जिसे दृष्टिï का स्थायित्व कहते हैं। यदि किसी क्रिया के विभिन्न पहलुओं के चित्रों को एक क्रम में तैयार किया जाए और उन्हें एक द्रुत क्रम में देखा जाए तो आँखें चित्रों को जोडऩे की प्रवृत्ति रखती हैं और परिणामत: चलते हुए प्रतिरूप का भ्रम होता है। इस तथ्य का उपयोग प्रोजेक्टर एवं टेलीविज़न में किया जाता है।
दीर्घदृष्टि (Long Sight या हाइपरमैट्रिया)- 
इससे ग्रस्त व्यक्ति दूर की वस्तुओं को तो स्पष्टï रूप से देख पाता है किंतु निकट की वस्तुओं को नहीं। यह नेत्र दोष, नेत्र गोलक (Eye-Ball) के कुछ छोटा होने के कारण होता है तथा अभिसारी लेंस का ऐनक लगाकर दूर किया जा सकता है।
निकट दृष्टि (Short Sight या मायोपिया)- 
इससे ग्रसित व्यक्ति में प्रतिबिम्व दृष्टिï पटल से पहले ही फोकस हो जाता है। ऐसा नेत्र गोलक के कुछ लम्बा होने के कारण होता है। इससे ग्रसित व्यक्ति दूर की वस्तुओं को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता है। इस दोष को अपसारी लेंस का चश्मा लगाकर ठीक किया जा सकता है।
लेंस की क्षमता को फोकल दूरी के व्युत्क्रम से मीटर में व्यक्त करते हैं तथा इसका मात्रक डायोप्टर (D) है।
प्रकाश का वर्ण विक्षेपण (Dispersion Of Light)
जब सूर्य का प्रकाश किसी प्रिज़्म से गुजरता है तो यह अपवर्तन के पश्चात् प्रिज्म के आधार की ओर झुकने के साथ-साथ विभिन्न रंगों के प्रकाश में बंट जाता है। इस प्रकार से प्राप्त रंगों के समूह को वर्ण-क्रम (spectrum) कहते हैं तथा प्रकाश के इस प्रकार अवयवी रंगों में विभक्त होने की प्रक्रिया को वर्ण विक्षेपण कहते है। बैंगनी रंग का विक्षेपण सबसे अधिक एवं लाल रंग का विक्षेपण सबसे कम होता है। परावर्तन, पूर्ण आंतरिक परावर्तन तथा अपवर्तन द्वारा वर्ण विक्षेपण का सबसे अच्छा उदाहरण आकाश में वर्षा के  बाद दिखाई देने वाला इंद्र धनुष है।
प्रकाश प्रकीर्णन (Scattering of Light) 
जब प्रकाश अणुओं, परमाणुओं व छोटे-छोटे कणों पर आपतित होता है तो उसका विभिन्न दिशाओं में प्रकीर्णन हो जाता है। जब सूर्य का प्रकाश जो कि सात रंगों का बना होता है वायुमंडल से गुजरता है तो वह  वायुमंडल में उपस्थित कणों द्वारा विभिन्न दशाओं में प्रसारित हो जाता है। इस प्रक्रिया को ही प्रकाश का प्रकीर्णन कहते हैं। आकाश का रंग सूर्य के प्रकाश के प्रकीर्णन के कारण ही नीला दिखाई देता है.
प्रकाश का विवर्तन (Deffraction of Light)
यदि किसी प्रकाश स्रोत व पर्दे के बीच कोई अपारदर्शी अवरोध (Obstacle) रख दिया जाए तो हमें पर्दे पर अवरोध की स्पष्टï छाया दिखाई पड़ती है। इससे प्रतीत होता है कि प्रकाश का संचरण सीधी रेखा में होता है। लेकिन यदि अवरोध का आकार बहुत छोटा हो तो प्रकाश अपने सरल रेखीय संचरण से हट जाता है व अवरोध के किनारों पर मुड़कर छाया में प्रवेश कर जाता है।  इस घटना को ‘प्रकाश का विवर्तन’ कहते हैं।
प्रकाश तरंगों का व्यतिकरण (Interference of Light) 
जब सामान आवृत्ति व समान आयाम की दो प्रकाश तरंगें जो मूलत: एक ही प्रकाश स्रोत से एक ही दिशा में संचारित होती हैं तो माध्यम के कुछ बिंदुओं पर प्रकाश की तीव्रता अधिकतम व कुछ बिंदुओं पर तीव्रता न्यूनतम या शून्य पाई जाती है। इस घटना को ही प्रकाश तरंगों का व्यतिकरण कहते हैं। इसी कारण तेल की पर्तें व साबुन के बुलबुले रंगीन दिखाई देते हैं।
प्रकाश तरंगों का ध्रुवीकरण (Polarisation Of light Wavs)
जब दो कारें एक दूसरे की ओर आती हैं तो उनके प्रकाश के चकाचौंध से दुर्घटना हो सकती है। इसे रोकने के लिए कारों में पोलेराइडों का उपयोग किया जाता है। सिनेमाघर में पोलेराइड के  चश्में पहनकर तीन विमाओं वाले चित्रों को देखा जाता है।

 

गोलीय दर्पण से प्रकाश का परावर्तन

गोलीय दर्पण (Spherical Mirror) वैसा दर्पण होता है, जिसकी परावर्तक सतह (Reflecting Surface) काँच के खोखले गोले का हिस्सा होती है। गोलीय दर्पण दो प्रकार के होते हैः अवतल दर्पण (Concave Mirror)  और उत्तल दर्पण (Convex Mirror)।

अवतल दर्पण में प्रकाश की परावर्तक सतह भीतर की तरफ मुड़ी (Bent)  हुई या अवतल सतह वाली होती है। एक चम्मच की भीतरी चमकदार सतह अवतल दर्पण का उदाहरण है। उत्तल दर्पण में प्रकाश की परावर्तक सतह बाहर की ओर उभरी हुई या उत्तल सतह वाली होती है। चम्मच का पिछला हिस्सा उत्तल दर्पण का उदाहरण है।

वक्रता केंद्रः गोलीय दर्पण में वक्रता केंद्र (centre of curvature) दर्पण के खोखले गोले का केंद्र बिन्दु होता है। अवतल दर्पण में वक्रता केंद्र दर्पण के सामने होता है, लेकिन उत्तल दर्पण में वक्रता केंद्र दर्पण के पीछे होता है।

ध्रुव (Pole): गोलीय दर्पण पर केंद्र बिन्दु ध्रुव (pole) कहलाता है।

वक्रता त्रिज्या (radius of curvature): वक्रता केंद्र और ध्रुव के बीच की दूरी |

प्रधान अक्ष (Principal axis): वक्रता केंद्र और ध्रुव के बीच से होकर गुजरने वाली सीधी रेखा ।

दर्पण का विवर (Aperture of mirror): दर्पण का वह हिस्सा जिससे प्रकाश कापरावर्तन होता है|

अवतल दर्पण का मुख्य फोकसः प्रधान अक्ष का वह बिन्दु,जहां पर अवतल दर्पण से परावर्तित होने के बाद प्रकाश की सभी किरणें,जोकि अक्ष के समानांतर होती हैं, संकेंद्रित हो जाती हैं।

अवतल दर्पण की फोकस दूरी (Focal length): ध्रुव और मुख्य फोकस के बीच दूरी।

उत्तल दर्पण का मुख्य फोकसः  प्रधान अक्ष का वह बिन्दु, जहां पर उत्तल दर्पण से परावर्तित होने के बाद प्रकाश किरणें बिखर जाती हैं।

अवतल दर्पण द्वारा निर्मित प्रतिबिंबों को प्राप्त करने के नियम

नियम 1: जब प्रधान अक्ष के समानांतर वाली प्रकाश किरण परावर्तित होती है, तो वह उसके फोकस से होकर गुजरती है।

नियम 2: जब प्रकाश किरण वक्रता केंद्र से होकर गुजरती है, तो उसी पथ पर वापस परावर्तित हो जाती है।

नियम 3: जब प्रकाश किरण फोकस से होकर गुजरती है, तो परावर्तन के बाद वह मुख्य अक्ष के समानांतर हो जाती है।

नियम 4: ध्रुव पर पड़ने वाली प्रकाश की किरण, मुख्य अक्ष के साथ समान कोण बनाते हुए वापस परावर्तित हो जाती है।

अवतल दर्पण द्वारा प्रतिबिंब का निर्माण

स्थिति 1 (Case 1): जब एक वस्तु को अवतल दर्पण के ध्रुव और फोकस ( P और F के बीच) रखा जाता है, तो प्रकाश की किरण फोकस और वक्रता केंद्र से होकर गुजरेगी। परावर्तित होने वाली दोनों किरणें बाईं तरफ एक दूसरे को नहीं काटेंगी और इस प्रकार प्रतिबिंब पीछे की तरफ बनेगा। बना हुआ प्रतिबिंब होगा–

  • दर्पण के पीछे
  • आभासी और सीधा (Virtual and Erect)
  • वस्तु से बड़ा

स्थिति 2: जब वस्तु को फोकस (F पर) रखा जाता है, तो प्रकाश की परावर्तित किरणें फोकस और वक्रता केंद्र से होकर गुजरती हैं। बना हुआ प्रतिबिंब होगा–

  • अनंत में
  • वास्तविक और उल्टा
  • बहुत अधिक बड़ा

स्थिति 3: जब वस्तु को फोकस और वक्रता केंद्र (F और C के बीच) रखा जाएगा, तो पहली किरण फोकस से और दूसरी किरण वक्रता केंद्र से होकर गुजरती है। जब इन किरणों को नीचे की दिशा में और बढ़ाया जाता है, तो बनने वाला प्रतिबिंब होता है–

  • वास्तविक और उल्टा
  • वस्तु से बड़ा

स्थिति 4: जब किसी वस्तु को वक्रता केंद्र पर (C पर) रखा जाता है, तो दोनों किरणें फोकस से होकर गुजरती हैं। बनने वाला प्रतिबिंब होता है–

  • वक्रता केंद्र पर
  • वास्तविक और उल्टा
  • वस्तु से आकार में छोटा

स्थिति 5: जब वस्तु वक्रता केंद्र से दूर ( C से दूर) हो, तो बनने वाला प्रतिबिंब होगा–

  • फोकस और वक्रता केंद्र के बीच
  • वास्तविक और उल्टा
  • वस्तु से छोटा

स्थिति 6: जब एक वस्तु अनंत पर (At Infinity) हो, तो बनने वाला प्रतिबिंब होगा–

  • फोकस पर
  • वास्तविक और उल्टा
  • वस्तु से बहुत छोटा

अवतल दर्पण का उपयोग

  • टॉर्च, वाहनों की हेड–लाइट और सर्च लाइट में शक्तिशाली बीम प्रकाश प्राप्त करने के लिए परावर्तक के रूप में।
  • शेविंग (दाढ़ी) दर्पणों के तौर पर।
  • इनका प्रयोग दंत चिकित्सक दांतों को बड़े रूप में देखने के लिए करते हैं।
  • इनका प्रयोग सौर ऊर्जा के क्षेत्र में सौर भट्टियों को गर्म करने के लिए, सूर्य की किरणों को फोकस करने के लिए किया जाता है।

उत्तल दर्पण द्वारा निर्मित प्रतिबिंबों को प्राप्त करने के नियम

नियम 1: परावर्तन के बाद, मुख्य अक्ष के समानांतर प्रकाश की किरण फोकस से आती प्रतीत होती है।

नियम 2: वक्रता केंद्र की ओर जाने वाली प्रकाश किरण उसी मार्ग पर वापस परावर्तित हो जाती है।

नियम 3: परावर्तन के बाद फोकस की तरफ जाने वाली प्रकाश की किरण मुख्य अक्ष के समानांतर हो जाती है।

नियम 4: ध्रुव पर पड़ने वाली प्रकाश की किरण मुख्य अक्ष के साथ उतना ही कोण बनाते हुए परावर्तित हो जाती है

उत्तल दर्पण द्वारा प्रतिबिंब का निर्माण

स्थिति 1: जब किसी वस्तु को ध्रुव और अनंत के बीच ( P और अनंत के बीच) कहीं भी रखा जाता है, तो बनने वाला प्रतिबिंब होता हैः

  • ध्रुव और फोकस के बीच दर्पण के पीछे
  • आभासी और सीधा
  • छोटा

स्थिति 2: जब वस्तु को अनंत (At Infinity) पर रखा जाता है, तो बनने वाला प्रतिबिंबः

  • दर्पण के पीछे फोकस पर
  • आभासी और सीधा
  • बहुत छोटा

उत्तल दर्पण का उपयोग

  • वाहन चालकों को पीछे वाले यातायात के बहुत बड़े क्षेत्र को देखने में सक्षम बनाता है।
  • बड़े उत्तल दर्पणों का प्रयोग ‘दुकान सुरक्षा दर्पण’ के तौर पर किया जाता है।

गोलीय दर्पण के लिए साइन कंवेंशन

गोलीय दर्पण के चित्र आरेखों में विभिन्न दूरियों को मापने के लिए न्यू कार्टिजियन साइन कंवेंशन (New Cartesian Sign Convention)  का प्रयोग किया जाता है। न्यू कार्टिजियन साइन कंवेंशन के अनुसारः

  • दर्पण के ध्रुव से सभी दूरियों को मूल रूप में मापा जाता है।
  • इंसीडेंट लाइट की दिशा में मापी जाने वाली दूरियों को सकारात्मक रूप में लिया जाता है।
  • इंसीडेंट लाइट (incident light) की विपरीत दिशा में मापी जाने वाली दूरियों को नकारात्मक रूप में लिया जाता है|
  • मुख्य अक्ष के ऊपर की ओर और लंबवत मापी गई दूरियों को सकारात्मक रूप में लिया जाता है।
  • मुख्य अक्ष से नीचे की ओर और लंबवत मापी गई दूरियों को नकारात्मक रूप में लिया जाता है।

वस्तु को हमेशा दर्पण के बाईं ओर रखा जाता है, ताकि इंसीडेंट लाइट की दिशा बाईं से दाईं तरफ हो। चूंकि इंसीडेंट लाइट हमेशा बाईं से दाईं तरफ जाता है, इसलिए दर्पण के ध्रुव से दाईं तरफ मापी जाने वाली सभी दूरियां सकारात्मक मानी जाती हैं। दूसरी तरफ, दर्पण के ध्रुव से बाईं ओर मापी जाने वाली सभी दूरियां नकारात्मक मानी जाती हैं।

  • प्रतिबिंब की दूरी (U) हमेशा नकारात्मक होती है, क्योंकि यह दर्पण के बाईं ओर रखा होता है।
  • यदि कोई प्रतिबिंब अवतल दर्पण के पीछे (दाईं ओर) बनता है, तो प्रतिबिंब की दूरी (v) सकारात्मक होगी लेकिन यदि प्रतिबिंब दर्पण के सामने (बाईं ओर) बनता है, तब प्रतिबिंब की दूरी नकारात्मक होगी।
  • उत्तल दर्पण के लिए प्रतिबिंब की दूरी (v) हमेशा सकारात्मक होगी, क्योंकि प्रतिबिंब हमेशा दाईं ओर बनता है।
  • अवतल दर्पण की फोकल दूरी (f) को नकारात्मक माना जाता है और उत्तल दर्पण के लिए इसे सकारात्मक माना जाता है।
  • वस्तु की ऊंचाई हमेशा सकारात्मक मानी जाती है। अगर प्रतिबिंब मुख्य अक्ष के ऊपर बनता है, तो उसकी ऊंचाई को सकारात्मक माना जाएगा और अगर मुख्य अक्ष के नीचे है तो उसे नकारात्मक माना जाएगा।

दर्पण सूत्र (Mirror Formula)

प्रतिबिंब की दूरी (v), वस्तु की दूरी (u) और गोलीय दर्पण की फोकल दूरी (f) के बीच संबंध बताने वाला समीकरण:

1/ प्रतिबिंब दूरी + 1/ वस्तु की दूरी= 1/ फोकल दूरी

या 1/v + 1/u=1/f

जहां v= दर्पण से प्रतिबिंब की दूरी

u= दर्पण से वस्तु की दूरी

f= दर्पण की फोकल दूरी

प्रतिबिंब की उंचाई एवं वस्तु की ऊंचाई के अनुपात को रेखीय आवर्धन (linear magnification) कहते हैं।

आवर्धन= प्रतिबिंब की उंचाई/ वस्तु की उंचाई

या m=  h2/h1

जहां m= आवर्धन, h1= प्रतिबिंब की उंचाई, h2= वस्तु की उंचाई

वस्तु की उंचाई (h1) हमेशा सकारात्मक होगी। आभासी प्रतिबिंब की उंचाई (h2) सकारात्मक होगी और वास्तविक प्रतिबिंब की उंचाई नकारात्मक होगी। दूसरे शब्दों में, अगर आवर्धन धनात्मक चिह्न से युक्त है, तब प्रतिबिंब आभासी और लंबवत होगा और अगर आवर्धन नकारात्मक चिह्न से युक्त है, तब प्रतिबिंब वास्तविक एवं उल्टा होगा।

इसके अलावा, दर्पण द्वारा उत्पादित रेखीय आवर्धन प्रतिबिंब दूरी औऱ वस्तु की दूरी के अनुपात के बराबर, ऋणात्मक चिन्ह से युक्त होता है।

आवर्धन= -प्रतिबिंब दूरी/ वस्तु दूरी

या m= -v/u

जहां m= आवर्धन, v= प्रतिबिंब दूरी, u= वस्तु दूरी

इसलिए, अगर m= h2/h1 और m= –v/u

तो, h2/h1= –v/u

 

प्रकाश का परावर्तन

प्रकाश ऊर्जा का एक रूप है, जो हमें वस्तुओं को देखने में सक्षम बनाता है और जिस सीधी रेखा पर वह चलता है उसे ‘प्रकाश की किरण’ कहते हैं।  प्रकाश सीधी रेखा पर चलता है,जिसे परावर्तित या अपवर्तित किया जा सकता है।
प्रकाश का परावर्तन

वस्तु की सतह पर पड़ने वाली प्रकाश किरणों को जिस प्रक्रिया के माध्यम से वापस भेजा जाता है, उसे प्रकाश का परावर्तन कहते हैं। इसलिए, जब किसी वस्तु की सतह पर प्रकाश की किरणें पड़ती हैं, वह प्रकाश को वापस भेज देता है।

धुंधली या बिना पॉलिश की गई सतह वाली वस्तुओं की तुलना में चमकदार और पॉलिश की गई वस्तु की सतह से अधिक प्रकाश परावर्तित होता है। चाँदी प्रकाश का सबसे अच्छा परावर्तक है। यही वजह है कि सादा काँच की शीट की एक तरफ चाँदी की पतली परत लगाकर समतल दर्पण बनाया जाता है। चाँदी की इस परत को लाल रंग के पेंट से सुरक्षित किया जाता है।

जिस सीधी रेखा पर प्रकाश यात्रा करता है उसे प्रकाश की किरण कहा जाता है।

प्रकाश का नियमित परावर्तन और प्रकाश का विसरित परावर्तन

नियमित परावर्तन में, परावर्तित प्रकाश की समानांतर बीम एक दिशा में समानांतर बीम के रूप में परिलक्षित होता है। ऐसे में परावर्तन के बाद भी समानांतर परावर्तित किरणें समानांतर बनी रहती हैं और सर्फ एक ही दिशा में जाती हैं और यह चिकनी सतह जैसे समतल दर्पण या अत्यधिक पॉलिश की गई धातु की सतहों से होती हैं। इसलिए समतल दर्पण प्रकाश का नियमित परावर्तन करता है।

चूंकि परावर्तन का कोण और प्रतिबिंब का कोण समान या बराबर होता है, इसलिए चिकनी सतह पर पड़ने वाली समानांतर किरणों का बीम सिर्फ एक दिशा में समानांतर प्रकाश किरणों के बीम के तौर पर परावर्तित होता है। इसे नीचे चित्र में समझाया गया है-

विसरित परावर्तन में, परावर्तित प्रकाश की समानांतर बीम अलग– अलग दिशाओं में परावर्तित होती है। ऐसे में, परावर्तन के बाद सामानंतर परावर्तित किरणें समानांतर नहीं रह जातीं, वे अलग– अलग दिशाओं में फैल जाती हैं। इसे अनियमित परावर्तन या बिखरना भी कहते हैं और इसलिए ये कागज, कार्डबोर्ड, चॉक, मेज, कुर्सी, दीवारें और बिना पॉलिश की हुई धातु की वस्तुओं जैसी अपरिष्कृत सतहों से होती हैं। चूंकि परावर्तन का कोण और प्रतिबिंब का कोण अलग होता है, अपरिष्कृत सतह पर पड़ने वाली प्रकाश की किरण ऊपर चित्र में जिस प्रकार दिखाया गया है, उसी प्रकार अलग– अलग दिशाओं में चली जाती है।

समतल दर्पण से प्रकाश का परावर्तन

प्रकाश के परावर्तन के नियम को समझने से पहले, आइए कुछ महत्वपूर्ण शब्दों जैसे परावर्तन किरण, परावर्तित किरण, परावर्तन बिन्दु, नॉर्मल ( परावर्तन बिन्दु पर), परावर्तन कोण और प्रतिबिंब का कोण, का अर्थ समझ लें।

परावर्तन किरणः एक दर्पण के सतह पर पड़ने वाली प्रकाश किरण को परावर्तन किरण कहा जाता है।

परावर्तन बिन्दुः दर्पण की सतह पर जिस बिन्दु पर परावर्तन किरण पड़ती है, उसे परावर्तन बिन्दु कहा जाता है।

परावर्तित किरणः परावर्तन बिन्दु से दर्पण द्वारा वापस भेजी गई प्रकाश किरण को परावर्तित किरण कहते हैं।

नॉर्मलः परावर्तन बिन्दु पर दर्पण के तहत पर लंबवत या समकोण पर खड़ी रेखा को नॉर्मल कहते हैं।

परावर्तन का कोणः नॉर्मल के साथ परावर्तन किरण द्वारा बनाया गया कोण परावर्तन का कोण कहलाता है।

प्रतिबिंब का कोणः परावर्तित किरण द्वारा नॉर्मल के साथ परावर्तन बिन्दु पर बनाया गया कोण प्रतिबिंब का कोण कहलाता है.

प्रकाश के परावर्तन के नियम

प्रकाश के परावर्तन का नियम समतल दर्पण के साथ साथ गोलाकार दर्पण पर भी लागू होता है। इस लेख में हम समतल दर्पण द्वारा बनाई जाने वाली छवियों के बारे में चर्चा करेंगे।

परावर्तन का पहला नियमः पहले नियम के अनुसार, परावर्तन किरण, परावर्तित किरण और नॉर्मल तीनों एक ही तल में होते हैं।

परावर्तन का दूसरा नियमः दूसरे नियम के अनुसार, परावर्तन का कोण हमेशा प्रतिबिंब के कोण के बराबर होता है।

इसके अलावा, यह नोट करना महत्वपूर्ण है कि जब दर्पण के सतह पर प्रकाश की किरणें सामान्य रूप से पड़ती हैं, तब इस प्रकार पड़ने वाली किरण के लिए परावर्तन के कोण और प्रतिबिंब का कोण शून्य होता है। प्रकाश की यह किरण उसी मार्ग पर वापस परावर्तित होगी।

वस्तु और छवियां

प्रकाशवान किसी भी वस्तु ,जैसे-बल्ब, मोमबत्ती, पेड़ आदि, से आ रही प्रकाश की किरणें  जब दर्पण द्वारा परावर्तित होती हैं तब पैदा होने वाली ऑप्टिकल उपस्थिति छवि कहलाती है। उदाहरण के लिए, जब हम दर्पण में देखते हैं तो हमें अपना  चेहरा दिखाई देता है। छवियाँ दो प्रकार की होती हैं– वास्तविक छवि और आभासी छवि।
वास्तविक छविः स्क्रीन पर देखी जा सकने वाली छवि को वास्तविक छवि कहा जाता है।

आभासी छविः वैसी छवि जिसे स्क्रीन पर नहीं देखा जा सकता उसे आभासी छवि कहा जाता है।

पार्श्व व्युत्क्रमः जब हम एक दर्पण के सामने खड़े होते हैं और अपने दाहिने हाथ को ऊपर की ओर उठाते हैं, तो जो छवि बनती है उसमें बायाँ हाथ उठा हुआ दिखाई देता है। इसलिए छवि में हमारे शरीर का दाहिना हिस्सा बायाँ हिस्सा बन जाता है और दर्पण की छवि में हमारे शरीर का बायाँ हिस्सा हमारे शरीर का दायाँ हिस्सा बन जाता है।

वस्तु की दर्पण की छवि में उसके पक्षों में होने वाला यह परिवर्तन पार्श्व व्युत्क्रम (lateral inversion) कहलाता है।

समतल दर्पण में छवि का बनना

समतल दर्पण द्वारा बनाई गई छवि की प्रकृतिः

  • छवि आभासी और सीधी होती है।
  • छवि का आकार वस्तु के आकार के बराबर होता है।
  • छवि दर्पण के पीछे बनती है।
  • छवि दर्पण से उतना ही पीछे बनती है, जितना दर्पण के आगे वस्तु रखी होती है।
  • समतल दर्पण में बनी छवि पार्श्व व्युत्क्रम होती है।

समतल दर्पण का उपयोग

  • ड्रेसिंग टेबल और बाथरूम में लगे दर्पण समतल दर्पण होते हैं और इनका प्रयोग हम स्वयं को देखने को देखने के लिए करते हैं।
  • इन्हें आभूषण की दुकानों की भीतरी दीवारों पर आभूषणों को बड़ा दिखाने के लिए लगाया जाता है।
  • इन्हें सड़कों के तीव्र मोड़ों पर लगाया जाता है, ताकि चालक सामने से आ रहे वाहनों को देख सके।
  • पेरीस्कोप बनाने में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है।

 

विद्युत

आज से हजारों वर्ष पूर्व करीब 600 ई. पू. में यूनान के वैज्ञानिक थेल्स ने पाया कि जब अम्बर नामक पदार्थ को ऊन के किसी कपड़े से रगड़ा जाता है तो उसमें छोटी-छोटी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करने का गुण आ जाता है। वह गुण जिसके कारण पदार्थ विद्युतमय होते हैं, ‘विद्युत’ (electricty) कहलाता है। जब आवेश किसी तार या  चालक पदार्थ में बहता है तो उसे धारा विद्युत (current electricity) कहते हैं। आवेश दो प्रकार के – धनात्मक आवेश (+ve charge) व ऋणात्मक आवेश (-ve charge) होते हैं।

चालक तथा अचालक पदार्थ (Conductors & non- conductors)
जिन पदार्थों से होकर विद्युत आवेश सरलता से प्रवाहित होता है, उन्हें चालक कहते हैं तथा वे पदार्थ जिनसे होकर आवेश का प्रवाह नहीं होता है, अचालक कहलाते हैं। लगभग सभी धातुएं, अम्ल क्षार, लवणों के जलीय विलयन, मानव शरीर आदि विद्युत चालक पदार्थों के उदाहरण हैं तथा लकड़ी, रबड़, कागज, अभ्रक, आदि अचालक पदार्थों के उदाहरण हैं।
विद्युत धारा (Electric current)
आवेश के प्रवाह को विद्युत धारा कहते हैं। ठोस चालकों में आवेश का प्रवाह इलेक्ट्रॉनों के एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानांतरण के कारण होता है। जबकि द्रवों जैसे- अम्लों, क्षारों व लवणों के जलीय विलयनों तथा गैसों में यह प्रवाह आयनों की गति के कारण होता है। यदि किसी परिपथ में धारा एक ही दिशा में बहती है तो उसे दिष्टï धारा (Direct current) कहते हैं तथा यदि धारा की दिशा लगातार बदलती रहती है तो उसे ‘प्रत्यावर्ती धारा’ (alternating current) कहते हैं।
विभवान्तर (Potential Difference)
एकांक आवेश द्वारा चालक के एक सिरे से दूसरे सिरे तक प्रवाहित होने में किए गए कार्य को ही दोनों सिरों के मध्य विभवांतर कहते हैं।
v = w/q (जहाँ v= विभवांतर, w= कार्य व q = प्रवाहित आवेश है।
विभवांतर का मात्रक वोल्ट है।
विद्युत सेल (Electric Cell)
विद्युत सेल में विभिन्न रासायनिक क्रियाओं से रासायनिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। विद्युत सेल में धातु की दो छड़ें होती हैं जिन्हें इलेक्ट्रोड (श्वद्यद्गष्ह्लह्म्शस्रद्ग) कहते हैं।
विद्युत सेल मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं-

  • प्राथमिक सेलइसमें रासायनिक ऊर्जा को सीधे विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। वोल्टीय सेल, लेक्लांशे सेल, डेनियल सेल, बुनसेन सेल आदि इसके उदाहरण हैं।
  • द्वितीयक सेलइसमें पहले विद्युत ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा, फिर रासायनिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। इसका इस्तेमाल मोटरकारों, ट्रकों इत्यादि को स्टार्ट करने में किया जाता है।

कूलॉम का नियम (Coulumb’s Law) 
कूलाम के अनुसार दो स्थिर आवेशों के बीच लगने वाला बल, उनकी मात्राओं के गुणनफल के अनुक्रमानुपाती व उनके बीच की दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होता है।
F=k(Q1Q2/R2)

Q1, Q2 दो बिंदु आवेश एक दूसरे से R दूरी पर स्थित है

विद्युत क्षेत्र की तीव्रता (Intensity of electric field)
वैद्युत क्षेत्र में परीक्षण आवेश पर लगने वाले बल तथा स्वयं परीक्षण आवेश के अनुपात को किसी बिंदु पर क्षेत्र की तीव्रता कहते हैं। यदि परीक्षण आवेश का मान ह्नश व इस पर लगने वाला बल स्न हो तो वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता-

E=F / Q0

खोखले चालक के भीतर वैद्युत क्षेत्र
किसी खोखले आवेशित चालक के भीतर वैद्युत क्षेत्र शून्य होता है तथा इसको दिया गया सम्पूर्ण आवेश, इसके बाहरी पृष्ठï पर ही संचित रहता है।
संधारित्र (capacitor)
संधारित्र में समान आकार की दो प्लेटें होती हैं, जिन पर बराबर व विपरीत आवेश संचित रहता है। इसका प्रयोग आवेश के संचय में किया जाता है।
वैद्युत अपघटन (Electrolysis)
कुछ ऐसे पदार्थ होते हैं कि जब उनमें वैद्युत धारा प्रवाहित की जाती है तो वे अपघटित हो जाते हैं। इन्हें वैद्युत अपघट्य (electrolyte) कहते हैं। उदाहरण- अम्लीय जल, नमक का जल इत्यादि।
फैराडे के वैद्युत अपघटन सम्बंधी नियम

  • प्रथम नियमवैद्युत अपघटन की क्रिया में किसी इलेक्ट्रोड पर मुक्त हुए पदार्थ की मात्रा, सम्पूर्ण प्रवाहित आवेश के अनुक्रमानुपाती होती है। यदि i एम्पियर की धारा t समय तक प्रवाहित करने पर मुक्त हुए पदार्थ का द्रव्यमान m हो तो,

m= Zit (जर्हाँ Z एक नियतांक है, जिसे मुक्त हुए तत्व का वैद्युत रासायनिक तुल्यांक कहते हैं।

  • दूसरा नियमयदि विभिन्न वैद्युत अपघट्यों में समान धारा, समान समय तक प्रवाहित की जाए तो मुक्त हुए तत्वों के द्रव्यमान उनके रासायनिक तुल्यांकों के अनुक्रमानुपाती होते हैं। यदि मुक्त हुए तत्वों के द्रव्यमान m1 व m2 तथा उनके रासायनिक तुल्यांक W1 व Wहों तो,

फैराडे संख्या (faradey number)
फैराडे संख्या आवेश की वह मात्रा है जो किसी तत्व के एक किग्रा. तुल्यांक को वैद्युत अपघटन द्वारा मुक्त करती है। इसका मान 9.65&107 कूलाम प्रति किग्रा. तुल्यांक होता है।
प्रतिरोध
जब किसी चालक में विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है तो चालक में गतिशील इलेक्ट्रॉन अपने मार्ग में आने वाले परमाणुओं से निरंतर टकराते हैं। इस व्यवधान को ही चालक का प्रतिरोध करते हैं। इसका मात्रक ‘ओम’ होता है।
ओम का नियम (Ohm’s law)
यदि किसी चालक की भौतिक अवस्था (ताप इत्यादि) में कोई परिवर्तन न हो तो चालक के सिरों पर लगाया गया विभवांतर उसमें प्रवाहित धारा के अनुक्रमानुपाती होता है।
v =IR (जहाँ v = वोल्ट, i = प्रवाहित धारा व R = चालक का प्रतिरोध)
प्रतिरोधों का संयोजन (Combination of resistance)
सामान्यतया प्रतिरोध को परिपथ में दो प्रकार से संयोजित किया जा सकता है-
श्रेणी क्रम (Series Combination) – इस क्रम में जोड़े गए प्रतिरोधों में सामान धारा प्रवाहित होती है तथा भिन्न-भिन्न प्रतिरोधों के बीच भिन्न-भिन्न विभवांतर होता है।  बिंदुओं A व B के बीच तुल्य प्रतिरोध (Resultant resistance) की गणना निम्न सूत्र से की जाती है।
R = r1 + R2 + R3 + – –
समान्तर क्रम (Parallel resistence)– इस प्रकार के संयोजन में सभी प्रतिरोधों के बीच विभवांतर तो समान रहता है, लेकिन धारा की मात्रा भिन्न-भिन्न प्रतिरोधों में भिन्न-भिन्न रहती है। यदि A व B के बीच तुल्य प्रतिरोध R है तो

विद्युत धारा का चुंबकीय प्रभाव

विद्युत धारा का चुंबकीय प्रभाव उन प्रमुख सिद्धांतों में से एक है जो विभिन्न प्रकार की गतिविधियों में इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरणों में बुनियादी सिद्धांत के रूप में कार्य करता है। विद्युत धारावाही सुचालक (Current Carrying Conductor) के चारों तरफ के चुंबकीय क्षेत्र को चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं के उपयोग द्वारा दर्शाया जा सकता है, जो उसके चारों ओर संकेंद्रित वृत्त (Concentric Circles)  के रूप में होते हैं। विद्युत धारावाही सुचालक के माध्यम से एक चुंबकीय क्षेत्र की दिशा विद्युत प्रवाह की दिशा द्वारा निर्धारित होता है।

फ्लेमिंग का दक्षिणहस्त नियम

दक्षिणहस्त नियम (The Right Hand Thumb Rule) जिसे ‘मैक्सवेल का कॉर्कस्क्रू रूल(Maxwell’s Corkscrew Rule) भी कहते हैं, का प्रयोग प्रत्यक्ष सुचालक (Straight Conductor) के माध्यम से विद्युत धारा प्रवाह की दिशा के संबंध में चुंबकीय क्षेत्र की दिशा निर्धारित करने के लिए किया जाता है। जैसे ही विद्युत धारा की दिशा बदलती है, चुंबकीय क्षेत्र की दिशा भी उलट जाती है। लंबवत निलंबित विद्युत धारावाही सुचालक (Vertically Suspended Current Carrying Conductor) में विद्युत धारा की दिशा अगर दक्षिण से उत्तर है, तो उसका चुंबकीय क्षेत्र वामावर्त दिशा में होगा। अगर विद्युत धारा का प्रवाह उत्तर से दक्षिण की ओर है, तो चुंबकीय क्षेत्र की दिशा दक्षिणावर्त होगी। अगर विद्युत धारा सुचालक को अंगूठे को सीधा रखते हुए दाएँ हाथ से पकड़ा जाए और अगर विद्युत धारा की दिशा अंगूठे की दिशा में हो, तो अन्य उँगलियों को मुड़ने की दिशा चुंबकीय क्षेत्र की दिशा बताएगी। चुंबकीय क्षेत्र का परिमाण कुंडली  (Coil) के घुमावों की संख्या के समानुपातिक होता है। अगर कुंडली  में ‘n’ घुमाव हैं, तो कुंडल के एकल मोड की स्थिति में चुंबकीय क्षेत्र का परिमाण चुंबकीय क्षेत्र का ‘n’  गुना होगा।

                              मैक्सवेल के दक्षिणहस्त नियम के अनुप्रयोग

अगर सुचालक गोलाकार लूप में है तो लूप चुंबक की तरह व्यवहार करता है। विद्युत धारावाही गोलाकार सुचालक में, केंद्रीय क्षेत्र के मुकाबले सुचालक की परिधि के पास चुंबकीय क्षेत्र अधिक मजबूत होता है।

विद्युत धारावाही गोलाकार आकार का लूप सुचालक

जैसा कि मैरी एम्पीयर ने सुझाव दिया है, विद्युत धारावाही सुचालक के आसपास जब चुंबक रखा जाता है तो वह बल को अपनी तरफ खींचता है। इसी तरह चुंबक भी विद्युत धारावाही सुचालक पर समान और विपरीत बल लगाता है। विद्युत धारा के प्रवाह की दिशा में परिवर्तन के साथ सुचालक पर लगने वाले बल की दिशा बदल जाती है। यह देखा गया है कि जब विद्युत धारा की दिशा चुंबकीय क्षेत्र से समकोण पर हो तो बल का परिमाण सबसे अधिक होता है। अगर विद्युत धारा विद्युत सर्किट में दक्षिण से उत्तर दिशा में प्रवाहित हो रही हो और सुचालक तार पर चुंबकीय कंपास रखा जाए, तो कंपास की सूई पश्चिम दिशा में विक्षेपित होगी। यह ‘स्नो नियम’ (SNOW Rule) के नाम से जाना जाता है जो चुंबकीय क्षेत्र की दिशा की भविष्यवाणी करने में मदद करता है।

फ्लेमिंग का वामहस्त नियम

फ्लेमिंग के ‘वामहस्त नियम के अनुसार यदि बायें हाथ की प्रथम तीन उँगलियों को एक–दूसरे के लम्बवत फैलाया  जाए तो तर्जनी उँगली चुंबकीय क्षेत्र की दिशा बताती है। मध्यमा उँगली विद्युत धारा की दिशा बताती है। अँगूठा बाहरी चुंबकीय क्षेत्र में रखे धारावाही सुचालक पर लगने वाले बल की दिशा बताता है।

                                 फ्लेमिंग का वामहस्त नियम (मोटर नियम)

बिजली का मोटर

बिजली का मोटर या इलेक्ट्रिक मोटर बिजली के चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग कर विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में बदलता है। बिजली के मोटर में, एक चुंबकीय क्षेत्र के दो ध्रुवों के बीच एक आयताकार कुंडल निलंबित (Suspended) किया जाता है। कुंडली पर बिजली की आपूर्ति एक कम्यूटेटर ( बिजली की धारा का क्रम बदलने वाला यंत्र) से जुड़ी होती है जो एक सर्किट के माध्यम से विद्युत धारा के प्रवाह की दिशा को बदल देता है। जब बिजली के मोटर के कुंडलियों में विद्युत धारा की आपूर्ति की जाती है, चुंबकीय क्षेत्र की वजह से यह अपना मार्ग से विक्षेपित हो जाती है। जैसे ही यह अपना आधा रास्ता तय कर लेती है, कम्यूटेटर की तरह काम करने वाला स्पिल्ट रिंग विद्युत धारा के प्रवाह की दिशा को पलट देता है। विद्युत धारा की दिशा में परिवर्तन कुंडली  पर काम करने वाले बल की दिशा को बदल देता है। बलों की दिशा में परिवर्तन कुंडली को धक्का देता है और वह एक और बार आधा मुड़ जाता है। इस प्रकार, कुंडली एक धुरी पर अपना एक घूर्णन पूरा करती है। इस प्रक्रिया का लगातार होना मोटर को चालू रखता
तरंग (Waves)

 

प्रकाश व ध्वनि दोनों ही तरंग रूप में गमन करते  हैं। पदार्थ के अंतरण के बिना ही ऊर्जा के अंतरण (गमन) को तरंग गति कहते हैं। तरंग के इस रूप को जिसमें कणों की गति तरंग गति के लम्बवत् हो अनुप्रस्थ तरंग (Transverse wave) कहलाते हैं,। प्रकाश की तरंग अनुप्रस्थ तरंग होती है। जब किसी माध्यम में यांत्रिक तरंगें इस प्रकार चलती हैं कि माध्यम के कण तरंग के संचरण की दिशा में समांतर कंपन करते हैं तो ऐसी तरंगों को अनुदैध्र्य (longitudinal) तरंगें कहते हैं।
तरंग के उच्चतम व निम्नतम भागों को क्रमश: शीर्ष (crest) व गर्त (trough) कहते हैं। ‘A’ दूरी तरंग का आयाम (amplitude) होता है।
तरंग दैध्र्य (λ) तरंगों की अनुप्रस्थ तरंग के मामले में निकटवर्ती दो शीर्षों (अथवा गर्तों) के मध्य की दूरी अथवा अनुदैध्र्य तरंग के मामले में निकटवर्ती दो संपीडनों में (अथवा विरलनों) के मध्य की दूरी को व्यक्त करती है।
तरंग की आवृत्ति V (frequency) उन तरंगों की संख्या है जो किसी बिंदु से प्रति सेकेण्ड गुजरती हैं। आवृत्ति का मात्रक कंपन/सेकेण्ड अथवा हटज (Hz) है।
सभी प्रकार की तरंगों की गति के लिए समीकरण –
V = vλ (तरंग की आवृत्ति 1 तथा तरंग दैध्र्य द्य है)
विद्युतचुम्बकीय विकिरण
विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के संचरण के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं होती तथा ये तरंगें निर्वात (space) में भी संचरित हो सकती हैं। ये तरंगें चुम्बकीय एवं विद्युत क्षेत्रों के दोलन से उत्पन्न होने वाली अनुप्रस्थ तरंगें हैं। प्रकाश तरंगें, ऊष्मीय विकिरण, एक्स किरणें, रेडियो तरंगें आदि विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के उदाहरण हैं। इन तरंगों का तरंग दैध्र्य परास (wave length) काफी विस्तृत होता है। इनका परास 10-14 मी. से लेकर 104 मी. तक होता है।
विद्युतचुम्बकीय स्पेक्ट्रम
सूर्य के प्रकाश में स्पेक्ट्रम में लाल रंग से लेकर बैंगनी रंग तक दिखाई पड़ते हैं। सूर्य के प्रकाश व स्पेक्ट्रम का विस्तार लाल रंग के ऊपर तथा बैंगनी रंग के नीचे भी होता है जिसे अदृश्य स्पेक्ट्रम (invisble spectrum) कहते हैं। लाल रंग के ऊपर बड़ी तरंग दैध्र्य वाले भाग को अवरक्त स्पेक्ट्रम (infrared spectrum) तथा बैंगनी रंग से नीचे छोटी तरंग दैध्र्य वाले भाग को पराबैंगनी स्पेक्ट्रम (Ultra violet spectrum) कहते हैं।
ध्वनि तरंगे
ध्वनि एक स्थान से दूसरे स्थान तक तरंगों के रूप में गमन करती है।  ध्वनि तरंगें अनुदैध्र्य यांत्रिक तरंगें होती हैं। ध्वनि तरंगें ध्रुवित (Polarised) नहीं हो सकती हैं। ध्वनि तरंगों के गमन के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है। इन तरंगों में व्यतिकरण (interference) होता है।
ध्वनि तरंगों का आवृत्ति परास

  • शृव्य तरंगें (audible waves) –ये यांत्रिक तरंगें हैं जिनकी आवृत्ति का परास 20 हत्जर् से लेकर 20,000 हत्जर तक होता है। इन तरंगों को हम सुन सकते हैं।
  • अवशृव्य तरंगें (Infrasonic waves)-ये यांत्रिक तरंगें है जिनकी आवृत्ति 20 हत्जर् से कम होती है। ये तरंगें हमें सुनाई नहीं देती है।
  • पराशृव्य तरंगें (Ultrasonic waves)-वे अनुदैध्र्य यांत्रिक तरंगें हैं, जिनकी आवृत्ति 20,000 हत्जर् से अधिक होती है। मनुष्य के कान इन्हें नहीं सुन सकते हैं।

 

ध्वनियों के लक्षण
ध्वनियों के मुख्यत: तीन लक्षण होते हैं-

  • तीव्रता (Intensity)– तीव्रता ध्वनि का वह लक्षण है, जिसके कारण हमें कोई ध्वनि धीमी अथवा तेज सुनाई देता है।
  • तारत्व (pitch) –तारत्व ध्वनि का वह लक्षण है, जिसके कारण हम ध्वनि को मोटी या पतली कहते हैं।
  • गुणवत्ता (Quality)-गुणवत्ता ध्वनि का वह लक्षण है, जो समान तीव्रता व समान आवृत्तियों  की ध्वनियों में अंतर स्पष्टï करता है।

 

भौतिक राशियाँ, मानक एवं मात्रक
भौतिक संबंधी नियमों को- समय, बल, ताप, घनत्व जैसी तथा अन्य अनेक भौतिक राशियों के संबंध सूत्रों के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। सभी भौतिक राशियों को सामान्यत: मूल (लंबाई, द्रव्यमान व समय) एवं व्युत्पन्न (गति, क्षेत्रफल, घनत्व इत्यादि) राशियों में बाँटा जा सकता है।
भौतिक राशियों को को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है:

(1) अदिश (Scalar) (इनमें केवल परिमाण होता है) राशियाँ

(2) सदिश (vector) (इनमें परिमाण व दिशा दोनों होते हैं) राशियाँ।

 

लंबाई का मात्रक
भार व माप का सामान्य सम्मेलन (General Conferences of Weight & Measures) ने 1893 में मीटर को पुन: परिभाषित किया, जिसके अनुसार यह प्रकाश द्वारा 1/299792458 सेकेंड में तय की गई दूरी है।

  1. किमी = 1000 मी., 1 सेमी. = 10-2मी.,

1 मिमी. = 10-3 मी.
1 प्रकाश वर्ष = 9.46&1015 मी.
द्रव्यमान का मात्रक
मानक किग्रा. प्लेटिनम-इरीडियम मिश्रधातु के विशेष ठोस बेलन का द्रव्यमान है, यह बेलन सेवेर्स, फ्रांस में रखा है।
1 टन = 103 किग्रा. 1 ग्रा. = 10-3 किग्रा.,

1 मिमी. = 10-6 किग्रा.
समय का मात्रक
समय का मात्रक सेकेंड है। सेकेंड को 1967 में गैसीय सीजियम परमाणुओं में ऊर्जा परिवर्तन पर आधारित परमाणु-घड़ी के अनुसार पुन: परिभाषित किया गया।
बल विज्ञान (Mechanics) 
पिंडों की गति का अध्ययन ही बल-विज्ञान है।
गति
यह यांत्रिक गति दो प्रकार की होती है- स्थानांतरण (Linear) एवं घूर्णन (Rotational) ।
चाल
किसी गतिशील वस्तु की चाल, वस्तु द्वारा दूरी तय करने की दर होती है-

वेग
किसी वस्तु द्वारा इकाई समय में निर्दिष्टï दिशा में तय की गई दूरी को वेग कहते हैं।

गुरुत्वीय त्वरण
गुरुत्व के कारण होने वाला त्वरण सबसे सामान्य है। पृथ्वी की सतह पर गुरुत्वीय त्वरण का मान लगभग 9.8 मी./से.2 होता है।
बल
बल किसी वस्तु की विरामावस्था या एक समान गति से सीधी रेखा में चलने की अवस्था में परिवर्तन करता है।

  • गुरुत्वाकर्षण बलजो बल हमें पृथ्वी की ओर खींचे रखता है, इस बल को गुरुत्वाकर्षण बल कहते है।  किन्हीं दो वस्तुओं के मध्य परस्पर गुरुत्वाकर्षण कार्यरत होता है।

न्यूटन का सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नियम इसके अनुसार, ब्रह्मïांड का प्रत्येक कण अन्य कणों में प्रत्येक को अपनी ओर एक बल से आकर्षित करता है, इस गुरुत्वाकर्षण बल का समीकरण सूत्र,

    F= G[(m1m2)/r2]

जहाँ कणों के मध्य दूरी ह्म् तथा कणों के द्रव्यमान द्व१ व द्व२ हैं, त्र सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण स्थिरांक है जिसका मान ६.६६&१०-११ है।

  • अभिकेन्द्र बलकिसी वस्तु को वृत्तीय गति में बनाए रखने के लिए उस पर एक बल वृत्त के केंद्र की ओर कार्य करता है। यह अभिकेंद्र बल कहलाता है। और इसी बल की वजह से वस्तु की गति की दिशा में निरंतर परिवर्तन होने से वह वृत्तीय गति में आती है।
  • अपकेंद्री बलवृत्तीय गति में घूमती वस्तु पर कल्पित बल कार्य करने लगता है, जो अपकेन्द्री बल कहलाता है।

 

भार
किसी वस्तु का भार वह बल है जो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण उस पर लगता है तथा पृथ्वी के केंद्र की ओर कार्यरत होता है।।  जबकि द्रव्यमान वस्तु में निहित पदार्थ  की मात्रा का माप है। जब हम कहते हैं कि एक व्यक्ति का वजन 60 किग्रा. है तो वास्तव में हम उसका द्रव्यमान बताते हैं न कि भार।
घर्षण
घर्षण वह बल है जो परस्पर स्पर्श करती  दो सतहों के मध्य सापेक्ष गति के विपरीत कार्य करता है।
न्यूटन के गति सम्बंधी नियम
न्यूटन के गति संबंधी तीन नियमों में गति के मूलभूत सिद्धांत निहित हैं।

  • प्रथम नियम- प्रत्येक वस्तु अपनी विरामावस्था या समरूप गति में जब तक बनी रहती है जब तक उस पर कोई कार्य न करे।

चलती बस से नीचे उतरने पर आप को रुकने के पूर्व बस की दिशा में कुछ दूर तक दौडऩा पड़ता है। यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो आप आगे की ओर गिर सकते हैं, क्योंकि  सड़क के स्पर्श में आते ही आपके पैर स्थिर होना चाहते हैं और शरीर का ऊपरी भाग गति में बना रहना चाहता है।

  • द्वितीय नियम- इस नियम के अनुसार, ”किसी वस्तु के संवेग की परिवर्तन की दर लगाए गए बल के समानुपाती होती है और बल की दिशा में कार्य करती है।”

     F=ma

  • तृतीय नियम- इस नियम के अनुसार, ”प्रत्येक बल के लिए बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है।”

यदि कोई व्यक्ति दीवार पर घूंसा मारे तो दीवार पर लगा बल मु पर लगे बल के बराबर और विपरीत होता है।

 

 

कार्य, शक्ति एवं ऊर्जा
कार्य साधारण बोलचाल में कार्य का अर्थ है कि शारीरिक अथवा मानसिक क्रिया। जब बल लगने पर वस्तु में गति (विस्थापन) हो तो बल द्वारा कार्य किया जाता है और बल व बल की दिशा में विस्थापन का गुणनफल कार्य को व्यक्त करता है।
कार्य = बल & बल की दिशा में चली गई दूरी।
  W = F x d (कार्य का मात्रक जूल है)
शक्ति कार्य करने की दर को शक्ति कहते हैं,

P =w/t (शक्ति का मात्रक वाट (w) है
ऊर्जा कार्य करने की कुल क्षमता को ऊर्जा कहते हैं। ऊर्जा का मात्रक जूल ही है।  यांत्रिक ऊर्जा दो प्रकार की होती है- गतिज (्यद्बठ्ठद्गह्लद्बष्) और स्थितिज (क्कशह्लद्गठ्ठह्लद्बड्डद्य) ऊर्जा।

  • गतिज ऊर्जावस्तु की गति से उत्पन्न ऊर्जा, गतिज ऊर्जा कहलाती है तथा इसका समीकरण है –

गतिज ऊर्जा (KE) = 1/2 mv2
जहाँ वस्तु का द्रव्यमान द्व तथा उसका वेग 1 है। गतिमान बंदूक की गोली अथवा गतिमान पत्थर के टुकड़े में गतिज ऊर्जा होती है।

  • स्थितिज ऊर्जाकिसी वस्तु की अपनी स्थिति (बल क्षेत्र में) के कारण जो ऊर्जा होती है वह स्थितिज ऊर्जा कहलाती है। इसका समीकरण सूत्र है-

PE = mgh (जहाँ m वस्तु का द्रव्यमान, g गुरुत्वीय त्वरण तथा h पृथ्वी की सतह से वस्तु की ऊँचाई है )।
स्थितिज ऊर्जा के अनेक उदाहरण हैं- पृथ्वी की सतह से कुछ ऊँचाई पर पकड़कर रखा गया पत्थर।
दाब
प्रति इकाई क्षेत्रफल पर लगे बल को दाब कहते हैं।

दाब का मात्रक न्यूटन प्रति वर्ग मी. अथवा पास्कल है।

  • वायुमंडलीय दाबपृथ्वी के  चारों ओर काफी ऊँचाई तक वायु है जिसे वायुमंडल कहते हैं। वायु का भार होता है अत: यह पृथ्वी की सतह पर ही नहीं, बल्कि पृथ्वी पर स्थित सभी वस्तुओं पर दाब डालती है। वास्तव में, मानव एवं समुद्र की वायुमंडलीय दाब को वायुदाबमापी (barometer) द्वारा मापा जाता है।

 

ऊर्जा संरक्षण (Energy Conversation) 
ऊर्जा को न तो समाप्त तथा न ही उत्पन्न किया जा सकता है, बल्कि  इसे एक से दूसरे रूप में रूपांतरित किया जा सकता है और इस प्रकार कुल ऊर्जा एक समान संरक्षित बनी रहती है।
गुरुत्व केंद्र किसी वस्तु का गुरुत्व केंद्र वह बिंदु होता है जिस पर वस्तु का संपूर्ण भार कार्य करता है अथवा केंद्रित होता है। गुरुत्व केंद्र वस्तु के वास्तविक पदार्थ के बाहर भी स्थित हो सकता है।
किसी वस्तु की स्थिरता उसके गुरुत्व केंद्र की स्थिति पर निर्भर करती है। नाव में बैठे यात्रियों को नदी में तैरती नाव में खड़े नहीं होने दिया जाता है, क्योंकि नाव का गुरुत्व केंद्र यात्रियों सहित नाव के आधार पर निकट बना रहता है और नाव स्थिर रहती है।
मशीन मशीन वह युक्ति (साधन) है जिसकी सहायता से किसी सुविधाजनक बिंदु पर कम बल लगाकर अन्य बिंदु पर लगे भारी बल (भार) को हटाया (संतुलित) जा सकता है।
कार्य निवेश (work input) = कार्य बहिर्वेश (work output)
मशीन की दक्षता मशीन द्वारा किए गए लाभदायक कार्य और निविष्टï कार्य (input work) के अनुपात को मशीन की दक्षता कहते हैं।  किसी भी मशीन की क्षमता हरदम 100 से कम ही होती है।
घनत्व किसी पदार्थ के इकाई आयतन के द्रव्यमान को घनत्व कहते हैं।

जल का घनत्व 1000 किग्रा./मी.3 है।
आपेक्षित घनत्व
किसी पदार्थ का आपेक्षिक घनत्व (RD) पदार्थ के घनत्व व जल के घनत्व के अनुपात द्वारा व्यक्त किया जाता है। इसका कोई मात्रक नहीं होता।
उत्प्लावन (Upthrust)
यदि लकड़ी के एक गुटके को जल की सतह से नीचे पकड़कर छोड़ दिया जाता है  तो हम देखते हैं कि वह तुरंत ही ऊपर सतह पर आ जाता है। इसका कारण यह है कि गुटके पर ऊपर की ओर जल के कारण एक बल कार्य करता है जिसे उत्प्लावन बल कहते हैं। द्रव की तरह गैसें भी वस्तु पर उत्प्लावन लगाती हैं।
आर्किमिडीज़ का सिद्धांतइस सिद्धांत के अनुसार, जब कोई वस्तु आंशिक रूप  से किसी द्रव में डूबी हो तो उस पर एक उत्प्लावन कार्य करता है जो वस्तु द्वारा हटाए गए द्रव के भार के बराबर होता है।
ऊष्मा
आंतरिक ऊर्जा पदार्थ के अणु निरंतर गति में होते हैं और इन अणुओं की कुल गतिज व स्थितिज ऊर्जा को पदार्थ की ‘आन्तरिक ऊर्जा’ कहते हैं। आंतरिक ऊर्जा जितनी अधिक होगी पदार्थ उतना ही अधिक गर्म होगा।
ताप ऊष्मा किसी वस्तु का ताप वह मात्रा है जिससे हमें यह ज्ञात होता है कि एक मानक वस्तु की अपेक्षा वह वस्तु कितनी गर्म अथवा ठंडी है। ताप को तापमापी (Thermometer) से मापा जाता है। तापमापी के विïिवध  प्रकार हैं, किंतु सामान्य प्रचलन में काँच की नली में भरे पारे के बने तापमापी में पारे के प्रसार व संकुचन से ताप का मापन किया जाता है।
तापमापी के पैमाने का निर्धारण उसका शून्यांक शुद्ध बर्फ के गलनांक को शून्य मानकर तथा पारे के 760 मिमी के मानक वायुमंडलीय दाब पर उबलते जल से निकलती भाप के ताप को 100 का अंशाकार मानकर, करते हैं। शून्य व 100 बराबर अंशों में विभक्त कर प्रत्येक अंश को एक अंश (डिग्री) मान लेते हैं। इस प्रकार प्राप्त पैमाना सैल्सियस पैमाना कहलाता है तथा इस पर ताप को अंश (oC) से व्यक्त करते हैं।

फारेनहाइट पैमाने में 0oC को 32o तथा 100oC में 212o अंशांकित किया जाता है। फारेनहाइट से सेल्सियस में ताप गणना के लिए संबंध सूत्र निम्न हैं-
tc = 5/9(tF – 32)
tc व tF क्रमश: सेल्सियस व फारेनहाइट पैमाने पर संगत ताप हैं।
ऊष्मीय प्रसार ठोसों, द्रवों व गैसों को गर्म करने पर सामान्यतया उनमें प्रसार और ठंडा करने पर संकुचन होता है।
प्रसारणीयता (Expansivity) – किसी 1 मी. लम्बी लोहे की छड़ को  1oC गर्म करें तो उसकी लंबाई में 0.000012 मी. की वृद्धि होगी। इसलिए हम कह सकते हैं कि लोहे की रेखीय-प्रसरणीयता 0.000012/oC है।

जल का अंसगत प्रसार (anomalous) 
जल में असंगत रूप से प्रसार होता है। जल के असंगत प्रसार की वजह से ही जल में रहने वाले जीव-जंतु बहुत ठंडे मौसम में जीवित रह जाते हैं।
ऊष्मा-संचरण
ऊष्मा का संचरण निम्नलिखित तीन प्रकार से होता है-

  • चालनलोहे की एक छड़ को एक सिरे से पकड़ कर दूसरे को गर्म करें तो हम पाते हैं कि कुछ समय बाद हाथ से पकड़ा सिरा भी इतना ही गर्म हो जाता है। ऊष्मा छड़ के एक सिरे से प्रवेश कर धीरे-धीरे दूसरे तक संचरित हो पूरी छड़ को गर्म कर देती है। ऊष्मा संचरण की यह प्रक्रिया चालन कहलाती है। यह मुख्यत: ठोसों में संभव है।
  • संवहन द्रवों व गैसों में ऊष्मा संवहन (convection) द्वारा संचरित होती है। इस प्रक्रिया में ऊष्मा एक स्थान से दूसरे तक, द्रव व गैसों के अपने गमन द्वारा संचरित होती है। इसलिए गर्म द्रव कम घनत्व का हो जाने के कारण ऊपर उठता है तथा उसके स्थान पर ऊपर का ठंडा द्रव नीचे की ओर आ  जाता है। इस प्रकार ‘संवहन धाराएंÓ बन जाती हैं और समस्त द्रव एक सामान ताप पर गर्म हो जाता है।
  • विकिरणचालन व संवहन द्वारा ऊष्मा संचरण हेतु पदार्थ रूपी माध्यम की आवश्यकता होती है। विकिरण में ऊष्मा संचरण के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं होती। सूर्य से विकिरण ऊष्मा विद्युत-चुंबकीय तरंगों के रूप से निर्वात (vaccum) से होकर सीधे पृथ्वी पर पहुँचता है।

न्यूटन का शीतलन नियम
इस नियम के अनुसार, किसी वस्तु द्वारा ऊष्मा हानि की दर वस्तु व उसके चारों ओर के ताप के अंतर के समानुपाती होती है। उदाहरणस्वरूप, गर्म जल 40oC से 30oC तक ठंडा होने की अपेक्षा 90oC से 80oC तक ठंडा होने में बहुत कम समय लेता है।
ऊष्मा धारिता एवं विशिष्टï ऊष्माधारिता
किसी वस्तु की ऊष्माधारिता (heat capacity) ऊष्मा की वह मात्रा है जो वस्तु के ताप में 1oK की वृद्धि कर सके।
वस्तु की विशिष्टï ऊष्माधारिता ऊष्मा की वह मात्रा है जो उसके 1 किलोग्राम द्रव्यमान के ताप में 1oK की वृद्धि कर सके।
अवस्था में परिवर्तन -5oC ताप के बर्फ के एक टुकड़े को गर्म करने पर उसका तापमान धीरे-धीरे 0oC तक बढ़ता है तत्पश्चात् 0oC पर स्थिर हो जाता है, किंतु अब यह पानी में पिघलने लगता है। जब तक यह पूर्णत: पानी में नहीं परिवर्तित होता ऊष्मा तो लेता है किंतु इसके ताप (0oC) में कोई परिवर्तन नहीं होता। इस प्रक्रिया में यह पाया जाता है कि 1 किग्रा. बर्फ से ०शष्ट के स्थिर ताप पर पूर्णत: जल में परिवर्तन करने हेतु 336000J ऊष्मा की आवश्यकता होती  है। इसे बर्फ के गलनांक की विशिष्टï गुप्त ऊष्मा कहते हैं। वह ऊष्मा जो किसी पदार्थ के इकाई द्रव्यमान को बिना ताप परिवर्तन के (क्वथनांक पर) द्रव से वाष्प अवस्था में परिवर्तित कर दे, पदार्थ के वाष्पन की विशिष्टï गुप्त ऊष्मा कहलाती है।

आपेक्षिक आद्र्रता
वायु के  एक ज्ञात आयतन में वर्तमान जल वाष्प की मात्रा तथा उसी ताप पर उतनी ही वायु को संतृप्त करने के लिए आवश्यक जल-वाष्प की मात्रा के अनुपात को वायु की आपेक्षिक आद्र्रता (relative humidity) कहते हैं।