कला एवं संस्कृति
पश्चिमी स्थापत्य एवं मूर्तिकला
ग्रीक स्थापत्य व मूर्तिकला–
ग्रीक संस्कृति की सबसे खास बात यह थी कि कला व संस्कृति में उसकी दृष्टि काफी हद तक लौकिक थी। उनकी इसी सोच का पूरी तरह से प्रभाव उनके स्थापत्य व मूर्तिकला में परिलक्षित होता है। ग्रीक संस्कृति पर कई बाहरी शक्तियों की सोच का भी पूरा असर था। लगभग 1000 ई.पू. के आसपास ग्रीस पर उत्तर से डोरियन और पूर्व से अयोनियन लोगों ने आक्रमण किया। इन दोनों शक्तियों ने ग्रीक संस्कृति को काफी कुछ सिखाया। डोरियन अपने साथ जहाँ लकड़ी के भवन निर्माण की कला लाये, वहीं अयोनियन अपने साथ अलंकारमय नक्काशी लाये। यह वह काल था जब एथेंस सबसे प्रभावशाली सिटी-स्टेट था। इसी काल में भवन निर्माण में शहतीर का प्रयोग होने लगा। एथेंस का एक्रोपोलिस इस बात का सबसे प्रमुख उदाहरण है। इस भवन का उपयोग प्रशासनिक व धार्मिक कार्र्यों को सम्पन्न करने के लिए किया जाता था।
चौथी शताब्दी ई.पू. के आसपास ग्रीक स्थापत्य व मूर्तिकला ने एक नई शैली कोरिन्थियन को जन्म दिया। यह एक ऐसी शैली थी जिसमें अलंकरण पर काफी ज्यादा जोर दिया जाता था। ग्रीक कलाकारों ने मूर्तिकला में भी अपने हुनर को दिखाया और देवी-देवताओं, नायकों, नायिकाओं आदि की सुंदर मूर्तियों का निर्माण किया। ग्रीक मूर्तिकला की सबसे खास बात मूर्तियों की लौकिकता है। शरीर की आकृतियों को अत्यंत बलिष्ठ और यथार्थ रूप में दिखाने की कोशिश की जाती थी।
रोमन शैली–
प्राचीनकाल में रोमन साम्राज्य काफी विशाल था। इस साम्राज्य की विशालता की झलक उसके विशाल भवनों में देखा जा सकता है। रोमन वास्तुशिल्पियों ने सर्वप्रथम चापाकार निर्माण अद्र्ध वृत्ताकार मेहराब का प्रयोग किया। इसका विकास लंबी मेहराब, अनुप्रस्थ मेहराब और गुंबद में हुआ।
रोमन वास्तुशिल्पियों ने मंदिरों और महलों, सार्वजनिक स्नानागारों और व्यायामशालाओं, सर्कसों व वृत्ताकार रंगशालाओं, सड़कों, सेतुओं और सीवर प्रणालियों का खूबसूरती व भव्यता के साथ निर्माण किया। रोमन वास्तु व स्थापत्य की एक खास बात गिरिजाघरों का निर्माण था। गिरिजाघरों का निर्माण सम्राट कांस्टेन्टाइन ने चौथी शताब्दी में शुरु करवाया जब उसने ईसाई धर्म को अपनाया। इसके लिए बेसेलिका को आदर्श बनाया गया। रोमन साम्राज्य में यह एक व्यापारिक हाल हुआ करता था। इसकी एक मुख्य विशेषता एक लंबी, केेंद्रीय पिंडी हुआ करती थी जो दो निचली पीथिकाओं से घिरी रहती थी। आगे चलकर गिरिजाघरों की शैली इससे काफी हद तक प्रभावित हुई।
रोमन कलाकार मूर्तिकला में भी सिद्धहस्त थे। इस मामले में रोमन शैली काफी हद तक ग्रीक शैली से मिलती-जुलती थी। रोमन शैली में भी यथार्थवाद के दर्शन होते हैं। अधिकांश मूर्तियाँ अद्र्ध-प्रतिमाओं के रूप में और घुड़सवारों की हैं। मूर्तियों में शारीरिक चित्रण अत्यंत ही सुंदर है।
विश्व की भाषायें
दुनिया की कितनी भाषाएं हैं इसका उत्तर देना ठीक तरह से संभव नहीं है। एक अनुमान के अनुसार दुनिया में कुल भाषाओं की संख्या 6809 है, इनमें से 90 फीसदी भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 1 लाख से भी कम है। लगभग 200 से 150 भाषाएं ऐसी हैं जिनको 10 लाख से अधिक लोग बोलते हैं। लगभग 357 भाषाएं ऐसी हैं जिनको मात्र 50 लोग ही बोलते हैं। इतना ही नहीं 46 भाषाएं ऐसी भी हैं जिनको बोलने वालों की संख्या मात्र 1 है।
दुर्भाग्यवश संचार के माध्यमों में वृद्धि के साथ ही कई ऐसी छोटी भाषाएं हैं जो लुप्तप्राय हैं। इन भाषाओं के लुप्त होने के साथ ही इनके बोलने वालों की संस्कृति भी समाप्त हो जाएगी।
पारिवारिक वर्गीकरण
संस्कृत, ग्रीक, लेटिन आदि भाषाओं का अध्ययन करने पर यह मालूम होता है कि वे किसी एक ही मूल भाषा से निकली हैं। इसी आधार पर भाषाओं को परिवारों में बांटने का प्रयास किया जाता है। भाषा परिवारों के बारे में अलग-अलग विद्वानों की अलग-अलग राय है। भाषा परिवारों के नाम और उनमें शामिल प्रमुख भाषाएं इस प्रकार हैं-
भारोपीय परिवार
यह सर्वप्रमुख भाषा परिवार है जिसके बोलने वालों की संख्या विश्व में सबसे ज्यादा है। इस भाषा परिवार की प्रमुख भाषाएं संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, बंगाली, फारसी, ग्रीक, लेटिन, अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, पुर्तगाली, इतालवी इत्यादि हैं।
यूराल परिवार
इस परिवार की भाषाएं यूरोप में बोली जाती हैं। प्रमुख भाषाएं हंगेरियन, फिन्निश और मॉर्डिविन हैं।
अल्टाइक परिवार
इस भाषा परिवार की भाषाएं यूरोप (तुर्की), मध्य एशिया (उज्बेक), मंगोलिया (मंगोलियन), सुदूर पूर्व एशिया (कोरियाई, जापानी) इत्यादि में बोली जाती हैं।
चीनी परिवार
यह एशिया का प्रमुख भाषा परिवार है जिसमें दुनिया की सबसे ज्यादा बोलने वाली भाषा मंदारिन (चीनी) शामिल है। इस परिवार की प्रमुख भाषाएं मंदारिन, तिब्बती या मोट, बर्मी, थाई, मैतेई, गारो, नागा, बोडो, नेबारी आदि हैं। यह सभी भाषाएं ध्वनि आधारित हैं।
मलय–पॉलीनेशियन परिवार
इस भाषा परिवार में लगभग 1000 भाषाएं शामिल हैं और ये भाषाएं मुख्य रूप से हिंद व प्रशांत महासागर और दक्षिण-पूर्व एशिया में बोली जाती हैं। इस भाषा परिवार की प्रमुख भाषाएं हैं- मलाया, इंडोनेशियाई, माओरी, फिजियन, हवाइयन इत्यादि।
अफ्रीकी–एशियाई परिवार
इस भाषा परिवार में उत्तरी अफ्रीका और मध्य-पूर्व की भाषाएं शामिल हैं। मुख्य भाषाओं में अरबी और हिब्रू शामिल हैं।
कॉकेशियाई परिवार
इस परिवार की भाषाएं मुख्य रूप से काला सागर और कैस्पियन सागर के बीच स्थित देशों के लोगों द्वारा बोली जाती हैं। जॉर्जियाई और चेचेन इस परिवार की मुख्य भाषाएं हैं।
द्रविड़ परिवार
इस भाषा परिवार की भाषाएं भारत के दक्षिणी राज्यों में बोली जाती हैं। तमिल, कन्नड़, तेलुगू इस भाषा परिवार की प्रमुख भाषाएं हैं।
ऑस्ट्रो–एशियाटिक परिवार
इस परिवार की भाषाएं एशिया में भारत के पूर्वी हिस्से से लेकर वियतनाम तक बोली जाती हैं। प्रमुख भाषाओं में वियतनामी और ख्मेर शामिल हैं।
नाइजर–कांगो परिवार
इस भाषा परिवार की भाषाएं दक्षिणी सहारा के इलाके में बोली जाती हैं। प्रमुख भाषाओं में स्वाहिली, शोना, झोसा और जुलु शामिल हैं।
अमेरिका परिवार
इस भाषा परिवार में उत्तरी अमेरिका, मध्य अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, ग्रीनलैंड इत्यादि की भाषाएं शामिल हैं। प्रमुख भाषाओं में एस्किमो (ग्रीनलैंड), अथबस्कन (कनाडा और सं. रा. अमेरिका), नहुअव्ल (मैक्सिको), करीब, चेरोकी (पनामा के पूर्व में), गुआर्नी अरबक, क्वाचुआ, नुत्का इत्यादि।
भारतीय भाषाएं
प्रसिद्ध भाषाविद ग्रियर्सन के अनुसार भारत में भाषाओं की संख्या 179 और बोलियों की संख्या 544 है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में कुल भाषाओं की संख्या 418 है, जिनमें 407 जीवित भाषाएं हैं जबकि 11 लुप्त हो चुकी हैं।
भारत का संविधान अपनी 8वीं अनुसूची में 18 भाषाओं को मान्यता देता है। देवनागरी लिपि में हिन्दी भारतीय संघ की भाषा है जबकि विभिन्न प्रदेशों की अपनी-अपनी सरकारी भाषाएं हैं। अंग्रेजी भारतीय संघ की दूसरी राजभाषा है। अंग्रेजी का प्रयोग केेंद्र सरकार गैर-हिंदी भाषी राज्यों के साथ संवाद में करती है। अंग्रेजी नागालैंड और मेघालय की राजभाषा है। भारत का संविधान 22 भाषाओं को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देता है जो पूरे देश में बोली जाती हैं।
हिंदी और अंग्रेजी के अतिरिक्त भारत का संविधान 21 अन्य भाषाओं को मान्यता प्रदान करता है।
भाषा | राज्य की राजभाषा |
असमी | असम |
बंगाली | त्रिपुरा व पश्चिम बंगाल |
बोडो | असम |
डोगरी | जम्मू व कश्मीर |
गुजराती | दादरा व नागरहवेली, दमन व दीव, गुजरात |
कन्नड़ | कर्नाटक |
कश्मीरी | जम्मू-कश्मीर |
कोंकणी | गोवा |
मलयालम | केरल, लक्षद्वीप व पुदुचेरी |
मैथिली | बिहार |
मणिपुरी | मणिपुर |
मराठी | महाराष्ट्र |
नेपाली | सिक्किम |
उडिय़ा | उड़ीसा |
पंजाबी | पंजाब व चंडीगढ |
संस्कृत | यह किसी राज्य की भाषा नहींहै |
संथाली | छोटानागपुर पठार के संथालों की भाषा (किसीराज्य की राजभाषा नहीं) |
सिंधी | सिंधी समुदाय की भाषा |
तमिल | तमिलनाडु व पुदुचेरी |
तेलुगू | आंध्र प्रदेश |
उर्दू | जम्मू-कश्मीर, आंध्र प्रदेश, दिल्ली व उत्तर प्रदेश |
भाषाई दृष्टिकोण से भारत में काफी विविधता है। भारतीय भाषाओं का उद्भव व विकास अलग-अलग तरीके से हुआ है और वे भारतीय के विभिन्न जातीय समूहों से संबंधित हैं। भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी है। देश की कुल जनसंख्या का 73 फीसदी भारोपीय परिवार की, 25 फीसदी द्रविड़ परिवार की, 1.3 फीसदी आस्ट्रिक परिवार की तथा मात्र 0.7 फीसदी भाग चीनी-तिब्बत परिवार की भाषाएं बोलता है।
भारतीय भाषाओं को मुख्य रूप से चार परिवारों में वर्गीकृत किया जाता है-
(1) इंडो-यूरोपीय या भारोपीय परिवार
(2) द्रविड़ परिवार
(3)आस्ट्रिक परिवार व
(4) चीनी-तिब्बती परिवार।
भारोपीय और द्रविड़ परिवार देश के प्रमुख भाषा परिवार हैं।
भारोपीय परिवार
यह भारतीय भाषाओं में सबसे महत्वपूर्ण भाषा परिवार है और देश की प्रमुख भाषाएं हिंदी, बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी, असमी, उडिय़ा, कश्मीरी, उर्दू, मैथिली और संस्कृत इसमें शामिल हैं।
द्रविड़ परिवार
यह देश का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण भाषा परिवार है जिसमें दक्षिण भारत में बोली जाने वाली लगभग सभी भाषाएं शामिल हैं। द्रविड़ भाषाएं काफी प्राचीन हैं। इस भाषा परिवार की भाषाओं का देश के बाहर की भाषाओं से कोई संबंध नहीं है। रूसी भाषाशास्त्री एस. एस. एंद्रोनोव के अनुसार प्रोटो-द्रविड़ से 21 द्रविड़ भाषाओं की उत्पत्ति हुई। इस भाषा परिवार को तीन भागों- दक्षिणी द्रविड़ वर्ग, मध्य द्रविड़ वर्ग व उत्तरी द्रविड़ वर्ग में विभाजित किया जाता है। इस परिवार की सात मुख्य भाषाएं- कन्नड़, तमिल, मलयालम, तुलु, कोडागू, तोडा और कोटा हैं।
चीनी–तिब्बत परिवार
इस भाषा परिवार के बोलने वाले उत्तरी बिहार, उत्तरी बंगाल और असम में पाये जाते हैं। इन भाषाओं को भारोपीय परिवार की भाषाओं से अधिक पुराना माना जाता है और इनके बोलने वालों को प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में किरात के नाम से जाना जाता था।
इस समूह की भाषाओं को तीन शाखाओं में विभाजित किया जाता है-
(1) तिब्बती हिमालय,
(2) उत्तरी असम तथा
(3) असमी-म्यांमारी।
तिब्बती-हिमालयी भाषाओं को दो वर्र्गों में विभाजित किया गया है-
(1) भोटिया वर्ग तथा
(2) हिमालय वर्ग।
भोटिया वर्ग की भाषाओं में तिब्बती, बाल्ती, लद्दाखी, लाहूली, शेरपा, सिक्किमी-भोटिया आदि भाषाएं शामिल हैं। हिमालय वर्ग में चम्बा, लाहौली, किन्नौरी और लेप्चा भाषाएं आती हैं। उत्तरी असमी वर्ग में 6 बोलियां शामिल हैं-
अका, डफला, मिरी, अबोर, मिश्मी तथा मिशिंग। असमी-म्यांमारी वर्ग की भाषाओं को पांच उपवर्र्गों में विभाजित किया जाता है- बोडो, नागा, कचिन, कुकिचिन और म्यांमारी-बर्मी।
ऑस्ट्रिक परिवार
ऑस्ट्रिक भाषा परिवार का विकास भूमध्य सागर से आये हुए निवासियों द्वारा हुआ। ऑस्ट्रिक भाषाएं मध्य और पूर्वी भारत के पहाड़ी व वन इलाकों में बोली जाती हैं। ये काफी प्राचीन भाषाएं हैं और इनको बोलने वालों को प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में निषाद कहा जाता था। इस भाषा परिवार की सबसे महत्वपूर्ण भाषा संथाली है जिसे लगभग 50 लाख संथाल बोलते हैं। मुंडा जनजाति द्वारा बोली जाने वाली मुंदरी दूसरी सबसे महत्वपूर्ण भाषा है।
अन्य भाषाएं
गोंडी, ओरांव, मल-पहाडिय़ा, खोंड और पारजी जैसी कुछ आदिवासी भाषाएं हैं जो अपने-आप में अनूठी हैं और इन्हें किसी भाषा परिवार के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है।
राजभाषा
केद्र सरकार अपने कार्र्यों के निष्पादन के लिए दो भाषाओं का इस्तेमाल करती है:
1. हिंदी भाषी राज्यों के साथ संवाद में केेंद्र सरकार हिंदी का प्रयोग करती है। हिंदी अरुणाचल प्रदेश, अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह, बिहार, चंडीगढ, छत्तीसगढ, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल राज्यों की भी राजभाषा है।
भारतीय चित्रकला
भारतीय चित्रकारी के प्रारंभिक उदाहरण प्रागैतिहासिक काल के हैं, जब मानव गुफाओं की दीवारों पर चित्रकारी किया करता था। भीमबेटका की गुफाओं में की गई चित्रकारी 5500 ई.पू. से भी ज्यादा पुरानी है। 7वीं शताब्दी में अजंता और एलोरा गुफाओं की चित्रकारी भारतीय चित्रकारी का सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
भारतीय चित्रकारी में भारतीय संस्कृति की भांति ही प्राचीनकाल से लेकर आज तक एक विशेष प्रकार की एकता के दर्शन होते हैं। प्राचीन व मध्यकाल के दौरान भारतीय चित्रकारी मुख्य रूप से धार्मिक भावना से प्रेरित थी, लेकिन आधुनिक काल तक आते-आते यह काफी हद तक लौकिक जीवन का निरुपण करती है। आज भारतीय चित्रकारी लोकजीवन के विषय उठाकर उन्हें मूर्त कर रही है।
भारतीय चित्रकारी की शैलियां
भारतीय चित्रकारी को मोटे तौर पर भित्ति चित्र व लघु चित्रकारी में विभाजित किया जा सकता है। भित्ति चित्र गुफाओं की दीवारों पर की जाने वाली चित्रकारी को कहते हैं, उदाहरण के लिए अजंता की गुफाओं व एलोरा के कैलाशनाथ मंदिर का नाम लिया जा सकता है। दक्षिण भारत के बादामी व सित्तानवसाल में भी भित्ति चित्रों के सुंदर उदाहरण पाये गये हैं। लघु चित्रकारी कागज या कपड़े पर छोटे स्तर पर की जाती है। बंगाल के पाल शासकों को लघु चित्रकारी की शुरुआत का श्रेय दिया जाता है।
अजंता की गुफाएं
इन गुफाओं का निर्माणकार्य लगभग 1000 वर्र्षों तक चला। अधिकांश गुफाओं का निर्माण गुप्तकाल में हुआ। अजंता की गुफाएं बौद्ध धर्म की महायान शाखा से संबंधित हैं।
एलोरा की गुफाएं
हिंदू गुफाओं में सबसे प्रमुख आठवीं सदी का कैलाश मंदिर है। इसके अतिरिक्त इसमें जैन व बौद्ध गुफाएं भी हैं।
बाघ व एलीफेटा की गुफाएं
बाघ की गुफाओं के विषय लौकिक जीवन से सम्बन्धित हैं। यहां से प्राप्त संगीत एवं नृत्य के चित्र अत्यधिक आकर्षक हैं।
हाथी की मूर्ति होने की वजह से पुर्तगालियों ने इसका नामकरण एलीफेन्टा किया।
जैन शैली
इसके केद्र राजस्थान, गुजरात और मालवा थे। देश में जैन शैली में ही सर्वप्रथम ताड़ पत्रों के स्थान पर चित्रकारी के लिए कागज का प्रयोग किया गया। इस कला शैली में जैन तीर्र्थंकरों के चित्र बनाये जाते थे। इस शैली पर फारसी शैली का भी प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। नासिरशाह (1500-1510 ई.) के शासनकाल में मांडू में चित्रित नीयतनामा के साथ ही पांडुलिपि चित्रण में एक नया मोड़ आया।
पाल शैली
यह शैली 9-12वीं शताब्दी के मध्य बंगाल के पाल वंश के शासकों के शासनकाल के दौरान विकसित हुई। इस शैली की विषयवस्तु बौद्ध धर्म से प्रभावित थी। दृष्टांत शैली वाली इस चित्रकला शैली ने नेपाल और तिब्बत की चित्रकला को भी काफी प्रभावित किया।
मुगल शैली
मुगल चित्रकला शैली भारतीय, फारसी और मुस्लिम मिश्रण का विशिष्ट उदाहरण है। अकबर के शासनकाल में लघु चित्रकारी के क्षेत्र में भारत में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। उसके काल की एक उत्कृष्ट कृति हमजानामा है। मुगल चित्रकला नाटकीय कौशल और तूलिका के गहरेपन के लिए विख्यात है।
जहांगीर खुद भी एक अच्छा चित्रकार था। उसने अपने चित्रकारों को छविचित्रों व दरबारी दृश्यों को बनाने के लिए प्रोत्साहित किया। उस्ताद मंसूर, अब्दुल हसन और बिशनदास उसके दरबार के सबसे अच्छे चित्रकार थे। शाहजहां के काल में चित्रकारी के क्षेत्र में कोई ज्यादा कार्य नहीं हुआ, क्योंकि वह स्थापत्य व वास्तु कला में ज्यादा रुचि रखता था।
राजपूत चित्रकला शैली
राजपूत चित्रकला शैली का विकास 18वींशताब्दी के दौरान राजपूताना राज्यों के राजदरबार में हुआ। इन राज्यों में विशिष्ट प्रकार की चित्रकला शैली का विकास हुआ, हालांकि इनमें कुछ ऐसे समान तत्व हैं जिसकी वजह से इसका नामकरण राजपूत शैली किया गया। यह शैली विशुद्ध हिंदू परंपराओं पर आधारित है। इस शैली में रागमाला से संबंधित चित्र काफी महत्वपूर्ण हैं। इस शैली में मुख्यतया लघु चित्र ही बनाये गये। राजपूत चित्रकला की एक असाधारण विशेषता आकृतियों का विन्यास है। लघु आकृतियां भी स्पष्टत: चित्रित की गई हैं। इस शैली का विकास कई शाखाओं में हुआ-
- मालवा शैली:मालवा शैली अपने चमकीले और गहरे रंगों के कारण विशिष्ट है। मालवा शैली के रंगचित्रों की प्रमुख श्रृंखला रसिकप्रिया है।
- मेवाड़ शैली: मेवाड़ शैली में पृष्ठभूमि सामान्यत: बेलबूटेदार और वास्तुशिल्प से परिपूर्ण है।
- बीकानेर शैली:बीकानेरी शैली के अधिकांश कलाकार मुस्लिम थे। यह शैली अपने सूक्ष्म एवं मंद रंगाभास के लिए प्रसिद्ध है।
- बूंदी शैली:इस शैली में नारी सौंदर्य के चित्रण के लिए कुछ अपने मानदण्ड स्थापित किए गए।
- कोटा शैली:कोटा शैली काफी हद तक बूंदी शैली से मिलती-जुलती है। इस शैली में विरल वनों में सिंह और चीतों के शिकार के चित्र विश्वविख्यात हैं।
- आंबेर शैली:आंबेर शैली के रंगचित्र समृद्ध हैं और उनमें विषय वैविध्य भी है लेकिन इसमें सूक्ष्मता का अभाव है।
- किशनगढ़ शैली:उन्नत ललाट, चापाकार भौंहें, तीखी उन्नत नासिका, पतले संवेदनशील ओंठ तथा उन्नत चिबुक सहित नारी का चित्रण इस शैली का वैशिष्ट्य है।
- मारवाड़ शैली:इस शैली के रंगचित्रों में पगड़ी की कुछ विशेषताएं हैं। रंग-संयोजन में चमकीले रंगों का प्राधान्य है।
- पहाड़ी चित्रकला शैली:इस कला के चित्रित वृक्षों की बनावट पर नेपाली चित्रकला का व्यापक प्रभाव है। पहाड़ी चित्रकारों में कृष्ण गाथा अत्यंत लोकप्रिय है। बसौली शैली, गढ़वाल शैली, जम्मू शैली व कांगड़ा शैली पहाड़ी चित्रकला शैली की उप-शैलियां हैं।
बंगाल शैली
चित्रकारी की बंगाल शैली का विकास 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में ब्रिटिश राज के दौरान हुआ। यह भारतीय राष्ट्रवाद से प्रेरित शैली थी, लेकिन इसको कई कला प्रेमी ब्रिटिश प्रशासकों ने भी प्रोत्साहन दिया। रवींद्रनाथ टैगोर के भतीजे अवनींद्रनाथ टैगोर इस शैली के सबसे पहले चित्रकार थे। उन्होंने मुगल शैली से प्रभावित कई खूबसूरत चित्र बनाये। टैगोर की सबसे प्रसिद्ध कृति भारत-माता थी जिसमें भारत को एक हिंदू देवी के रूप में चित्रित किया गया था। 1920 के बाद भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ इस शैली का पतन हो गया।
आधुनिक प्रवृत्ति
औपनिवेशिक काल के दौरान भारतीय कला पर पश्चिमी प्रभाव पूरी तरह से पडऩे लगा था। इस काल के दौरान कई ऐसे चित्रकार हुए जिन्होंने पश्चिमी दृष्टिकोण और यथार्थवाद के वेश में भारतीय विषयों का सुंदर चित्रण किया। इसी दौरान जेमिनी रॉय जैसे कलाकार भी थे जिन्होंने लोककला से प्रेरणा ली।
भारतीय स्वतंत्रता के बाद प्रगतिशील कलाकारों ने स्वतंत्रोत्तर भारत की आकांक्षाओं को व्यक्त करने के लिए नये विषयों व माध्यमों को चुना। इस समूह के छह प्रमुख चित्रकारों में के.एच. आगा, एस. के. बकरे, एच. ए. गदे, एम. एफ. हुसैन, एस. एच. रजा और एफ. एन. सूजा शामिल थे। इस समूह को 1956 में भंग कर दिया गया लेकिन छोटे से ही समय में इसने भारतीय चित्रकला परिदृश्य को पूरी तरह से बदल दिया।
इस काल की एक प्रसिद्ध चित्रकार अमृता शेरगिल हैं जिन्होंने नवीन भारतीय शैली का सृजन किया। अन्य महान चित्रकारों में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और रवि वर्मा का नाम शामिल है। वर्तमान प्रसिद्ध चित्रकारों में बाल चाब्दा, वी. एस. गाईतोंडे, कृष्णन खन्ना, रामकुमार, तैयब मेहता और अकबर पदमसी शामिल हैं। जहर दासगुप्ता, प्रोदास करमाकर और बिजॉन चौधरी ने भी भारतीय कला व संस्कृति को समृद्ध बनाने में योगदान दिया है।
भारतीय नृत्य कला
हड़प्पा सभ्यता में नृत्य करती हुई लड़की की मूर्ति पाई गई है, जिससे साबित होता है कि इस काल में ही नृत्यकला का विकास हो चुका था। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र नृत्यकला का सबसे प्रथम व प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसको पंचवेद भी कहा जाता है।
नाट्यशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार नृत्य दो तरह का होता है- मार्गी (तांडव) तथा लास्य। तांडव नृत्य भगवान शंकर ने किया था। यह नृत्य अत्यंत पौरुष और शक्ति के साथ किया जाता है। दूसरी ओर लास्य एक कोमल नृत्य है जिसे भगवान कृष्ण गोपियों के साथ किया करते थे।
एक काल में भारत में नृत्य काफी प्रचलित थे। लेकिन 19वीं शताब्दी तक आते-आते इनका पूरी तरह से पराभाव हो गया। किंतु 20वीं शताब्दी में कई लोगों के प्रयास से नृत्यकला को पुनर्जीवन मिला।
भरतनाट्यम
भरत मुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित भरतनाट्यम अत्यंत परंपराबद्ध तथा शैलीनिष्ठ है। इस नृत्य शैली का विकास दक्षिण भारत के तमिलनाडु में हुआ। प्रारंभ में यह नृत्य मंदिरों में देवदासियों द्वारा किया जाता था, तब इसे आट्टम और सदिर करते थे। इसे वर्तमान रूप प्रदान करने का श्रेय तंजौर चतुष्टय अर्थात पौन्नैया,पिल्लै तथा उनके बंधुओं को है। 20वीं शताब्दी में इसे रवीन्द्रनाथ टैगोर, उदयशंकर और मेनका जैसे कलाकारों के संरक्षण में यह नाट्यकला पुनर्जीवित हो गई।
भरतनाट्यम में पैरों को लयबद्ध तरीके से जमीन में पटका जाता है, पैर घुटने से विशेष रूप से झुके होते हैं एवं हाथ, गर्दन और कंधे विशेष प्रकार से गतिमान होते हैं।
रुक्मिणी देवी अरुण्डेल भारत की सबसे पहली प्रख्यात नृत्यांगना हुई हैं। अन्य प्रमुख कलाकारों में यामिनी कृष्णमूर्ति, सोनल मानसिंह, मृणालिनी साराभाई, मालविका सरकार शामिल हैं।
कुचिपुड़ी
आंध्र प्रदेश के कुचेलपुरम नामक ग्राम में इस नृत्य शैली का उद्भव हुआ। यह शास्त्रीय नृत्य भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के नियमों का पालन करता है। इस शैली का विकास तीर्थ नारायण तथा सिद्धेन्द्र योगी ने किया। यह मूलत: पुरुषों का नृत्य है, पर इधर कुछ समय से महिलाओं ने भी इसे अपनाया है। इस नृत्य के लिए कर्नाटक संगीत का प्रयोग किया जाता है और इसका प्रदर्शन रात में होता है। कुचिपुड़ी के प्रमुख कलाकारों में वेदांतम सत्यनारायण, वेम्पत्ति चेन्नासत्यम, यामिनी कृष्णमूर्ति, राधा रेड्डी, राजा रेड्डी आदि शामिल हैं।
ओडिसी
भरतमुनि की नृत्य शैली पर आधारित इस शास्त्रीय नृत्य शैली का उद्भव व विकास दूसरी शताब्दी ई.पू. में उड़ीसा के राजा खारवेल के शासनकाल के दौरान हुआ। 12वीं शताब्दी के बाद वैष्णव धर्म से यह काफी प्रभावित हुई और जयदेव द्वारा रचित अष्टपदी इसका एक आवश्यक अंग बन गई।
ओडिसी में सबसे महत्वपूर्ण तत्व च्भंगीज् और च्कर्णज् होते हैं। इसमें विभिन्न शारीरिक भंगिमाओं में शरीर की साम्यावस्था का अत्यन्त महत्व होता है।
आधुनिककला में ओडिसी के पुनरुत्थान का श्रेय केलूचरण महापात्र को है। संयुक्ता पाणिग्राही, सोनल मानसिंह, मिनाती दास, प्रियवंदा मोहंती आदि ओडिसी की प्रसिद्ध नृत्यांगना हैं।
कत्थक
उत्तर भारत का यह शास्त्रीय नृत्य मूलत: भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित है। इसका उद्भव वैदिक युग से माना जाता है। बाद में मुस्लिम शासकों के दौरान यह नृत्य शैली मंदिरों से निकलकर राजदरबारों में पहुँच गई। जयपुर, बनारस, राजगढ़ तथा लखनऊ इसके मुख्य केेंद्र थे। लखनऊ के वाजिद अली शाह के काल में यह कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई।
यह अत्यंत नियमबद्ध एवं शुद्ध शास्त्रीय नृत्य शैली है, जिसमें पूरा ध्यान लय पर दिया जाता है। इस नृत्य में पैरों की थिरकन पर विशेष जोर दिया जाता है। इसके प्रसिद्ध कलाकार हैं- लच्छू महराज, शम्भू महराज, बिरजू महराज, सितारा देवी, गोपीकृष्ण, शोभना नारायण, मालविका सरकार इत्यादि।
कथकली
केरल राज्य में जन्मी यह नृत्य शैली भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित है। कथकली भी मंदिरों से जुड़ा नृत्य है और इसे मात्र पुरुष ही करते हैं।
कथकली नृत्य में गति अत्यन्त उत्साहपूर्ण और भड़कीली होती है। इसके साथ इसमें शारीरिक भाव-भंगिमाओं का विशेष महत्व होता है। नर्तक अत्यन्त आकर्षक श्रृंगार का प्रयोग करते हैं। कथाओं के पात्र देवता या दानव होते हैं। 20वीं शताब्दी में वल्लाठोल ने इसके पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कथकली के प्रख्यात कलाकारों में गोपीनाथ, रागिनी देवी, उदयशंकर, रुक्मिणी देवी अरुण्डेल, कृष्णा कुट्टी, माधवन आनंद, शिवरमण इत्यादि शामिल हैं।
मणिपुरी
15-16वीं शताब्दी में वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार की वजह से मणिपुर में इस नृत्य शैली का उद्भव व विकास हुआ। मणिपुरी के विषय मुख्यतया कृष्ण की रासलीला पर आधारित होते हैं। मणिपुरी की सबसे खास बात शरीर की अत्यन्त आकर्षक एवं मृदु गति होती है जो इसे एक विशिष्ट सौंदर्य प्रदान करती है।
1917 में रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा इस नृत्य को शांतिनिकेतन में प्रवेश दिलाने के बाद यह पूरे देश में लोकप्रिय हो गया। इसके प्रमुख कलाकार हैं- गुरु अमली सिंह, आतम्ब सिंह, झावेरी बहनें, थम्बल यामा, रीता देवी, गोपाल सिंह इत्यादि।
मोहिनी अट्टम
यह केरल राज्य में प्रचलित देवदासी परंपरा का नृत्य है। 19वीं सदी में भूतपूर्व त्रावणकोर के महाराजा स्वाति तिरुनाल ने इसे काफी प्रोत्साहन दिया। बाद में कवि वल्लाठोल ने इसका पुनरुत्थान किया। इस नृत्य के प्रमुख कलाकार हैं- कल्याणी अम्मा, भारती शिवाजी, हेमामालिनी इत्यादि।
कृष्णअट्टम
यह नृत्य शैली लगातार आठ रातों तक चलती है और इसमें भगवान कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन किया जाता है। यह केरल में प्रचलित है।
यक्षगान
कर्नाटक में प्रचलित यह मूल रूप से ग्रामीण प्रकृति का नृत्य नाटक है। हिंदू महाकाव्यों से संबंधित इस नृत्य शैली में विदूषक और सूत्रधार मुख्य भूमिका निभाते हैं।
भारतीय शास्त्रीय संगीत
भारतीय शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति वेदों से मानी जाती है। सामवेद में संगीत के बारे में गहराई से चर्चा की गई है। भारतीय शास्त्रीय संगीत गहरे तक आध्यात्मिकता से प्रभावित रहा है, इसलिए इसकी शुरुआत मनुष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के साधन के रूप में हुई। संगीत की महत्ता इस बात से भी स्पष्ट है कि भारतीय आचार्र्यों ने इसे पंचम वेद या गंधर्व वेद की संज्ञा दी है। भरत मुनि का नाट्यशास्त्र पहला ऐसा ग्रंथ था जिसमें नाटक, नृत्य और संगीत के मूल सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत को पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा जटिल व संपूर्ण संगीत प्रणाली माना जाता है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत की शैलियां
भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो प्रमुख शैलियां निम्नलिखित हैं-
हिंदुस्तानी शैली
हिंदुस्तानी शैली के प्रमुख विषय ऋंगार, प्रकृति और भक्ति हैं। तबलावादक हिंदुस्तानी संगीत में लय बनाये रखने में मदद देते हैं। तानपूरा एक अन्य वाद्ययंत्र है जिसे पूरे गायन के दौरान बजाय जाता है। अन्य वाद्ययंत्रों में सारंगी व हरमोनियम शामिल हैं। हिंदुस्तानी शैली पर काफी हद तक फारसी संगीत के वाद्ययंत्रों और शैली दोनों का ही प्रभाव है।
हिंदुस्तानी गायन शैली के प्रमुख रूप
- ध्रुपद:ध्रुपद गायन की प्राचीनतम एवं सर्वप्रमुख शैली है। ध्रुपद में ईश्वर व राजाओं का प्रशस्ति गान किया जाता है। इसमें बृजभाषा की प्रधानता होती है।
- खयाल:यह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की सबसे लोकप्रिय गायन शैली है। खयाल की विषयवस्तु राजस्तुति, नायिका वर्णन, श्रृंगार रस आदि होते हैं।
- धमार:धमार का गायन होली के अवसर पर होता है। इसमें प्राय: कृष्ण-गोपियों के होली खेलने का वर्णन होता है।
- ठुमरी:इसमें नियमों की अधिक जटिलता नहीं दिखाई देती है। यह एक भावप्रधान तथा चपल चाल वाला श्रृंगार प्रधान गीत है। इस शैली का जन्म अवध के नवाब वाजिद अली शाह के राज दरबार में हुआ था।
- टप्पा: टप्पा हिंदी मिश्रित पँजाबी भाषा का श्रृंगार प्रधान गीत है। यह गायन शैली चंचलता व लच्छेदार तान से युक्त होती है।
कर्नाटक शैली
कर्नाटक शास्त्रीय शैली में रागों का गायन अधिक तेज और हिंदुस्तानी शैली की तुलना में कम समय का होता है। त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री को कर्नाटक संगीत शैली की त्रिमूर्ति कहा जाता है, जबकि पुरंदर दास को अक्सर कर्नाटक शैली का पिता कहा जाता है। कर्नाटक शैली के विषयों में पूजा-अर्चना, मंदिरों का वर्णन, दार्शनिक चिंतन, नायक-नायिका वर्णन और देशभक्ति शामिल हैं।
कर्नाटक गायन शैली के प्रमुख रूप
- वर्णम:इसके तीन मुख्य भाग पल्लवी, अनुपल्लवी तथा मुक्तयीश्वर होते हैं। वास्तव में इसकी तुलना हिंदुस्तानी शैली के ठुमरी के साथ की जा सकती है।
- जावाली:यह प्रेम प्रधान गीतों की शैली है। भरतनाट्यम के साथ इसे विशेष रूप से गाया जाता है। इसकी गति काफी तेज होती है।
- तिल्लाना:उत्तरी भारत में प्रचलित तराना के समान ही कर्नाटक संगीत में तिल्लाना शैली होती है। यह भक्ति प्रधान गीतों की गायन शैली है।
गुफा स्थापत्य
भारत में सर्वप्रथम मानव निर्मित गुफाओं का निर्माण दूसरी शताब्दी ई.पू. के आसपास हुआ था।
अजंता की गुफा:
अजंता की गुफाएं महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित हैं। इनका सर्वप्रथम जिक्र चीनी तीर्थयात्री ह्वेन सांग ने भी किया था। 1819 ई. में इन गुफाओं को एक ब्रिटिश ऑफिसर ने खोजा था। अजंता की गुफाओं में की गई चित्रकारी भारतीय कला के इतिहास में अद्वितीय है। इन चित्रों में मुख्य रूप से भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं का चित्रण किया गया है।
ऐलीफेटा की गुफा: यह गुफाएं 6वीं शताब्दी की है। ऐलीफेेंटा का शिव मंदिर विशेष रूप से प्रसिद्ध है।
भीमबेटका गुफाएं:
भीमबेटका की गुफाएं मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित हैं। इनकी खोज 1958 में वी. एस. वाकेनकर ने की थी। इन्हें प्रागैतिहासिक कला का सबसे बड़ा स्थान माना जाता है।
कार्ला व भाजा गुफाएं:
पूणे से लगभग 60 किमी. दूर शैलकृत बौद्ध गुफाएं स्थित हैं जो पहली व दूसरे ई.पू. की हैं। इन गुफाओं में कई विहार व चैत्यों का निर्माण किया गया था।
राजपूतकालीन स्थापत्य कला:
राजपूत कला व स्थापत्य के संरक्षक थे। उनका यह प्रेम उनके किलों व महलों में पूरी तरह से दिखाई देता है। चित्तौड़ व ग्वालियर के किले सबसे पुराने संरक्षित किलों में से एक हैं। ग्वालियर के मन मंदिर महल का निर्माण राजा मानसिंह तोमर (1486-1516) ने कराया था। जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर और कोटा के महल राजपूतकालीन कला की परिपक्वता को दर्शाते हैं। इन महलों का निर्माण मुख्य रूप से 17वीं व 18वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में हुआ था। अधिकांश महलों का निर्माण स्थानीय पीले-भूरे रंग के पत्थरों से किया गया था और आज भी ये पूरी तरह से सुरक्षित हैं।
गुलाबी शहर जयपुर का निर्माण 1727 ई. में राजा जय सिंह ने करवाया था। इसमें राजपूत स्थापत्य कला के चरमोत्कर्ष के दर्शन होते हैं। राजा जय सिंह द्वितीय द्वारा निर्मित पांच वेधशालाओं में से दिल्ली का जंतर मंतर राजपूत स्थापत्य की विशिष्ट कृति है।
जैन स्थापत्य शैली:
प्रारंभिक वर्र्षों में कई जैन मंदिरों का निर्माण बौद्ध शैलकृत शैली के आधार पर बौद्ध मंदिरों के आसपास किया गया। प्रारंभ में जैन मंदिरों को पूरी तरह से पहाड़ों से काट कर ही बनाया जाता था और ईंट का प्रयोग लगभग न के बराबर होता था। लेकिन बाद के काल में जैन शैली में परिवर्तन आया और पत्थर और ईंटों से मंदिरों का निर्माण शुरु हो गया।
कर्नाटक, महाराष्ट्र और राजस्थान के जैन मंदिर विश्व विख्यात हैं। राजस्थान में माउंट आबू और रानकपुर के मंदिर विशेष रूप से अपनी स्थापत्य कला के लिए मशहूर हैं। देवगढ़ (ललितपुर, उत्तर प्रदेश), एलोरा, बादामी और आईहोल में भी जैन स्थापत्य और वास्तुकला के कई बेहतरीन उदाहरण पाये जाते हैं।
इंडो-इस्लामिक स्थापत्य व वास्तुकला:
सल्तनत काल में कला के क्षेत्र में भारतीय और इस्लामी शैलियों के सुंदर समन्वय से इण्डो-इस्लामिक शैली का विकास हुआ। इस काल की स्थापत्य कला की मुख्य विशेषता थी किलों, मकबरों, गुंबदों तथा संकरी और ऊँची मीनारों का प्रयोग। इमारतों की साज-सज्जा के लिए जीवित वस्तुओं के चित्र के स्थान पर फूल-पत्तियों, ज्यामितीय आकृतियों एवं कुरान की आयतें खुदवाई जाती थीं।
तुर्क शासकों द्वारा भारत में बनवाया गया प्रथम स्थापत्य कला का नमूना कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद है। इसका निर्माण गुलाम वंश के प्रथम शासक कुतुबद्दीन ऐबक ने दिल्ली विजय की स्मृति में कराया था। इस काल की सर्वोत्तम इमारत कुतुब मीनार है।
मुगल स्थापत्य व वास्तुकला:
मुगलकालीन स्थापत्य व वास्तुकला भारतीय सांस्कृतिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। कला प्रेमी मुगल सम्राटों ने ईरानी और हिंदू शैली के समन्वय से मुगल शैली का निर्माण किया।
अकबर ने हुमायूँ के मकबरे का निर्माण फारसी शैली के अनुसार करवाया था। फतेहपुर सीकरी का निर्माण भी अकबर ने करवाया था। इसमें ईरानी तथा प्राचीन भारतीय बौद्ध वास्तुकला की शैली को अपनाया गया। यहाँ की सर्वोच्च इमारत बुलंद दरवाजा है, जिसकी ऊँचाई भूमि से 176 फीट है। जहाँगीर का काल स्थापत्य कला की दृष्टि से काफी सामान्य रहा। उसके द्वारा निर्मित सिकंदरा में स्थित अकबर का मकबरा काफी प्रसिद्ध है। एत्मादुद्दौला के मकबरे का यह महत्व है कि इसमें सबसे पहले संगमरमर के ऊपर पच्चीकारी का काम किया गया था।
शाहजहाँ का काल मुगल स्थापत्य कला का स्वर्ण युग था। उसके काल की प्रमुख इमारतें दिल्ली का लाल किला, रंग महल, दीवाने बहिश्त, शीशमहल, अंगूरी बाग, आगरा की मोती मस्जिद और विश्वविख्यात ताजमहल हैं। ताजमहल का निर्माण सफेद संगमरमर से किया गया और उसकी दीवारों पर कीमती पत्थरों की सुंदर नक्काशी की गई। शाहजहाँ के बाद मुगल वास्तु एवं स्थापत्य कला का पतन हो गया।
अंग्रेजी काल:
यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियाँ भारत में अपने साथ यूरोपीय वास्तु व स्थापत्य कला भी लाईं। उन्होंने भारत में कई ऐसी इमारतों का निर्माण कराया जिनमें नव्य शास्त्रीय, रोमांसक्यू, गोथिक व नवजागरण शैलियों का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। भारत में सबसे पहले पुर्तगालियों का प्रवेश हुआ जिन्होंने गोवा में कई चर्र्चों का निर्माण कराया जिनमें पुर्तगाली-गोथिक शैली की झलक दिखाई देती है। 1530 में गोवा में निर्मित सेंट फ्रांसिस चर्च देश में यूरोपीयों द्वारा बनवाया पहला चर्च माना जाता है।
भारतीय स्थापत्य कला पर सबसे ज्यादा प्रभाव ब्रिटेन का पड़ा। उन्होंने स्थापत्य कला का उपयोग शक्ति प्रदर्शन के लिए किया। भारत के ब्रिटिश शासकों ने गोथिक, इम्पीरियल, क्रिश्चियन, इंग्लिश नवजागरण और विक्टोरियन जैसी कई यूरोपीय शैलियों की इमारतों का निर्माण कराया। अंग्रेजों द्वारा भारत में अपनाई गई शैली को इंडो-सारासेनिक शैली कहते हैं। यह शैली हिंदू, इस्लामिक, और पश्चिमी तत्वों का खूबसूरत मिश्रण थी। मुंबई में अंग्रेजों द्वारा बनवाया गया विक्टोरिया टर्मिनल इसका सबसे सुंदर उदाहरण है।
नई दिल्ली के स्थापत्य व वास्तु कला को अंग्रेजी राज का चरमोत्कर्ष माना जा सकता है। अंग्रेजों ने इस शहर का निर्माण अत्यंत ही योजनबद्ध तरीके से करवाया था। सर एडवर्ड लुटयंस इस शहर के प्रमुख वास्तुकार थे।
स्वतंत्रोत्तर काल:
स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत में स्थापत्य कला की दो शैलियां उभर कर सामने आईं- पुनरुत्थानवादी व आधुनिकतावादी। पुनरुत्थानवादियों ने मुख्य रूप से अंग्रेजी शैली को ही अपनाया जिसकी वजह से वे स्वतंत्र भारत में अपनी कोई छाप नहीं छोड़ सके। आधुनिकवादियों ने भी किसी नई शैली का विकास करने की बजाय अंगे्रजी व अमेरिकी मॉडलों को ही अपनाने पर जोर दिया। इन दोनों मॉडलों ने ही भारत में विविधता और जरूरतों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया।
लि कॉर्बुसियर द्वारा डिजाइन किये गये चंडीगढ शहर को स्वतंत्र भारत में भारतीय स्थापत्य का सबसे सफल नमूना माना जा सकता है।
हाल के दिनों पश्चिमी देशों में भी आधुुनिकतावाद का मर्सिया पढ़ा जा चुका है जिसकी वजह से अब भारतीय स्थापत्यकार भी भारतीय जड़ों को तलाश कर रहे हैं। हालांकि इस क्षेत्र में आज भी भ्रम की स्थिति है।
भारतीय स्थापत्य कला की मुख्य शैलियाँ
नागर शैली: नागर शैली में मंदिरों का निर्माण चौकोर या वर्गाकार रूप में किया जाता था। प्रमुख रूप से उत्तर भारत में इस शैली के मंदिर पाये जाते हैं। इसी के साथ-साथ एक ओर बंगाल और उड़ीसा, दूसरी ओर गुजरात और महाराष्ट्र तक इस शैली के उदाहरण मिलते हैं।
द्रविड़ शैली: द्रविड़ शैली के मंदिर कृष्णा नदी से लेकर कन्या कुमारी तक पाये जाते हैं। इसमें गर्भगृह के ऊपर का भाग सीधा पिरामिडनुमा होता है। उनमें अनेक मंजिले पाई जाती हैं। आंगन के मुख्य द्वार को गोपुरम कहते हैं। यह इतना ऊँचा होता है कि कई बार यह प्रधान मंदिर के शिखर तक को छिपा देता है। द्रविड़ शैली के मंदिर कभी-कभी इतने विशाल होते हैं कि वे एक छोटे शहर लगने लगते हैं।
बेसर शैली: नागर और द्रविड़ शैलियों के मिले-जुले रूप को बेसर शैली कहते हैं। इस शैली के मंदिर विंध्याचल पर्वत से लेकर कृष्णा तक पाये जाते हैं। बेसर शैली को चालुक्य शैली भी कहते हैं। चालुक्य तथा होयसल कालीन मंदिरों की दीवारों, छतों तथा इसके स्तंभों द्वारों आदि का अलंकरण बड़ा सजीव तथा मोहक है।
भारतीय स्थापत्य कला और मूर्तिकला
भारत में स्थापत्य व वास्तुकला की उत्पत्ति हड़प्पा काल से माना जाता है। स्थापत्य व वास्तुकला के दृष्टिकोण से हड़प्पा संस्कृति तत्कालीन संस्कृतियों से काफी ज्यादा आगे थी। भारतीय स्थापत्य एवं वास्तुकला की सबसे खास बात यह है कि इतने लंबे समय के बावजूद इसमें एक निरंतरता के दर्शन मिलते हैं। इस मामले में भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से इतर है।
सिंधु घाटी सभ्यता
सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता का काल 3500-1500 ई.पू. तक माना जाता है। इसकी गिनती विश्व की चार सबसे पुरानी सभ्यताओं में किया जाता है। हड़प्पा की नगर योजना इसका एक जीवंत साक्ष्य है। नगर योजना इस तरह की थी कि सड़केें एक-दूसरे को समकोण में काटती थीं। हड़प्पा व मोहनजोदड़ो इस सभ्यता के प्रमुख नगर थे। यहां की इमारतें पक्की ईंटों की बनाई जाती थीं। यह एक ऐसी विशेषता है जो तत्कालीन किसी अन्य सभ्यता में नहीं पाई जाती थी। मोहनजोदड़ो की सबसे बड़ी इमारत उसका स्नानागार था। घरों के निर्माण में पत्थर और लकड़ी का भी प्रयोग किया जाता था।
मोहनजोदड़ो से मिली मातृ देवी, नाचती हुई लड़की की धातु की मूर्ति इत्यादि तत्कालीन उत्कृष्ट मूर्तिकला के अनुपम उदाहरण हैं।
मौर्यकाल:
मौर्यकाल के दौैरान देश में कई शहरों का विकास हुआ। मौर्यकाल भारतीय कलाओं के विकास के दृष्टिकोण से एक युगांतकारी युग था। इस काल के स्मारकों व स्तंभों को भारतीय कला के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है। इस काल के स्थापत्य में लकड़ी का काफी प्रयोग किया जाता था। अशोक के समय से भवन निर्माण में पत्थरों का प्रयोग प्रारंभ हो गया था। ऐसा माना जाता है कि अशोक ने ही श्रीनगर (कश्मीर) व ललितपाटन(नेपाल) नामक नगरों की स्थापना की थी। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक ने अपने राज्य में कुल 84,000 स्तूपों का निर्माण कराया था। हालांकि इसको अतिश्योक्ति माना जा सकता है। स्थापत्य के दृष्टिकोण से सांची, भारहुत, बोधगया, अमरावती और नागार्जुनकोंडा के स्तूप प्रसिद्ध हैं। अशोक ने 30 से 40 स्तम्भों का निर्माण कराया था। अशोक के समय से ही भारत में बौद्ध स्थापत्य शैली की शुरुआत हुई। इस काल के दौरान गुफाओं, स्तम्भों, स्तूपों और महलों का निर्माण कराया गया। अशोक के स्तम्भों से तत्कालीन भारत के विदेशों से संबंधों का खुलासा होता है। पत्थरों पर पॉलिश करने की कला इस काल में इस स्तर पर पहुँच गई थी कि आज भी अशोक की लाट की पॉलिश शीशे की भांति चमकती है। मौर्यकालीन स्थापत्य व वास्तुकला पर ग्रीक, फारसी और मिस्र संस्कृतियों का पूरी तरह से प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
परखम में मिली यक्ष की मूर्ति, बेसनगर की मूर्ति, रामपुरवा स्तम्भ पर बनी साँड की मूर्ति तथा पटना और दीदारगंज की मूर्तियां विशेष रूप से कला के दृष्टिकोण से अद्वितीय हैं।
शुंग, कुषाण और सतवाहन:
232 ई.पू. में अशोक की मृत्यु के थोड़े काल पश्चात ही मौर्य वंश का पतन हो गया। इसके बाद उत्तर भारत में शुंग और कुषाण वंशों और दक्षिण में सतवाहन वंश का शासनकाल आया। इस समय के कला स्मारक स्तूप, गुफा मंदिर (चैत्य), विहार, शैलकृत गुफाएं आदि हैं। भारहुत का प्रसिद्ध स्तूप का निर्माण शुंग काल के दौरान ही पूरा हुआ। इस काल में उड़ीसा में जैनियों ने गुफा मंदिरों का निर्माण कराया। उनके नाम हैं- हाथी गुम्फा, रानी गुम्फा, मंचापुरी गुम्फा, गणेश गुम्फा, जय विजय गुम्फा, अल्कापुरी गुम्फा इत्यादि। अजंता की कुछ गुफाओं का निर्माण भी इसी काल के दौरान हुआ। इस काल के गुफा मंदिर काफी विशाल हैं।
इसी काल के दौरान गांधार मूर्तिकला शैली का भी विकास हुआ। इस शैली को ग्रीक-बौद्ध शैली भी कहते हैं। इस शैली का विकास कुषाणों के संरक्षण में हुआ। गांधार शैली के उदाहरण हद्दा व जैलियन से मिलते हैं। गांधार शैली की मूर्तियों में शरीर को यथार्थ व बलिष्ठ दिखाने की कोशिश की गई है। इसी काल के दौरान विकसित एक अन्य शैली-मथुरा शैली गांधार से भिन्न थी। इस शैली में शरीर को पूरी तरह से यथार्थ दिखाने की तो कोशिश नहीं की गई है, लेकिन मुख की आकृति में आध्यात्मिक सुख और शांति पूरी तरह से झलकती है।
सतवाहन वंश ने गोली, जग्गिहपेटा, भट्टीप्रोलू, गंटासाला, नागार्जुनकोंडा और अमरावती में कई विशाल स्तूपों का निर्माण कराया।
गुप्तकालीन वास्तु व स्थापत्य:
गुप्तकाल के दौरान स्थापत्य व वास्तु अपने चरमोत्कर्ष पर था। इस काल के मंदिरों का निर्माण ऊँचे चबूतरों पर पत्थर एवं ईंटों से किया जाता था। गुप्तकालीन मंदिरों के सबसे भव्य और महत्वपूर्ण मंदिर देवगढ़ (झाँसी के पास) और भीतरगांव (कानपुर) हैं। इन मंदिरों में रामायण, महाभारत और पुराणों से विषय-वस्तु ली गई है। भीतरगांव (कानपुर) का विष्णु मंदिर ईंटों का बना है और नक्काशीदार है।
गुप्तकाल की अधिकांश मूर्तियाँ हिंदू-देवताओं से संबंधित हैं। शारीरिक नग्नता को छिपाने के लिए गुप्तकाल के कलाकारों ने वस्त्रों का प्रयोग किया। सारनाथ में बैठे हुए बुद्ध की मूर्ति और सुल्तानगंज में बुद्ध की तांबे की मूर्ति उल्लेखनीय हैं। विष्णु की प्रसिद्ध मूर्ति देवगढ़ के दशावतार मंदिर में स्थापित है।
चोलकाल:
चोलों ने द्रविड़ शैली को विकसित किया और उसको चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। राजाराज प्रथम द्वारा बनाया गया तंजौर का शिव मंदिर, जिसे राजराजेश्वर मंदिर भी कहा जाता है, द्रविड़ शैली का उत्कृष्ट नमूना है। इस काल के दौरान मंदिर के अहाते में गोपुरम नामक विशाल प्रवेश द्वार का निर्माण होने लगा। प्रस्तर मूर्तियों का मानवीकरण चोल मूर्तिकारों की दक्षिण भारतीय कला को महान देन थी। चोल काँस्य मूर्तियों में नटराज की मूर्ति सर्वोपरि है।
आधुनिक काल
यूरोपीय स्थापत्य कला में 1900 के आसपास का समय भारी परिवर्तन का युग था। इस काल के दौरान कई ऐसी इमारतों का निर्माण किया गया जिसकी विशेषताएं समान थीं। इन निर्माणों में रूप-रंग में सरलता के दर्शन होते हैं और अलंकरण भी नाम-मात्र का है। 1940 के दशक तक आते-आते आधुनिक शैली में और भी मजबूती आई और इसे अंतर्राष्ट्रीय शैली का नाम दे दिया गया और पूरी दुनिया में इस शैली का दबदबा हो गया। इंस्टीट्यूट्स और कार्पोरेट ऑफिसों की इमारतों में विशेष रूप से इस शैली का प्रयोग किया गया। यह क्रम 20वीं शताब्दी में कई दशकों तक जारी रहा। आधुनिक स्थापत्य की विशिष्ट विशेषताओं और उद्भव को लेकर आज भी ब्याख्या व वाद-विवाद जारी है।
वृत्तिवाद (Functionalism):
स्थापत्यकला में वृत्तिवाद एक ऐसा सिद्धांत है जिसके अनुसार किसी स्थापत्यकार को किसी इमारत की डिजाइन उसके उद्देश्य के आधार पर तैयार करना चाहिए। इस शैली में उपयोगिता, सौंदर्य और मजबूती-स्थापत्य के तीन प्रमुख लक्ष्य माने गये हैं।
भविष्यवादी स्थापत्य (Futurist):
भविष्यवादी स्थापत्य का उदय 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में हुआ। इस स्थापत्य की सबसे बड़ी विशेषता उसकी लंबी उध्र्वाधर रेखाएं थीं जो गति का निरुपण करती थी। भविष्यवादियों की थीम में तकनीक व हिंसा जैसे विषयों का भी समावेश होता था। इस शैली की स्थापना कवि फिलिप्पो टोम्मासो मेरीनेट्टी ने की थी जिन्होंने इसका पहला मैनीफेस्टो का प्रकाशन किया जिसका टाइटिल मैनीफैस्टो ऑफ फ्यूचरिज्म था। इस शैली में कवि, संगीतकार, कलाकार और स्थापत्यकार शामिल थे।
प्रभाववादी स्थापत्य (Expressionist Architecture):
प्रभाववादी स्थापत्य एक ऐसी स्थापत्य शैली है जिसका विकास 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में उत्तरी यूरोप में हुआ। यह आंदोलन प्रभाववादी विजुअल और परफॉर्र्मिंग कला के समानान्तर शुरू हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध में कई प्रभाववादी स्थापत्यकारों ने भाग लिया था जिसका पूरा असर उनकी कला में पूरी तरह से परिलक्षित होती है। उन्होंने युद्ध की विभीषिका को झेलने के साथ-साथ तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल का अनुभव किया था, जिसकी वजह से उनकी स्थापत्य कला में यूटोपिया विचारधारा और तत्कालीन रोमांटिक सोशलिस्ट एजेंडा के दर्शन होते हैं।
ट्यूब स्थापत्य शैली:
1963 से स्काईस्क्रेपर इमारतों की डिजाइन व निर्माण में फ्रेम ट्यूबों का प्रयोग किया जाने लगा। यह पूरी तरह से नई शेैली थी जिसमें फ्रेम ट्यूब एक तीन विमाओं वाला निर्माण होता है जिसमें तीन, चार या अधिक फ्रेम हुआ करते थे। ये फ्रेम आपस में किनारों पर मिले होते हैं जिससे लंबवत ट्यूब के आकार का निर्माण किया जाता था। इस तरह की निर्माण शैली से बड़ी-बड़ी इमारतों का निर्माण आसान हो गया। इस शैली का सबसे प्रथम उदाहरण शिकागो की डेविट-चेस्टनेट अपार्टमेंट बिल्डिंग है जिसका निर्माण 1963 में किया गया था। वल्र्ड ट्रेड टॉवर (सं. रा. अमेरिका) और पेट्रोनास टॉवरों (मलेशिया) का निर्माण ट्यूब स्थापत्य शैली के आधार पर किया गया था।
उत्तर आधुनिक स्थापत्य शैली:
साहित्य व दर्शन के क्षेत्र में उत्तर आधुनिकतावाद की तरह स्थापत्य में भी इसने दस्तक दी। स्थापत्य में इस शैली की शुरुआत 1950 के दशक से मानी जाती है जिसका आज भी प्रभाव स्थापत्य शैली पर पूरी तरह से दिखाई देता है। इस शैली की सबसे खास बात यह है कि आधुनिकता की औपचारिकता का परित्याग करते हुए इसमें अनौपचारिकता को ग्रहण किया गया। इस शैली में एक बार फिर से अलंकरण का प्रयोग किया जाने लगा। न्यूयॉर्क की सोनी बिल्डिंग को इस शैली की प्रतिनिधि इमारत माना जाता है।
डिकंस्ट्रक्टविस्ट स्थापत्य शैली:
स्थापत्य कला में डिकंस्ट्रक्टविज्म का विकास उत्तर आधुनिकता शैली का ही एक रूप है जिसकी शुरुआत 1980 के दशक में हुई। इस शैली की सबसे बड़ी विशेषता इसका गैर-रेखीय होना है। इसमें स्थापत्य कला के स्थापित नियमों के स्थान पर नये नियमों को गढ़ा गया जिससे कलाकार को अपनी कला दिखाने के खूब मौका मिलने लगे।
मध्यकालीन पश्चिमी स्थापत्य कला
प्रारंभिक मध्यकाल के दौरान पश्चिमी स्थापत्य कला को प्रारंभिक ईसाई काल व पूर्व-रोमांसक्यू काल में विभाजित किया जा सकता है। इस काल के दौरान दुर्ग मुख्य रूप से लौकिक स्थापत्य के प्रमुख उदाहरण हैं।
रोमांसक्यू:
इस काल के दौरान अधिकांश वास्तुशिल्पी ईसाई भिक्षु हुआ करते थे और रोमन स्थापत्य कला का इस काल की स्थापत्य कला पर पूरा तरह से प्रभाव था। अद्र्धचापाकार मेहराब, लंबी मेहराब और आरपार मेहराब के प्रयोग से इस काल का नाम रोमांसक्यू पड़ा। फ्लोरेंस, इटली का सैन मिनिएटो गिरिजाघर इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
गोथिक शैली:
मध्ययुगीन यूरोप में व्यापार में वृद्धि के साथ ही शहरों की संख्य में भी वृद्धि हुई। यहां धनी बैंकरों, व्यापारियों और उद्योगपतियों ने शानो-शौकत के मामले में सामंतों का मुकाबला करना शुरू कर दिया और बड़े-बड़े गिरिजाघरों का निर्माण कराया। अब वास्तुशिल्पियों को मास्टर मेसॉन कहा जाने लगा। नुकीले मेहराब, मेहराबदार छत की डॉट और चाकरूप पुश्ता गोथिक शैली की तीन सबसे बड़ी विशेषताएं थीं। इन तीनों विशेषताओं को यूरोपीय स्थापत्य की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता है। पेरिस के नोत्रे डेम डि (1163) और चाल्र्स गिरिजाघर (1195) को इस शैली का सबसे खूबसूरत उदाहरण माना जाता है।
नवजागरण शैली:
15वीं शताब्दी में यूरोप में पूँजीवाद, शहरों की संख्या में वृद्धि, धनियों की संख्या में वृद्धि और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की भावना के जन्म से नवजागरण काल का उदय हुआ। नवजागरण काल के दौरान कलाकारों व विचारकों ने प्राचीन रोमन व ग्रीक सभ्यता की खोज करके उसको पुन: स्थापित किया। नवजागरण काल का सर्वप्रथम उदय इटली में हुआ। इस पुनर्जागरण का प्रभाव समस्त यूरोप के सभी क्षेत्रों में पड़ा। इस काल के कलाकारों में स्थापत्य व मूर्तिकला में बौद्धिकता की झलक साफ दिखाई देती है। कलाकारों ने स्थापत्य कला में प्राचीन रोमन स्थापत्य कला का समावेश किया। इस नई शैली के प्रारंभिक प्रतिनिधि कलाकार फिलिप्पो ब्रूनेलेस्ची और ल्यॉन बतिस्ता अल्बर्टा थे।
सिस्टाइन चैपेल की छत के चित्रकार, डेविड के मूर्तिकार और रोम के सेंट पीटर्स चर्च के गुंबद के स्थापत्यकार माइकेलएंजिलो नवजागरणकाल के प्रतिनिधि पुरुष थे।
सदाचारवाद और बरोक शैली: सदाचारवाद शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग कला इतिहासकार, स्थापत्यकार और चित्रकार जिऑर्जियो वासेरी (1511-74) ने लियोनार्डो डि विन्सी, राफेल और माइकेलएंजिलो के कार्र्यों को ब्याख्यायित करने के लिए किया था। यदि नवजागरणकाल के स्थापत्य ने मानव संस्कृति के पुनर्जन्म की घोषणा की तो सदाचारवाद और बरोक शैली ने अर्थ और निरुपण के बारे में बढ़ती हुई चिंता को व्यक्त किया। साइंस और दर्शन के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण विकास की वजह से यथार्थ का गणितीय निरुपण बाकी संस्कृति से पूरी तरह से अलग हो गया। इससे स्थापत्य में दुनिया के बारे में एक विशेष प्रकार की दृष्टि का उदय हुआ। माइकेलएंजिलो ने अपने बाद के जीवन में नवजागरण काल के कड़े नियमों का परित्याग करते हुए सदाचारवाद की शुरुआत की।
बाद में स्थापत्यकार इससे भी आगे गये और 16वीं शताब्दी के अंतिम काल और 17वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में विग्लोना, बोर्रोमिनी, मडेर्ना और वेरनिनि जैसे कलाकारों ने नवजागरण कला के नियमों में परिवर्तन करते हुए बरोक शैली का विकास किया। रोम का सैन कार्लो चर्च जिसका निर्माण बोर्रोमिनी ने किया था, इसका प्रमुख उदाहरण है।
विख्यात व्यक्ति
महात्मा गांधी
महात्मा गांधी को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पिता कहा जाता है। उन्होंने अपने सत्याग्रह के माध्यम से ब्रिटिश शासन को खत्म करने और गरीबो का जीवन सुधारने के लिए सतत परिश्रम किया। उनकी सत्य और अंहिसा की विचारधारा को मार्टिन लूथर किंग तथा नेलसन मंडेला ने भी अपने संघर्ष के लिए ग्रहण किया। महात्मा गांधी ने अफ्रीका मे भी लगातार बीस वर्षो तक अन्याय और नस्लीय भेदभाव के खिलाफ अहिंसक रूप से संघर्ष किया। उनकी सादा जीवन पध्दति के कारण उन्हें भारत और विदेश में बहुत प्रसिध्दी मिली। वह बापू के नाम से प्रसिध्द थे।
प्रारम्भिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
महात्मा गांधी का पूरा नाम मोहन दास करमचंद गांधी था। उनका जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था। उनके पिता का नाम करमचंद गांधी व माता का नाम पुतलीबाई था। महात्मा गांधी का विवाह मात्र तेरह वर्ष की आयु में ही कस्तूरबा के साथ हो गया था। उनके चार बेटे हरीलाल, मनीलाल, रामदास व देवदास थे।
लंदन प्रस्थान
1888 में महात्मा गांधी कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए लंदन गये।
दक्षिण अफ्रीका
मई 1893 मे वह वकील के तौर पर काम करने दक्षिण अफ्रीका गये। वंहा उन्होंने नस्लीय भेदभाव का पहली बार अनुभव किया। जब उन्हे टिकट होने के बाद भी ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर धकेल दिया गया क्योंकि यह केवल गोरे लोगों के लिए आरक्षित था। किसी भी भारतीय व अश्वेत का प्रथम श्रेणी मे यात्रा करना प्रतिबंधित था। इस घटना ने गांधी जी पर बहुत गहरा प्रभाव डाला और उन्होंने नस्लीय भेदभाव के विरूध संघर्ष करने की ठान ली। उन्होंने देखा कि भारतीयों के साथ यहां अफ्रीका में इस तरह की घटनाएं आम हैं। 22 मई 1894 को गांधी जी ने नाटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की और दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों के लिए कठिन परिश्रम किया। बहुत ही कम समय में गांधी जी अफ्रीका में भारतीय समुदाय के नेता बन गये।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका
1915 मे गांधी जी भारत लौट आये और अपने गुरू समान श्री गोपालकृष्ण गोखले के साथ इंडियन नेशनल कांग्रेस में शामिल हो गये। गांधी जी की पहली बड़ी उपलब्धि बिहार और गुजरात मे चंपारन व खेड़ा के आंदोलन थे। उन्होंने असहयोग आंदोलन,सविनय अवज्ञा आंदोलन,भारत छोड़ो आंदोलन का भी नेतृत्व किया था।
मृत्यु
नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या की थी। गोडसे एक हिंदू राष्ट्रवादी और हिंदू महासभा सदस्य था। उसने गांधी पर पाकिस्तान का पक्ष लेने का आरोप लगाया तथा वह गांधी के अंहिसावादी सिद्धांत का विरोधी था।
लेखन
गांधी जी एक विपुल लेखक थे। उनके द्वारा लिखी गयी कुछ पुस्तकें निम्न है-
- हिंद स्वराज , 1909 मे गुजराती में प्रकाशित हुई।
• उन्होंने हिंदी ,गुजराती और इंग्लिश के अनेक समाचार पत्रों का संपादन किया। जिनमें हिंदी व गुजराती मे हरिजन , इंग्लिश मे यंग इंडिया व गुजराती पत्रिका नवजीवन प्रमुख हैं।
• गांधी जी ने अपनी आत्मकथा ‘’सत्य के प्रयोग’’ भी लिखी।
• उनकी अन्य आत्मकथओं में दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह , हिंद स्वराज आदि प्रमुख हैं
पुरस्कार
- टाईम मेगज़ीन ने वर्ष 1930 में मैन ऑफ दी इयर चुना।
• 2011 मे टाईम मैगजीन ने गांधी जी को विश्व के लिए हमेशा प्रेरणा स्रोत रहे श्रैष्ठ पच्चीस राजनीतिक व्यक्तियों मे चुना।
• हालांकि उन्हे कभी नोबल पुरस्कार नहीं मिला लेकिन वह इसके लिए 1937 से लेकर 1948 तक पांच बार नामित किये गये।
• भारत सरकार प्रतिवर्ष सामाजिक कार्यकर्ताओं,विश्व नेताओं व नागरिकों को गांधी शांति पुरस्कार से नवाज़ती है। दक्षिण अफ्रीका मे रंगभेद के खिलाफ संघर्ष करने वाले नेता नेल्सन मंडेला को इस पुरस्कार से नवाजा जा चुका है।
फिल्म
गांधी जी पर 1982 बनी फिल्म , जिसमे बेन किंग्सले ने गांधी का रोल किया है, ने ऑस्कर में बेस्ट पिक्चर का पुरस्कार जीता।
सत्याग्रह
गांधी ने अपने अहिंसा के सिध्दांत को सत्याग्रह के रूप में पहचान दिलायी। गांधी जी के सत्याग्रह ने अनेक हस्तियों को प्रभावित किया। स्वतंत्रता,समानता और समाजिक न्याय अपने संघर्ष मे नेल्सन मंडेल व मार्टिन लूथर किंग गांधी जी से प्रभावित थे। सत्याग्रह सच्चे सिध्दांतो व अहिंसा पर आधारित है।
गांधी जी के बारे में दस तथ्य
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पितामह महात्मा गांधी भारत तथा विदेशों में भी लोगों के अध्ययन का विषय हैं। यहां गाधी जी के बारे मे दस तथ्य दिये जा रहे हैं-
- गांधी जी की मातृ-भाषा गुजराती थी।
2. गांधी जी ने अल्फ्रेड हाई स्कूल, राजकोट से पढ़ाई की थी।
3. गांधी जी का जन्मदिन 2 अक्टूबर अंतरराष्ट्रीय अंहिसा दिवस के रूप मे विश्वभर में मनाया जाता है।
4. वह अपने माता-पिता के सबसे छोटी संतान थे उनके दो भाई और एक बहन थी।
5. गांधी जी के पिता धार्मिक रूप से हिंदू तथा जाति से मोध बनिया थे।
6. माधव देसाई, गांधी जी के निजी सचिव थे।
7. गांधी जी की हत्या बिरला भवन के बगीचे में हुई थी।
8. गांधी जी और प्रसिध्द लेखक लियो टोलस्टोय के बीच लगातार पत्र व्यवहार होता था।
9. गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह संघर्ष के दोरान , जोहांसबर्ग से 21 मील दूर एक 1100 एकड़ की छोटी सी कालोनी, टॉलस्टॉय फार्म स्थापित की थी।
10. गांधी जी का जन्म शुक्रवार को हुआ था, भारत को स्वतंत्रता शुक्रवार को ही मिली थी तथा गांधी जी की हत्या भी शुक्रवार को ही हुई थी।
सोनिया गांधी
सोनिया गांधी का मूल नाम एड्विगे अन्तोनिया अल्विना मैनो है। इनका जन्म इटली के लुसिआना में 9 दिसंबर 1946, को हुआ था। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की वर्तमान अध्यक्ष हैं और पूर्व में केंद्र में सत्तासीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष थीं। वह एक प्रमुख भारतीय राजनीतिज्ञ हैं। इनका विवाह भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी के साथ हुआ था। वर्ष 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी तत्कालीन कांग्रेस के नेताओं द्वारा आमंत्रित किया गया, लेकिन उन्होंने पार्टी के इस प्रस्ताव को खुलकर मना कर दिया और ने केवल राजनीति से बल्कि अन्य किसी राजनितिक हलचल से दूर रहने लगी थीं। अंततः वर्ष 1997 में उन्होंने राजनीति में शामिल होने का फैसला किया।
पारिवारिक विवरण
सोनिया गाँधी स्वर्गीय श्री राजीव गांधी की पत्नी हैं। राजीव गांधी इंदिरा गांधी के बड़े पुत्र थे। सोनिया गांधी के दो बच्चे, (प्रियंका वाड्रा और राहुल गांधी) हैं। महत्वपूर्ण नेहरू परिवार से संबंधित होने के बावजूद, राजीव और सोनिया राजनीति में अपनी भागीदारी देने से बंचित रहे। राजीव गांधी ने सोनिया गांधी और अपने परिवार की सुबिधाओं का ख्याल रखते हुए एक समय में एक एयरलाइन पायलट के रूप में काम भी किया था। 1977 में आपातकाल के दौरान जब इंदिरा गांधी अपने पद से मुक्त हो गयीं तो कुछ दिनों के लिए राजीव गाँधी अपने परिवार को लेकर विदेश चले गए थे। राजीव गांधी ने अपने भाई संजय गांधी की दुर्घटना से मृत्यु के बाद वर्ष 1982 में जब राजनीति में प्रवेश किया तो सोनिया गांधी अपने परिवार की देख रेख में पूरी तरह से लीन हो गयी और राजनीति से पूरी तरह से अपने आप को अलग कर लिया।
करियर
वर्ष 1964 में सोनिया गांधी कैम्ब्रिज में बेल एजुकेशनल ट्रस्ट के भाषा स्कूल से अंग्रेजी की पढ़ाई के लिए चली गईं। राजीव गांधी के निधन के बाद कांग्रेस समर्थकों की भारी संख्या ने चुनावी विजय और पार्टी को मार्गदर्शित करने के लिए एक सम्मोहक व्यक्तित्व के रूप में उनकी तरफ देखा और उनसे एक अपील की। वर्ष 1997 में वह राजनीति में शामिल होने के लिए सहमत हो गयी और वर्ष 1998 में कांग्रेस के नेता के रूप में नामित की गईं। उस समय के बाद से वह लगातार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष पद पर कार्यरत हैं। वह वर्ष 2004 से लोकसभा में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त की गयीं। सितंबर 2010 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की चौथी बार अध्यक्ष चुने जाने के बाद से भारतीय इतिहास में सबसे लम्बे काल तक किसी पार्टी की लगातार अध्यक्ष बने रहने का रिकॉर्ड बनाया। सोनिया गांधी को 2004 में फोर्ब्स पत्रिका द्वारा दुनिया की तीन सबसे प्रभावशाली महिला की सूची में शामिल किया गया। इसी तरह वह वर्ष 2007 में इस सूची में छटें स्थान पर रही। वर्ष 2010 में सोनिया गांधी को फोर्ब्स पत्रिका द्वारा 9वीं सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में स्थान दिया गया। साथ ही वर्ष 2007 और 2008 में टाइम पत्रिका द्वारा दुनिया की 100 सबसे शक्तिशाली लोगों की सूची में उन्हें स्थान दिया गया था।
व्यवसाय
- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख सदस्य के रूप में शामिल होने के62 दिनों के बाद, सोनिया गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया।
• सोनिया गांधी ने बेल्लारी, उत्तर प्रदेश से वर्ष 1999 में लोकसभा चुनाव जीता।
• सोनिया गांधी वर्ष 2004 में और वर्ष 2009 में दो बार उत्तर प्रदेश के रायबरेली संसदीय सीट से लोकसभा सदस्य के रूप में निर्वाचित हुई।
• वह वर्ष 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी राजग सरकार में विपक्ष की नेता के रूप में तेरहवीं लोकसभा में चुनी गयी थी।
• विपक्ष के नेता के रूप में, वर्ष 2003 में उन्होंने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था।
• 2004 के चुनाव में भारतीय जन मानस ने उनके नेतृत्व में ‘आम आदमी’ के नारे के साथ एक देशव्यापी आंदोलन की शुरुआत को देखा. लगभग उसी समय भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की ‘भारत उदय’ का नारा दिया जा रहा था।
• उन्होंने रायबरेली संसदीय क्षेत्र से एक रिकॉर्ड के साथ वर्ष 2004 में संसदीय चुनाव जीता.
• सोनिया गांधी ने श्री मनमोहन सिंह को भारत के अगले प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया।
• मई 2006 में उन्होंने रायबरेली संसदीय क्षेत्र से बड़े अंतर के साथ चुनाव जीता।
उपलब्धियां
- वर्ष 2004: फोर्ब्स पत्रिका द्वारा सोनिया गांधी को दुनिया की तीसरी सबसे शक्तिशाली महिला के रूप में संबोधित किया गया था।
• वर्ष 2006: सोनिया गांधी ने ब्रसेल्स विश्वविद्यालय से एक स्वैच्छिक डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की थी।
• वर्ष 2006: बेल्जियम सरकार एवं उनके राजा लियोपोल्ड के आदेश के साथ सोनिया गांधी को सम्मानित किया गया था।
• वर्ष 2007: फोर्ब्स पत्रिका ने सोनिया गांधी को दुनिया की छठी सबसे ताकतवर महिला के रूप में उल्लेख किया गया था।
• वह वर्ष 2007 में और 2008 में टाइम पत्रिका द्वारा दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों में से एक माना जाती थीं।
• वर्ष 2008: सोनिया गांधी ने मद्रास यूनिवर्सिटी से साहित्य में मानद डॉक्टरेट प्राप्त किया।
• वर्ष 2009: सोनिया गांधी को फोर्ब्स पत्रिका द्वारा दुनिया की नवीं सबसे शक्तिशाली महिला के रूप में संबोधित किया गया था।
• वर्ष 2010: एक ब्रिटिश पत्रिका, न्यू स्टेट्समैन, ने दुनिया के 50 सबसे प्रभावशाली लोगों में उन्हें स्थान दिया था।
किताबें और वृत्तचित्र
- सोनिया गांधी से जुडी पुस्तकें:
• सोनिया गांधी – एन एक्स्ट्रा आर्डिनरी लाइफ- एन इंडियन डेस्टिनी (2011) (रानी सिंह द्वारा लिखित)
• सोनिया गांधी: ट्रिस्ट विद इंडिया (नुरुल इस्लाम सरकार द्वारा लिखित)
• सोनिया: एक जीवनी (रशीद किदवई द्वारा लिखित)
• एन एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर (संजय बारू द्वारा 2014 में लिखित)
वर्तमान समाचार
सोनिया गांधी जिनकी सरकार ने तेलंगाना क्षेत्र को आंध्र प्रदेश से अलग करने का प्रस्ताव पास किया था, संसद से अनुमति मिलने के बाद पहली बार इस क्षेत्र का दौरा किया।
नरेंद्र मोदी
नरेंद्र मोदी का जन्म उत्तर गुजरात मेहसाना जिले के छोटे से शहर में सितंबर 1950 में हुया था. उनके पिता का नाम दामोदर दास मूलचंद मोदी तथा माता का नाम हीराबेन था. यह अपने माता पिता के 6 संतानों में से तीसरे थे. वर्तमान में यह गुजरात के मुख्य मंत्री होने के साथ ही 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधान मंत्री पद के प्रत्याशी हैं.
शिक्षा
इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा वादनगर से की जहाँ वे एक औसत दर्जे के विद्यार्थी थे किंतु अपने शिक्षकों से वाद विवाद करने के लिए जाने जाते थे. परास्नातक की शिक्षा इन्होंने राजनीतिक विज्ञान में गुजरात विश्व विद्यालय से की.
व्यवसाय
युवा अवस्था में यह अपने भाई के साथ चाय की दुकान लगाते थे, इसके बाद इन्होने गुजरात राज्य सड़क परिवहन निगम की कैंटीन में भी 1970 तक काम किया.
1970 में यह आर एस एस के पूर्णकालिक प्रचारक बन गये.
संकटकाल के समय यह एबीवीपी के इंचार्ज थे.
1985 मे इन्होने भारतीय जनता पार्टी के सदस्य बने.
मुरली मनोहर जोशी की एकता यात्रा के दौरान ये सबकी नज़रों में आए.
1988 में मोदी बीजेपी के गुजरात इकाई के महा सचिव चुने गये.
1988 में ही इन्हे बीजेपी का राष्ट्रीय सचिव बना दिया गया.
7 अक्तूबर 2001 को मोदी गुजरात के मुख्य मंत्री बने.
27 फ़रवरी 2002 में इनके कार्यकाल में ही गोधरा कांड हुआ.
गोधरा कांड की वजह से ही मोदी को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा. जिसा चुनाव में बोजेपी को गुजरात विधानसभा चुनाव में 182 सीटों में से 127 सीटों की विजय मिली थी.
2002-2007 के अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी ने अपना दृष्टिकोण हिन्दुत्व से हटाकर गुजरात के विकास की ओर केंद्रित किया. जिसके साथ ही राज्य में वित्त व तकनीक पार्क शुरू हुए.
2007 में मोदी ने गुजरात के सबसे लंबे समय तक कार्यरत मुख्य मंत्री का रिकॉर्ड कायम किया. जिस चुनाव बीजेपी वापस से एक भारी बहुमत अर्थात 182 मे से 122 सीटों के साथ सत्ता मे आई एवं मोदी पुनः गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए.
इसके बाद 2012 के मतदान में बीजेपी फिर से मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आई.
2013 में बीजेपी के संसदीय बोर्ड में मोदी को पार्टी का उच्च स्तर का निर्णयकर्ता घोषित किया गया. इसके साथ ही आगामी आगामी चुनावी योजना के लिए अध्यक्ष भी नियुक्त किया गया.
सितंबर 2013 में बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए उन्हे अपना प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया.
सम्मान व पुरस्कार
2009 में एफ़डीयाई मैगजिंन ने मोदी को एफडीआई पर्सनॅलिटी ऑफ द ईयर के सम्मान से नवाजा.
श्री पूना गुजराती बंधु समाज ने इन्हें गुजरात रत्न के सम्मान से सुशोभित किया है.
कंप्यूटर सोसायटी ऑफ इंडिया ने मोदी को ई-रत्न का सम्मान दिया.
2006 में इंडिया टुडे मैगज़ीन के राष्ट्रीय सर्वेक्षण में मोदी को सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री घोषित किया.
2012 के टाइम मेगज़ीन के एशियाई संकरण में मोदी को कवर पृष्ठ पर स्थान दिया गया.
ई-प्रशासन के लिए सीएसआई अवॉर्ड, आपदा कमी के लिए यूएन ससाकवा अवॉर्ड, कॉमनवेल्थ असोसियेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन एंड मेनेजमेंट की ओर से प्रशासनिक नवीकरण अवॉर्ड, यूनेस्को अवॉर्ड.
उपलब्धि
नरेंद्र मोदी गुजरात के सबसे लंबे समय तक रहने वाले मुख्यमंत्री हैं.
पुस्तकें व प्रलेख
मोदी ने जो पुस्तकों की रचना की हैं- कन्वीनियेंट एक्शन: गुजरात’स रेस्पॉन्स टू चॅलेंजस ऑफ क्लाइमेट चेंज एवं साक्षीभाव.
नरेंद्र मोदी: द मैंन ये पुस्तक टाइम्स द्वारा मोदी पर है.
योगदान
गुजरात के एकीकृत विकास के लिए इन्होने पाँच स्तरीय पांचामृत योजना की शुरुआत की. वायबरेंट गुजरात नाम की योजना ने गुजरात को निवेश क लिए एक सर्वोत्तम स्थानों की सूची मे ला दिया. 2013 की वायबरेंट गुजरात सम्मेलन ने पूरे विश्व के 120 देशों के निवेश को आकर्षित किया.
वर्तमान
2014 के लोकसभा चुनाव मे मोदी वाराणसी व वडोदरा से खड़े होकर प्रधानमंत्री पद के बीजेपी के उम्मीदवार हैं.
अरविंद केजरीवाल
अरविंद केजरीवाल पूर्व सिविल सेवक व राजनेता हैं जिन्होने दिल्ली के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में 28 दिसंबर 2013 से 14 फ़रवरी 2014 तक कार्य किया. यह आम आदमी पार्टी के संयोजक हैं. यह सूचना के अधिकार को तृणमूल स्तर तक ले जाने एवं जनलोकपाल के प्रयासों के लिए जाने जाते हैं.
पारिवारिक विवरण
केजरीवाल ने सुनीता से शादी की जो कि उनके साथ नेशनल अकॅडमी ऑफ आड्मिनिस्ट्रेशन मसूरी एवं द नेश्नल अकॅडमी ऑफ डाइरेक्ट टेक्सेस, में उनकी सहपाठी थी, इनके 2 बच्चे हैं.
जीवनवृत्ति
अरविंद केजरीवाल ने लोक सेवा परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद 1995 में आईआरएस सम्मिलित हुए. वर्ष 2000 में उन्हे उच्च शिक्षा हेतु 2 वर्ष का सवेतन अवकाश इस शर्त पर दिया गया कि वह अगले 3 वर्ष तक सेवा नही छोड़ सकते. ऐसा ना करने पर उन्हें अपने अवकाश के काल की राशि वापस करनी होगी. प्रत्युत्तर में 2003 में वापस आकर अवैतनिक अवकाश पर जाने से पहले 18 महीने तक सेवा की. 2006 में इन्होने अपने आयकर के ज्वाइंट कमिश्नर के पद छोड़ दिया. भारत सरकार द्वारा यह दावा किया गया केजरीवाल ने 3 साल तक नौकरी ना कर के अपने अनुबंध को तोड़ा है. इस पर केजरीवाल का कहना था की 18 माह का कार्य तथा 18 महीने तक अवैतनिक कार्य उस 3 साल के बराबर है. इसके बाद केजरीवाल अन्ना के साथ उनके भ्रष्टाचार विरोधी कार्यक्रम में जुड़ गये. यह विवाद तब तक चला जब तक 2011 में उन्होने सेवा से खुद को पूरी तरह मुक्त करने के लिए जुर्माना नहीं दिया.
व्यवसाय
अरविंद केजरीवाल – खरगपुर से आई आई टी हैं (मेकॅनिकल इंजिनी.)
वह पूर्व आई ए एस अधिकारी हैं. हे
वह आयकर विभाग में पूर्व जॉइंट कमिशनर रह चुके हैं.
वे भारत को एक बहुत ही शक्तिशाली अधिकार ‘सूचना का अधिकार’ दिलाने वाले मुख्य कार्यकर्ताओं में से एक हैं.
वर्ष 2006 में रमन मेगसेसे अवॉर्ड फॉर एमर्जेंट लीडरशिप के विजेता रह चुके हैं.
इन्होंने प्रशांत भूषण एवं मनीष सिसोदिया के साथ मिल कर पब्लिक कॉस रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना की है.
वर्ष 1999 में इन्होंने परिवर्तन नाम का एक आंदोलन शुरू किया जिसका उद्देश्य ग़रीबों को उनके अधिकार व करों की जानकारी देना था.
जन लोकपाल आंदोलन से जुड़ने से पूर्व इन्होने आरटीआई का प्रयोग जल, बिजली, एवं पीडीएस में होने वाली जल्दबाज़ी को जानने के लिए किया.
इन्होनेसक्रियतवादियों के साथ मिल कर जन-लोकपाल को तैयार किया तथा उसे पारित करने के लिए 2 साल तक लड़ते रहे.
इन्होंने आम आदमी पार्टी की स्थापना की.
यह दिल्ली के मुख्य मंत्री रहे हैं.
सम्मान व पुरस्कार
2004: अशोका फेलो; सिविक एंगेज्मेंट
2005: सतेंद्र के दूबे मेमोरियल अवॉर्ड आईआईटी कानपुर से उनके द्वारा सरकार में स्पष्टता लाने के लिए दिया गया.
2006: रमन मग्सेयसे अवॉर्ड, उद्गमी नेतृत्व के लिए.
2006: सीएनएन- आईबीएन की ओर से लोक सेवा में ‘इंडियन ऑफ द ईयर अवॉर्ड’.
2009: डिस्टिंग्विश्ड अलम्नस अवॉर्ड, प्रभावी नेतृत्व के लिए आईआईटी खरगपुर के तरफ से.
2009: असोसियेशन फॉर इंडियन डेवेलपमेंट की ओर से ग्रांट व फ़ेलोशिप अवॉर्ड.
2010: पॉलिसी चेंज एजेंट ऑफ द ईयर – एकनामिक टाइम्स अवॉर्ड्स, निगम उत्कृष्टता के लिए अरुणा रॉय के साथ.
2011: एनदीटीवी इंडियन ऑफ द ईयर अवॉर्ड अन्ना हज़ारे के साथ.
2013: राजनीति में सीएनएन- आईबीएन का इंडियन ऑफ द ईयर.
2013: टाइम्स ऑफ इंडिया – पर्सन ऑफ द ईयर.
उपलब्धि एवं योगदान
दिल्ली में 49 दिनों की उपलब्धि
– वी आई पी / लाल बत्ती की संस्कृति का अंत.
– 400 यूनिट तक खपत करने वालों के लिए आंशिक बिजली बिल.
– प्रति माह 20 लीटर जल खपत करने वालो के लिए मुफ़्त जल.
– 58 नये रात्रि विश्राम गृह पूर्व के 175 पुराने विश्राम गृहों के साथ 1 माह में ही जोड़े गये.
– नियंत्रक व महालेखा परीक्षक को लेखा परीक्षण के आदेश.
– 800 जल बोर्ड के कर्मचारियों का स्थानांतरण व 3 को निष्कासित किया.
– भ्रष्टाचार के लिए सहायता लाइन नंबर 1031 की शुरुआत.
– नर्सरी स्कूल एडमिशन हैल्पलाइन की शुरुआत.
– स्कूलों मे एडमिशन के लिए डोनेशन पर पाबंदी.
– राशन माफ़िया पर अवरोध.
– वाइफ ऑफ देल्ही पोलीस को 1 करोड़ दिए गये.
– जल टैंकर माफ़िया पर अवरोध.
– काबिनेट से दिल्ली जनलोकपाल बिल व नगर स्वराज बिल पारित.
– सरकारी स्कूलों को 1-1 लाख रुपए उनके आधारबूत संरचना को सुधारने के लिए दिया गया.
– एन सी आर क्षेत्र में 5500 ऑटो रिक्शा वालों को अनुमति.
– 1984 के सिक्ख दंगों की जाँच के लिए एक व्यवस्थित एसआईटी की रचना.
– महिला सुरक्षा फोर्स हेतु समिति का निर्माण.
– अनुबंध लेबर को स्थाई बनाने व अतिथि शिक्षक की जाँच के लिए समिति का निर्माण.
– सरकारी अस्पताल, स्कूलों, रात्रि विश्राम गृह, यातायात बसों के प्रशासन के लिए अवरोध.
– खिलाड़ियों को विशेष सुविधा.
– विद्यार्थियों के लिए बस पास की सुविधा.
– कई सरकारी कर्मचारियों की नियुक्ति.
– ग़लत बिजली के . मीटरों की जाँच के लिए आदेश जारी.
– कॉमनवेल्थ लाइट्स घोटाले के लिए एफआईआर राजिस्टर किए गये.
-गैस प्राइस घोटाले के लिए एफआईआर रजिस्टर किए गये.
-जल – बोर्ड घोटाले में 3 एफआईआर सूचीबद्ध किए गये.
– लघु उद्योगों पर लगने वाले टैक्स रिबेट व वैट का सरलीकरण जिसमें 1 करोड़ तक का कर सम्मिलित हैं.
पुस्तकें एवं प्रलेख
स्वराज नामक पुस्तक भारतीय सामाजिक सक्रिय कार्यकर्ता व राजनेता अरविंद केजरीवाल द्वारा रचित हैं. यह पुस्तक कई भाषाओं मे उपलब्ध है जिसमें हिन्दी, अँग्रेज़ी, मलयालम सम्मिलित हैं, इस पुस्तक में भारत के वर्तमान के लोकत्रंतिक मंच के इर्द गिर्द का वर्णन है तथा भारत में लोगो को किस प्रकार सही मायनों में स्वराज की प्राप्ति हो सकती है उसकी अनुशंसा करती है.
वर्तमान
अरविंद केजरीवाल वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री के पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के विपक्ष में वाराणसी से चुनाव लड़ रहे हैं.