History

चालुक्य और पल्लव

चालुक्य शासको ने रायचूर दोआब के मध्य शासन किया था, जोकि कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच स्थित था. चालुक्यों की पहली राजधानी एहोल ( मंदिरों का शहर)थी. यह व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र था और बाद में एक धार्मिक केन्द्र के रूप में विकसित हुआ था, इसके आस – पास मंदिरों की संख्या अधिक थी. बाद में पुलकेशिन प्रथम के समय चालुक्यो की राजधानी बादामी स्थानांतरित कर दी गयी.बादामी को वातापी के नाम से भी जाना जाता था.

चालुक्य वंश के शासक (543-755 ईस्वी)

जयसिम्हा: इस वंश का प्रथम शासक था.

पुलकेशिन प्रथम: यह  चालुक्य साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था. इसकी राजधानी वादामी(वातापी) था  .

कीर्तिवर्मन: वह पुलकेशिन प्रथम पुत्र था. वह 566 ई. में सिंहासन पर बैठा. वह बनवासी के कदम्ब और बस्तर के नलों के खिलाफ युद्ध लडा.

पुलकेशिन द्वितीय : वह अपने चाचा मंगलेश ( कीर्तिवर्मन का भाई ) के खिलाफ युद्ध छेड़ने के बाद 608 ई. में सिंहासन पर बैठा. के लिए आया था. कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक था. वह हर्षवर्धन (पुष्यभूति राजवंश का शासक ) का समकालीन था. हमें पुलकेशिन द्वितीय के बारे में जानकारी उसके दरबारी कवि रविकीर्ति  द्वारा प्राकृत भाषा में रचित ऐहोले नाम के एक प्रशस्ति से पता चलता है. पुलकेशिन द्वितीय ने हर्षवर्धन को नर्मदा के तट पर  हराया था और लट , मालव और गुज्जरो  की स्वैच्छिक हार को स्वीकार किया था. शुरू में वह पल्लवों के खिलाफ विजय हासिल किया था, लेकिन पल्लव शासक नरसिम्हवर्मन ने न केवल उसे पराजित किया बल्कि, बादामी पर कब्जा भी कर लिया. नरसिम्हवर्मन ने वातापिकोंडा की उपाधि ग्रहण की. पुलकेशिन द्वितीय की प्रसिद्धि फारस तक चर्चित थी जिनके साथ उसने अपने दूतो का आदान-प्रदान भी किया. ह्वेन त्सांग ( चीनी यात्री ) ने पुलकेशिन द्वितीय के दरबार का दौरा किया था.

विक्रमादित्य प्रथम : यह पुलकेशिन के पुत्रों में से था. इसने अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिये कांची आक्रमण किया और उस पर कब्जा कर लिया.

विनयादित्य : इसने एक शांतिपूर्ण और समृद्ध राज्य का नेतृत्व किया.

विजयादित्य : इसका शासन काल सबसे लंबे समय तक विद्यमान रहा.

विक्रमादित्य द्वितीय : यह पल्लवों  के खिलाफ अपने तीन बार सफल आक्रमण के लिए प्रसिद्ध था.

कीर्तिवर्मन द्वितीय : यह अंतिम चालुक्य शासक था. यह दन्तिदुर्ग ( राष्ट्रकूट राजवंश के संस्थापक) से हार गया था.

ऐहोले  शिलालेख : यह शिलालेख पुलकेशिन द्वितीय के पूर्वजों के बारे में संबंधित है. इस प्रशस्ति में पिता से लेकर पुत्र तक की चार पीढ़ियों के बारे में उल्लेख करता है. इस प्रशस्ति में राविकिर्ती बताता है की,पुलकेशिन द्वितीय ने अपने अभियान का नेतृत्व किया पश्चिम और पूर्व दोनों के किनारे-किनारे किया था.

पल्लव (560-903 .)

इस राज्य की राजधानी कांचीपुरम थी जोकि कावेरी डेल्टा के चारों तरफ फैला हुआ था. पल्लवों शासको ने सातवाहनो के पतन के बाद दक्षिण भारत में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की और छठी शताब्दी से लेकर  आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक शासन किया.  वहां से वे कांची और फिर आंध्र की तरफ गए जहाँ उन्होंने एक शक्तिशाली पल्लव साम्राज्य की स्थापना की.

पल्लवों की उत्पत्ति

पल्लव की उत्पत्ति के संबंध में ढेर सारे विवाद है. उनके सन्दर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य निम्नवत हैं.

  • संभवतः वे ग्रीक पारथियों के वंशज थे जो की सिकंदर के आक्रमण के बाद भारत आये थे.
  • संभवतः वे एक स्थानीय आदिवासी कबीले के थे जिन्होंने वे अपना अधिकार तोंदैन्नादु में या लताओं की भूमि में स्थापित किया था.
  • वे चोल और नागों के विवाहोपरांत उत्पन्न हुए थे.
  • वे उत्तर के रूढ़िवादी ब्राह्मण थे और उनकी राजधानी कांची थी.

पल्लव राजवंश के महत्वपूर्ण शासकों

सिम्हविष्णु : इस वंश का प्रथम महत्वपूर्ण शासक था . सिम्हविष्णु  ने चोल राज्य पर कब्जा कर लिया और बाद में सिलोन सहित अन्य दक्षिणी क्षेत्रों पर भी अपना अधिकार जमा लिया.

महेन्द्रवर्मन प्रथम: पुलकेशिन द्वितीय ने इसे पराजित किया था. संत अप्पर और विद्वान भरावी को इसने  संरक्षण दिया था. महेन्द्रवर्मन प्रथम ने ‘मत्ताविलासप्रहासन’ नामक एक व्यंग्य नाटक की रचना की थी.

नरसिम्हवर्मन प्रथम: वह पुलकेशिन द्वितीय पर अपनी विजय उसके साम्राज्य पर कब्जा करने के लिए प्रसिद्ध था. उसने वातापिकोंडा (वातापि के विजेता )की उपाधि ग्रहण की थी. बाद में चोल, चेर और पांड्य, नरसिम्हवर्मन- प्रथम के द्वारा पराजित किये गए. ह्वेन त्सांग ने उसके शासन काल के दौरान कांचीपुरम का दौरा किया था. नरसिम्हवर्मन प्रथम ने महाबलीपुरम शहर ( मामल्लपुरम ) की स्थापना की थी और प्रसिद्ध अखंड (एकल पत्थर से बना गुम्बद) रॉक कट मंदिरों की स्थापना की. इसके अलावा उसने सीलोन में दो नौसैनिक अभियानों को भी भेजा.

महेन्द्रवर्मन -द्वितीय: वह विक्रमादित्य-प्रथम के द्वारा मारा गया था.

अन्य पल्लव राजाओं में परमेस्वरवर्मन-प्रथम, नरसिंहवर्मन- द्वितीय , परमेस्वरवर्मन- द्वितीय और नन्दिवर्मन-द्वितीय आदि शामिल थे.

पल्लव और चालुक्य राजाओं के बीच संघर्ष

पल्लव और बादामी के चालुक्य राजाओं के बीच संघर्ष का मुख्य कारण सिंहासन, प्रतिष्ठा और क्षेत्रीय संसाधनों की प्राप्ति का था. यह संघर्ष 8 वीं सदी से छठी शताब्दी तक जारी रहा. बाद में मदुरै और तिन्नेवेल्ली  के नियंत्रण में पाण्ड्य राजा भी इस संघर्ष में शामिल हो गए . दोनों राज्यों ने कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच के क्षेत्र पर वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास किया.

इस संघर्ष के दौरान महत्वपूर्ण घटनाएं

  • पुलकेशिन-द्वितीय ( 609-642 ) इस संघर्ष के दौरान पल्लव शासकों की राजधानी तक पहुंच गया.
  • पल्लव क्षेत्र पर अधिकार के लिए उसका दूसरा प्रयास भी असफल रहा.
  • पल्लव राजा नरसिम्हवर्मन (ई. 630-668 ) ने वातापी राज्य पर 642 ई. के आस-पास कब्जा कर लिया था.
  • पुलकेशिन-द्वितीय 642 ई. के आसपास मारा गया.
  • चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय (ई.733-745ईस्वी ) के बारे में यह कहा जाता है की उसने  कांची पर तीन बार अधिकार किया था. उसने 740 ई. में पल्लवो को पूरी तरह से पराजित कर दिया था.
  • चालुक्यों राजाओं ने अश्वमेध यज्ञ(एक घोडे का बलिदान) का आयोजन किया था.
  • परवर्ती चालुक्य राजाओं के द्वारा बिल्हण और विग्नेस्वर  जैसे महान विद्वानों को संरक्षित किया गया था.
  • ह्वेन त्सांग ने पुलकेशिन- द्वितीय: के दरबार की यात्रा की थी.

 

अजातशत्रु और बिम्बिसार की कहानी

जैसे-जैसे समय बीतता गया, मगध उत्तरी भारत के सभी राज्यों के बीच शक्तिशाली राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया था. राजगृह  मगध की राजधानी थी. कुछ भौगोलिक परिस्थितियों के कारण मगध साम्राज्य की  महानता स्थापित हुई . तांबे और लोहे के भण्डार गया के पास पाये गये. गंगा घाटी के आस-पास  की मिटटी उपजाऊ थी. इस प्रकार मगध के लिये यह एक महत्वपूर्ण लाभ था. मगध का नाम बिम्बिसार और अजातशत्रु के समय के समाया में, अपने चरम बिंदु पर पहुंच गया था.

बिम्बिसार ( 546-494 ईसा पूर्व )

बिम्बिसार 544 ईसा पूर्व से 492 ईसा पूर्व तक 52 वर्षों तक शासन किया. वह अपने बेटे अजातशत्रु ( 492-460 ईसा पूर्व )के द्वारा कैद में डाल दिया गया था और बाद बाद में उसकी हत्या कर दी गयी थी. बिम्बिसार मगध का शासक था. वह हर्यंक राजवंश से सम्बंधित था.
वैवाहिक गठबंधन के माध्यम से उसने अपनी स्थिति और समृद्धि को मजबूत बनाया. उसका पहला गठबंधन कोशल से था, जहाँ की रानी का नाम कोसला देवी था. वह कासी क्षेत्र को दहेज के रूप में प्राप्त किया था. उसके बाद  बिम्बिसार लिच्छवि परिवार की राजकुमारी चेल्लना से विवाह किया था इस रिश्ते की वजह से उसे उत्तरी सीमा की तरफ से सुरक्षा प्राप्त हुई. एक बार फिर वह केंद्रीय पंजाब में अवस्थित मद्र शाही घराने की राजकुमारी खेमा से शादी कर ली. उसने अंग के राजा ब्रह्मदत्त को  हराया और उसके साम्राज्य पर कब्जा कर लिया. उसका अवंति के साथ बेहतर संबंध था.

अजातशत्रु ( 494-462 ईसा पूर्व )

अजातशत्रु ने अपने पिता को मारकर उसका राज्य छीन लिया. अपने शासन काल के दौरान वह विस्तार की आक्रामक नीति का पालन करता रहा. इस तरह वह काशी और कोशल की तरफ उन्मुख हुआ.इसकी वजह से  मगध और कोशल के बीच लंबे काल तक अशांति विद्यमान रही. कोशल राजा ने अजातशत्रु से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया और उसे काशी देकर शांति स्थापित किया. अजातशत्रु ने वैशाली के लिक्ष्वियों के खिलाफ युद्ध की घोषणा की और वैशाली गणतंत्र पर विजय प्राप्त की. यह युद्ध सोलह वर्षों तक जारी रहा.

शुरुआत में जैन धर्म का अनुयायी था लेकिन बाद में बौद्ध धर्म को समर्थन देना शुरू किया. उसने कहा कि वह गौतम बुद्ध से मिला था. यह दृश्य भरहुत की मूर्तियों से प्रमाणित है. उसने कई चैत्यों और विहारों का निर्माण करवाया था. बुद्ध की मृत्यु के बाद प्रथम बौद्ध परिषद में वह उपस्थित थ.

 

मौर्य साम्राज्य : महत्व और साहित्यिक स्रोत

भारतीय इतिहास में  मौर्य साम्राज्य की स्थापना एक नये युग की शुरुआत थी| यह पूरे भारतीय इतिहास में राजनीतिक एकजुटता का प्रथम प्रयास था| इसके अलावा इतिहास लेखन और स्रोतों में सटीकता के कारण इस काल से इतिहास का लेखन आसन हो गया| साथ-साथ देशी और विदेशी साहित्यिक स्रोतों भी पर्याप्त रूप में उपलब्ध थे| इस साम्राज्य ने बड़ी मात्रा में पुरालेखीय रिकॉर्ड इस अवधि के इतिहास लिखने के लिए छोड़ दिया है|

इसके अलावा , मौर्य साम्राज्य से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण पुरातात्विक तथ्य भी जिसमे पत्थर की मूर्तियां  मौर्य कला के नायाब उदाहरण थे| कुछ विद्वानों का सुझाव है की अशोक के शिलालेख उसके शक्तिशाली और मेहनती होने का संदेश देते हैं, जो अधिकांश अन्य शासकों से पूरी तरह से अलग था| वह भव्य खिताब अपनाने वाले अन्य (बाद में) शासकों की तुलना में अधिक विनम्र था| अतः यह आश्चर्य की बात नहीं की राष्ट्र के नेताओं के द्वारा उसे एक प्रेरक व्यक्तित्व के रूप मे सम्मान दिया जाता है|

साहित्यिक स्रोत

कौटिल्य का अर्थशास्त्र : इस संस्कृत में लिखित एक किताब थी| इसका लेखक कौटिल्य था| इसे ‘ भारत का मैकियावेली ‘ कहा जाता है| सन 1904 में आर. शाम. शास्त्री ने प्रथम बार अर्थशास्त्र की पांडुलिपि की खोज की थी| यह ग्रन्थ 15 अधिकरण में विभाजित किया गया है जोकि आगे तीन भागो के अंतर्गत 180 पाठों में विभाजित किया गया है|

इसके पहले भाग में शासक और उसकी परिषद् एवं सरकार के विभिन्न विभागों की चर्चा की गयी है| इसके दुसरे भाग मेंसिविल और क्रिमिनल नियम कानूनों का वर्णन है| तीसरे भाग में युद्ध और कूटनीति का जिक्र किया गया है| यह ग्रन्थ मौर्य साम्राज्य के इतिहास के लिए सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक स्रोत है| इसमें ग्रन्थ में मौर्या आंतरिक प्रशासन और विदेशी सम्बन्धो आदि सभी विषयों का जिक्र किया गया है|

मेगस्थनीस की इंडिका

मौर्या साम्राज्य के बारे में जानकारी का अन्य स्रोत ग्रीक में मेगास्थनीज  द्वारा लिखित इंडिका है| मेगस्थनीस चंद्रगुप्त मौर्य का दरबारी था| वह सेल्यूकस निकेटर का यूनानी राजदूत था| इसने अपना काफी समय चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में बिताया था| उसने अपना वर्णन अपनी पुस्तक इंडिका में किया था जोकि कई भागो में है फिर भी, उसकी किताब मौर्य प्रशासन के बारे में जानकारी देता है| उसने अपनी पुस्तक में पाटलिपुत्र की राजधानी और उसके प्रशासन और सैन्य संगठन के बारे में विशेष रूप से उल्लेख किया गया था| उसने समकालीन सामाजिक जीवन के बारे में उल्लेखनीय चित्रण किया है|

विसाखदत्त की मुद्रराक्षस :  यह संस्कृत में लिखित एक नाटक है| यद्यपि इसका लेखन कार्य गुप्त काल के दौरान किया गया है, लेकिन यह ग्रन्थ कौटिल्य की सहायता से नंद शासक के ऊपर चंद्रगुप्त मौर्य की विजय के बारे में वर्णन करता है| यह ग्रन्थ भी मौर्य शासकों के शासन काल में  सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देता है|

अन्य साहित्य

अन्य स्रोतों के रूप में पुराणों,बौद्ध साहित्य जैसे जातक कथाओं से मौर्य साम्राज्य के बारे में जानकारी प्राप्त होती है| सिलोन के कुछ प्रमाण, दीपवंश और महावंश आदि ग्रन्थ भी श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रसार में अशोक की भूमिका पर प्रकाश डालते हैं|

पुरातात्विक स्रोत

अशोक के शिलालेखों

1837 में जेम्स प्रिंसेप ने पहली बार पाली भाषा में लिखित अशोक के शिलालेखों के बारे में जानकारी दी थी| उसके कुछ अभिलेखों में प्राकृत भाषा का भी इस्तेमाल किया गया था| ब्राह्मी लिपि शिलालेखों पर लिखने के लिए इस्तेमाल की गयी थी| अशोक के इन शिलालेखों पर अशोक के धम्म के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ उसके अधिकारियों को दिए गए निर्देशों के बारे में भी उल्लेख मिलता है| तेरहवें शिलालेख में वह कलिंग के खिलाफ लड़े गए युद्ध के बारे में जानकारी देता है|

पश्चिमोत्तर भारत में पाए गए अशोक के शिलालेख खारोष्टि लिपि में लिखे गए है| अशोक के कुल चौदह प्रमुख  शिलालेख मिले हैं I कलिंग के दो शिलालेख नव विजित रूप में प्राप्त किये गए हैं| अशोक के बहुत सारे प्रमुख स्तंभ शिलालेखों को कई महत्वपूर्ण शहरों मेंलगाया गया है| कुछ स्तंभ शिलालेख छोटे थे, जबकि कुछ शिलालेखों मामूली रॉक शिलालेखों थे| सातवा स्तंभ लेख राज्य के भीतर धम्म को बढ़ावा देने के उसके प्रयासों को वर्णित करता है| इस प्रकार अशोक के शिलालेख अशोक और मौर्य साम्राज्य के अध्ययन के लिए मूल्यवान स्रोत बने हुए हैं|

 

मौर्य साम्राज्य : प्रशासनिक संरचना

मौर्य साम्राज्य पाटलिपुत्र में शाही राजधानी के साथ चार प्रांतों में विभाजित किया गया था. अशोक के शिलालेखों में वर्णित  चार प्रांतीय राजधानियों के नाम तोसली ( पूर्व में ), पश्चिम में उज्जैन, (दक्षिण में) सुवर्नगिरी, और (उत्तर में) तक्षशिला थी.  मेगस्थनीज के अनुसार, मौर्या साम्राज्य के पास 600,000 पैदल सेना  , 30,000 घुड़सवार सेना, और 9000 युद्ध हाथियों का दल था जिसका इस्तेमाल युद्ध में किया जाता था. आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के उद्देश्य से यहाँ एक व्यापक जासूसी प्रणाली अधिकारियों और संदेशवाहकों पर नजर रखने के लिए स्थापित की गयी थी. राजा के द्वारा चरवाहों , किसानों , व्यापारियों और कारीगरों आदि से कर लेने के लिए अधिकारियों की नियुक्ति की गयी थी.

केंद्र में प्रशासन की एक विशाल व्यवस्था की गयी थी. शासक इस प्रशासन पर सड़कों और नदियों के माध्यम से नियंत्रण रखता था. सड़क और नदियां परिवहन और संचार तथा आर्थिक संसाधनों के महत्वपूर्ण साधन थे जोकि कर प्रणाली के माध्यम से प्राप्त होते थे. थल और जल दोनों मार्गों के साथ संचार व्यवस्था  साम्राज्य के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण साधन थे. कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार उत्तर-पश्चिम मार्ग कम्बलों के लिए और दक्षिण भारत कीमती पत्थरों और सोने के लिए महत्वपूर्ण था.

राजा प्रशासनिक अधिरचना और मंत्रियों एवं उच्च अधिकारियों के चयन का प्रमुख  केंद्र था. प्रशासनिक संरचना निम्नानुसार थी:

राजा की सहायता मंत्रिपरिषद के सदस्य (मंत्रियों का संघ) किया करते थे,जिनके सदस्य निम्नलिखित हैं-

युवराज : राज्य का राजकुमार

पुरोहित : मुख्य पुजारी

सेनापति : प्रमुख कमांडर

अमात्य : सिविल सेवको और कुछ अन्य मंत्रियों का पद.

कुछ विद्वान यह बताते है कि  मौर्य साम्राज्य को विभिन्न विभागों में महत्वपूर्ण अधिकारीयों के साथ विभाजित किया गया था.

राजस्व विभाग: महत्वपूर्ण अधिकारी: सन्निधाता : मुख्य कोषागार अधिकारी,समाहर्ता : राजस्व का कलेक्टर जनरल

सैन्य विभाग: मेगास्थनीज  सैन्य गतिविधि के समन्वय के लिए छह उपसमितियों की चर्चा करता हैजिनमे से प्रथम नव सेना को दूसरा परिवहन व्यवस्था को और तीसरा पैदल सेना को चौथा अश्वा सेना को पांचवां रथ सेना को छठा हस्ति सेना को देखता था और उनका प्रबंधन करता था.

वाणिज्य और उद्योग विभाग: एक महत्वपूर्ण बाजार अधीक्षक के अधीन.

जासूसी विभाग: महामात्यापसर्पा, गुढपुरुष ( गुप्त एजेंट )के ऊपर नियंत्रण स्थापित करता था.

पुलिस विभाग: जेल बन्धंगारा  के रूप में जाना जाता था  और यह लॉक अप जिसे चरका से भिन्न था. राज्य के सभी प्रमुख केंद्रों में पुलिस क्वार्टर मौजूद थे.

प्रान्तीय और स्थानीय प्रशासन महत्वपूर्ण अधिकारी
प्रादेशिक वर्तमान जिला अधिकारी
स्थानिक प्रादेशिक के अंतर्गत कर संग्राहक अधिकारी
दुर्गपाल किले का राज्यपाल
अन्तपाल सीमांत प्रदेश का गवर्नर
अक्षपटलिक अकाउंटेंट जनरल
लिपिकरस लिपिक
गोप एकाउंटिंग के लिए जिम्मेदा

 

नगर प्रशासन महत्वपूर्ण अधिकारी
नागरक नगर प्रमुख
नवध्यक्षा जहाजों का अधीक्षक
शुल्काध्यक्षा करो का संग्राहक
सीताध्यक्ष कृषि अधिकारी
समस्थाध्यक्षा बाज़ार अधीक्षक
लोहाध्यक्षा लौह विभाग का अध्यक्ष
अकराध्यक्षा खानों का अध्यक्ष
पौत्वाध्यक्षा माप और तौल अधीक्षक

मेगस्थनीस पाटलिपुत्र में छह समितियों की चर्चा करता है जिसमे से पाँच समितियां पाटलिपुत्र के प्रशासन की देखभाल  करती थीं.

उद्योग, विदेशियों के बारे में जानकारी रखना, जन्म और मृत्यु का पंजीकरण, व्यापार, निर्माण और माल की बिक्री एवं कर के संग्रह आदि कार्य प्रशासन के नियंत्रण में थे.

गुप्तोत्तर काल

5वी शताब्दी के आस-पास गुप्त साम्राज्य का पतन होना प्रारंभ हो गया था। गुप्त साम्राज्य के पतन के  साथ ही मगध एवं उसकी राजधानी पाटलिपुत्र ने भी अपना महत्व खो दिया। इसीलिए गुप्तोत्तर काल पूरी तरह से संघर्ष से भरा पड़ा है। गुप्तो के पतन के परिणामस्वरूप उत्तरी भारत में  5 शक्तिशाली साम्राज्यों के उद्भव हुआ ये राज्य निम्नलिखित हैं।

1-हूण – हूण मध्य एशिया की सामान्य जनजातियां थी जो की भारत आई थीं। कुमारगुप्त के काल में हूणों ने पहली बार भारत पर आक्रमण किया था, यद्यपि वे कुमारगुप्त और स्कन्दगुप्त के काल में सफल तो नहीं हो पाए लेकिन फिर भी भारत में उनका प्रवेश संभव हुआ। हूणों ने बहुत अल्प काल तक (30 साल)भारत में शासन किया .फिर भी उत्तरी भारत में उन्होंने अपनी शक्ति को स्थापित किया।
तोरमाण उनका सबसे शक्तिशाली राजा और मिहिरकुल उनका सबसे संस्कृति सम्पन्न शासक था।
2.मौखरी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कन्नौज के आस-पास मौखरियों का शासन था। उन्होंने भी मगध के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त किया था। क्रमश: उत्तरी गुप्त शासको के द्वारा वे पराजित हुए और मालवा की तरफ निष्कासित कर दिए गए।
3. मैत्रक- मैत्रको के बारे में यह संभावना लगाई जाती है की ये ईरान के रहने वाले थे और गुजरात में सौराष्ट्र क्षेत्र में शासन किया था। उनकी राजधानी बल्लभी थी। इनके शासन काल में वल्लभी ने कला ,संस्कृति,व्यापार,वाणिज्य आदि के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की, जिसने अरबो के आक्रमण तक अपनी उपस्थिति बनाये रखा।
4.पुष्यभूति- पुष्यभूतियो की राजधानी थानेश्वर(उत्तरी दिल्ली) थी। प्रभाकर बर्धन इस साम्राज्य का सबसे मह्त्वपूर्ण शासक था। उसने परम भट्टारक महाराजाधिराज नामक उपाधि धारण की थी। मौखरियो के साथ उनके वैवाहिक सम्बन्ध थे। वैवाहिक संबंधो की वजह से दोनों साम्राज्यों की शक्ति में वृद्धि हुई। हर्षबर्धन इसी गोत्र से सम्बन्ध रखता था।
5. गौड़- गौडो ने बंगाल के ऊपर शासन किया था। उपरोक्त चार राज्यों में ये सबसे छोटे राज्य थे। गौडो का सबसे महत्वपूर्ण और शास्क्तिशाली राजा शशांक था। उसने मौखरियो के ऊपर आक्रमण करके ग्रहवर्मन को को पराजित किया और राज्यश्री को बंदी बना लिया।

महत्वपूर्ण साम्राज्य और शासक:
हर्षबर्धन का साम्राज्य
हर्षबर्धन(606- 647 ईस्वी): हर्षबर्धन ने 1400 वर्ष पूर्व शासन किया था। बहुत सारे ऐतिहासिक स्रोत हर्षबर्धन के साम्राज्य के बारे में उल्लेख करते है।
ह्वेनसांग इसने सी-यू-की नामक ग्रन्थ की रचना की थी।
बाणभट्ट-इन्होने हर्षचरित्र(हर्षबर्धन के उत्कर्ष और उसके साम्राज्य,शक्ति और उसकी आत्मकथा का उल्लेख) कादम्बरी और प्रभावती परिणय की रचना की थी।
हर्ष के रचना-हर्ष ने स्वयं राजनितिक परिस्थितियों का वर्णन करने के लिए रत्नावाली,नागानंद, और प्रियदर्शिका की रचना की थी। हर्षबर्धन ने स्वयं हरिदत्त और जयसेन को संरक्षण दिया था।
हर्ष की शक्ति का उत्कर्ष– अपने बड़े भाई राज्यबर्धन र्धन की मृत्यु के बाद हर्ष 606 ईस्वी में राजा बना। राजा बनाने के बाद उसने अपने भाई की मौत का बदला लेने और अपनी बहन को मुक्त कराने के लिए  बंगाल के राजा शशांक के बिरुद्ध एक बृहद अभियान का नेतृत्व किया। गौडो के विरुद्ध अपने प्रथम अभियान में वह असफल रहा लेकिन जल्दी ही उसने अपने साम्राज्य का बिस्तार किया।
हर्षबर्धन का प्रशासन

अधिकारी प्रशासन का क्षेत्र 
महासंधि बिग्राहक शांति और युद्ध का सबसे बड़ा अधिकारी
महाबलाधि कृत थल सेना का प्रमुख अधिकारी
बलाधिकृत कमान्डर
आयुक्तक सामान्य अधिकारी
वृहदेश्वर अश्व सेना का प्रमुख
दूत राजस्थारुया विदेश मंत्री
कौतुक हस्ती सेना का प्रमुख
उपरिक महाराज राज्य प्रमुख

 

गुजरात में पाए गए हड्प्पन शहरों की सूची

सिंधु घाटी सभ्यता जिसे की हम हडप्पा सभ्यता के नाम से भी जानते हैं विश्व की प्राचीनतम महान सभ्यता थी| स्वतंत्रता पश्चात पुनरखनन के बाद जिसे हडप्पा सभ्यता का प्रथम स्थल माना गया वह गुजरात के रंगपुर में लिंबी तालुका जिले पास है | सन 1954-1958 तक गुजरात में तथा सौराष्ट्र एवं कच्छ प्रायद्वीप के पास होने वेल सभी सर्वेक्षणो में हडप्पा सभ्यता के विभिन्न चरणों को देखा गया |  हडप्पा वासियों ने 2500 ईसा पूर्व में कच्छ के मार्ग से होते हुए एक बहुत ही अद्भुत तरीके से बसना प्रारंभ किया था |

लोथल

– गुजरात में स्थित यह स्थल 1957 में एस आर राव द्वारा खोजा गया |
– सिंधु घाटी सभ्यता का यह शहर गुजरात मे भोगवा नदी के किनारे बसा था, तथा यह गुजरात के साबरमती नदी की उपनदी के किनारे बसा था जो की खंभात की खाड़ी के पास था | यह उन स्थानों से करीब था जहाँ की अर्ध बहुमूल्य कीमती पत्थर आसानी से उपलब्ध हो सके |
– लोथल का नाम अहमदाबाद में ढोलका तालुका में सर्जवाला गाँव में एक टीले के प्राप्त होने के कारण पड़ा था |
– यह सिंधु घाटी का एकमात्र स्थल है जहाँ नकली इंटो का बना हुआ गोदी बाड़ा प्राप्त हुआ है और ऐसा अनुमान है क यह गोदी बाड़ा सिंधु के लोगों के लिए सामुद्री मार्ग का एक महत्वपूर्ण ज़रिया होगा. जो की एक बड़ी दीवार से चारो ओर से घिरा हुआ था जो की संभवतः बाढ से बचने के लिए बनाई गयी होगी |  विश्व का प्रथम ज्वारीय तट भी लोथल मे ही प्राप्त हुआ है |
– लोथल से ही दो लोगो के साथ दफ़नाए जाने का साक्ष्य भी मिलता है |
– 1800 ईसा पूर्व के काल का लोथल मे धान की कृषि का भी साक्ष्य भी मिलता है| धान की कृषि के अन्य स्थल रंगपुर एवं अहमदाबाद हैं |
– लोथल एवं चनूडारो में मोतियों की दुकान का भी पता चलता है |
–  अपने सूती वस्त्रों के उद्योग में विस्तार के वजह से ही लोथल हडप्पा का मैनचेस्टेर माना जाता था |
– तांबे को पिघलने की भट्टी का भी साक्ष्य प्राप्त हुआ है |
– पारस की खाड़ी की मोहर (एक गोल बटन नुमा मोहर) की भी प्राप्ति हुई है |
– एक या दो तेरकोटा की मिस्त्र से संबंधित दो ममिस जो की मलमल की वस्त्र मे लिपटी हुई है की भी प्राप्ति हुई है |
– लोथल व कालिबंगा में य्ग्य संबंधी अग्नि का भी साक्ष्य मिला है जो की संभवतः उनकी चिकित्सकीय व शल्य संबंधी कुशलता का वर्णन करती है |
– लोथल के घरों मे शतरंज जैसी वस्तुएँ भी प्राप्त हुई हैं |
– अंतिम क्रिया के स्थान पर जली हुई इंटो की प्राप्ति से पता चलता है कि कफ़न का प्रयोग होता था. कई स्थानों पर दो लोगो के एक साथ दफ़नाए जाने का भी पता चलता है. किंतु सती का साक्ष्य नही है |
– लोथल उन स्थानो मे से एक है जहा मेसोपोटामिया के साथ संबंध का साक्ष्य मिला है. इस स्थान के संबंध अन्य कई समुद्र पार के क्षेत्रों से भी था जिनका पता पर प्राप्त उन स्थानों के मोहरों से चलता है |
– स्ननागार एवं उत्तम निकास व्यवस्था जो की हड़प्पा की एक विशेषता थी वो लोथल में भी मिलती है. रसोई एवं कूए का स्थान शहर के उपरी भाग पर था |
– छोटे मनके की प्राप्ति लोथल की विशेषता है |

धौलवीरा

– इस स्थल की खोज सन 1990 में आर एस बिष्ट द्वारा ए एस आई की टीम के साथ मिलकर की | यह स्थल कच्छ के रण में जो खादर बेल्ट के अंतर्गत आता है वहाँ स्थित है |
– हडप्पा के स्थलों मे धौलवीरा सबसे बड़ा है, इसके अलावा जो अन्य स्थल है वो हरियाणा के राखीगर्ही मे स्थित है |
– धौलवीरा मुख्य रूप से तीन भागों मे विभाजित है, जिनमे से दो चौकोर रूप से गिरे हुएँ हैं तथा अन्य एक पुनः दो भाग दुर्ग एवं निचले भाग मे विभाजित है |  मध्य भाग का शहर मात्र धौलवीरा में ही दिखता है |
– निर्माण हेतु पत्थरों का प्रयोग होता था |
– 10 अक्षरों वाले एक बोर्ड की भी प्राप्ति हुई है |
– यह वह स्थान है जहाँ मेघ्लिथ प्रकार के दफ़नाए जाने का पता चलता है |
– कृषि व इससे संबंधित क्रिया जैसे सिंचाई आदि का भी साक्ष्य मिलता है |
– धौलवीरा में हड़प्पा का अनाज के गोदाम का भी साक्ष्य मिला है |
– धौलवीरा, मॅंडी एवं दैमबाद में सुगठित सोने की अंगूठी का भी पता चलता है |
– धौलवीरा एक ऐसे स्थान पर स्थित था जो की संभवतः भूकंप मे नष्ट हो गया होगा |

सुरकोटडा

– यह गुजरात के भुज क्षेत्र मे स्थित है तथा इसकी खोज सन 1972 में जे पी जोशी द्वारा की गयी |
– करीब 2300 ईसा पूर्व में यह स्थान हड़प्पा क्षेत्र के अंतर्गत आता है, जहाँ चारो ओर से घिरा हुआ दुर्ग था, तथा घर मिट्टी के ईंटों से निर्मित है जिनमें स्नानघर व निकासी की समुचित व्यवस्था है |
–  दुर्ग एवं शेष नगर दोनो ही चारों ओर से गिरे हुए थे इसका पता खनन में प्राप्त चीज़ों से चलता है |
– यह खनन में प्राप्त एक मात्र नगर है जो की चारों ओर से पत्थरों से घिरा था तथा एक मात्र नगर भी जहाँ घोड़े मिलने का पता चलता है |
– यहाँ पर मटके मे दफ़नाए जाने का साक्ष्य मिलता है |

रंगपुर

– गुजरात के अहमदाबाद से 51 की मी की दूरी पर यह नगर स्थित है. धान की भूसी का मिलना इस स्थान की सबसे बड़ी विशेषता है |

 

भारत में घटी ऐतिहासिक घटनाओं की क्रमवार सूची

भारत के सभी ऐतिहासिक घटनाओं की सूची यहाँ दी जा रही है। यह सूची निश्चय ही उन सभी विद्यार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी जो की किसी प्रतियोगी परीक्षा के लिए प्रयासरत हैं या जो भारत के इतिहास मे रूचि रखते हैं

ईसा पूर्व
2500-1800:  सिंधु घाटी सभ्यता।
599: महावीर का जन्म; 523 ईसा पूर्व मे निर्वाण प्राप्त।
563:  गौतम बुद्ध का जन्म, 483 ईसा पूर्व में निर्वाण प्राप्त।
327-26: सिकंदर द्वारा भारत की खोज एवं यूरोप व भारत के मध्य भूमि मार्ग की शुरुआत।
269-232: भारत में अशोक का काल ।
261: कालिंग का युद्ध ।
57: विक्रम काल की शुरुआत।
30: दक्कन में सातवाह्न वंश की शुरुआत. तथा दक्षिण में पांडय का शासन।

ईसवी 
78: सका काल की शुरुआत।
320: गुप्त काल की शुरुआत।
360: समुद्रगुप्त ने संपूर्ण उत्तर भारत तथा दक्कन के अधिकांश भाग को जीत लिया ।
380-413: चंद्रगुप्ता विक्रमादित्य का शासन, कालिदास का काल, तथा हिंदूवाद का पुनरूत्तान।
606-647: हर्षवर्धन का शासन।
629-645: ह्वेन सांग का भारत आगमन।
622: हिजरी काल की शुरुआत।
712: मुहम्म्द बिन क़ासिम द्वारा सिंध पर अरब का आक्रमण।
1025: महमूद द्वारा सोमनाथ मंदिर को लूटा गया।
1191:  पृथ्वीराज चौहान एवं मुहम्म्द गौरी के मध्य तराईन का प्रथम युद्ध।
1192: तराईन का द्वितीय युद्ध जिसमें पृथ्वीराज चौहान की मुहम्म्द गौरी द्वारा हार।
1206: कुतुब्बुद्दीन ऐबक द्वारा गुलाम वंश की स्थापना।
1329:  पहला भारतीय धरमप्रदेश की स्थापना पोप जॉन आइक्सीच के द्वारा हुई एवं जॉर्डानुस को प्रथम बिशप नियुक्त किया गया।
1459: सन सिटी, जोधपुर , भारत की स्थापना राव जोधा द्वारा की गयी।
1497:  वास्को डी गामा ने भारत यात्रा हेतु कूच किया।
1498: भारत के कालीकट पर वास्को डी गामा का आगमन।
1502: वॅस्को डी गामा की लिस्बन, पुर्तगाल से भारत के लिए दूसरी यात्रा की शुरुआत।
1565: तालिकोटा का युद्ध.  मुस्लिमों द्वारा विजयनगर सेना का ख़ात्मा।
1575:  मुगल बादशाह अकबर ने बंगाल सेना को तूक्रोई के युद्ध में हराया।
1597: डच ईस्ट इंडिया कंपनी  के जहाज़ सुदूर पूर्व की यात्रा पर निकले।
1602: युनाइटेड डच ईस्ट इंडियन कंपनी (वॉक) की स्थापना।
1608: प्रथम इंग्लिश रक्षा सेना का सूरत के तट पर आगमन।
1612: सूरत ,भारत में अँग्रेज़ों एवं पुर्तगालियों के मध्य युद्ध।
1621: डच वेस्ट इंडिया कंपनी को न्यू नेदरलॅंड्स का शासन प्राप्त ।
1633: मिंग  वंश का डच ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ युद्ध जिसमें मिंग वंश की विजय ।
1639:  स्थानीय नायक शासकों के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा चाँदी की भूमि का निर्माण ।
1641: युनाइटेड ईस्ट इंडियन कंपनी  द्वारा मलक्का शहर का जीता जाना ।
1641: वेस्ट इंडिया कंपनी द्वारा साओ पौलो दे लोअंडा को जीता गया ।
1658:  भारत में हार्बर शहर पर डच सेना का कब्जा ।
1668: बंबई पर इंग्लैंड का शासन ।
1668:  चार्ल्स द्वितीय द्वारा बंबई को इसाट इंडिया कंपनी को सौपां गया ।
1690: जॉब चारनॉक द्वारा कलकत्ता शहर की स्थापना ।
1739: करनाल का युद्ध ईरानी बादशाह नादिर शाह एवं पराजित मुगल बादशाह मुहम्म्द शाह के मध्य लड़ा गया ।
1739: नादिर शाह ने भारत के दिल्ली पर कब्जा किया ।
1752: त्रिचीनपल्ली में फ्रांससीसी सेना का अँग्रेज़ी सेना के समक्ष समर्पण ।
1756: भारतीय विद्रोहियों द्वारा ब्रिटिश सेना की पराजय ।
1756: फ्रांस एवं भारत युद्ध: किट्तंनिंग अभियान ।
1756: रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व मे भारत के फुल्ता पर ब्रिटिश सेना का कब्जा ।
1757: ब्रिटिश सेना का कलकत्ता पर कब्जा ।
1757: रोस्सबच में युद्ध की शुरुआत ।
1760: वणडेवाश का युद्ध. ब्रिटिश सेना द्वारा फ्रांस की हार ।
1761: पानीपत का युद्ध. अफ़ग़ान सेना द्वारा महाराणा प्रताप की पराजय ।
1786: चार्ल्स कॉर्नवॉलिस को भारत का गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया ।
1795: कुर्डला का युद्ध. महाराणा द्वारा मुगलों की हार ।
1798: इंग्लेंड व हैदराबाद के निजाम के मध्य संधि पर हस्ताक्षर ।
1803: आस्सेए का युद्ध. ब्रिटिश-भारतीय सेना द्वारा मराठा सेना की हार ।
1839: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा आदान पर कब्जा ।
1846: बॅटल ऑफ अल्लवाल , ब्रिटिश सेना द्वारा पंजाब में सिक्खों की हार ।
1846: सोबराओन का युद्ध: ब्रिटिश सेना द्वारा सिक्खों की हार. यह भारत में प्रथम सिक्ख युद्ध था ।
1853: प्रथम यात्री रेल की भारत में शुरूआात यह ट्रेन बंबई से थाने की मध्य चलाई गयी ।
1866: इलाहाबाद उच्च न्यायालय की स्थापना ।
1892: दादाभाई नोरॉजी को ब्रिटेन की संसद के लिए प्रथम भारतीय सदस्य के रूप मे चुना गया ।
1905: बंगाल विभाजन ।
1914: प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत ।
1925: कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना ।
1929: प्रथम नौन-स्टॉप वायु यात्रा इंग्लैंड से भारत के मध्य शुरू ।
1932:  भारतीय वायु सेना की स्थापना ।
1936: उड़ीसा को ब्रिटिश भारत के प्रांत के रूप मे मान्यता ।
1939: नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा ऑल इंडिया फॉर्वर्ड ब्लॉक की स्थापना ।
1944: जेससामी, ईस्ट-इंडिया  की जापानी सेना द्वारा हार ।
1947: ब्रिटिश शासन से भारत की आज़ादी ।
1947: लॉर्ड माऊंटबेटन को भारत का अंतिम वायासाराय नियुक्त किया गया ।
1947: भारत पाकिस्तान के मध्य रेडकलिफ्फ रेखा की घोषणा ।
1948: लॉर्ड माऊंटबेटन का भारत के गवर्नर जनरल के पद से इस्तीफ़ा ।
1950: भारत एक गणतंत्र के रूप में स्थापित ।
1950: सिक्किम भारत का संरक्षित राज्य बना ।
1952: राज्य सभा की पहली बैठक ।
1956: दिल्ली को भारतीय संघ का क्षेत्र बनाया गया ।
1960: बंबई राज्य को महाराष्ट्र एवं गुजरात मे विभाजित किया गया ।
1971: ग़रबपुर का युद्ध:  भारतीय सेना द्वारा पाक सेना की हार ।
1974: एटम बम के प्रयोग में भारत विश्व का 6ठा राष्ट्र बना ।
1975: सोवियत संघ की सहायता से भारत ने 1स्ट्रीट सेटिलाइट का प्रक्षेपण किया ।
1980: रोहिणी 1, प्रथम भारतीय सेटिलाइट, का कक्षा में प्रक्षेपण ।
1994: भारतीय सुंदरी सुष्मिता सेन ने  43वाँ मिस यूनिवर्स का खिताब जीता ।
1994: ऐश्वर्या राय ने 44वाँ मिस वर्ल्ड का खिताब भारत के नाम किया ।
2008: भारत ने प्रथम अमानवीय चन्द्र मिशन चंद्रयान -1 का प्रक्षेपण किया ।

 

विश्व विख्यात व्यक्तित्व

जॉर्ज ऑरेवल (1903-1950 .)- इंग्लैंडवासी उपन्यासकार जिन्होंने आने वाले भविष्य की तस्वीरें अपने उपन्यासों में पेश कीं। प्रमुख उपन्यास ‘एनीमल फार्म’, ‘नाइनटीन एट्टफोर’ आदि।

 

डब्ल्यू . मोजार्त (1756-1791 .)- ऑस्ट्रिया के प्रख्यात संगीतज्ञ, जिन्हें विश्व के सर्वाधिक प्रसिद्ध संगीतकारों में से एक माना जाता है।
डेन बेन गुरऑन (1886-1993 .)- इज़रायली राजनीतिज्ञ और प्रथम प्रधानमंत्री (1948-53 ई; 1955-63 ई.)।
डेविड (लगभग 1000 . पू.)- एकीकृत इज़रायल के प्रथम राजा और गोलिएथ के वधकर्ता। जीसस क्राइस्ट के पूर्वज।
डेंग जिआओपिंग (1904-1997 .)- चीनी कम्युनिस्ट राजनीतिज्ञ व कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव (1956-57 ई.)। चीन में आधुनिकीकरण और अर्थव्यवस्था सुधार का श्रेय इन्हें ही दिया जाता है।

दमित्री मेंडेलीव (1834-1907 .)- रूसी रसायनशास्त्री जिन्होंने रासायनिक तत्वों की ‘आवत्र्त तालिका’ (PEriodic Table) का निर्माण करके उसे व्यवस्थित किया।
बार्थोलोम्यू डियाज़ (लगभग 1450-1500 .)- प्रसिद्ध पुर्तगाली नाविक जिसने सबसे पहले अफ्रीका के दक्षिण-पूर्व तट पर स्थित ‘केप ऑफ गुड होप’ की खोज की।
जोहानेस गुटेनबर्ग (1398-1468 .)- जर्मन वैज्ञानिक जिन्होंने प्रिंटिंग मशीन का आविष्कार करके आधुनिक प्रिंटिंग का मार्ग प्रशस्त किया।
  हम्मूराबी (मृत्यु 1750 . पू.)- बेबीलोन के सम्राट जिन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को संचालित करने के लिए कानूनी संहिता का निर्माण किया।
हन्नीबल (247-182 . पू.)- प्राचीन विश्व के सर्वाधिक सफल जनरलों में से एक।
हर्षवद्र्धन (शासन 606-647 . पू.)- उत्तर भारत के अंतिम महान हिन्दू सम्राट। उन्होंने अपनी राजधानी थानेसर से कन्नौज स्थानांतरित की। पुलकेशिन द्वितीय के हाथों पराजित।
हेरोडोटस ग्रीक दार्शनिक जिन्हें ‘इतिहास का जनक’ माना जाता है।
हिटलर, एडोल्फ (1889-1945 .)- ऑस्ट्रिया में जन्मा तानाशाह जिसका 20वीं सदी में जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। उसने जर्मन पार्टी की स्थापना की और 1933 में देश का चांसलर बना। 1939 में जर्मनी ने पोलैण्ड पर आक्रमण किया जिससे द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई। सोवियत संघ और उत्तरी अफ्रीका में पराजय के बाद उसने आत्महत्या कर ली।
होमर (9वीं शताब्दी . पू.)- ग्रीक लेखक जिन्होंने कालजयी महाकाव्य ‘द इलियड एंड ओडिसी’ का सृजन किया।
हुमायूँ (1508-1556 .)- बाबर का ज्येष्ठï पुत्र जो 1530 में उसका उत्तराधिकारी बना। 1540 में शेरशाह सूरी के हाथों पराजय। 1555 में दिल्ली पर पुन: विजय।
हैदर अली (1721-1782 .) – 1761 ई. में मैसूर के राजा नंजराजा को अपदस्थ करके हैदर अली सुल्तान बना। 1782 में द्वितीय एंग्लो-मैसूर युद्ध के दौरान मृत्यु।
इब्न बतूता (1304-1378 .)- 1333 में भारत आने वाला अफ्रीकी (तांजियर) यात्री। उसने आठ वर्ष भारत मेें बिताए और मुहम्मद-बिन-तुगलक के शासनकाल के बारे में काफी कुछ लिखा।
जयदेव 12वीं शताब्दी में प्रसिद्ध संस्कृत कृति ‘गीत गोविंद’ के रचनाकार।
कल्हण 11वीं शताब्दी के कश्मीरी कवि और ‘राजतरंगिणी’ के लेखक जिसमें कश्मीर के इतिहास का वर्णन किया गया है।
कालीदास (लगभग 400 .)- संस्कृत के  महान कवि व नाट्य लेखक कालीदास चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नौ रत्नों में से एक थे। उनकी प्रसिद्ध कृतियों में ‘शकुंतला’, ‘रघुवंश’, ‘मेघदूत’, और ‘कुमार संभव’ शामिल हैं।
कंबन वे चोल सम्राट के दरबारी कवि थे और उन्होंने रामायण का तमिल भाषा में अनुवाद किया।
कनिष्क (120-162 .)- कुषाण वंश का महानतम सम्राट; बौद्ध धर्म का उपासक जिसका साम्राज्य मध्य-एशिया तक फैला था।
करिकाल दूसरी शताब्दी ई. का प्रसिद्ध चोल सम्राट जिसने साम्राज्य की राजधानी पुहार (वर्तमान कावेरीपट्टनम) का निर्माण कराया।
कबीर (1440-1515 .)- निर्गुण भक्ति धारा के संत कवि और रामानंद के शिष्य कबीर ईश्वर की अखंडता में विश्वास करते थे और हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे।

 

खारवेल कलिंग (उड़ीसा) का प्राचीनकाल में महानतम सम्राट जिसके बारे में ‘हाथीगुम्फा शिलालेख’ से जानकारी मिलती है।
ख्वाज़ा मुइनुद्दीन चिश्ती (12वीं शताब्दी)- भारत में चिश्ती सिलसिले के संस्थापक सूफी संत। वे 1192 में भारत आए।
कृष्णादेव राय (शासन 1509-1530 .)- विजयनगर साम्राज्य के महानतम शासक। वे तेलुगू व संस्कृत के  विद्वान थे और उन्होंने ‘अमुक्तमलयादा’ नामक पुस्तक की रचना की।
लियोनार्डो डि विन्ची (1452-1519 .)- इतालवी कलाकार, स्थापत्यकार, वास्तुशास्त्री, इंजीनियर, आविष्कारकर्ता, वैज्ञानिक व गणितज्ञ। इन्हें पुनर्जागरण का प्रतिनिधि पुरुष माना जाता है। ‘मोनालिसाÓ और ‘द लास्ट सपर’ भित्ति चित्रों का निर्माण।
लाल बहादुर शास्त्री (1904-1966 .)- 1964 ई. में वे भारत के दूसरे प्रधानमंत्री बने। उनके शासनकाल के दौरान भारत-पाक युद्ध (1965) हुआ जिसकी परिणति ताशकंद समझौते में हुई। ।

 

लाला लाजपत राय (1865-1928 .)- ‘पंजाब के शेरÓ के उपनाम से विख्यात लाला लाजपत राय ने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। साइमन कमीशन के खिलाफ हुए प्रदर्शन के दौरान लाठीचार्ज से मौत।
लाओ त्जु (600 . पू.)- चीनी दार्शनिक और ताओवाद के संस्थापक।
लक्ष्मीबाई, झाँसी की रानी (1835-1858 .)- झाँसी की शासक जो एक महान योद्धा थीं। उन्होंने 1857 के गदर के दौरान अपनी वीरता से अंग्रेजों के दाँत खट्ट किए।
लेनिन, व्लादीमिर (1870-1924 .)- रूसी क्रांतिकारी नेता व बोल्शेविक पार्टी के संस्थापक जिन्होंने 1917 की रूसी क्रांति का नेतृत्व किया। 1922 में सोवियत संघ की स्थापना की।
लिंकन, अब्राहम (1809-1866 .)- सं. रा. अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति जिन्होंने दास-प्रथा का उन्मूलन किया। 1865 ई. में जॉन विल्केस बूथ के हाथों हत्या।
मैकियावेली, निकोलो (1469-1527 .)- इतालवी राजनीतिशास्त्री व दार्शनिक। प्रसिद्ध कृति ‘प्रिंस’।
मैगेलान, फर्डीनांड (1480-1521 .)- पुर्तगाली अन्वेषणकर्ता जिन्होंने 1522 ई. में पृथ्वी की परिक्रमा की।
महावीर (540-468 . पू.) – वे जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे। उनका जन्म वैशाली के पास हुआ था। 42 वर्ष की आयु में उन्हें कैवल्य (आध्यात्मिक ज्ञान) की प्राप्ति हुई। भगवानमहावीर ने अपनी शिक्षाओं में अहिंसा पर विशेष जोर दिया।
मार्को पोलो (1254-1324 .)- वेनिसवासी व्यापारी व यात्री। चीन की यात्रा  (1271-92 ई.)। इनके यात्रा वृतांत यूरोप में काफी प्रसिद्ध हुए।
माओ त्से तुंग (1893-1976 .)- चीनी कम्युनिस्ट चिंतक व क्रांतिकारी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में मुख्य भूमिका (1921 ई.)। दक्षिण-पूर्वी चीन में कम्युनिस्ट रिपब्लिककी स्थापना (1931-34 ई.)। 1934 ई. में ऐतिहासिक लाँग मार्च। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद चियाँग काई शेक को पराजित करके देश के राष्ट्राध्यक्ष बने। सांस्कृतिक क्रांति के दौरान विरोधियों का दमन (1966-69 ई.)।
मार्टिन लूथर (1483-1568 .)- जर्मन धर्मशास्त्री व धर्म सुधारक। उन्होंने पोप की सत्ता के खिलाफ विद्रोह किया जिससे प्रोटेस्टेंटवाद का उदय हुआ।
मार्टिन लूथर किंग जू. (1929-1968 .)- अमेरिकी अश्वेतों के नेता। ‘सदर्न क्रिश्चियन लीडरशिप कांफ्रेंस’ के संस्थापक। जेम्स अर्ल द्वारा हत्या।
माक्र्स, कार्ल (1818-1883 .)- जर्मन अर्थशास्त्री व वैज्ञानिक कम्युनिज्म के प्रतिपादक। उन्होंने एंगेल्स के साथ संयुक्त रूप से मिलकर समाजवाद व साम्यवाद की आधुनिक अवधारणाओं का विकास किया। ‘दास कैपीटलÓ के लेखक जिनका आधुनिक युग पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ा।

 

मैजिनी इतालवी राष्ट्रवादी जो 1848 में इटली गणतंत्र के तानाशाह बने। उन्होंने एक स्वतंत्र व एकीकृत इटली की वकालत की।
मेगास्थनीज़ चंद्रगुप्त मौर्य के  दरबार में ग्रीक राजदूत, जिन्होंने अपनी ‘इंडिका’ नामक पुस्तक में मौर्य प्रशासन के बारे में विस्तृत जानकारी दी।
माइकेलएंजिलो (1475-1564 .)- इटली के महान चित्रकार एवं मूर्तिकार। इसके द्वारा बनाई गई उत्कृष्टï मूर्तियाँ हैं- पीटर, डेविड, मोजेज आदि जबकि चित्रकृतियाँ हैं- दिवस, रात्रि, ऊषाकाल तथा गोधूलि। इनकी सबसे खूबसूरत चित्रकृति है- ‘द लास्ट जजमेंट’।
मुसोलिनी, बेनितो (1883-1945 .)- इतालवी फासिस्ट तानाशाह (1922-43 ई.), द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी और जापान के साथ धुरी का निर्माण। युद्ध में इटली की हार के बाद उसे मृत्युदंड दे दिया गया।
नादिर शाह (1688-1747 .)- फारस का बादशाह जिसने 1739 में भारत में आक्रमण करके भयंकर मारकाट की।
नाना साहब पेशवा (1800-1859 .)- पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र जिन्होंने 1857 के गदर में केंद्रीय भूमिका निभाई।
नेपोलियन बोनापार्ट (1769-1821 .)- फ्रांसीसी सेना के प्रसिद्ध नायक जो 1804 ई. से 1815 ई. तक फ्रांस के सम्राट रहे। उन्होंने इंग्लैंड, ऑस्ट्रिया और रूस के खिलाफ अनेक युद्धों मेंसफलता प्राप्त की, लेकिन 1815 ई. में वाटरलू युद्ध में पराजित हुए।
नरसिंह वर्मन पल्लव सम्राट जिसने चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय को पराजित करने के बाद ‘वातापीकोंडा’ की उपाधि धारण की।
पंपा, पोन्ना, रन्ना- जैन विद्वान जिन्हें कन्नड़ कविता का त्रिरत्न माना जाता है।
पाणिनी प्रसिद्ध संस्कृत व्याकरणकार जिन्होंने ‘अष्टध्यायी’ लिखी।
पतंजलि इन्होंने पाणिनी की ‘अष्टाध्यायी’ पर ‘महाभाष्य’ नामक टीका लिखी। उन्होंने योग पर ‘योगसूत्र’ नामक ग्रंथ लिखा।
पटेल, सरदार वल्लभभाई (1875-1950 .)- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख हस्ती। भारत के प्रथम उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल ने रजवाड़ों के भारतीय संघ में विलय में मुख्य भूमिका अदा की।
प्लेटो (429-347 .)- ग्रीक दार्शनिक जिनका पश्चिम पर व्यापक प्रभाव पड़ा। प्रमुख कृतियाँ- ‘द रिपब्लिक’ और ‘द लाज़॥
प्लिनी (23-79 .)- रोमन इतिहासकार व प्रकृतिवादी। प्रसिद्ध कृति- ‘नेचुरल हिस्ट्री’।
पुलकेशिन द्वितीय (शासन 608-642 .)- दक्कन के चालुक्य वंश का सबसे शक्तिशाली सम्राट जिसने हर्षवद्र्धन को पराजित किया था।
राजगोपालाचारी, चक्रवर्ती (1878-1972 .)- भारत के अंतिम व प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल (1948-1950 ई.)। स्वतंत्रता के बाद स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की।
राजा राममोहन रॉय (1777-1833 .)- बँगाल के समाज सुधारक जिन्होंने सती, पर्दाप्रथा और बालविवाह के उन्मूलन के लिए काफी प्रयास किया। उन्होंने विधवा विवाह और महिला शिक्षा का भी समर्थन किया। वे ‘ब्रह्मï समाज’ के संस्थापक थे।
राजराजा चोल चोल सम्राट जिसने श्रीलंका पर आक्रमण किया और उसके उत्तरी भाग को अपने राज्य में मिला लिया। तंजौर में राजाराजेश्वर मंदिर का निर्माण कराया।
रवींद्रनाथ टैगोर (1861-1941 .)- कवि, उपन्यासकार व दार्शनिक। बंगाल में उन्होंने शांतिनिकेतन की स्थापना की। नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले एशियाई (गीतांजलि)। प्रमुख कृतियाँ- गोरा, डाकघर, घरे बायरे इत्यादि।

 

राजेंद्र चोल चोल वंश का शक्तिशाली सम्राट जिसने बंगाल तक आक्रमण किया और ‘गंगईकोंडाचोलापुरम’ की उपाधि धारण की।
रामानुज (11वीं शताब्दी)- दक्षिणी भारतीय संत व विशिष्टाद्वैतवाद के प्रणेता।
महाराणा प्रताप (16वीं शताब्दी)- मेवाड़ के शासक महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध में पराजय के बावजूद अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इंकार कर दिया।
तेनजिंग नोर्गे (1914-1986 .)- नेपाल के प्रसिद्ध पर्वतारोही जिन्होंने विश्व की सर्वोच्च चोटी माउंट एवरेस्ट पर सर एडमण्ड हेलरी के साथ 1953 ई. में प्रथम बार विजय प्राप्त की।
थॉमस अल्वा एडीसन (1864-1931 .)- महान आविष्कारक वैज्ञानिक  जिन्हें 1,000 से अधिक आविष्कारकारों जैसे विद्युत बल्ब, ग्रामोफोन, चलचित्र आदि का श्रेय प्राप्त  है।
थॉमस माल्थस (1766-1834 .)- 28 वें अमेरिकी राष्टïरपति (1913-21 ई.)। ‘लीग ऑफ नेशंस’ के संस्थापक।
नील्स बोह्र (1865-1926 .)- डेनमार्कवासी भौतिकविद् जिन्हें परमाणु संरचना पर उनके महत्वपूर्ण कार्य के लिए 1922 ई. में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
नीरो (37-68 .)- 54 ई. से रोमन सम्राट। अत्याचारी शासक जिसने रोम के जलने (64 ई.) के बाद ईसाईयों पर अत्याचार किए।
नील आर्मस्ट्राँग (1930 -)- अमेरिकी अंतरिक्षयात्री जो चंद्रमा पर कदम रखने वाले पहले मानव बने।
निकिता ख्रुश्चेव (1894-1971 .)- सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव (1953-64 ई.) और राष्ट्राध्यक्ष (1958-64 ई.)।
निकोलस प्रथम (1796-1855 .)- 1825 ई. से रूस का ज़ार, एक निरंकुश शासक जिसने अपने राज्य में सभी नागरिकों पर रूसीकरण की प्रक्रिया लादने की कोशिश की।
पाइथागोरस (लगभग 582 . पू. – लगभग 497 . पू.)- ग्रीक दार्शनिक जिन्होंने  ज्यामिति में पाइथागोरस प्रमेय की अवधारणा प्रस्तुत की।
पीटर प्रथममहानÓ (1659-1706 .)- अंग्रेज राजनीतिज्ञ और दार्शनिक। उनकी प्रमुख कृति ‘एडवांसमेंट एंड लर्निंगÓ है। इसमें उन्होंने प्रकृति को समझने के लिए प्रयोग एवंवैज्ञानिक आगम की महत्ता पर जोर दिया।
बालजक (1799-1850 .)- फ्रांसीसी लेखक। उन्होंने ‘ल कॉमेडी ह्यूमनÓ शीर्षक के अंतर्गत कई उपन्यास लिखे।
मिखाइल गोर्बाच्योव (1931 .-)- सोवियत कम्युनिस्ट शासक (1985-91 ई.)। ‘ग्लासनोस्त व पेरेस्त्रोइका’ की नीति के द्वारा उन्होंने राजनीतिक और आर्थिक सुधारों की शुरुआत की। 1991 में सोवियत संघ के विखण्डन के बाद इस्तीफा।
माइकेल फैराडे (1791-1867 .)- अंग्रेज वैज्ञानिक जिन्होंने वैद्युत-चुम्बकीय विज्ञान की आधारशिला रखी एवं निम्नतापिकी(Cryogenics) पर महत्वपूर्ण शोधकार्य किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्युत मोटर एवं जेनरेटर का भी आविष्कार किया।
मैरी क्यूरी (1867-1935 .)- पोलैंड की प्रसिद्ध भौतिकविद् एवं रसायनशास्त्री जिन्होंने अपने पति पियरे क्यूरी के साथ रेडियम की खोज की। इन्हें दो बार 1903 व 1911 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
यूरी गगारिन (1934-1986 .)– रूसी अंतरिक्षयात्री जो अंतरिक्ष में यात्रा करने वाले पहले मानव बनें।
रॉबर्ट कोच (1858-1913 .)- जर्मन जीवाणु विज्ञानी, जिन्होंने एंथ्रेक्स टीके का आविष्कार किया। उन्होंने तपेदिक एवं अतिसार के जीवाणुओं का पृथ्थकरण भी किया।
रोम्याँ रोलाँ (1886-1944 .)- फ्रांसीसी साहित्यकार। 1915 ई. में 10 खण्डों में लिखी पुस्तक ‘जीन ब्रिस्टोफे’ के लिए साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित।
लॉर्ड केल्विन (1824-1907 .)- स्कॉटिश गणितज्ञ और भौतिकविद्। उन्होंने परमशून्य स्केल का विकास किया।
लुई पॉश्चर (1822-1895 .)- फ्रांसीसी रसायनशास्त्री जिन्होंने अवधारणा पेश की कि बीमारियों का मुख्य कारण जीवाणु होते हैं।
वॉल्टेयर (1694-1778 .)- फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिक एवं लेखक। इनकी सबसे प्रसिद्ध रचना कैंडाइड है जिसमें दार्शनिक व्यंग्यों का संकलन है।
विलियम हार्वे (1578-1657 .)- अंग्रेज भौतिकविद्। 1935 में न्यूट्रॉन की खोज के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
सिग्मंड फ्रायड (1856-1939 .)- ऑस्ट्रियाई मनोचिकित्सक जिन्होंने चेतन और अवचेतन मन की अवधारणा प्रस्तुत की।
बंकिम चंद्र चटर्जी भारत के राष्टï्रगीत ‘वंदे मातरम्Ó के रचियता जिसे उनके उपन्यास ‘आनंद मठÓ से लिया गया है.
चैतन्य महाप्रभु (1445-1533 .)- बँगाल में भक्ति आंदोलन के जन्मदाता जिन्होंने कृष्ण भक्ति का प्रचार किया।
जमशेदजी टाटा (1813-1904 .)- टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी (टिस्को) के संस्थापक।
जवाहरलाल नेहरू (1889-1964 .)- भारत के प्रथम प्रधानमंत्री (1947-64 ई.)। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गाँधी के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका। गुटनिरपेक्षआंदोलन की स्थापना में मुख्य भूमिका।
इंदिरा गाँधी (1917-1984 .)- भारत के दो बार प्रधानमंत्री (1966-77; 1980-84)। 1971 ई. में  भारत-पाक युद्ध के बाद बांग्लादेश को स्वतंत्रता दिलाई। 1984 ई. में अपने अंगरक्षकों के हाथों हत्या।
महाराजा रंजीत सिंह (1780-1833 .)- पंजाब के सिख महाराजा जिन्होंने 1799 में लाहौर पर कब्जा जमाया। उन्होंने अफगानों से पंजाब छीना।
रूजवेल्ट, फ्रैंकलीन (1882-1945 .)- 32वें अमेरिकी राष्ट्रपति (1933-45 ई.)। इन्होंने 1929 की मंदी का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रीयकरण की नीति अपनाई।
रूसो, जीन जैकस (1712-1778 .)– फ्रांस के महान दार्शनिक जो अपने सामाजिक संविदा सिद्धांत (Social Contract Theory) के कारण चर्चित हुए। इनकी शिक्षाओं और रचनाओं के प्रभाव से ही फ्रांस में क्रांति हुई।
समुद्रगुप्त (330-375 .)- चंद्रगुप्त प्रथम के पुत्र व उत्तराधिकारी व शक्तिशाली हिंदू सम्राट। उन्हें अपनी विजय की वजह से ‘भारत का नेपोलियनÓ भी कहा जाता है।
शंकराचार्य (700-750 .)- आदिगुरु शंकराचार्य ने हिंदू अद्वैत दर्शन के प्रसार-प्रचार के लिए देश के चारों कोनों में मठों की स्थापना की, हिंदू धर्म के पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका। उनके अद्वैतवाद के दर्शन से हिंदू धर्म काफी गहरे तक प्रभावित हुआ है।

 

स्वामी विवेकानंद (1863-1902 .)- रामकृष्ण परमहंस के शिष्य जिन्होंने वेदांत दर्शन से विश्व को परिचित कराया। 1893 में विश्व धर्म सम्मेलन के दौरान उनके दिए गए भाषण से विश्व भारतीय संस्कृति की महानता से परिचित हुआ। उन्होंने समाजसेवा के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।
सरोजनी नायडू (1879-1949 .)-  इन्हें ‘नाइटेंगेल ऑफ इंडियाÓ भी कहा जाता है। वे अंग्रेजी की प्रख्यात कवियत्री थीं। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और 1925 में काँग्रेस की अध्यक्ष बनीं। वे उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला गवर्नर थीं।
शाहजहाँ (1592-1666 .)- मुगल सम्राट जिनकी ख्याति कला, स्थापत्य और साहित्य के प्रेमी के रूप में है। शाहजहाँ ने अपनी पत्नी मुमताज महल की याद में ताजमहल का निर्माण कराया।
शेक्सपियर, विलियम (1564-1616 .)- अंग्रेजी के महानतम कवि एवं नाटककार। उन्होंने 37 नाटक लिखे जिसमें हास्य, ऐतिहासिक, त्रासदी और त्रासद- हास्य नाटक शामिल हैं। प्रमुख नाटक- ‘हेमलेटÓ, ‘मैकबेथÓ, ‘ओथेलोÓ, ‘किंग लियरÓ, ‘रोमियो एंड जूलियटÓ, ‘ए मिडसमर नाइट्स ड्रीमÓ, ‘द टेम्पेस्टÓ, ‘हेनरी-5Ó और ‘जूलियस सीज़रÓ।
सर आइजक न्यूटन (1642-1727 .)- अंग्रेज वैज्ञानिक जिन्हें आधुनिक भौतिकी का जनक माना जाता हैै। गति व गुरुत्वाकर्षण के नियमों के प्रतिपादन का श्रेय। प्रसिद्ध कृति ‘प्रिंसिपियाÓ के लेखक।

 

शेरशाह सूरी (1472-1545 .)- उसने 1540-45 ई. के मध्य शासन किया। वह प्रथम मुस्लिम शासक था जिसने प्रशासनिक सुधारों पर विशेष ध्यान दिया। उसके शासनकाल में ही ग्रांड ट्रंक रोड का निर्माण हुआ।
शिवाजी (1627-1680 .)- गुरिल्ला युद्ध में माहिर शिवाजी ने मुगल साम्राज्य के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़कर मराठा साम्राज्य की नींव रखी।
स्मिथ, एडम (1723-1790 .)- स्कॉटिश अर्थशास्त्री जिन्हें अर्थशास्त्र का जनक कहा जाता है। प्रसिद्ध कृति- ‘वेल्थ ऑफ नेशंसÓ।
तानसेन (लगभग 1492-1589 .)- भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान प्रतिनिधि। वे अकबर के नौ रत्नों में से एक थे।
टोडरमल (1556-1605 .)- अकबर के दरबार के नौ रत्नों में से एक और राजस्व मंत्री।
तुलसीदास (1552-1630 .)- महान हिंदी कवि, संत जिन्हें उनकी रचना ‘रामचरितमानस’ के लिए जाना जाता है। रामचरितमानस आज भी करोड़ों हिंदुओं की आस्था का केद्र बिंदु है।
वाल्मीकि प्राचीन भारत के महान संस्कृत कवि व ऋषि जिन्होंने रामायण की रचना की।
वास्कोडिगामा (1460-1524 .)- पुर्तगाली नौचालक जिसने भारत के लिए समुद्री रास्ते की खोज की (1498 ई.)।
अमेरिगो वेसपुसी (1451-1512 .)- भौगोलिक खोजकर्ता जिन्होंने दक्षिणी अमेरिकी तट की खोज की; इन्हीं के नाम पर अमेरिका का नामकरण किया गया।
विक्टोरिया (1819-1901 .)- 1837 ई. से ब्रिटेन की महारानी। 1876 से भारत की महारानी। ब्रिटिश राजतंत्र की छवि को शीर्ष तक पहुँचाया।

 

विश्व विख्यात व्यक्तित्व

अब्दुल गफ्फार खान ‘फ्रंटियर गाँधीÓ के नाम से प्रसिद्ध; स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर प्रॉविंसÓ के प्रमुख नेता। ‘खुदाई खिदमतगारÓ नामक संगठन के संस्थापक।

 

  • अब्दुल रहीम खानखानंअकबर के  सेनापति व नव रत्नों में से एक। प्रमुख मध्यकालीन भक्ति कवि।
  • अबुल फजल (1551-1602 .)-अकबर के प्रमुख सलाहकार व सरकारी इतिहासकार। उन्होंने ‘आइने अकबरीÓ व ‘अकबरनामाÓ लिखा।
  • अहिल्या बाईइंदौर के महाराजा मल्हार राव होल्कर की विधवा बहू जिन्होंने 1764-1765 तक राज्य पर शासन किया।
  • अहमद शाह अब्दालीअफगानिस्तान का शासक जिसने भारत पर सात बार आक्रमण किया, जिसमें 1761 में पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय प्रमुख है।
  • अजातशत्रु- विंबसार का पुत्र और मगध के हरयंका वंश का द्वितीय शासक।

अकबर (1542-1605 .)- मुगल साम्राज्य का महानतम शासक। उसने मुगल साम्राज्य का विस्तार किया और उसे मुख्य रूप से धार्मिक सहिष्णुता और राजपूतों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बंधों के लिए जाना जाता है। उसने एक नए धार्मिक पंथ ‘दीन-ए-इलाहीÓ की स्थापना की।

  • अल बरूनी (970-1039 .)-प्रसिद्ध लेखक जो महमूद गजनवी के साथ भारत आया और भारत पर विश्व प्रसिद्ध किताब ‘किताब-उल-हिंदÓ लिखी।
  • अलाउद्दीन बहमन शाहबहमनी राज्य के संस्थापक।
  • अलाउद्दीन खिलजीदिल्ली सल्तनत का सबसे सक्षम शासक जिसने मूल्य नियंत्रण प्रणाली लागू की। इसके शासनकाल के दौरान दिल्ली सल्तनत का सबसे ज्यादा विस्तार हुआ।
  • अलबुकर्क (1453-1515 .)-भारत में पुर्तगाली वायसराय। 1510 ई. में उसने गोवा व दीव पर अधिकार जमाया।
  • अल्बर्ट आइंस्टीन (1879-1955 .)-न्यूटन के बाद महानतम् वैज्ञानिक। 1905 में ‘क्वांटम सिद्धांतÓ का प्रयोग करके ‘फोटो विद्युत प्रभावÓ की व्याख्या की। द्रव्यमान व ऊर्जा के मध्य सम्बंध स्थापित करने के लिए श्व=द्वष्२ समीकरण का प्रतिपादन किया। ब्राऊनियन गति की व्याख्या करके परमाणु सिद्धांत की पुष्टिï की। सापेक्षता के विशिष्टï सिद्धांत (Special Theory of relativity) का प्रतिपादन किया। 1916 में सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत (General theory of relativity) का प्रकाशन। 1921 में नोबेल पुरस्कार।
  • एलेन ऑक्टोवियन ह्यूम (1829-1912 .)-ब्रिटिश सरकार में सिविल सर्र्वेंट जिन्होंने  भारतीय राष्टरीय कांग्रेस की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • अमीर खुसरो (1255-1325 .)-इनको ‘पैरेट ऑफ इंडियाÓ कहा जाता है। वे प्रसिद्ध साहित्यकार, इतिहासकार व संगीतज्ञ थे। सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया के शिष्य के रूप में प्रसिद्ध।
  • अर्दशीर226 ई. में ईरान में सस्सानिद वंश के संस्थापक।
  • अलेक्जेंडर ग्राहम बेल (1847-1922 .)-स्कॉटिश अमेरिकी, जिसने टेलीफोन का आविष्कार किया।
  • अरस्तू (384-322 . पू.)-ग्रीक दार्शनिक, साहित्यकार व वैज्ञानिक। सिकंदर महान के शिक्षक व प्लेटो के शिष्य। उन्होंने तर्कशास्त्र (Logic) की स्थापना की।
  • आर्यभट्ट (476-520 .)-भारतीय खगोलशास्त्री व गणितज्ञ जो चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नौ रत्नों में से एक थे। उन्हें बीजगणित (algebra) के आविष्कार का श्रेय है। वे पहले खगोलशास्त्री थे जिन्होंने  बताया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है।
  • अशोक महान (शासन 269-232 . पू.)-प्राचीन भारत का महानतम शासक। 261 ई. पू. में कलिंग युद्ध के पश्चात् उसने हिंसा का मार्ग छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया।
  • अश्वघोषकुषाण सम्राट कनिष्क के अध्यात्मिक गुरू, जिन्होंने प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ ‘बुद्धचरितम्’ की रचना की।
  • अतातुर्क कमाल (1881-1938 .)-तुर्की जनरल व राजनीतिज्ञ। उन्होंने तुर्की में खिलाफत का अंत करके वहाँ गणतंत्र की स्थापना की और तुर्की को एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में स्थापित किया।
  • आंद्रे मेरी एम्पियर (1775-1836 .)-फ्रांसीसी वैज्ञानिक जिसने एम्पियर के नियमों का प्रतिपादन किया। विद्युत धारा की इकाई का नामकरण इन्हीं पर किया गया है।
  • अलेक्जेंडर फ्लेमिंग (1881-1955 .)-स्कॉटिश वैज्ञानिक जिन्होंने प्रथम एंटीबायोटिक ‘पेनीसिलिन’ की खोज 1928 में की।
  • ऑर्थर कॉम्पटन (1892-1962 .)-अमेरिकी भौतिकविद् जिन्हें 1927 में ‘कॉम्पटन प्रभाव’ (Compton Effect) की खोज के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। ‘कॉम्पटन प्रभाव’ से ही प्रकाश के द्विस्वभाव(Dual nature) की जानकारी हुई।
  • अर्नेस्ट रदरफोर्ड (1871-1937)-प्रसिद्ध भौतिकविद जिन्होंने परमाणु की संरचना की खोज की जिससे नाभिकीय युग (Nuclear Age) की शुरुआत हुई।
  • अल्फ्रेड नोबेल (1833-1896 .)-स्वीडिश रसायनविद व आविष्कारक। इन्होंने डाइनामाइट का आविष्कार किया और इन्हीं के नाम से चिकित्सा, साहित्य, अर्थशास्त्र, भौतिकी, रसायनशास्त्र और शांति के लिए प्रत्येक वर्ष नोबेल पुरस्कार प्रदान किया जाता है।
  • ऑगस्टस (63 . पू. – 14 .)-प्रथम रोमन सम्राट। उन्होंने मिस्र पर विजय प्राप्त की और रोम में नैतिक धार्मिक सुधारों को लागू किया।
  • आर्कमिडीज़ (287-212 . पू.)-ग्रीक के प्रसिद्ध गणितज्ञ जिनको ‘उत्प्लावन के सिद्धांतों (Principle of buoyancy) के प्रतिपादन का श्रेय है।
  • इयूक्लिड (330-260 . पू.)-यूनान के प्रसिद्ध गणितज्ञ जिन्होंने ज्यामिति (geometry) में अनेक महत्वपूर्ण खोजें कीं।
  • एडविन पॉवेल हब्बल (1869-1953 .)-अमेरिकी खगोलविद जिन्होंने सबसे पहले ब्रह्मड के अकल्पनीय आकार की खोज की।
  • औरंगजेब– (1618-1707 .)-मुगल सम्राज्य का अंतिम महान सम्राट जिसने साम्राज्य का सुदूर दक्षिण तक विस्तार किया, किन्तु उसकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति ने मुगल राज्य को धक्का पहुँचाया।
  • बाबर (1483-1530 .)-भारत में मुगल साम्राज्य का संस्थापक जिसने अप्रैल 1526 में पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी को परास्त किया। तुर्की में आत्मकथा ‘तुजुक-ए-बाबरीÓ लिखी।
  • बाणभट्टहर्षवद्र्धन के दरबारी कवि। प्रसिद्ध कृति ‘हर्षचरितÓ।
  • बाडेन पावेल (1857-1941 .) –बॉय स्काउट्स मूवमेंट के संस्थापक (1908 ई.)।
  • बालाजी विश्वनाथमराठा साम्राज्य के प्रथम पेशवा (1731 ई.)।
  • बलवन, गियासउद्दीनदिल्ली सल्तनत के सुल्तान (1265-86)। उसने ‘सजदाÓ व ‘पाएबोसÓ जैसे तुर्की रिवाजों को अपने दरबार में लागू किया।
  • बिथोवनविश्व के महानतम संगीतकारों व कम्पोजरों में से एक।
  • बेसंट, एनी (1846-1933 .)-आयरिश सामाजिक सुधारक, 1917 में भारतीय राष्टï्रीय काँग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष। 1916 में होम रूम लीग की स्थापना की।
  • भीमराव अम्बेडकर (1891-1956 .)-दलितों के मसीहा। भारतीय संविधान के निर्माता जो 1947 से 1951 के मध्य भारत के कानून मंत्री रहे।
  • बिम्बसार (शासन 544-493 . पू.)-मगध राज्य के प्रथम महत्वपूर्ण राजा।
  • बिस्मार्क (1815-1898 .)-19वीं शताब्दी में जर्मनी के सर्वाधिक सशक्त राजनीतिज्ञ जिन्होंने जर्मनी का एकीकरण करके उसकी स्थापना की।
  • बोस, सुभाषचंद्र (1897-1945 .)-इन्हें ‘नेताजीÓ के उपनाम से जाना जाता है। वे एक शक्तिशाली राष्टï्रवादी नेता थे जो  भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना करके अंग्रेजों से टक्कर ली।
  • भाभा, डा. होमी जे. (1909-1966 .)-भारत के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक। भारतीय अणु कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं।
  • भगत सिंह– प्रसिद्ध क्रांतिकारी व विचारक जिन्हें लाहौर षडयंत्र केस में फांसी दी गई।
  • भास्कराचार्य (जन्म 1114 .) –प्रसिद्ध गणितज्ञ व खगोलशास्त्री। प्रसिद्ध कृति- सिद्धांत शिरोमणि।
  • बोस, नंद लालप्रसिद्ध भारतीय चित्रकार जिन्होंने  कई प्रसिद्ध पेंटिंग्स बनाईं।
  • बुद्ध, गौतम (523 . पू. -453 . पू.)-बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध का जन्म नेपाल के लुम्बिनी में हुआ था। वे कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के पुत्र थे। उन्होंने संसार का त्याग किया और ज्ञान की प्राप्ति के बाद बुद्ध कहलाये।
  • सीज़र, जूलियस (100-44 . पू.)-रोमन जनरल व तानाशाह। उसने गाउल पर विजय प्राप्त की, राइन नदी पार करके ब्रिटेन पर दो बार आक्रमण किया।
  • चैतन्य (1485-1533 .)-कृष्ण भक्त संत जिन्होंने उड़ीसा, बंगाल व पूर्वी दक्कन में कृष्ण भक्ति का प्रचार-प्रसार किया।
  • चाणक्य (चौथी सदी . पू.)-चाणक्य को कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है। उनकी कृति ‘अर्थशास्त्रÓ आज भी लोगों के मध्य प्रसिद्ध है। वह चंद्रगुप्त मौर्य के गुरू व प्रधानमंत्री थे। इनकी मौर्य वंश की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका थी।
  • चंद्रगुप्त मौर्य (शासन 321-298 . पू.)-मौर्य साम्राज्य के संस्थापक। उन्होंने मौर्य साम्राज्य का अफगानिस्तान तक विस्तार किया। इनके शासनकाल के दौरान ग्रीक राजदूत मेगास्थनीज़ भारत आया था।
  • चंगेज खान (1162-1227 .) –मंगोल योद्धा जिसने मंगोल साम्राज्य को चीन, रूस के अधिकाँश भागों और पूर्व में काला सागर तक फैलाया। चंगेज खान का साम्राज्य अभी तक का सर्वाधिक विशाल साम्राज्य था।
  • चियांग काई शेक (1887-1975 .)-चीनी राजनीतिज्ञ जिन्हें चीन के एकीकरण का श्रेय दिया जाता है (1926-28 ई.)। बाद में राष्टï्रवादी सरकार का नेतृत्व किया। (1928-49 ई.)। 1949 ई. में चीनी क्रांति के बाद ताइवान में निर्वासित सरकार का नेतृत्व।
  • क्लाइव, रॉबर्ट (1725-1774 .)-भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक। 1757 ई. में प्लासी की लड़ाई में बँगाल के शासक सिराजुद्दौला को परास्त करके  ब्रिटिश राज्य की नींव रखी।
  • कोलम्बस, क्रिस्टोफर (1451-1506 .)-इतावली भौगोलिक अन्वेषणकर्ता, जिन्होंने 1498 ई. में अमेरिका की खोज की।
  • कोपरनिकस, निकोलस (1473-1543 .) –पोलिश खगोलशास्त्री जिन्होंने प्रतिपादित किया कि पृथ्वी सहित सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं।
  • साइरसईरान का महान शासक जिसने बेबीलोन को 539 ई. पू. में पराजित करके अपने साम्राज्य को एशिया माइनर (तुर्की) तक फैलाया।
  • दादा भाई नौरोजी (1825-1917 .)-‘ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडियाÓ के नाम से विख्यात दादा भाई नौरोजी तीन बार भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अध्यक्ष रहे। ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस के लिए निर्वाचित होने वाले प्रथम भारतीय।
  • दारा शिकोह (1614-1659 .)-मुगल सम्राट शाहजहाँ का वरिष्ठï पुत्र जिसकी हत्या औरंगजेब ने करवाई थी। धार्मिक सहिष्णुता के लिए प्रसिद्ध दारा ने ‘गीताÓ का फारसी में अनुवाद करवाया था।
  • दारा प्रथम (548-486 . पू.)-फारस के सम्राट। उन्होंने 490 ई. पू. में यूनान पर आक्रमण किया, किंतु मैराथन के मैदान में पराजित।
  • दयानंद सरस्वती (1824-1883 .)-इन्होंने 1875 में सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए ‘आर्य समाजÓ की स्थापना की। वेदों के ईश्वरीय वाणी होने का समर्थन करते हुए उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाशÓ की रचना की।
  • डुप्ले (1697-1764 .)-भारत में फ्रांसीसी गवर्नर-जनरल जिसने अंग्रेजों के खिलाफ द्वितीय कर्नाटक युद्ध में विजय प्राप्त की।
  • एडविन लुटएंसब्रिटिश वास्तुकार जिसने नई दिल्ली का निर्माण किया।
  • आइजनहावर, ड्विट डेविड (1890-1969 .)-द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान मित्र सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर। बाद में वे सं. रा. अमेरिका के 34 वें राष्ट्रपति बने।
  • एकनाथमध्यकालीन भक्ति आंदोलन के संत व कवि जिन्होंने मराठी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने जातिप्रथा का कड़ा विरोध किया।
  • फाह्यानचंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में भारत आने वाला पहला चीनी यात्री। उसके लेखों को गुप्त काल का ऐतिहासिक प्रमाण माना जाता है।
  • फिरदौसी (930-1020 .)-फारसी भाषा के प्रसिद्ध कवि जिनकी कालजयी कृति ‘शाहनामाÓ में प्राचीन फारस की गाथा गाई गई है।
  • फ्लोरेंस नाइटेंगल (1820-1910 .)-क्रीमिया युद्ध में घायल सैनिकों की सेवा हेतु संगठित प्रयास करने वाली प्रसिद्ध नर्स। इन्हें ‘लेडी विद द लैम्पÓ के उपनाम से भी जाना जाता है।
  • गुरू गोबिंद सिंह (1666-1708 .)-सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरू जिन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की (आनंदपुर, 1699 ई.)। सिक्खों को एक लड़ाकू जाति के रूप में व्यवस्थित किया।
  • गाँधी, महात्मा (1869-1948 .)-बापू व राष्टï्रपिता के नाम से विख्यात महात्मा गाँधी को विश्व के महानतम व्यक्तियों में से एक माना जाता है। उन्होंने भारत को आजादी दिलाने के लिए सत्याग्रह व अहिंसा जैसे अभिनव अस्त्रों का प्रयोग किया। 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोड़से ने उनकी हत्या कर दी।
  • गैरीबाल्डी (1807-1882 .)-इटली के एकीकरण में मुख्य भूमिका निभाई। इन्होंने मैजिनी के साथ मिलकर इटली में ‘यंग इटलीÓ मूवमेंट चलाया।
  • गोपालाबँगाल के पाल वंश के संस्थापक (750 ई.)।
  • गोविन्दमहानतम राष्ट्रकूट शासक जिसने प्रतिहार, चोल, पांड्य, गंगा व पल्लव को हराया।
  • गुरू नानक देव (1469-1538 .)-सिक्ख धर्म के संस्थापक और प्रथम गुरू। इनका जन्म नानकाना साहिब (पाकिस्तान) में हुआ था।
  • गुरू तेग बहादुरये सिक्खों के नौवें गुरू थे। 1675 ई. में औरंगजेब ने इनकी हत्या करवा दी थी।
  • कैप्टेन जेम्स कुक (1728-1779 .)-ब्रिटिश नौचालक जो अंटार्कटिक वृत्त दक्षिण की यात्रा करने वाले प्रथम मानव बने। उन्होंने प्रशांत महासागर की भी खोज की।
  • चार्ली चैपलिन (1889-1977 .)– इंग्लैण्ड में जन्में विश्वविख्यात अमेरिकी हास्य अभिनेता और निर्देशक। प्रमुख फिल्में- ‘द ट्रैम्पÓ, ‘द किडÓ, ‘द गोल्ड रसÓ, ‘द सर्कसÓ, ‘सिटी लाइट्सÓ, ‘द ग्रेट डिक्टेटरÓ, ‘लाइमलाइटÓ।
  • चाल्र्स डार्विन (1809-1862 .)-महान जीव वैज्ञानिक, जिन्होंने दक्षिणी सागर के वन्य जीवन का गहरा अध्ययन करने के उपरांत अपनी पुस्तक ‘द ओरीजिन ऑफ स्पीसीज़Ó की रचना की। उनके अनुसार मानव का विकास वानर समान पूर्वज से हुआ है।
  • चाल्र्स डिकेन्स (1812-1870 .)-विक्टोरियन इंग्लैंड के महानतम उपन्यासकारों में से एक। प्रसिद्ध उपन्यास ‘ऑलिवर ट्विस्ट’, ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशन्सÓ, ‘डेविड कॉपरफील्डÓ आदि।
  • कन्फ्यूशियस (लगभग 551-479 . पू.)– चीनी दार्शनिक और राजनीतिक चिंतक, जिनके चिंतन का प्रभाव चीन में आधुनिक काल तक रहा।
  • कार्ल बेंज (1844-1929 .)-जर्मन इंजीनियर जिन्होंने 1895 ई. में आंतरिक दहन इंजन (Internal Combustion Engine) का आविष्कार किया।
  • एडवर्ड जेन्नेर (1749-1823 .)-अंग्रेज वैज्ञानिक जिसने चेचक (Small Pox) के टीके का आविष्कार किया।
  • गैब्रियल फारेनहाइट (1686-1736 .)-जर्मन-डच वैज्ञानिक जिन्होंने प्रथम मरकरी और फारेनहाइट थर्मामीटर का निर्माण किया।
  • गुग्लीमो मारकोनी (1874-1937 .)-इतालवी विद्युत इंजीनियर एवं रेडियो का आविष्कारक। 1909 ई. में उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
  • गैलीलियो (1564-1642 .)-इतालवी खगोलविद् जिन्होंने शक्तिशाली दूरबीन का आविष्कार किया और बृहस्पति के उपग्रहों की खोज की। उन्होंने सूर्य-केन्द्रित कोपरनिकस सिद्धांत का समर्थन किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें मृत्युदंड दिया गया।
  • ग्रेगर जोहन मेंडल (1822-1884 .)-ऑस्ट्रियाई वनस्पतिशास्त्री जिन्होंने अनुवांशिकता के  सिद्धांतों की खोज की।
  • गाट्टलिब डेमलर (1834-1900 .)-आंतरिक दहन इंजन के आविष्कारकर्ता जिन्होंने कार्ल बेंज के साथ संयुक्त रूप से डेमलर बेंज कम्पनी की स्थापना की।
  • जॉन डाल्टन (1766-1844 .)– अंग्रेज रसायनशास्त्री जिन्होंने परमाणु सिद्धांत का प्रतिपादन किया और परमाणु भारों (Atomic Energy) की आवर्त सारणी का प्रकाशन किया।
  • जॉर्ज वाशिंगटन (1732-1799 .)-अमेरिकी जनरल और प्रथम राष्ट्रपति (1789-92 ई.)। 1781 ई. में यॉर्कशायर में कॉर्नवालिस को पराजित किया जिससे अमेरिका को स्वतंत्रता मिली। 1789 ई. में अमेरिका के प्रथम राष्टï्रपति बने।
  • जॉन एफ. कैनेडी (1917-1963 .)-35वें अमेरिकी राष्ट्रपति (1960-65)। इनके कार्यकाल में ही क्यूबा मिसाइल संकट पैदा हुआ (1962 ई.)। किंतु इनके कार्यकाल के दौरान ही ‘आंशिक परमाणु प्रतिबंध संधिÓ पर हस्ताक्षर किए गए (1963 ई.)। 1963 में डलास में हत्या।
  • जॉन कैबो (1425 -1500 .)-इतालवी भौगोलिक अन्वेषणकर्ता और नौचालक। इंग्लैण्ड के शासक हेनरी सप्तम के प्रोत्साहन के अंतर्गत उत्तरी अमेरिकी की खोज की।
  • जॉर्ज बर्नार्ड शॉ (1856-1950 .)-आयरलैण्ड में जन्में नाटककार एवं आलोचक। प्रमुख नाटक ‘सीज़र एण्ड क्लियोपेट्राÓ, ‘मेजर बारबराÓ, ‘पिग्मेलियॉनÓ इत्यादि।
  • जीसस क्राइस्ट (4 . पू.-30 .)-ईसाई धर्म के संस्थापक, बेथलेहम में जन्म, बाल्यावस्था नाजरेथ में बीती, जॉन द बैपटिस्ट के द्वारा बपतिस्मा। 30 ई. में जेरूशलम में आगमन, इनके शिष्य जुडास ने धोखा देकर उन्हें पकड़वाया। ईशनिंदा के आरोप में सूली पर चढ़ाए गए। अपनी मृत्यु के दो दिन बाद पुनर्जीवित हुए।
  • जेम्स वॉट (1736-1819 .)-स्कॉटलैण्ड के इंजीनियर जिन्होंने प्रथम बार वाष्प शक्ति का अवलोकन किया। इनके नाम पर ही शक्ति की एक मापन इकाई का नाम ‘वाटÓ रखा गया।
  • जोसेफ प्रीस्टले (1733-1804 .)-अंग्रेज रसायनशास्त्री जिन्होंने ऑक्सीजन, अमोनिया, कार्बन मोनो ऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड एवं नाइट्रोजन के ऑक्साइडों की खोज की।
  • जॉन मिल्टन (1608-1674 .)-इंग्लैण्ड के ख्याति प्राप्त महाकाव्य लेखक और कवि जो अंधे थे। इनके प्रसिद्ध महाकाव्य- ‘पैराडाइज लॉस्ट’ तथा ‘पैराडाइज़ गेन्ड’।
  • जीन हेनरी डुनेन्ट (1509-1564 .)-स्विज़ समाजसेवी जिन्होंने रेडक्रॉस की स्थापना की (1864 ई.)। जिनेवा कन्वेंशन की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • जस्टिनियन प्रथम (483-565 .)-537 ई. से रोमन बाइजेन्टिनियाई सम्राट, जो अपने प्रशासनिक सुधारों के लिए प्रसिद्ध थे।
  • जोसे डि सैन मार्टिन (1778-1850 .)-अर्जेन्टीनियाई क्रांतिकारी जिन्होंने दक्षिणी अमेरिकी देशों को स्पेनी औपनिवेशवाद से मुक्त कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।  उनके प्रयासों से अर्जेन्टीना (1814-16 ई.), चिली (1817-18 ई.) और पेरू (1821 ई.) को स्वतंत्रता मिली।
  • जैकस कार्टियर (1491-1577 .)-फ्रांसीसी नौचालक जिन्होंने न्यूफाउंडलैंड (कनाडा) की खोज की।
  • जॉन डनलप (1840-1921 .)-स्कॉटलैंडवासी वैज्ञानिक जिन्होंने न्यूमेटिक टायर का आविष्कार किया।
  • जेम्स जूल (1818-1889 .)-इंग्लिश वैज्ञानिक जिन्होंने ऊष्मा के बारे में क्रांतिकारी नियम प्रतिपादित किए। ‘ऊर्जा के संरक्षण का नियमÓ (Law of Conservation of energy) का प्रतिपादन उन्होंने ही किया। उन्हीं के नाम पर ऊर्जा की इकाई का नामकरण ‘जूलÓ किया गया।
  • जोसेफ स्टालिन (1879-1953 .)-सोवियत संघ का निरंकुश शासक। 1922 ई. से सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और 1924 में सोवियत संघ के शासक। कम्युनिस्ट पार्टी में अपने विरोधियों की हत्या के दोषी। मित्र राष्ट्रों के ओर से द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लिया। जर्मन आक्रमण को निष्फल किया।

 

भारत के प्रमुख ऐतिहासिक शहर स्थल
 

अहिछत्र – उ. प्र. के बरेली जिले में स्थिति यह स्थान एक समय पाँचालों की राजधानी थी।
आइहोल- यह स्थान कर्नाटक में स्थित है। इसकी मुख्य विशेषता चालुक्यों द्वारा बनवाए गए पाषाण के मंदिर हैं।
अजंता की गुफाएँ- यह स्थान महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित है। इसमें 29 बौद्ध गुफाएँ मौजूद हैं। यह गुफाएँ अपनी चित्रकारी के  लिए प्रसिद्ध हैं। इनका काल 2 सदी ई. पू. से 7 शताब्दी ई. तक है।

 

अमरावती- यह ऐतिहासिक स्थल आधुनिक विजयवाड़ा के निकट स्थित है। सातवाहन वंश के समय में यह स्थान काफी फला-फूला।
अरिकामेडू– चोल काल के दौरान पाँडिचेरी के निकट स्थित समुद्री बंदरगाह।
बादामी या वातापी- कर्नाटक में स्थित यह स्थान चालुक्य मूर्तिकला के  लिए प्रसिद्ध है जो कि गुहा-मंदिरों में पाई जाती है। यह स्थान द्रविड़ वास्तुकला का उत्तम उदाहरण हैै।
चिदाम्बरम- यह स्थान चेन्नई के 150 मील दक्षिण में स्थित है और एक समय यह चोल राज्य की राजधानी थी। यहाँ के मंदिर भारत के प्राचीनतम मंदिरों में से हैं और वे द्रविड़स्थापत्य व वास्तुकला का बखूबी प्रतिनिधित्व करते हैं।

 

बोध गया- यह स्थान बिहार के  गया जिले में स्थित है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति किया था।
एलीफेंटा की गुफा- यह मुंबई से लगभग 6 मील की दूरी पर स्थित है। इसमें 7वीं व 8वीं शताब्दी की पत्थर को काटकर बनाई गई गुफाएँ स्थित हैं।
अयोध्या- यह आधुनिक फैज़ाबाद से कुछ दूरी पर स्थित है। यह कोसल राज्य की राजधानी थी और राम का जन्मस्थान यही है।
एलोरा गुफायें – यह स्थान महाराष्ट्र राज्य के औरंगाबाद जिले के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। इसमें पत्थर को काटकर बनाई गईं 34 गुफाएं स्थित हैं।
फतेहपुर सीकरी- यह स्थान आगरा से 23 मील की दूरी पर स्थित है। इसकी स्थापना 1569 में अकबर ने की थी। यहाँ पर 176 फीट ऊँचा बुलंद दरवाजा मौजूद है।
हड़प्पा- पाकिस्तान के पँजाब प्रांत के माँटगोमेरी जिले में स्थित यह स्थल हड़प्पा संस्कृति काल में एक प्रमुख शहर था।

 

हम्पी – कर्नाटक में स्थित यह स्थान मध्यकालीन युग में विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी।
आगरा- इस शहर की नींव लोदी वंश के बादशाह सिकंदर लोदी ने 1509 में रक्खी थी। बाद में मुगल सम्राटों ने इसे अपनी राजधानी बनाया। शाहजहाँ ने यहीं अपनी पत्नी मुमताज महल की याद में ताजमहल का निर्माण कराया था।
अमृतसर- यहीं पर सिक्खों का पवित्र स्थल स्वर्ण मंदिर स्थित है। इसका निर्माण सिक्खों के चौथे गुरू रामदास ने करवाया था।
अवन्ति- पुराणों में अवन्तिका के नाम से प्रसिद्ध भारत का यह प्राचीन शहर 16 महाजनपदों में शामिल था।
इंद्रप्रस्थ- नई दिल्ली के निकट स्थित यह नगर महाभारत काल में कुरू राज्य की राजधानी थी।
उज्जयिनी- छठी सदी ई. पू. में यह शहर उत्तरी अवन्ति की राजधानी था।
कन्नौज- उत्तर प्रदेश में स्थित यह शहर हर्ष की राजधानी थी।
कन्याकुमारी- पद्मपुराण में वर्णित यह शहर भारत के सुदूर दक्षिण में स्थित है।
कपिलवस्तु- नेपाल के तराई में स्थित इसी जगह में महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था

कांचीपुरम- वर्तमान में कांजीवरम के नाम से विख्यात यह प्राचीन नगर सात पवित्र नगरों में से एक है।
कुशीनगर- उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में स्थित इसी स्थान पर महात्मा बुद्ध का महापरिनिïर्वाण हुआ था।
खजुराहो- दसवीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य चंदेल शासकों द्वारा निर्मित मंदिरों के लिए प्रसिद्ध खजुराहों मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित है।
गया- बिहार में स्थित इस नगर की गणना पवित्र नगरियों में की जाती है। यहीं पर बुद्ध को ज्ञान की प्राप्त हुई थी।
जयपुर- 1721 में कछवाहा शासक सवाई जयसिंह ने इस नगर की स्थापना की थी।
झांसी- उत्तर प्रदेश का यह नगर रानी लक्ष्मी बाई की वजह से प्रसिद्ध है।
दौलताबाद- प्राचीनकाल में देवगिरि के नाम से विख्यात यह नगर महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित है। मुहम्मद बिन तुगलक ने इसे अपनी राजधानी बनाया था।
पाटलिपुत्र- बिहार स्थित पाटलिपुत्र वर्तमान में पटना के नाम से प्रसिद्ध है। यह मौर्र्यों की राजधानी थी।
पूणे- मराठा सरदार शिवाजी तथा उनके पुत्र शम्भाजी की राजधानी पूणे महाराष्ट्र का एक प्रमुख शहर माना जाता है।
पुरूषपुर- प्रथम शताब्दी ई.पू. में कनिष्क द्वारा स्थापित पुरूषपुर पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में स्थित है। इसे वर्तमान में पेशावर के नाम से जाना जाता है।
प्लासी- प्लासी 1757 में ईस्ट इंडिया कंपनी एवं बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के बीच हुए युद्ध के लिए प्रसिद्ध है।
प्रयाग- तीर्थराज कहलाने वाला यह नगर गंगा-यमुना के संगम पर बसा है। प्राचीन काल से ही इस स्थली की गणना पवित्र नगरियों में की जाती है। बाद में अकबर ने इसका नाम बदलकर इलाहाबाद कर दिया था।
बीजापुर- युसूफ आदिलशाह द्वारा स्थापित यह नगर कर्नाटक में स्थित है। यहां गोल गुंबज मुहम्मद आदिलशाह का मकबरा है।
भुवनेश्वर- वर्तमान समय में उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर प्राचीन समय में उत्कल की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध था। यहाँ के मंदिर विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
माउंट आबू- दिलवाड़ा के जैन मंदिर के लिए प्रसिद्ध यह स्थान अरावली पर्वत पर स्थित है।

 

मथुरा- उत्तर प्रदेश में स्थित यह नगरी भगवान श्रीकृष्ण की जन्म स्थली होने की वजह से प्रसिद्ध है।
मामल्लपुरम- पल्लव नरेश नरसिंह वर्मन द्वारा चेन्नई के पास निर्मित यह नगर वर्तमान में महाबलीपुरम के रुप में विख्यात है। यहां के मंदिर विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
विजयनगर- इस राज्य की नींव 1336 में तुंगभद्रा नदी के तट पर हरिहर व बुक्का द्वारा रखी गई थी।

श्रवणबेलगोला- कर्नाटक के हसन जिले में स्थित श्रवणबेलगोला जैन धर्म के मुख्य केेंद्र के रूप में प्रसिद्ध है। यहां जैन तीर्र्थंकर बाहुबली की विशाल मूर्ति है।
सारनाथ- यह स्थान उत्तर प्रदेश के वाराणसी के पास स्थित है जहां बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था।
कोणार्क- यह स्थान सूर्य मंदिर के लिए विख्यात है।
रामेश्वरम- तमिलनाडु में स्थित यह स्थान रामनाथ स्वामी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
मदुरै- पाण्ड्य राजाओं की राजधानी एवं तमिलनाडु में स्थित यह नगर मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है।
भीतरगांव- उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले में स्थित यह स्थल गुप्तकालीन ईंटों से बने मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
मौर्य साम्राज्य: महत्वपूर्ण शासक

चौथी शताब्दी ई.पू. में, मगध पर नन्द राजवंश के राजाओं ने शासन किया था। यह वंश उत्तर का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। कौटिल्य को चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है। वह एक ब्राह्मण  मंत्री था जिसने मौर्य परिवार के एक नवयुवक चंद्रगुप्त को प्रशिक्षित किया था। चंद्रगुप्त ने कौटिल्य के नेतृत्व में अपनी संगठित सेना से नंद राजा को उखाड़ फेंका।

चंद्रगुप्त मौर्य, मौर्य वंश का प्रथम राजा और संस्थापक माना जाता है।. उसकी माता का नाम मूर था जिसका संस्कृत में अर्थ मौर्य होता है। इसलिए इस वंश का नाम मौर्या वंश पड़ा।

मगध राजवंश पर शासन करने वाले कुछ महत्वपूर्ण शासक:

चंद्रगुप्त मौर्य ( 322-298 ईसा पूर्व )

चंद्रगुप्त मौर्य को मौर्य साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है। विद्वानों के द्वारा यह विश्वास किया जाता है की जब वह केवल २५ साल का था तभी उसने नन्द राज धननंद से पाटलिपुत्र को छीन लिया था। जैसा की उल्लेख किया जाता है की इस कार्य में उसकी सहायता कौटिल्य जिसका एक नाम विष्णुगुप्त भी था ने किया था। सबसे पहले उसने गंगा के मैदानी इलाकों में अपनी सत्ता स्थापित की और बाद में उत्तर पश्चिम की ओर कुछ किया। चंद्रगुप्त मौर्य ने शीघ्र ही पंजाब के पूरे क्षेत्र पर विजय प्राप्त कर लिया। सेल्यूकस निकेटर जोकि  एक ग्रीक जनरल(सिकंदर का जनरल) था ने पुरे उत्तर में अपना अधिकार स्थापित किया था। इसलिए चंद्रगुप्त मौर्य ने उसके खिलाफ एक लंबी लड़ाई लड़ी और 305 ई.पू. के आस-पास उसे पराजित किया।दोनों के मध्य  एक संधि पर हस्ताक्षर किया गया। इस संधि के अनुसार, सेल्यूकस निकेटर ने सिंधुपार के प्रदेशों अर्थात् एरिया(हेरात),अरकेशिया(कंधार), जेद्रोसिया(बलूचिस्तान),पेरोपेरिन्स्दायी(काबुल) चंद्रगुप्त मौर्य को सौंप दिया और बदले में चन्द्रगुप्त मौर्य ने उसे 500 हाथियों का एक उपहार दिया। सेल्यूकस निकेटर ने मौर्य राजकुमार से अपनी बेटी का विवाह कर दिया  ऐसा कि माना जाता है की चन्द्रगुप्त मौर्या ने इस गठबंधन को और मजबूत करने के लिए मकदूनिय की राजकुमारी से विवाह कर लिया। इस तरह वह सिंधु क्षेत्र पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया, वर्तमान में  इसका कुछ हिस्सा आधुनिक अफगानिस्तान में है। बाद में वह मध्य भारत की ओर कुछ किया नर्मदा के उत्तरी भागो तक अपना साम्राज्य स्थापित किया।

इस संधि के द्वारा सेल्यूकस द्वारा मेगस्थनीज एक  ग्रीक राजदूत के रूप में चंद्रगुप्तके के दरबार में भेजा गया और देइमकोस को बिन्दुसार के दरबार में एक ग्रीक राजदूत के रूप में भेजा गया था। चंद्रगुप्त अपने जीवन के अंतिम समय में जैन धर्म को अपना लिया और अंत तक जैन बना रहा। बाद में उसने अपने पुत्र बिन्दुसार के पक्ष में अपना सिंहसान त्याग दिया। चंद्रगुप्त बाद में जैन साधु भद्रबाहु के नेतृत्व में भिक्षुओं के साथ मैसूर के नजदीक श्रवण बेलगोला चला गया  और जैन धर्मं में प्रचलित मृत्यु(सल्लेखना) के तरीके से मृत्यु को प्राप्त हुआ।

उसके काल में व्यापार, कृषि प्रणाली व्यवस्थित बनी रही साथ ही बाट और माप आदि का मानकीकरण भी किया गया साथ ही मुद्रा का भी प्रचलन रहा. कराधान, स्वच्छता और अकाल राहत आदि कार्य राज्य की प्राथमिकता के बिंदु थे।

बिन्दुसार ( 297-272 ईसा पूर्व )

चंद्रगुप्त मौर्य ने लगभग 25 वर्षों तक शासन किया और उसके बाद वह अपने पुत्र बिन्दुसार के लिए अपना सिंहासन छोड़ दिया। बिन्दुसार यूनानियों के द्वारा ‘अमित्रघात ‘ जिसका अर्थ दुश्मनों का हत्यारा है,के रूप में जाना जाता था। कुछ विद्वानों के अनुसार बिन्दुसार ने दक्कन से लेकर मैसूर तक विजय प्राप्त की थी। तरणथा जोकि एक तिब्बती भिक्षु था ने बिन्दुसार के बारे में इस बात की पुष्टि की थी  की उसने ‘दो समुद्र के बीच भूमि’ की भूमि, जिसमें 16 राज्य अवस्थित थे, पर विजय प्राप्त की थी। संगम साहित्य के अनुसार मौर्यों ने दक्षिण में भी आक्रमण किया था। बिन्दुसार के शासन के दौरान, मौर्य वंश का विस्तार सुदूर मैसूर तक था। लेकिन वनों से परिपूर्ण भूमि कलिंग(उड़ीसा) के पास का क्षेत्र और सुदूर दक्षिण के राज्य इसके अधिकार क्षेत्र से बाहार थे।

बिन्दुसार सीरिया के राजा अन्तियोकस प्रथम के संपर्क में भी था जिसने बिन्दुसार के दरबार में दमिस्क को राजदूत के रूप में भेजा था। बिन्दुसार ने सीरिया के राजा से मिठाई शराब, सूखा अंजीर और एक दार्शनिक की मांग की थी लेकिन सीरियाई राजा ने सीरिया के कानों का हवाला देते हुए दार्शनिक भेजने से मन कर दिया था। बिन्दुसार आजीवक संप्रदाय में विश्वास रखता था.।  बिन्दुसार ने अशोक को उज्जैन का राज्यपाल नियुक्त किया जिसे बाद में तक्षशिला में हुए एक विद्रोह को दबाने के लिए भेजा गया।

अशोक महान ( 268-232 ईसा पूर्व )

अशोक के काल में, मौर्य साम्राज्य विस्तार के सन्दर्भ में अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया। पहली बार पूरे उपमहाद्वीप पर दक्षिण भारत को छोड़कर सभी क्षेत्र उसके प्रत्यक्ष नियंत्रण में थे।

सिहासन के खाली होने( 273 ई.पू.) और उसके वास्तविक राज्याभिषेक( 269 ई.पू.) के बीच करीब चार वर्ष का अन्तराल था। उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार बिन्दुसार की मृत्यु के बाद सिंहासन प्राप्त करने के लिए राजकुमारों के मध्य संघर्ष हुआ था।

हालांकि, अशोक का उत्तराधिकार एक विवादित मुद्दा है। अशोक के शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना 261 ईसा पूर्व में कलिंग के साथ विजयी युद्ध था। युद्ध के वास्तविक कारण के बारे में कोई साक्ष्य नहीं मिलता है , लेकिन दोनों पक्षों अर्थात अशोक और कलिंग को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा। अशोक इस युद्ध में हुए रक्तपात से काफी दुखी था। इसका वर्णन वह खुद तेरहवें शिलालेख में करता है। युद्ध समाप्त होने के बाद अशोक ने कलिंग पर कब्जा कर लिया और आगे से किसी भी प्रकार के युद्धों को न करने का फैसला किया। अशोक के ऊपर कलिंग युद्ध का प्रभाव इस कदर पड़ा की वह बौद्ध भिक्षु उपगुप्त  के प्रभाव में बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया।

उसने शांति और अपने अधिकार को बनाए रखने के लिए एक वृहद् और शक्तिशाली सेना को बनाए रखा। अशोक ने एशिया और यूरोप के करीब सभी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों का विस्तार किया  और बौद्ध मिशनो को इन देशो में प्रायोजित भी किया। अशोक के द्वारा चोल, पांड्य और यूनानी राजाओं द्वारा शासित पांच राज्यों के लिए बौद्ध मिशनरियों को भेजा गया था। उसने सीलोन(श्रीलंका) और सुवर्णभूमि(बर्मा) एवं दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ हिस्सों में भी बौद्ध धर्मं के प्रचार-प्रसार  के लिए मिशनरियों को भेजा।

महेंद्र, तीवर  (केवल शिलालेखों में उल्लिखित), कुनाल और तालुका अशोक के प्रमुख पुत्र थे। संघमित्रा और चारुमति उसकी दो पुत्रिया थीं।

मौर्योंत्तर शासक  ( 232-184 ईसा पूर्व )

अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य 232 ई.पू. में दो भागों में विभाजित हो गया था। ये दो भाग, पूर्वी और पश्चिमी थे। कुनाल पश्चिमी भाग के राजा के रूप के रूप में और दशरथ पूर्वी भाग के राजा में शासन करते रहे। उसके बाद  समृति , सलिसुक ,देववर्मन, सताधन्वन और अंत में बृहद्रथ ने शासन किया। बृहद्रथ इस वंश का अंतिम शासक था जिसकी हत्या 184 ई.पू. में उसके मंत्री पुष्यमित्र शुंग ने कर दी। पुष्यमित्र शुंग ने बाद में शुंग वंश की स्थापना की।

 

जनपद और महाजनपद

जनपद

वैदिक ग्रंथो के अनुसार आर्य जनजातियाँ जन के रूप में जानी जाती थी  जोकि तत्कालीन समय में समाज की सबसे बड़ी इकाई थी। जनपद शब्दावाली जन और पद दो शब्दों से बना था जिनमे जन का अर्थ लोक या कर्ता और पद का अर्थ पैर होता था। तत्कालीन समय में प्रारम्भिक तौर पर जनपद एक ऐसा बृहद स्थान था जहाँ जनपद के पुरुष व्यापारी,कारीगर और कलाकार आदि एकत्रित होते थे जोकि गावों और बस्तियों से घिरा हुआ था. बाद में यही जनपद वैदिक कल में एक बृहद गणराज्य या राज्य के रूप में परिवर्तित हो गए। जनपद के शासक को जनपदिन कहा जाता था। प्राचीन भारतीय ग्रन्थ जैसे अष्टाध्यायी, रामायण, महाभारत और अन्य बहुत से पुराण प्राचीन कल में अनेक गणराज्यो  के बारे में उल्लेख करते है। भारतीय उपमहाद्वीप  स्पष्ट सीमओं के साथ कई जनपदो में विभाजित किया गया था। वैदिक ग्रन्थ आंध्र, पुलिंद, सबरस और पुन्दरस के अलावा 9जनपदों का उल्लेख करते है, हालाँकि छठी शतब्दी ईसा पूर्व पाणिनी ने 22 विभिन्न जनपदों का उल्लेख किया हैं , जिनमे से मगध,अवंती ,कोशल और वत्स जनपद अत्यंत महत्वपूर्ण थे।

महाजनपद

पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में छठी शताब्दी पूर्व के बाद लोहे के व्यापक इस्तेमाल ने वृहद् तौर पर  क्षेत्रीय राज्यों के उद्भव की परिस्थितियों  को जन्म दिया। इस विकास के साथ ही ये जनपद अत्यधिक शक्तिशाली होते गए।छठी शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व  के बीच जैन और बौद्ध ग्रंथो में 16 महाजनपदो का उल्लेख मिलता है जिनका वर्णन निम्नवत है।

अंग–सभी महाजनपदो में अंग प्रथम महाजनपद था । इसकी अवस्थिति गंगा के मैदान के आस-पास थी। अथर्ववेद में अंग महाजनपद के कई नामो का उल्लेख मिलता है। अंग महाजनपद वर्तमान बिहार के मुंगेर और भागलपुर जिलो को सम्मिलित करता थाI इसकी राजधानी चंपा थी।

मगध– मगध एक शक्तिशाली राज्य था।बिम्बिसार और अजातशत्रु इसके महत्वपूर्ण और शक्तिशाली राजा  थे। यह वर्तमान बिहार के पटना, गया, और शाहाबाद जिलो के कुछ भागो को सम्मिलित किये हुए था। इसकी प्रारम्भिक राजधानी राजगृह थी जोकि बाद में पाटलिपुत्र हो गयी। वेदों के अनुसार मगध अर्ध ब्राह्मण राज्य था।

वज्जि–वज्जियंस या विरिजिस आठ कुलो का संघ था जिनमे वज्जि सबसे मह्त्वपूर्ण  थे। वज्जि बुद्ध काल में प्रसिद्ध नृत्यांगना आम्रपाली के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण  महाजनपद  था।यह  बिहार में उत्तरी गंगा के किनारे बसा हुआ थाI इसकी राजधानी वैशाली थी।

मल्ल– मल्लो का उल्लेख बौद्ध एवं जैन ग्रंथो में मिलता है। इसका उल्लेख नौ गणराज्यो के अंतर्गत किया गया थाI पूर्वी उत्तर प्रदेश के वर्तमान देवरिया, बस्ती ,गोरखपुर, और सिधार्थनगर जिले इसकी सीमा में आते थे।इसकी दो राजधानियां, प्रथम कुशीनगर और दूसरी पावा थी।

काशी–  काशी वाराणसी (वर्तमान बनारस ) क्षेत्र के आस पास अवस्थित था, जोकि उत्तरी एवं दक्षिणी दिशाओ की तरफ से वरुण और असी नदियों से घिरी हुई थी। इसकी राजधानी वाराणसी थी। बुद्ध के पहले काशी १६ महाजनपदो में एक शक्तिशाली राज्य था। अलबरूनी और मत्स्य पुराण इसका उल्लेख करते हैं ।

कोशल– कोशल मगध के उत्तरी-पश्चिमी  भाग में बसा हुआ था। इसकी राजधानी श्रावस्ती थी। वर्तमान पूर्वी उत्तर प्रदेश के फ़ैजाबाद, गोंडा, बहराइच जिले इसकी सीमा के अंतर्गत आते थे।

चेदि– चेदियो की राजधानी शुक्तिमती थी। वर्तमान बुंदेलखंड क्षेत्र इसके अंतर्गत आता था। चेदि में शिशुपाल का शासन था।

वत्स-महाजनपदो की सूची में वत्स आर्थिक, वाणिज्यिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु था।वर्तमान इलाहाबाद,मिर्जापुर जिले इसकी सीमा के अंतर्गत शामिल थे। इसकी राजधानी कौशाम्भी थी।

कुरु– कुरु महाजनपद पुरू-भरत परिवार से सम्बंधित था। ये वे लोग थे जिनका उद्भव कुरुक्षेत्र (वर्तमान हरियाणा और दिल्ली) में हुआ था। इनकी  राजधानी इन्द्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली ) थी। ऐसा विश्वास किया जाता है की छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास वे सरकार के गणतान्त्रिक स्वरूप में परिवर्तित हो गए।

पांचाल– वर्तमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश  से लेकर यमुना नदी के पूर्वी भाग और कोशल जनपद तक का इलाका पंचालो के अंतर्गत आता था। पांचाल दो भागो उत्तरी पांचाल और दक्षिणी पांचाल में विभाजित किया गया था। इनकी राजधानी क्रमशः अहिक्षत्र और काम्पिल्य (वर्तमान रोहिलखंड ) थी।

शूरसेन– शूरसेन धर्म परिवर्तन के सन्दर्भ में प्रमुख प्रत्यक्षदर्शी महाजनपद थाI शूरशेनो की राजधानी मथुरा (वर्तमान वृजमंडल ) थी।शुरू में यहाँ पर भगवान कृष्ण की पूजा होती थी लेकिन बाद में बुद्ध की पूजा होने लगी।

मत्स्य-यह कुरू महाजनपद के दक्षिण और यमुना नदी के पश्चिम में अवस्थित था।वर्तमान राजस्थान का अलवर,भरतपुर और जयपुर  का क्षेत्र इसके अंतर्गत आता था।पालि ग्रंथो के अनुसार मत्स्यो का सम्बन्ध शुरसेनो के साथ था। इसकी राजधानी विराटनगर (वर्तमान जयपुर) थी।

अवन्ती– अवन्ती पश्चिमी भारत(वर्तमान मालवा) में स्थित था। इसकी राजधानी उज्जैनी और महिष्मती  थी।इस राज्य ने काफी वृहद् स्तर पर  बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया था।

अश्मक– यह दक्षिणी भारत में नर्मदा और गोदावरी नदियों के बीच अवस्थित था। इसकी राजधानी पोतन थी।

गंधार-गंधार का उल्लेख अथर्ववेद में किया गया था। यह राज्य युद्ध कला  में प्रशिक्षित राज्य था। इस राज्य के अंतर्गत पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी अफगानिस्तान के भाग शामिल थे। इसकी राजधानी तक्षशिला (वर्तमान रावलपिंडी) थी।

कम्बोज-कम्बोज हिन्दुकुश (वर्तमान पाकिस्तान का हजारा जिला) पर्वतमाला के आस-पास बसा हुआ था।इसका उल्लेख महान ग्रन्थ महाभारत में मिलता है।

मगध में हर्यक वंश का संस्थापक बिम्बिसार था। अंग क्षेत्र का अधिग्रहण करने के बाद मगध अत्यंत शक्तिशाली राज्य बन गया था। बाद में उसके पुत्र अजातशत्रु ने छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में वैशाली के लिक्षवियों के ऊपर विजय प्राप्त कर ली।यद्यपि 5वी शताब्दी ईशा पूर्व के शुरुआत में मगध और कोशल राज्यों के बीच सर्वोच्चता को लेकर संघर्ष हुआ था जिसमे अंतिम विजय मगध साम्राज्य को मिली। इस तरह से अजातशत्रु मगध साम्राज्य के वर्चस्व का संस्थापक बन गया।

 

बुद्ध की शिक्षाएँ

चार सत्य तथा उसे प्राप्त करने के लिए अष्टांग मार्ग ही बुद्ध की शिक्षा के आधार माने जाते हैं|

बुद्ध द्वारा बताए गये चार सत्य इस प्रकार हैं:

1) यह संपूर्ण विश्व दुखों तथा विप्पतियों से भरा हुआ है|
2) सभी दुखों का कारण (समूद्या) तृष्णा है|
3) तृष्णा से मुक्ति के द्वारा ही कष्ट व दुखों का अंत हो सकता है, जिसे उन्होने निरोध कहा|
4) बुद्ध द्वारा बताए गये आठ मार्गों (आष्टांग मार्ग) का अनुसरण कर के तृष्णा को नियंत्रित किया जा सकता है|

अष्टांग मार्ग इस प्रकार हैं:

1) सम्यक विचार
2) सम्यक विश्वास
3) सम्यक शब्द
4) सम्यक आचरण
5) सम्यक जीवन
6) सम्यक प्रयास
7) सम्यक स्मृति
8) सम्यक ध्यान

अष्टांग मार्ग के मूल रूप से तीन भाग इस प्रकार हैं: एकाग्रता (समाधि स्कंद), ज्ञान (प्रग्या स्कंद), व उचित आचरण (शील स्कंद). सम्यक स्मृति व सम्यक ध्यान समाधि स्कंद के अंदर आते हैं, जबकि सम्यक शब्द, सम्यक जीवन व सम्यक प्रयास शील स्कंद के अंतर्गत, तथा प्रग्या स्कंद के अंतर्गत सम्यक विचार, सम्यक व्यवहार व सम्यक विश्वास को संकलित किया जाता है|

बौद्ध धर्म में निर्वाण की परिभाषा:

बौद्ध धर्म में निर्वाण को जन्म व मरण के चक्र से मुक्ति के रूप मे देखा जाता है| इसके अनुसार इसे जीवन काल में स्वतः ही प्राप्त किया जाता है मृत्यु उपरांत नहीं. हालाँकि यह मोक्ष की बात को अस्वीकार करता है तथा निर्वाण की प्राप्ति हेतु नैतिक संहिता के पालन पर बल देता है|

 

बौद्ध विद्वान

प्रमुख बौद्ध विद्वानों की सूची निम्नलिखित हैं।

असंग और वसुबन्धु

असंग और वसुबन्धु दोनों सौतेले भाई थे और पाकिस्तान के पेशावर से सम्बन्ध रखते थे। वे योगाचार्य और अभिधम्म शिक्षा के समर्थक थे। वसुबन्धु का सबसे महत्वपूर्ण कार्य अभिधर्ममोक्ष था।

अश्वघोष

कालिदास के पूर्व तक अश्वघोष को  महानतम भारतीय कवि माना जाता था।. वास्तव में वह प्राचीन भारतीय इतिहास में पहले संस्कृत नाटककार थे। वह कुषाण राजा कनिष्क की राज्यसभा में एक दरबारी  लेखक और धार्मिक सलाहकार के रूप में नियुक्त थे। उनके मुख्य साहित्यिक कार्यों में महालंकारा (जय की पुस्तक), सौन्दरानन्दकाव्य (नंदा के जीवन का वर्णन) और बुद्धचरित्र शामिल थे।

बुद्धघोष

बुद्धघोष नाम का तात्पर्य बुद्ध की आवाज से लगाया जाता है। उनका काल 5 वीं शताब्दी ई. के आसपास था. वह  बड़ी पालि भाषा के प्रमुख विद्वानों में से एक थे। वह थेरवाद के सबसे महत्वपूर्ण टीकाकारों में से एक माने जाते थे। उनके जीवन के बारे में प्रमुख जानकारी  महावंश और बुद्ध्घोशुप्पत्ति में वर्णित की गयी है। उन्होंने मगध साम्राज्य से श्रीलंका का भ्रमण किया था और वहीँ पर बस गए थे। उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य विशुद्धिमग्ग है।

चन्द्रकीर्ति

यह नालंदा विश्वविद्यालय में एक विद्वान के रूप में चर्चित थे। वह नागार्जुन के एक प्रमुख शिष्य भी थे। उनका मुख्य कार्य प्रसन्नपद था।

धर्मकीर्ति

इनका काल 7 वीं शताब्दी ई. और बौद्ध विचारक शंक्य के आसपास था।. वह नालंदा विश्वविद्यालय में एक कवि के रूप में चर्चित थे साथ ही एक प्रमुख शिक्षक भी थे। इनके द्वारा सात ग्रंथों का लेखन कार्य किया गया था।

दिन्गनाथ

ये 5वी शताब्दी में बौद्ध धर्म के तर्क शास्त्र के प्रवर्तक के रूप में सुविख्यात थे। इन्होने तर्कशास्त्र पर लगभग 100 ग्रंथो का लेखन कार्य किया था। इन्हें मध्यकालीन न्याय के जनक के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है।

नागार्जुन

नागार्जुन,सातवाहन राजा गौतमीपुत्र के न केवल मित्र बल्कि समकालीन भी थे। वह बौद्ध धर्म के माध्यमिक विचारधारा के संस्थापक थे। माध्यमिक विचारधारा को शून्यवाद एवं सापेक्ष्यवाद के नाम से भी जाना जाता था। उनकी सबसे महत्वपूर्ण रचना माध्यमिककारिका है।

 

बौद्ध साहित्य

त्रिपिटक ग्रंथों को अंग्रेजी भाषा में पाली सिद्धांत के रूप में जाना जाता है, जोकि बौद्ध धर्म ग्रंथों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक पारंपरिक शब्द है। इसे सुतपिटक, विनयपिटक, अभिधम्मपिटक में बांटा गया है।

सुतपिटक

  • इसमें बुद्ध और उनके करीबी सहयोगियों से संबंधित लगभग 10 हजार सूत्र वर्णित हैं।
    • यह बुद्ध की मृत्यु के बाद आयोजित प्रथम बौद्ध परिषद, से संबंधित है।
    • सुत्त पिटक को निम्नलिखित पाँच निकायों में विभाजित किया गया है।
  1. अंगुत्तर निकाय में दो हजार से अधिक संक्षिप्त कथनों का संग्रह हैं। इसी में 16 महाजनपदो का उल्लेख मिलता है।
    2. दीघ निकाय में बुद्ध के लम्बे उपदेशो का संग्रह है। इस ग्रन्थ पर बुद्धघोष ने सुमंगलवासिनी एवं सामन्तपासादिका नामक टीका लिखा है।
    3. खुद्दक निकाय में कई ग्रन्थ शामिल किये जाते है।
    4. मज्झिम निकाय में छोटे उपदेशो का संग्रह है।
    5. संयुक्त निकाय में बुद्ध की संक्षिप्त घोषणाओं का संग्रह किया गया है।. धर्मंचक्रप्रवर्तन सुत्त इसी का अंग है।

विनयपिटक

इस बौद्ध ग्रन्थ में संघ के अंतर्गत अनुशासन की पुस्तक के रूप में जाना जाता है। इसमें भिक्षुओं और भिक्षुणियों के संघ एवं दिनकी जीवन सम्बंधी आचार-विचार और नियम संगृहित हैं। इसे तीन पुस्तकों अर्थात् सुत्ताविभंग, खन्दक और परिवार  में बांटा गया है।

अभिधम्मपिटक

इस बौद्ध धर्मं ग्रन्थ में बौद्ध धर्म के दर्शन और सिद्धांत शामिल हैं। यह सात पुस्तकों अर्थात् धम्मासंघिनी, धातुकथा, कथावत्थु,पट्ठना, पुग्गलापन्नातु, विभंग और यमक में बांटा गया है।

जातक कथा

इसमें कविताओं के रूप में बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियां शामिल हैं।

मिलिंदपन्ह्यो

यह ग्रन्थ बौद्ध भिक्षु नागसेन और भारत के इन्डो-यूनानी राजा मिनान्डर के बीच बातचीत पर शामिल ग्रन्थ है। इसके रचयिता नागसेन हैं। यह पालि भाषा में लिखित पुस्तक है।

दीपवंश

मुख्य रूप से इसमें सिंहलद्वीप(श्रीलंका) का इतिहास वर्णित है। वास्तव में, यह श्रीलंका का सबसे पुराना ऐतिहासिक सूचना स्रोत है। पालि साहित्य में इसे सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक माना जाता है।

महावंश

इसका शाब्दिक अर्थ महान इतिहास है। यह सबसे महत्वपूर्ण पाली महाकाव्य है। इसका मूल मंतव्य ऐतिहासिक है और यह श्रीलंका के राजाओं का वर्णन करता है। यह पुस्तक सबसे लंबे समय तक के ऐतिहासिक सूचना स्रोतों में से एक है।

बुद्धचरित

यह संस्कृत भाषा में अश्वघोष  के द्वारा लिखा गया है। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से बुद्ध के जीवन के विविध पहलुओ को को दर्शाया गया है।

 

महात्मा बुद्ध (563-483 . पू.)

गौतम बुद्ध को सिद्धार्थ, गौतम, शाक्य मुनि एवं बुद्ध के नामों से भी जाना जाता है, जिनकी शिक्षाएँ बौद्ध धर्म में पाई जाती हैं|  बुद्ध का शाब्दिक अर्थ है जगाना या प्रबुद्ध करना|

बुद्ध के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य इस प्रकार हैं:

  • गौतम बुद्ध का जन्म नेपाल में कपिलवस्तु की राजधानी लुंबिनी में हुआ था|
  • उनके बाल्यावस्था का नाम सिद्धार्थ था|
  • वह शाक्य वंश के राजा शुद्धोधन के पुत्र थे|
  • उनकी माता का नाम महामाया था|
  • भारत में बुद्ध के जन्म दिवस को बुद्ध पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है, तथा कई अन्य देशों में इसे वैसाखा भी कहते हैं|
  • 16 वर्ष की आयु मे उनका विवाह यशोधरा से हुआ तथा एक पुत्र राहुल हुआ|
  • अपने जीवन के एक चरण में उन्होने मानव जीवन के दुखों को देखा जैसे – रोग, वृद्धावस्था एवं मृत्यु| इन सब को उन्होने अपने सारथी चन्ना से जाना|
  • 29 वर्ष की अवस्था में उन्होने अपना घर छोड़ दिया तथा तपस्वी के रूप में जीवन व्यतीत करने चले गये. इस घटना को महाभिनिष्क्रमण कहते हैं|
  • बिहार के मगध प्रांत के गया क्षेत्र में एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति हुई| इसके बाद गौतम बुद्ध तथा तथागत (वह जो सत्य जानता हो) कहलाए|
  • उन्होनें अपना प्रथम उपदेश सारनाथ (वाराणसी) में दिया जिसे धर्मचक्रपरवर्तन सुत्त (विधि चक्र का घूमना) कहा जाता है| अपने इस उपदेश में उन्होनें चार श्रेष्ठ सत्य तथा उसकी प्राप्ति के आष्टांग मार्ग को बताया, जो की बुद्ध की शिक्षा का आधार बनी|
  • कौन्दिन्य तथा अन्य चार उनके प्रथम शिष्य बने|
  • उनके 10 मुख्य शिष्य थे- उपाली, राहुल, पुन्ना, महाक्चना, सुभोति, महामोगाल्लना, महाकाश्यप, आनंद, सरीपुत्ता, अनिरूद्ध|
  • बुद्ध ने 483 ई. पू. में कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त किया जिसे महापरिनिर्वाण कहते हैं|

 

बौद्ध परिषदें

बौद्ध संघ  के अंतर्गत कुल छः बौद्ध परिषदें आयोजित की गयी थीं। इन सभी छ: बौद्ध परिषदों का विवरण नीचे दिया गया है।

प्रथम बौद्ध परिषद

प्रथम बौद्ध परिषद का आयोजन महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तुरंत बाद ही 400 ई.पू. के आसपास मगध के शासक राजा अजातशत्रु के संरक्षण में आयोजित की गई थी। इस बौद्ध परिषद का आयोजन एक बौद्ध भिक्षु महाकश्यप की अध्यक्षता में किया गया था। परिषद का आयोजन राजगृह में स्थित सप्तपर्णी गुफा में आयोजित की गई थी। इस परिषद का मूल उद्देश्य बुद्ध की शिक्षाओं (सुत्त) और संघ के नियमों और कानूनों का संरक्षण करना था।. इसी लक्ष्य के साथ इस परिषद् का महाआयोजन किया गया था। इस परिषद् में बुद्ध के दो प्रमुख शिष्य आनंद और उपालि उपस्थित थे। इस बौद्ध परिषद के दौरान ही बुद्ध की शिक्षाओं को दो पिटकों(सुतपीटक, विनयपिटक)  में विभाजित किया गया था। आगे चलकर तीसरे बौद्ध परिषद् में तीसरे पीटक अभिधम्म पीटक को भी जोड़ा गया। इसी परिषद् में आनंद और उपालि क्रमशः सुत और विनयपिटक के प्रमाण माने गए।

द्वितीय बौद्ध परिषद

यह बौद्ध परिषद सुबुकामि की अध्यक्षता में आयोजित किया गया था। इसका आयोजन राजा कालाशोक के संरक्षण में वैशाली में 383 ईसा पूर्व में हुआ था।. इसी बौद्ध परिषद् में बुद्ध के अनुयायी दो भागो(महासंघिक या सर्वास्तिवादी और स्थविर या थेरवादी) में विभाजित हो गए। महासंघिक या सर्वास्तिवादी बुद्ध धर्म में परिवर्तन के समर्थक थे जबकि स्थविर या थेरवादी परिवर्तन के विरोधी थे।

तृतीय बौद्ध परिषद

यह परिषद् सम्राट अशोक के संरक्षण में पाटलिपुत्र में अशोकाराम विहार में 250 ईसा पूर्व में आयोजित हुई थी। इस परिषद् की अध्यक्षता मोगालिपुत्ततिस्स ने की थी। उल्लेखनीय है की इसी परिषद् में पिटकों में से तीसरे पिटक अभिधम्म पिटक को जोड़ा गया था।

चतुर्थ बौद्ध परिषद

चतुर्थ बौद्ध परिषद कश्मीर के कुण्डलवन में 102 ई. में आयोजित हुई थी। इस परिषद् की अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी जबकि उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। यह परिषद कुषाण राजा कनिष्क के संरक्षण में आयोजित हुई थी। इसी परिषद् में बौद्ध धर्म दो संप्रदायों अर्थात् महायान और हीनयान में विभाजित हो गया था।

पांचवा बौद्ध परिषद

पांचवा बौद्ध परिषद राजा मिन्दन के संरक्षण में वर्ष 1871 में बर्मा के मांडले, में आयोजित की गई थी। इस परिषद् की अध्यक्षता जगरभिवामसा, नारिन्धाभीधजा और सुमंगल्समी ने  की थी। इस परिषद के दौरान, 729 पत्थरों के ऊपर बौद्ध शिक्षाओं को उकेरा गया था।

छठी बौद्ध परिषद

छठी बौद्ध परिषद बर्मा के काबा ऐ यांगून में 1954 में आयोजित की गई थी। इस परिषद् को बर्मा सरकार का संरक्षण मिला था। इस परिषद् की अध्यक्षता बर्मा के प्रधानमंत्री यू नू ने की थी। इस परिषद का आयोजन बौद्ध धर्म के 2500 वर्ष पूरे होने की स्मृति में किया गया था।

शक़ राजवंश

 

शक़ प्राचीन ईरान के घुड़ सवार ख़ानाबदोश थे| इन्होंने भारत में हिंद-यूनानी शासन का अंत किया| शक़ उनका संस्कृत नाम था| यह मध्य एशिया के ख़ानाबदोश जनजातियों से हारने के बाद भारतीय उपमहाद्वीप की ओर आए थे| शकों के प्रारंभिक शासक मुएस थे| जिसने लगभग 80-60 ई. पू. मे शासन किया| इसकी सत्ता गंधार क्षेत्र में स्थापित हुई थी तथा इसकी राजधानी सिर्कप थी|

इसने महाराज एवं महात्मा की उपाधि धारण की तथा बड़ी मात्रा में तांबे की सिक्के चलाए| इसके सिक्कों पर भारतीय देवताओं शिव व बुद्ध की आकृति बनी हुई है तथा भाषा ग्रीक व खरोष्ठी है|

मोग अभिलेख क्या हैं:

इनका संबंध तक्षशिला के ताम्र पत्र से है| इसे खरोष्ठी लिपि में लिखा गया तथा ऐसा उल्लेख है की इसे बौद्ध मठ को भगवान बुद्ध के प्रति शक़ शासक पातिका कुसुलका द्वारा दान में दिया गया| पातिका कुसुलका का उल्लेख मथुरा से प्राप्त सिंह स्तंभ पर भी है|

मौएस के वंशज

इसके सभी वंशजों में आइज़-1 सबसे महत्वपूर्ण शासक था| इसने हिंद-यूनानियों को पराजित कर आइज काल की स्थापना की| आइज-2 इस वंश का अंतिम शासक माना गया|

शुंग एवं कण्व वंश

उत्तर मौर्य युगीन युग में  शुंग एवं कण्व बहुत ही महत्वपूर्ण शासक माने जाते हैं|

शुंग वंश

अशोक जैसे महान शासक के बाद मौर्य वंश अपने विशाल साम्राज्य को एकीकृत करने मे असफल रहा| मौर्य वंश का अंतिम शासक बृहद्रथ एक कमजोर शासक था, उसके शासन के समय उसके सेना के प्रधान सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने उसकी हत्या कर के शुंग वंश की स्थापना की तथा इस तरह मौर्य वंश का अंत हुआ|

शुंग वंश की स्थापना पुष्यमित्र शुंग ने 185- 183 ई. पू. में की थी| इनकी राजधानी पाटलिपुत्र थी किंतु उत्तर शुंग वंश के शासकों ने इसे स्थांतरित कर के विदिशा कर दिया| शुंग वंश सातवाहन, पंड्या, चोल एवं शेयर के समकालीन थे. शुंग वंश के महत्वपूर्ण शासक पुष्यमित्र, अग्निमित्र. भागभद्र एवं देवभूति थे|

पुष्य मित्र शुंग ने लगभग 36 वर्ष तक शासन किया| उसके बाद उसका पुत्र अग्निमित्र शासक बना जो कालिदास की महान रचना मल्विकग्निमित्रम का नायक भी था.  देवभूति शुंग वनष का अंतिम शासक था. इसकी हत्या उसके मंत्री वासुदेव कण्व द्वारा 73 ई. पू. में हुई, ओर इस प्रकार शुंग वंश की समाप्ति एवं कण्व वंश की स्थापना हुई|

कण्व वंश

यह जाति से मूलतः ब्राह्मण थे तथा कण्व ऋषि के वंशज माने जाते थे| वासुदेव के पश्चात भीमिदेव को प्राप्त हुई| इस वंश को बाद सत्ता सतवाहनों के हाथों मे आई| कांदव वंश के चार मुख्य शासक इस प्रकार थे: वासुदेव, भूमिमित्र, नारायण एवं सुशर्मा|

सातवाहन वंश

द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में सातवाहनों का साम्राज्य महाराष्ट्र के पुणे से लेकर आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्रों तक था | सातवाहन राजवंश दूसरी शताब्दी में काफ़ी मजबूत हो गये थे| सातवाहन वंश आंध्र प्रदेश के सबसे प्रसिद्ध राजवंषों में से था | इनके बारे में अधिकांश जानकारी इस काल की चाँदी, सीसे व तांबे के मुहरों से प्राप्त होती है |

सातवाहनों को ब्राह्मण माना जाता है, इनके द्वारा जारी किए गये सिक्के अधिकतर द्विभाषीय हैं | शासकों के नाम कहीं- कहीं दक्षिण भारतीय भाषा तथा प्राकृत में है |

सातवाहन बौद्ध धर्म में विश्वास करते थे | सातवाहन काल में अमरावती व नागार्जुनकोंडा बुद्ध धर्म के महत्वपूर्ण केंद्र बने | सिमुक, कान्हा, सात्कर्नि-1 व सात्कर्नि-2, हाला, गौतमीपुत्र शत्कारणी, पुलुमई-2 इस वंश के महत्वपूर्ण शासक थे |

सिमुक इस वंश का संस्थापक था | शतकरनी-2 इस वंश का सबसे लंबा शासन करने वाला शासक था | इसका उल्लेख खेरवाला के हाथी गुंफा अभिलेख में है, जिसमे उसे खेरवाला का शत्रु बताया गया है |

हला इस वंश का 17वाँ शासक था | इसने प्राकृत भाषा में एक ग्रंथ का संकलन करवाया जिसे गाथा सप्तशती के नाम से जानते हैं |गौतमीपुत्र शतकार्नी इस वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक था, इसे शक, पल्लव व येवान शक्तियों का विनाशक कहा गया | इसने राज-राज तथा महाराज की उपाधि ग्रहण की |

सातवाहनों का प्रशासन :

संपूर्ण राज्य जनपद मे विभाजित था तथा पुनः अहरस में उपविभाजित था | प्रत्येक आहर अमात्य द्वारा प्रशासित होता था | यह पुनः ग्राम में विभाजित होता था जिसका मुख्य ग्रामिका के हाथ में होता था | सातवाहन प्रशासन में ग्रामीण क्षेत्र के प्रशासनिक अधिकारी को गौल्मीका कहते थे |

ध्यान रखने योग्य तथ्य:

  • नासिक में प्राप्त दो गुफा अभिलेख गौतमीपुत्र शत्कारणी से संबंधित है |
    • सातवाहन अभिलेख में पहली बार अमात्य के कार्यालय का वर्णन है |
    • नगनिका (शत्कारणी की पत्नी) का नानाघाट अभिलेख पुणे के पास से प्राप्त हुआ है|

गांधार कला विद्यालय

इस कला को ग्रीको बौद्ध परंपरा  के रूप में जाना जाता है। यह  एक प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय कला है। इस कला का उल्लेख वैदिक तथा बाद के संस्कृत साहित्य में मिलता है। गांधार कला की विषय-वस्तु भारतीय थी, परन्तु कला शैली यूनानी और रोमन थी। इसलिए गांधार कला को ग्रीको-रोमन, ग्रीको बुद्धिस्ट या हिन्दू-यूनानी कला भी कहा जाता है। गांधार कला को महायान धर्म के विकास से काफी प्रोत्साहन मिला।यह शैली अपने आप में विदेशी तकनीक को प्रदर्शित करता है। इस कला शैली में संगमरमर के स्थान पर ग्रे बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है।साथ ही सफेद और काले रंग के पत्थर का भी इस्तेमाल किया गया है। गांधार कला शैली में विभिन्न परंपराओं (पार्थियन, बक्ट्रियन और अक्मेनियन) के विविध लक्षण विद्यमानहैं।भरहुत एवं सांची में कनिष्क द्वारा निर्मित स्तूप  गांधार कला के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।

गांधार कला परंपरा में बुद्ध की विभिन्न मुद्राओ को वर्णित किया गया है, जिनका वर्णन निम्नलिखित हैं:

भूमिस्पर्शमुद्रा: पृथ्वी को छूते हुए

ध्यानमुद्रा: ध्यान लगाए हुए

धर्मचक्रमुद्रा: उपदेश मुद्रा

अभयमुद्रा: किसी भी प्रकार का कोई भय नहीं

गांधार कला के टुकड़े जिन-जिन स्थलों एवं प्रमुख केन्द्रों पर पाए गए हैं, उनमें प्रमुख केन्द्र जलालाबाद, हड्डा, बामियान, स्वात घाटी और पेशावर थे।कुषाण और शक दोनों ने गांधार परंपरा को संरक्षण प्रदान किया था।

मथुरा कला विद्यालय

मथुरा में खुदाई की गयी संगमरमर से बनी बुद्ध मूर्तियां प्राचीन काल से लेकर मध्ययुगीन काल तक भारतीय कला में एक अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं। यह कला पहली शताब्दी से पांचवीं शताब्दी ई. के बीच अपने चरम पर पहुंच गयी जबकि इस काल में गुप्त और कुषाण शासक अपनी सत्ता में थे।मथुरा कला शैली में लाल रंग के पत्थरों से बुद्ध और बोद्धिसत्व की सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयीं।

कुषाण शासकों ने पहली शताब्दी से लेकर 175 ई. के बीच उत्तरी भारत के एक विशाल क्षेत्र पर शासन किया। मथुरा कला परंपरा इस अवधि के दौरान विकसित कला परंपराओं में से एक थी जबकि गांधार कला परंपरा दूसरी कला परंपरा थी।गांधार कला परंपरा ग्रीको रोमन परम्परा पर आधारित थी जोकि एक विदेशी तकनीकि से ग्रहण की गयी थी जबकि मथुरा कला परंपरा पूरी तरह से भारतीय तकनीकि पर आधारित थी।

यह कला गंधार परम्परा के द्वारा भी प्रभावित था जोकि इसकी मूर्तियों में दृष्टिगोचित होता है। इस कला परंपरा के अंतर्गत बुद्ध मूर्तियों के साथ-साथ सुन्दर महिलाओं की मूर्तियाँ भी बनायीं गईं। उल्लेखनीय है की कुषाण काल में इस परम्परा के अंतर्गत बुद्ध को न केवल मानव रूप में प्रदर्शित किया गया बल्कि पत्थरों के रूप में मूर्तियाँ भी बनायीं गयी। इस कला पद्धति ने बुद्ध को एक तीन आयामी प्रभाव दिया और उत्साही स्वरुप प्रदान किया।

चौड़े कंधे, मर्दाना धड़ और दाहिने हाथ की ऊपर उठी अभयमुद्रा मुद्रा बौद्ध मूर्ति की अनेक विशेषताओं में से एक हैं। मथुरा कला विद्यालय का गुप्तकाल में आगे काफी विकास हुआ जब बौद्ध मूर्तियां पारदर्शी पर्दे की कई परतों के साथ, तेज और सुंदर एवं गठीले शरीर के साथ विकसित हुई।

कुषाण साम्राज्य

कुषाण, यूची और  युएझ़ी नामक उन पांच जनजातियों में से एक थे जिनका संबंध चाइना से था। वे 170 ईसा पूर्व में क्ज़ियांग्नू के द्वारा बाहर निकाले जाने के बाद भारत की तरफ आये थे। सर्वाधिक प्रमाणिकता के आधार पर कुषाण वंश को चीन से आया हुआ माना गया है। कुषाण राजवंश में महत्वपूर्ण राजाओं की सूची में कुजुलकडफिशस, विमातक्तु, सदशाकन, विमकडफिशस, कनिष्क प्रथम, वासिस्कऔर कनिष्क द्वितीय थे।

कुजुलकडफाइसिस

यह भारत का पहला शासक था जिसने हिन्दुकुश पर्वत शैली को पार किया और वहां तक अपने साम्राज्य को स्थापित किया। उसने अपने आप को धर्म-थिदा और सचधर्मथिदा की उपाधि प्रदान की  उसकी इस उपाधि को प्राप्त करने से ऐसा लगता है कि वह बौद्ध और शैव दोनों धर्मों में विश्वास करता था। मथुरा में इस शासक के तांबे के कुछ सिक्के प्राप्त हुए हैं।

विमकडफिशस

राबतक शिलालेख अफगानिस्तान में वर्ष 1933 में पाया गया था.इस अभिलेख में यह जानकारी मिलती है की विम कद फिशस विम ताकतों का पुत्र और कनिष्क का पिता था। यह अभिलेख एक पत्थर पर बक्ट्रियन भाषा और ग्रीक लिपि में लिखी गयी है। विम कड फिशस ने सर्वाधिक मात्र में सोने के सिक्कों को जारी किया था। इसके बारे में यह भी उल्लेख मिलता है की यह भारत का पहला शासक था जिसने सोने के सिक्कों को जरी किया। इसका विशाल साम्राज्य एक तरफ चीन के साम्राज्य को लगभग छूता था तो दूसरी तरफ उसकी सीमाएं दक्षिण के सातवाहन राज्य को छूती हुई थी।

कनिष्क  प्रथम

यह कुषाण साम्राज्य का सबसे महत्वपूर्ण शासक था जोकि अपने विशाल साम्राज्य के लिए जाना जाता है। उसके साम्राज्य के प्रमुख राजधानी पुरुषपुर (आधुनिक पेशावर) थी। कुषाण साम्राज्य उसके अधीन अपने चरम पर पहुंच गया। कनिष्क ने अपने राज्यारोहण के समय से एक नया संवत प्रारम्भ किया, जो शक-संवत के नाम से जाना जाता है। उसके दरबार में वसुमित्र, अश्वघोष, नागार्जुन, पार्श्व, चरक, संघरक्ष, और माठर जैसे विख्यात विद्धानों के अतिरिक्त अनेक कवि और कलाकार भी थे। इसने अपने साम्राज्य को कश्मीर,मथुरा ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान तक विस्तार दिया। इसका पाटलिपुत्र के साथ एक संघर्ष भी हुआ था जिसके परिणामस्वरूप यह अश्वघोष, (बौद्ध भिक्षु) नामक एक विद्वान को प्राप्त किया और पुरुषपुर लाया। इसने हान साम्राज्य के शासक हो-ती के चीनी जनरल के उपर विजय प्राप्त की। इसने अपने साम्राज्य में  बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया और कश्मीर के कुंडलवन  में चौथी  बौद्ध परिषद को आयोजित किया। कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म हीनयान और महायान में विभाजित हो गया था।

कला और संस्कृति

कला की दो परम्पराओं, मथुरा शैली और गांधार शैली का इस युग में काफी विकास  हुआ।

हेलेनिस्टिक यूनानियों की सांस्कृतिक कला का प्रभाव इन कला शैलियों के उपर आसानी से देखा जा सकता है।

चेर राज्य

चेर राजवंश के शासकों ने दो अलग अलग समयावाधियों में शासन किया था. पहले चेर वंश ने संगम युग में शासन किया था जबकि दूसरे चेर वंश ने 9 वीं शताब्दी ईस्वी से लेकर आगे तक के काल में भी शासन कार्य किया था. हमें  चेर वंश के बारे में जानकारी संगम साहित्य से मिलता है. चेर शासकों   के द्वारा शासित क्षेत्रों में  कोचीन, उत्तर त्रावणकोर और दक्षिणी मालाबार शामिल थे. चेर वंश की राजधानी बाद में चेर  की उनकी राजधानी किज़न्थुर-कन्डल्लुर  और करूर वांची थी. परवर्ती चेरों की राजधानी  कुलशेखरपुरम और मध्य्पुरम थी. चेरों का प्रतीक चिन्ह धनुष और तीर था. उनके द्वारा जारी सिक्को पर धनुष डिवाइस अंकित था.

उदियांजेरल

यह चेर राजवंश के पहले राजा के रूप में दर्ज किया गया है. चोलों के साथ अपनी पराजय के बाद इसने  आत्महत्या कर ली थी. इसने महाभारत युद्ध में भाग लेने वाले वीरो को भोजन करवाया था ऐसी जानकारी स्रोतों से मिलती है.

नेदुन्जेरल आदन 

इसने मरैंदे को अपने राजधानी के रूप में चुना था. इसके बारे में कहा जाता है की इसने सात अभिषिक्त राजाओं को पराजित करने के बाद अधिराज की उपाधि धारण की थी. इसने इयाम्बरंबन की भी उपाधि धारण की थी जिसका अर्थ होता है हिमालय तक की सीमा वाला.

सेनगुट्टवन (धर्म परायण कट्तुवन)

सेनगुट्टवन इस राजवंश का सबसे शानदार शासक था. इसे लाल चेर के नाम से भी जाना जाता था. वह प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य शिल्प्पदिकाराम  का नायक था. दक्षिण भारत से चीन के लिए दूतावास भेजने वाला वह पहला चेर राजा था. करूर उसकी राजधानी थी. उसकी नौसेना दुनिया में सबसे अच्छी एवं मजबूत थी. इसे पत्तिनी पूजा का संस्थापक माना जाता है.

आदिग ईमान

इस शासक को दक्षिण में गन्ने की खेती प्रारंभ करने का श्रेय दिया जाता है.

दूसरा चेर राजवंश

कुलशेखर अलवर, दूसरे चेर राजवंश का संस्थापक था. उसकी राजधानी महोदयपुरम  थी. दूसरे  चेर राजवंश का अंतिम चेर राजा राम वर्मा कुलशेखर था. उसने 1090 से 1102 ईस्वी तक शासन किया था. उसके मृत्यु के बाद वंश समाप्त हो गया.

चोल साम्राज्य: एक परिचय

चोल राजवंश ने 300 ई.पू. से बाद के 13 वीं सदी तक शासन कार्य किया था. यद्यपि इस दौरान उनकी भौगोलिक सीमा में परिवर्तन होते रहे लेकिन उन्होंने अपनी महत्ता भी इस काल में बनाये रखी.चोल साम्राज्य को उनके शासकों की कार्यावधि के अनुसार तीन भागों में विभाजित किया गया है. अर्थात प्रारंभिक चोल, मध्य कालीन चोल और परवर्ती चोल.

प्रारंभिक चोल शासक

प्रारंभिक चोल शासको में सबसे महत्वपूर्ण शासक करिकाल चोल था. अपने शासन के प्रारंभिक काल में करिकाल को पद्च्युत कर दिया गया था. इसने चोलों की तटीय राजधानी पुहार की स्थापना की तथा कावेरी नदी के किनारे 160 किलोमीटर लम्बा बांध भी बनवाया. प्रारंभिक चोलों ने 300 ईसा पूर्व से 200 ईस्वी तक शासन किया. प्रारंभिक चोल शासकों के बारे में जानकारी संगम साहित्य से मिलती है.

मध्यकालीन चोल शासक 

दक्षिण भारत में चोल सत्ता की पुनर्स्थापना विजयालय चोल के अधीन 850 ईसवी में हुई जो इसके बाद के काल तक जारी रही.

इस काल के महत्वपूर्ण चोल शासकों का उल्लेख निम्नलिखित हैं:

  1. विजयालय चोल
    2. आदित्य चोल
    3. परांतक चोल
    4. राजराज चोल
    5. राजेंद्र चोल
    6. राजाधिराज चोल
    7. राजेंद्र चोल द्वितीय
    8. वीर राजेंद्र चोल

परवर्ती चोल शासक

1070 ईस्वी से 1279 ईसवी तक की अवधि परवर्ती चोलों के शासन के रूप में जानी जाती है. यह अवधि चोल साम्राज्य के लिए एक सुनहरा समय था, इस समय में चोल शसल अत्यंत शक्तिशाली बन गये थे. चोल शासक सबसे शक्तिशाली सेना और नौसेना रखने के कारण प्रसिद्द थे. इसी के माध्यम से उन्होंने  दक्षिण एशियाई देशों में अपने कई उपनिवेश स्थापित किया. परवर्ती चोलों के महत्वपूर्ण शासकों की सूची में निम्नलिखित शासक थे:

  1. कुलोत्तुंग चोल प्रथम
    2. विक्रम चोल
    3. कुलोत्तुंग चोल द्वितीय
    4. राजराज चोल द्वितीय
    5. राजाधिराज चोल द्वितीय
    6. कुलोत्तुंग चोल तृतीय
    7. राजराज चोल तृतीय
    8. राजेंद्र चोल तृतीय

चोल प्रशासन

चोलों की राजधानी तँजौर थी | संपूर्ण चोल साम्राज्य प्रशासनिक तौर पर तीन भागों में विभक्त था केंद्रीय प्रशासन, प्रांतीय प्रशासन एवं स्थानीय प्रशासन | चोलों के प्रशासन की जानकारी उत्तरमेरूर अभिलेख से प्राप्त होता है |

प्रशासन का मुख्य राजा होता था | चोलों के राजत्व का सिद्धांत मुख्य रूप से आनुवांशिक था. चोलो के शाही परंपरा के अनुसार  ज्येष्ठ पुत्र राजगद्दी पर आसीन होता था | जिसे की युवराज की उपाधि दी जाती थी | चोल शासकों का राज चिन्ह शेर था | राजा को राज कार्य में सहायता हेतु मंत्री परिषद की व्यवस्था थी | निम्न स्तर के अधिकारियों को सिरुन्तारम तथा उच्च स्तर के अधिकारियों को पेरुन्तरम कहते थे |

संपूर्ण साम्राज्य नौ प्रांतों में विभाजित था जिसे मंडलम कहते थे | प्रत्येक मंडल का मुख्य वायसराय होता था जो कि राजा से आदेश प्राप्त करता था | प्रत्येक प्रांत कोट्टं या वलनादुस मे विभाजित होता था जो की उसके पश्चात नाडु मे विभाजित होता था | तत्पश्चात प्रत्येक नाडु ग्राम मे बाँटा होता था जिसे उरू कहते थे |

चोल प्रशासन के आय का मुख्य साधन भू-राजस्व था, भूमि उत्पादन का 1/6 राजस्व के रूप मे लिया जाता था | भू-राजस्व के अतिरिक्त सीमा शुल्क व यातायात कर साम्राज्य के आय के अन्य साधन थे | इसके अलावा बंदरगाहों, वनों व खानों पर लगाए कर भी राज्य के कोष मे सहायता करते थे |

चोलों के पास एक सुदृढ़ जल व थल सेना थी | थल सेना में 70 टुकड़ियाँ थी | चोल राजाओं उच्च दामों पर अरब से घोड़े मगवाते थे |

राजा न्याय का प्रथम अधिकारी था, मामलों की सुनवाई राजा अपने दरबार में स्वयं करता था | ग्रामीण स्तर के छोटे मोटे मामले उसी स्तर पर सुलझा लिए जाते थे |

नाडु चोल प्रशासन की महत्वपूर्ण इकाई थी | प्रत्येक नाडु नत्तर द्वारा प्रशासित होता था जबकि इसकी परिषद को  नाट्टावाती कहते थे | ग्रामीण प्रशासन की ज़िम्मेदारी ग्राम सभा की होती थी जो की प्रशासन की सबसे छोटी इकाई मानी जाती थी | इसका कार्य सार्वजनिक मार्गों, जलाशयों, मंदिरों, कूओं की देखभाल करना होता था | राज कोष में भेजने वेल कर के लिए भी यही उत्तरदायी होती थी |

ग्रामीण प्रशासन समाज के पुरुषों द्वारा आयोजित सभा वरियम्स द्वारा सुचारू रूप से चलाया जाता था | वरियम कई प्रकार के थे जैसे न्याय के लिए न्याय वरियम मंदिरों के लिए धर्म वरियम इत्यादि. वित्त की देख रेख पॉन वरियम का उत्तरदायित्व था |

चोल स्थापत्य कला

850 ईस्वी के पश्चात चोल स्थापत्य कला अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुँची| सबसे महत्वपूर्ण भवन जो की इस काल में बने वो अधिकांश रूप से मंदिरों के रूप में थे|

चोल स्थापत्य कला की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

– भारत के सभी मंदिरों में सबसे बड़ा व ऊँचा तँजौर का शिव मंदिर इसी काल में निर्मित हैI
– चोलों के मंदिरों मण्डपों के प्रवेश द्वार पर द्वारपाल का होना इनकी एक विशेषता थी|
– मंदिरों का निर्माण पूर्णतया द्रविण शैली मे किया गया है|
–  मंदिरों में गनों की उपस्थिति इनका एक अविस्मरणीय तथ्य है|

विजय चोलिस्वर के काल मे निर्मित कुछ मंदिरों की विशेषताएँ :

विजयलय चोल के काल में निर्मित नर्थमलाई का मंदिर भगवान शिव को समर्पित है|

श्रिनिवसनल्लुर में कोरांगनाता मंदिर पर्तन्क चोल प्रथम द्वारा कावेरी नदी के तट पर निर्मित मंदिर है| काल्पनिक पशु याज़ी इन भवनों की ख़ासियत है जिसे मंदिरों के आधार पर बनाया गया है| बृहदेश्वर मंदिर या पाेरुउडययर मंदिर या राजराजेश्वर मंदिर पूर्णतया ग्रेनाइट से निर्मित है, इसका निर्माण राज राज चोल प्रथम द्वारा बनवाया गया विश्व का एक मात्र संपूर्ण ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित मंदिर है इसके साथ ही इसे यूनेस्को की विश्व विरासत की सूची में भी स्थान प्राप्त है| यह तँजौर में स्थित है|

गंगाईकोंडचोलपुरम का बृहदेस्वर मंदिर राज राज के पुत्र राजेंद्र प्रथम द्वारा निर्मित है| राजेंद्र प्रथम की चलुक्य, गंग, पाल व कॅलिंग विजय के बाद गंगाईकोंडचोलपुरम चोलों की नयी राजधानी थी|

पल्लव वंश

पल्लव सातवाहनों के सामंत थे| इस वंश का प्रथम महत्वपूर्ण शासक शिव स्कन्द्वर्मन था| हाँलाकि इस वंश की उपस्थिति 5वीं व 6 शताब्दी में थी किंतु इनकी प्रसिद्धि छठी शताब्दी के अंत में हुई|

सिंह विष्णु (575 से 600 ईसवी): चोलो को पराजित किया तथा पड़ोसी राज्य सीलोन पर भी अपनी सत्ता स्थापित की| इसके बाद इसका पुत्र महेन्द्रवार्मन प्रथम सत्तारूढ़ हुआ|

महेन्द्रवर्मन प्रथम जब शासक बना उसी समय पल्लव, चोल व वातापी चालुक्यो के बीच त्रिकोणीय युद्ध प्रारंभ हुआ| चालुक्य शासक पुलकेशीन 2तीय ने महेन्द्रवार्मन को पुल्लुलालूर के युद्ध में पराजित कर उसकी राजधानी काँची पर अधिकार कर लिया|

नरसिंहवर्मन प्रथम: यह महेन्द्रवार्मन प्रथम के बाद शासक बना| इसने युद्ध में पुलकेशीन द्वितीय को पराजित कर उसकी हत्या की| इसके अतिरिक्त इसने चोल, चेर व पंड्या को भी पराजित किया|

यह एक बहुत बड़ा निर्मांकर्ता भी था, जिसके काल में महामल्लपुरम का निर्माण हुआ| इसके काल में ही ह्वेन-तसांग भारत आया तथा इसके राज्य का भ्रमण किया|

नरसिंहवर्मन प्रथम के बाद नरसिंहवर्मन द्वितीय शासक बना तथा इसके बाद सत्ता परमेश्वरवार्मन को प्राप्त हुई| आठवीं शताब्दी में नन्दिवर्मन चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा पराजित हुआ तथा नौवीं शताब्दी आते आते पल्लव शक्ति समाप्त हो गयी|

अलबरूनी

अलबरुनी  का जन्म आधुनिक उज्बेकिस्तान में स्थित ख्व़ारिज्म में सन् 973 में हुआ था. वह फारस का एक प्रसिद्ध विद्वान था जोकि महमूद गज़नवी के भारत  आक्रमण के दौरान उसके  साथ आया था. वह पहला मुश्लिम लेखक  था जिसने भारत की संस्कृति और परंपरा के बारे में व्यापक अध्ययन कार्य किया था. अरबी और फारसी के अलावा, वह ग्रीक और संस्कृत का अद्भुत ज्ञाता था. हालाँकि वह यूनानी भाषा का जानकार नहीं था  फिर भी वह प्लेटो तथा अन्य यूनानी दार्शनिकों के कार्यों से पूरी तरह परिचित था जिन्हें उसने अरबी अनुवादों के माध्यम से पढ़ा था.

उसके लेखन कार्य में दंतकथाओं से लेकर खगोल-विज्ञान और चिकित्सा संबंधी कृतियाँ सभी शामिल थीं. उसने  विभिन्न विषयों पर कई पुस्तकें लिखी थीं. जिसके अंतर्गत  भूगोल, गणित, भारतीय साहित्य, ज्योतिष और मानचित्रकारी जैसे विषय शामिल है. वह युद्ध और लड़ाई के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं देता है. उसने अपने वर्णन में भारत की  परंपराओं, रीति रिवाजों और संस्कृति पर बड़े पैमाने पर अपना ध्यान आकर्षित किया  है. उसने लिखा कि हर वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है अपनी पवित्रता की मूल स्थिति को पुन: प्राप्त करने का प्रयास करती है और सफल होती है। सूर्य हवा को स्वच्छ करता है और समुद्र में नमक पानी को नहीं होता तो पृथ्वी पर जीवन असंभव होता.

उसने एक  प्रसिद्ध पुस्तक तहकीक-ए- हिन्द का लेखन कार्य किया. इस पुस्तक को किताब-उल-हिन्द के नाम से भी जाना जाता है. एडवर्ड सी. सखाऊ  ‘किताब-उल-हिन्द’ के संपादक और अनुवादक थे. अरबी में लिखी गई अल-बिरूनी की कृति ‘किताब-उल-हिन्द’ की भाषा सरल और स्पष्ट है. यह एक विस्तृत ग्रंथ है जो धर्म और दर्शन, त्योहारों खगोल-विज्ञान कीमिया रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं सामाजिक जीवन भार-तौल तथा मापन विधियों मूर्तिकला कानून मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों के आधार पर अस्सी(80) अध्यायों में विभाजित है. इस पुस्तक में  भारतीय धर्म और दर्शन से संबंधित विभिन्न तथ्यों का वर्णन किया गया है.

महमूद गज़नवी के पुत्र सुल्तान मसूद (1030-1040) के प्रति उसका दृष्टिकोण सौहार्दपूर्ण था जिसे उसने अपनी महानतम कृति ‘अल-क़ानून अल-मसूदी फ़िल हइया-वलनुजूम’ समर्पित की थी और उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की थी. किताब –अल- कानून-अल- मसूदी नामक यह पुस्तक भूगोल, खगोल विज्ञान और इंजीनियरिंग पर एक महत्वपूर्ण  पुस्तक  है.
अलबरूनी  वैज्ञानिक स्वभाव का व्यक्ति था. उसने एस्त्रोलैब नामक यंत्र की सहायता से पहाड़ो की ऊंचाई की गणना की.

पल्लव राज्य में वास्तुकला

शोर मंदिर और महाबलीपुरम के सप्तपगोडा मंदिर पल्लव कला के बेहतरीन उदाहरण थे. महाबलीपुरम एक ऐतिहासिक नगर है जो मामल्लपुरम के नाम से भी जाना जाता है. महाबलीपुरम तमिलनाडु के कांचीपुरम जिले में है. इस धार्मिक केन्द्र को हिंदू पल्लव राजा नरसिंहदेव वर्मन ने सातवीं सदी में स्थापित किया था.

पल्लव वास्तुकला की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • पल्लव वास्तुकला में मंदिरों का निर्माण के सन्दर्भ में बहुत सारे प्रमाण हैं- जैसे चट्टानों को काटकर पत्थरों से मंदिरों का निर्माण.
  • 7 वीं शताब्दी में चट्टानों को काटकर बनाये गए मंदिरों के निर्माण पल्लव वास्तुकला के नवीन उदाहरण हैं. इसके अलावा भी 8 वीं और 9 वीं शताब्दी ईस्वी के दौरान भी संरचनात्मक मंदिरों का निर्माण किया गया था.
  • पल्लवों के अधीन एक विशिष्ट शैली का विकास हुआ जोद्रविड शैलीके नाम से विख्यात है.

पल्लवों की मंदिर स्थापत्य शैली पल्लव राजाओ के नाम पर चार शैलियों में विभक्त है.

  1. महेन्द्रवर्मन शैलीके मंदिर अपनी सादगी के लिए विख्यात हैं.
  2. मामल्ल शैलीके मंदिरो की मुख्या विशेषता मदप एवं रथ हैं. इस शैली की विशिष्टता का नमूना वाराह,महिष तथ पंचपाण्डव एवं सप्त-पैगोडा के मंदिरों में देखे जा सकते हैं.
  3. राजसिंह शैलीके मंदिरों में प्रमुख हैं महाबलीपुरम का समुद्रतटीय मंदिर, कांची के कैलाशनाथ और वैकुण्ठपेरूमल के मंदिर.
  4. नन्दिवर्मन अथवा अपराजित शैलीके मंदिर छोटे हैं. इनके निर्माण में स्तम्भ शिर्षों के विकास के अतिरिक्त कोई नवीनता दिखाई नहीं देती है. इस शैली के प्रमुख मंदिर हैं कांचीपुरम के मुक्तेश्वर और मतंगेश्वर मंदिर तथ गुदिमल्लम का परशुरामेश्वर मंदिर.

उल्लेखनीय है कि नंदीवर्मन शैली के मंदिर पल्लवों के पतन का स्पष्ट आभास देते हैं.

पल्लव राजाओं द्वारा निर्मित प्रसिद्ध मंदिरों में से कुछ निम्नलिखित हैं:

मंडगपट्टू  चट्टानों को काटकर निर्मित मंदिर

मंडगपट्टू मंदिर तमिलनाडु के विल्लुपुरम के निकट स्थित एक एकल चट्टानों को काटकर बनाया गया मंदिर है.
इस मंदिर में किसी भी धातु, ईंट या धातु से निर्मित किसी वस्तु का इस्तेमाल नहीं किया गया है. इस मंदिर में बड़े-बड़े द्वारपालों को बनाया गया है जोकि दक्षिण भारत के सभी मंदिरों की एक प्रमुख विशेषता के रूप में दर्शाया गया है.

कैलाश नाथ मंदिर कांचीपुरम

इस मंदिर का निर्माण नरसिंहवर्मन द्वितीय  के काल में किया गया था. यह मंदिर भारत में सबसे खूबसूरत मंदिरों में से एक है. कैलाशनाथ मंदिर, कांचीपुरम में स्थित एक हिन्दू मंदिर है. कैलाशनाथ मंदिर को राजसिद्धेश्वर मंदिर भी कहा जाता है. इस मंदिर को आठवीं शताब्दी में पल्लव वंश के राजा नरसिंहवर्मन द्वितीय (राजसिंह की उपाधि) ने अपनी पत्नी की प्रार्थना पर बनवाया था. नरसिंहवर्मन द्वितीय  ने इसके अलावा आगमप्रिय और शंकरभक्तकी भी उपाधि धारण की थी. इस मंदिर के अग्रभाग का निर्माण राजा के पुत्र महेन्द्रवर्मन तृतीय ने करवाया था. मंदिर में देवी पार्वती और शिव की नृत्य प्रतियोगिता को दर्शाया गया है. इस मंदिर के एक और विशेषता है की इसमें पल्लव राजाओं और रानियों की आदमकद प्रतिमायें लगी हैं.

शोर मंदिर, महाबलीपुरम

इस मंदिर का निर्माण नरसिंहवर्मन द्वितीय  के काल में किया गया ग्रेनाइट से करवाया गया था. इसे बंगाल की खाड़ी के शोर के रूप में जाना जाता है. यह संरचनात्मक मंदिरों की सूची में सबसे पुराना उदाहरण है. यह मंदिर यूनेस्को की विश्व विरासत स्थल सूची के अंतर्गत शामिल किया गया है और भगवान् विष्णु को समर्पित है, जबकि दो मंदिरों को शिव को समर्पित किया गया है. इस मंदिर में भगवान शिव का एक शिवलिंग स्थारपित है, वैसे यह मंदिर भगवान विष्णुर को समर्पित है. इसी मंदिर परिसर में देवी दुर्गा का भी छोटा सा मंदिर है जिसमें उनकी मूर्ति के साथ एक शेर की मूर्ति भी बनी हुई है.

सप्तपैगोडा

मण्डप एवं रथ मामल्ल शैली के प्रमुख उदहारण हैं इन्ही रथ शैली के अंतर्गत सप्त-पैगोडा के मंदिरों को शामिल किया जाता है .पत्थर की चट्टानों को काटकर रथ शैली के आठ मंदिरों (द्रौपदी रथ और सप्त-पैगोडा) का निर्माण किया गया है. सप्त-पैगोडा के अंतर्गत निम्नलिखित रथ बने हैं. धर्मराज रथ,भीम रथ,अर्जुन रथ, सहदेव रथ, गणेश रथ, वलेंयनकुट्ट रथ और पीदरीरथ.

महमूद गजनवी

महमूद गजनवी, गजनी का राजा था जिसने 971 से 1030 ईस्वी तक शासन कार्य किया था. उन्होंने उसके पिता का नाम सुबुक्त्गीन था.  उसने भारत पर आक्रमण किया और राजपूत शासक आनंदपाल और उसके छह राजपूत सहयोगियों उज्जैन, ग्वालियर, दिल्ली, कालिंजर, अजमेर और कन्नौज, जिन्हें राजपूत महासंघ के रूप में जाना जाता है को पराजित किया. 1071 में हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो गया. इस विजय के पश्चात् वह पंजाब, सिंध और मुल्तान के निर्विवाद शासक के रूप में स्थापित हो गया. उसका  अगला अभियान नागरकोट था  जिसकी लूट के लिए उसने 1009 ईस्वी में हमला किया. था. उसके बाद, उसने 1011 ईस्वी  में थानेश्वर पर हमला किया और मेरठ, कन्नौज और मथुरा में भारी लूट मचाई तत्पश्चात वह बड़ी धनराशि के साथ अपने राज्य में वापस आ गया.

महमूद गजनवी ने 1021 ईस्वी में त्रिलोचनपाल  पर हमला किया और उसे हराया. त्रिलोचनपाल अंतिम शाही राजा  जिसे महमूद के द्वारा अजमेर को पलायन करने के लिए मजबूर किया गया था. महमूद गजनवी ने भारत पर एक बार फिर 1024 ईस्वी में  हमला किया था. अजमेर, ग्वालियर और कालिंजर  पर छापा मारने के अलावा  वह सोमनाथ मंदिर को भी दुर्दमनीय तरीके से  लूटा और इसे नष्ट कर दिया. किंवदंतियों के अनुसार सोमनाथ के शिवलिंग के भग्नावशेषों को ले जाकर उसने ग़ज़नी के जामा मस्जिद का हिस्सा बनवाया.  महमूद के सोमनाथ आक्रमण के दौरान चालुक्य वंश का भीम प्रथम उस समय काठियावाड़ का शासक था. अपने अंतिम आक्रमण के दौरान  मलेरिया के कारण 1030 ईसवी में उसका निधन हो गया. फ़िरदौसी महमूद के दरबार में राज कवि था. उसके उपर ईरानी देशप्रेम का इतना उभार हुआ कि वह स्वयं को प्राचीन ईरानी किंवदन्तियों में चर्चित राजा ‘अफ़रासियाब’ का वंशज होने का दावा किया करता था.

महमूद गजनवी ने भारत पर हमला क्यों किया?

उसके भारत पर आक्रमण का प्रमुख कारण भारत की विशाल धन-सम्पदा थी. इन तथ्यों ने उसे भारत की तरफ आकर्षित करने को मजबूर किया. और संभव है की इन्ही कारणों की वजह से वह भारत पर बार बार आक्रमण करता रहा. उसने मूर्तिभंजक उपनाम  को अर्जित करने के लिए  सोमनाथ, कांगड़ा, मथुरा और ज्वालामुखी के मंदिरों को नष्ट किया.

भारत पर गजनवी के आक्रमण का प्रभाव

भारत पर उसके आक्रमण का कोई गहरा राजनीतिक प्रभाव नहीं है. मुहम्मद गज़नवी के आक्रमण के अलावा यह भी संभावना जताई जाती है की राजपूत राजाओं के राजनीतिक एकता के अभाव ने भविष्य में भी अन्य आक्रमणों को आमंत्रित किया.

पैगंबर मुहम्मद का जीवन

हज़रत  मुहम्मद, जिन्हें इश्वर का इस्लामी पैगंबर कहा जाता है का जन्म 570-571 ईस्वी में मक्का (सऊदी अरब में एक शहर) में पैदा हुआ था. छह साल की उम्र तक वह अपने माता पिता दोनों को खो चुके थे. उनका पालन पोषण उनके अपने चाचा द्वारा किया गया था. 25 वर्ष की उम्र में उन्होंने ख़ादीजा नाम की एक विधवा के घर काम करना आरंभ किया और बाद में ख़ादीजा बिन खुवैलिद से विवाह किया जोकि उनके इस्लाम धर्म अपनाने के पश्चात् पहली मुस्लिम बनी.  40 वर्ष की उम्र में, उन्होंने इश्वर से खुद के मिलन का रहस्योद्घाटन किया और इश्वर एक है इस बात का उपदेश देना शुरू कर दिया. मुसलमान मानते हैं कि मक्का की पहाड़ियों में इन्हे परम ज्ञान सन् 610 ईस्वी के आसपास प्राप्त हुआ.

उनके पैगंबर के रूप में  उपदेश को सुनकर  मक्का की कुछ जनजातियां इनकी कट्टर दुश्मन बन गई. इस घटना के कारण उन्हें मक्का छोड़ना पड़ा और मदीना की तरफ स्थानांतरित होना पड़ा. इस्लाम धर्म में इस घटना को  हिजरा कहा जाता है.

इस्लामी कैलेंडर इसी हिजरा शब्द से बना है जिसे, हिजरी कैलेंडर कहा जाता है. पैगंबर मुहम्मद के उपदेश के कारण उनके अनुयायियों की संख्या में वृद्धि होना शुरू हो गया. सन् 630 ईस्वी में मुहम्मद साहब ने अपने अनुयायियों के साथ मक्का पर चढ़ाई कर दी. इस युद्ध में उन्हें जीत हासिल हुई और इसके बाद मक्कावासियों ने इस्लाम कबूल कर लिया. मक्का में स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया गया.

पैगंबर मुहम्मद का निंधन 632 ईसवी में उस समय हुआ जब इस्लाम धर्म अपने प्रचार-प्रसार के चरण में था. उनकी मृत्यु तक लगभग सम्पूर्ण अरब इस्लाम के सूत्र में बंध चुका था. इनकी मृत्यु के पश्चात् मुहम्म्द साहब के दोस्त अबू बकर को मुहम्मद साहेब का उत्तराधिकारी घोषित किया गया.

राजपूतों की उत्पत्ति-

राजपूत शब्द की सर्वप्रथम उत्पत्ति 6ठी शताब्दी ईस्वी में हुई थी. राजपूतों ने 6ठी शताब्दी ईस्वी से 12वीं सदी के बीच भारतीय इतिहास में एक प्रमुख स्थान प्राप्त किया था.

राजपूतों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में विद्वानों ने कई सिद्धांत का उल्लेख किया हैं. श्री कर्नलजेम्स टॉड द्वारा दिए गए सिद्धांत के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी मूल की थी. उनके अनुसार राजपूत कुषाण,शक और हूणों के वंशज थे. उनके अनुसार चूँकि राजपूत अग्नि की पूजा किया करते थे और यही कार्य कुषाण और शक भी करते थे. इसी कारण से उनकी उत्पति शको और कुषाणों से लगायी जाती थी.

इसी तरह दूसरे सिद्धांत के अनुसार राजपूतों को किसी भी विदेशी मूल से सम्बंधित नहीं किया जाता है. बल्कि उन्हें क्षत्रिय जाति से सम्बंधित किया जाता है. इस सन्दर्भ में यह कहा जाता है की चूँकि उनके द्वारा अग्नि की पूजा की जाती थी जोकि आर्यों के द्वारा भी सम्पादित किया जाता था. अतः राजपूतों की उत्पत्ति भारतीय मूल की थी.

तीसरे सिद्धांत के अनुसार राजपूत आर्य और विदेशी दोनों के वंशज थे. उनके अन्दर दोनों ही जातियों का मिश्रण सम्मिलित था.

चौथा सिद्धांत अग्निकुल  सिद्धांत से संबंधित है. चंदवरदायी द्वारा १२वीं शताब्दी के अन्त में रचित ग्रन्थ ‘पृथ्वीराज रासो’ में चालुक्य (सोलंकी), प्रतिहार, चहमान तथा परमार राजपूतों की उत्पत्ति आबू पर्वत के अग्निकुण्ड से बतलाई है, किन्तु इसी ग्रन्थ में एक अन्य स्थल पर इन्हीं राजपूतों को “रवि – शशि जाधव वंशी” कहा है.

इन तमाम विद्वानों के तर्को के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि राजपूत क्षत्रियों के वंशज थे, फिर भी उनमें विदेशी रक्त का मिश्रण अवश्य था. अतः वे न तो पूर्णतः विदेशी थे, न तो पूर्णत भारतीय.

 

गुर्जरप्रतिहार (छठी शताब्दी से लेकर 11वी शताब्दी)

गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य की स्थापना हरिश्चन्द्र के द्वारा छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में की गयी थी. वे प्रभाविपूर्ण रूप में 11 वी शताब्दी तक बने रहे. सामान्यतः यह प्रचारित किया जाता है की उनकी उत्पत्ति उज्जैन या मन्दसौर में हुई थी. इस वंश का सबसे महत्वपूर्ण शासक नागभट्ट प्रथम था. उसका शासन काल 730 ईस्वी से लेकर 756 ईस्वी तक रहा. उसके साम्राज्य में ग्वालियर भरुच और मालवा शामिल थे. उसके साम्राज्य की राजधानी अवनी थी.

नागभट्ट प्रथम की उपलब्धियां

इसने राजस्थान के युद्ध में अरब कमाण्डर जुनैद और उसके उत्तराधिकारी एवं पुत्र तामीन को पराजित किया.  अपने इस उपलब्धि के माध्यम से उसने पश्चिम सीमांत क्षेत्र अधिकांश भाग को अरब आक्रमण से बचाया.

वत्सराज नाग भट्ट के उत्तराधिकारी के रूप में गद्दी पर बैठा. वत्सराज ने पाल शासक धर्मपाल को पराजित करके कन्नौज पर अधिकार स्थापित किया.

नागभट्ट द्वितीय वत्सराज के उत्तराधिकारी के रूप में वर्ष 805 में गद्दी पर विराजमान हुआ. वह गुर्जर प्रतिहार वंश का बहुत ही महत्वाकांक्षी शासक था. उसने 815 ईस्वी में सोमनाथ मंदिर का पुनःनिर्माण करवाया. उल्लेखनीय है की इस मंदिर को 725 ईस्वी में जुनैद की अरब सेना ने नष्ट किया था.

मिहिरभोज इस साम्राज्य का एक मह्त्वपूर्ण शासक था. उसका शासन काल 885 ईस्वी तक बना रहा. वह बहुत बड़ा निर्माता भी था. उसने अपने शासन काल में कई युद्धों के परिणामस्वरूप गुजरात,राजस्थान और मध्य प्रदेश के अधिकांश हिस्सों पर विजय प्राप्त की थी. उसने आदिवाराह की उपाधि भी धारण की थी और ग्वालियर में तेली मंदिर का निर्माण करवाया था.

फिर भी 10 वी शताब्दी के आस-पास गुर्जर प्रतिहार वंश का पतन होने लगा जबकि गुर्जर शासक भोज द्वितीय पाल शासक महिपाल प्रथम के द्वारा पराजित हुआ. जैसे ही गुर्जर प्रतिहार वंश का पतन नजदीक आने लगा उसके अनेको सामंतो ने स्वयं को स्वतंत्र करना प्रारंभ कर दिया.

 

पाल साम्राज्य

पाल साम्राज्य का संस्थापक गोपाल था. उसने इस साम्राज्य की स्थापना 750 ईस्वी में की की थी. वह प्रारंभ में एक सरदार था लेकिन कालांतर में बंगाल का शासक बना. वास्तव में वह बंगाल का पहला बौद्ध शासक था. गौड़ साम्राज्य के कामरूप पर से प्रभुत्वा समाप्त होने के पश्चात् उसने कामरूप पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया. उसके मृत्यु के समय बंगाल और बिहार का अधिकांश भाग उसके साम्राज्य के अंतर्गत शामिल था. गोपाल को बिहार के ओदंतपुरी में एक बौद्ध मठ बनवाने का श्रेय प्राप्त है.

गोपाल के पश्चात् धर्मपाल उसका उत्तराधिकारी बना. उसने 770 ईस्वी से लेकर  810 ईस्वी तक शासन किया. उसके कार्यकाल में पाल साम्राज्य ने उत्तरी और पूर्वी भारत के अधिकांश भागों  में अपना अधिकार स्थापित किया था.

धर्मपाल ने गुर्जर-प्रतिहारो और राष्ट्र्कुटो के खिलाफ लम्बे काल तक संघर्ष किया था. गुर्जर शासक नागभट्ट द्वितीय से वह पराजित हुआ. उसने पाल साम्राज्य की महत्ता को लम्बे काल तक बनाये रखी और पाल साम्राज्य को बिहार और बंगाल के अधिकांश भागो तक विस्तृत किया.

धर्मपाल एक धर्मपरायण बौद्धिष्ठ शासक था. उसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना करवाई थी जोकि भारत में बौद्ध शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र था. यह विश्वविद्यालय बिहार के भागलपुर में अवस्थित कहलगाँव में निर्मित किया गया था.

धर्मपाल का उत्तराधिकारी देवपाल था. देवपाल के शासनकाल में पाल साम्राज्य आसाम, उड़ीसा और कामरूप तक फ़ैल चुका था. इसके अलावा उसके शासन काल में पाल सेना ने विभिन्न महत्वपूर्ण एवं सफल अभियान किये थे.

देवपाल के पश्चात् पाल सिंहासन विभिन्न छोट-छोट शासक बैठे. उसके पश्चात महिपाल शासक बना. उसने 995 ईस्वी से लेकर 1043 ईस्वी तक शासन कार्य किया. उसे पाल साम्राज्य के दूसरे संस्थापक के रूप में जाना जाता है. इसने पाल साम्रज्य के अधिकांश हारे क्षेत्रो को पुनः प्राप्त किया.

देवपाल के पश्चात् पाल साम्राज्य के अंतर्गत बहुत छोटे-छोटे शासक हुए जोकि पाल साम्रज्य की चमक को बरक़रार न रख सके.

 

कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष

आठवी शताब्दी ईस्वी में कन्नौज पर अपने प्रभुत्व की स्थापना के लिए भारत के तीन क्षेत्रों मंर अपने साम्राज्य का पताका फहराने वाले साम्राज्यों के बीच संघर्ष हुआ. भारतीय इतिहास में इस संघर्ष को ही त्रिपक्षीय संघर्ष के नाम से जाना जाता है. ये तीन साम्राज्य पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट थे. इनमे से पाल शासको ने भारत के पूर्वी भागो( अवन्ती-जालोर क्षेत्र) प्रतिहारो ने भारत के पश्चिमी भागो पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया था. जबकि राष्ट्रकुटो ने भारत के दक्षिणी भागों में अपना साम्राज्य कायम किया था.

पाल शासक धर्मपाल और प्रतिहार शासक वत्सराज दोनों कन्नौज पर अधिकार स्थापित करने के लिए एक दुसरे से युद्ध किये. यद्यपि प्रतिहार शासक को विजय तो मिल गयी लेकिन जल्दी ही वह राष्ट्रकूट शासक ध्रुव प्रथम से पराजित हो गया. इसी बीच राष्ट्रकूट शासक को किन्ही कारणों से पुनः दक्कन की तरफ जाना पड़ा जिसका लाभ पाल शासक धर्मपाल ने उठाया. धर्मपाल ने परिस्थिति का लाभ उठाते हुए कन्नौज पर अधिकार कर लिया लेकिन जल्दी ही उसकी विजय पराजय में बदल गयी. अर्थात उसकी विजय अल्पकाल तक ही बनी रही.

त्रिपक्षीय संघर्ष लम्बे काल तक चलता रहा. दो शताब्दियों तक चले इस संघर्ष ने तीनो साम्राज्यों को कमजोर किया. इनके आपसी संघर्ष ने भारत की राजनितिक एकता को छिन्न-भिन्न किया और पूर्व-मध्यकाल में मुश्लिम बाहरी आक्रमणकारियों को लाभ पहुँचाया.

कन्नौज का महत्व

कन्नौज गंगा के किनारे-किनारे चलने वाले व्यापारिक मार्गों से जुडा था. इस तरह वह सिल्क मार्ग से भी जुड़ा था. इसी वजह से कन्नौज का महत्व आर्थिक और सामरिक दृष्टि से बना रहा. कन्नौज पूर्व में उत्तरी भारत में पूर्व हर्षबर्धन के साम्रज्य की राजधानी भी था.

महत्वपूर्ण राजपूत शासक

हम सभी राजपूत शब्द के बारे में भलीभांति जानते हैं. यह, केंद्रीय पश्चिमी और उत्तरी भारत के अनेक  पितृवंशीय समूहों में से एक थे. ये राजपुत भारत के अलावा पाकिस्तान के अनेक भागो में दिखाई देते हैं. भारत और पाकिस्तान के ये स्थल अनेक राजपुत शासकों की उपस्थिति के गवाह हैं.

उपलब्ध कई स्रोतों के मुताबिक, राजपूत उत्तर भारत के हिंदू योद्धा थे. उनकी वीरगाथाओ से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं. उन्होंने नवी सदी से लेकर 12 वीं सदी तक के काल में शासन कार्य किया था. नीचे कुछ महत्वपूर्ण राजपूत शासको की सूची दी जा रही है.

बप्पा रावल यह राजपूत शासक अपने धर्म और संस्कृति की मजबूती और गौरव के लिए जाना जाता था. यह गहलोत राजवंश का आठवाँ शासक था. मेवाड़ राज्य की स्थापना उसी के द्वारा 734 ईस्वी में की गयी थी जोकि वर्तमान में राजस्थान है. आठवीं सदी में उसने अरब आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध लड़ा था और उन्हें पराजित किया था.

राणा कुम्भा  यह महाराणा कुम्भकर्ण के नाम से भी चर्चित था. यह 1433 ईस्वी से लेकर 1468 ईस्वी के बीच मेवाड़ का शासक था. वह सिसोदिया वंश से सम्बंधित था. उसके पिता का नाम राणा मोकल और माता का नाम सोभाग्या देवी था. उसे गुजरात और दिल्ली के शासको के द्वारा हिन्दू-सुरत्न की उपाधि दी गयी थी.

पृथ्वी राज चौहान–  पृथ्वीराज चौहान(1168 ईस्वी-1192 ईस्वी) चौहान वंश का प्रमुख शासक था. उसने 12 वीं सदी के दौरान उत्तरी भारत के अधिकांश भागों पर अपना राज्य स्थापित किया था और शासन कार्य किया था. वह कथित तौर पर दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाला दूसरा अंतिम हिंदू राजा था. जब वह 1179 ईस्वी में सिंहासन पर बैठा तब वह पूरी तरह से नाबालिग था. उसने अपने राज्य पर शासन कार्य का संचालन अजमेर और दिल्ली के दोहरे राजधानियों किया.

शहरों के शहर दिल्ली में स्थित किला राय पिथौरा का नामकरण उसी के नाम पर किया गया था. वह वास्तव में एक बहादुर योद्धा था. उसने संयोगिता (कन्नौज राजा जय चन्द्र की बेटी) के साथ विवाह किया था जैसा की अनेको किताबो में पृथ्वी राज चौहान और संयोगिता कथा का रोमांचक वर्णन किया गया है. यह कथा भारत की सबसे रोमांचक कथाओ के रूप में वर्णित किया है.उनके पलायन वहाँ हर संभव पुस्तकों में उल्लेख किया है और भारत की सबसे रोमांटिक कहानियों में से एक के रूप में माना गया है.

राव मालदेव राठौर राजपूतों के सबसे लोकप्रिय शासकों में से एक, राव राव मालदेव राठौर वंश से सम्बंधित थे. शेरशाह शूरी के शासन के समय, मारवाड़ में राठौर एक प्रसिद्ध नाम था. राव मालदेव ने अपने क्षेत्र का विस्तार से दिल्ली के कुछ सौ किलोमीटर की दूरी तक किया था.के लिए किया था.

राणा सांगा इसे संग्राम सिंह के नाम से भी जाना जाता है. वह 1509 ईस्वी से1527 ईस्वी तक मेवाड़ का शासक था. उसकी सत्ता का उत्थान दिल्ली साम्राज्य के पतन के पश्चात् शुरू हुआ. वह गुजरात और मालवा के मुस्लिम राजाओं के साथ भी युद्ध किया था. राणा सांगा और लोदी शासको के बीच संपन्न युद्ध अपने आप में महत्वपूर्ण स्थान रखता है. उसे अपने राज्य मेवाड़ से बहुत प्यार था. उसने मेवाड़ को अत्यंत समृद्ध और सम्पन्न बनाया. साथ ही उत्कर्ष की चोटी तक पहुँचाया.

महाराणा प्रताप– राजपूत शासको में महाराणा प्रताप एक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली शासक थे. वह बहादुर और महान राजपूत राजाओं में से एक थे. अपने कार्यों के कारण ही वह अविस्मरणीय थे. महाराणा प्रताप  ने अधिकांश राजपूत शासको को मुग़ल शासको के पंजों से मुक्त करवाया और अनेक क्षेत्रो पर विजय प्राप्त की. उन्होंने राजपूतो की इस परंपरा को नकार दिया जिसमे अनेक राजपूत शासको ने अपनी बेटियों को मुग़ल शासकों को सौप दिया था और वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया था. बाद के दिनों में उन्होंने उन लोगो से अपने वैवाहिक संबंधो को तोड़ लिया जिन्हे वे राजपूत नहीं मानते थे. उनकी मृत्यु 1597 ईस्वी में हुई थी. उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र अमर सिंह ने भी मुगलों से अनेको युद्ध किया. अमर सिंह ने मुगलों के अनेको आक्रमण का सामना किया और उनके विरुद्ध 17-18 युद्ध लड़ा.

 

मामलूक वंश: इल्तुतमिश

इल्तुतमिश तुर्कों की प्रमुख जनजाति इल्बरी से सम्बंधित था. वह कुतुबुद्दीन ऐबक का दामाद था और दिल्ली सल्तनत का अगला सुल्तान बना.

उसे दिल्ली में महरौली के नजदीक हौज-ए-शम्सी के निर्माण का श्रेय दिया जाता है. उसने अपने पूर्ववर्ती शासकों के द्वारा शुरू किये गए कुतुब मीनार के अधूरे निर्माण को भी पूरा किया.

उसने दिल्ली सल्तनत में इक्ता प्रथा की शुरुवात की जोकि भूमि के कर प्रणाली से जुडी व्यवस्था थी. इक्ता व्यवस्था के अंतर्गत किसी भी अधिकारी को उसके वेतन के बदले उसे प्रदान किये गए क्षेत्र के  भूमि कर को प्रदान किया जाता था. यद्यपि यह व्यवस्था कोई आनुवंशिक व्यवस्था नहीं थी. इस व्यवस्था के माध्यम से दिल्ली सल्तनत के दूर-दराज के अधिकृत भागो को केंद्र से जोड़े रखना आसान था.

उसे चाँदी का टंका और कॉपर का जीतल  जारी करने का श्रेय दिया जाता है. चांदी के टंके का वजन  175 ग्रेन था.

इल्तुतमिश के शासन काल में मंगोलों ने चंगेज़ खान के नियंत्रणाधीन भारत पर हमला किया था. लेकिन वे जल्द ही भारत को छोड़ दिए और मुल्तान, सिंध की तरफ चले गए.

मामलुक वंश: कुतुबउददीन ऐबक

कुतुब-उद-दीन ऐबक मोहम्मद गोरी का प्रमुख सिपहसालार और उसका प्रमुख दास था. उसका जन्म मध्य एशिया के तुर्की परिवार में हुआ था. वह बचपन में ही एक दास के रूप में बेच दिया गया था. मोहम्मद गोरी के वायसराय के रूप में उसने बनारस के राजा को 1194 ईस्वी में पराजित किया था. उसने अजमेर के राजा को भी पराजित किया था. उसने ग्वालियर को जीतने के बाद राजा सोलंखोल को कर देने के लिए मजबूर कर दिया. इसके अलावा, उसने गुजरात के राज्य को भी जीता.

वर्ष 2006 में मोहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद ऐबक भारत का सुल्तान बन गया है और मामलुक  वंश या गुलाम वंश की नींव रखी.

कुतुब-उद-दीन ऐबक से संबंधित प्रमुख बिंदुओं के रूप में निम्नलिखित तथ्य हैं:

  • उसने केवल 4 साल तक शासन कार्य किया. चौगान खेलते हुए वर्ष 2010 में उसका निधन हो गया.
    • वह दिल्ली सल्तनत का पहला शासक था.
    • वह ऐबक  जनजाति का एक तुर्की था.
    • वह बहुत उदार था इसीलिए उसे लाख बख्श सुल्तान उपनाम दिया गया था.
    • उसे कुतुब मीनार की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है जोकि एक सूफी संत ख्वाजा कुतुबु- उद- दीन बख्तियार काकी के नाम पर रखा गया था.
    • उसने कुतुब अल इस्लाम मस्जिद को भी स्थापित किया था.
    • उसका उत्तराधिकारी उसका स्वयं का दामाद इल्तुतमिश था.
    • उसकी कब्र लाहौर, पाकिस्तान में स्थित है.

मामलूक वंश: रजिया सुल्तान

इल्तुतमिश की मृत्यु  के बाद, रजिया दिल्ली सल्तनत की नयी सुल्तान बन गयी. लेकिन यह उसके लिए आसान नहीं था. उसके सुल्तान बनने के पीछे मुख्य कारण यह था कि इल्तुतमिश अपने सभी बेटों को सिहांसन के अयोग्य समझता था और रजिया सिंहासन के लिए एक योग्य उत्तराधिकारी के सभी मानदंडों को पुरा कर रही थी. इसलिए उसने रज़िया को अपने उत्तराधिकारी के रूप में घोषित कर दिया. लेकिन इल्तुतमिश की मृत्यु के तुरंत बाद चहलगानी के सदस्यों ने इल्तुतमिश के निर्णय से असहमति प्रकट की और रज़िया के सुल्तान बनाए जाने का विरोध किया. अपने विरोध प्रक्रिया के अंतर्गत चहलगानी के सदस्यों ने इल्तुतमिश के पुत्र रुकनुद्दीन फ़िरोज़ को अगला शासक बनाया.

रुकनुद्दीन फ़िरोज़ पूरी तरह से अक्षम था और कामुक कार्यों में स्वयं को निर्लिप्त कर लिया. इस तरह से राज्य के समस्त शासनिक-प्रशासनिक कार्यों में बाधा पहुँचनी शुरू हो गयी और अंततः 7 महीने के शासन के बाद उसकी हत्या कर दी गई.

उसकी मृत्यु के बाद रज़िया को 1236 ईस्वी में शासक बनाया गया. रज़िया ने करीब साढ़े तीन साल1240 ईस्वी तक शासन कार्य किया. यद्यपि रज़िया के अन्दर शासक के सभी गुण विद्यमान थे लेकिन चहलगानी सदस्यों(चालीस तुर्कों का समूह) को उसका नियंत्रण मंजूर नहीं था. चहलगानी सदस्यों ने रज़िया से नफरत करना प्रारंभ कर दिया जब उसने याकूत नामक एक व्यक्ति को अपने अस्तबल के अधीक्षक के रूप में नियुक्त किया. याकूत एक अबिसिनियन अफगानी था जिसकी वजह से दिल्ली सल्तनत में तुर्क-अफगानी इर्ष्या की परम्परा की शुरुवात हुई.

रज़िया के विद्रोही प्रमुखों को मलिक अल्तूनिया जोकि भटिंडा का राज्यपाल था, द्वारा समर्थित प्रदान किया गया. जल्दी ही दोनो प्रतिद्वंद्वी समूहों के बीच एक युद्ध की शुरुवात हुई जिसमे याकूत की हत्या कर दी गयी और रजिया को कैदी बना लिया गया.

रजिया सुल्तान ने अल्तूनिया से विवाह कर लिया और दोनों ने संयुक्त रूप से सल्तनत को वापस लेने की कोशिश की जबकि उस समय सल्तनत की गद्दी पर रजिया के भाई मुइज़ुद्दीन बहराम शाह का शासन था. सल्तनत पर आक्रमण के दौरान वे दोनों सल्तनत की सेना के द्वारा पराजित हुए और दिल्ली से पलायन करने को मजबूर किये गए. उल्लेखनीय है की पलायन के दौरान ही दोनों कैथल के पास जाटों के एक समूह के द्वारा पकड़ लिए गए और उनकी हत्या कर दी गयी.

मुइज़ुद्दीन बहराम शाह का शासन काल दो वर्षो तक चला लेकिन उस दौरान पुरे साम्राज्य में केवल हत्या और षडयन्त्र होते रहे. कालांतर में वह स्वयं अपनी सेना के द्वारा ही मार डाला गया. दिल्ली सल्तनत के काल में यह अवधि पूरे साम्राज्य के लिए काफी कठिन थी और जिसने भी शासन किया वे सभी  कठपुतली शासक के रूप में कार्य कारते रहे.

नासिर-उद-दीन महमूद, इल्तुतमिश का सबसे छोटा पुत्र था. उसने  1246 ईस्वी से  1266 ईस्वी तक शासन कार्य किया. यह अपने एक तुर्क प्रमुख बलबन द्वारा मार डाला गया. नासिर-उद-दीन महमूद की हत्या के बाद बलबन दिल्ली सल्तनत का शासक बना.