Environment

1. पर्यावरण प्रदूषण : अर्थ, प्रकार, प्रभाव, कारण तथा रोकने के उपाय

2. पारिस्थितिकी का अर्थ

3. पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर शब्दावली (जार्गन)

4. पर्यावरण के अर्थ

5. पारिस्थितिकी तंत्र के अवयव या घटक

  1. पृथ्वी के वायुमण्डल की संरचना संगठन

 7.  ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन : कारण और परिणाम

 8. वैश्विक तापन/ग्लोबल वार्मिंग के कारण और संभावित परिणाम कौन से हैं?

9. मृदा प्रदूषण

10. ओज़ोन परत अवक्षय (ह्रास)

11. वातावरण का गैसीय चक्र

12. जलीय विभंजन (हाइड्रोलिक फ्रेक्चरिंग)

13. प्रवाल विरंजन (श्वेत पड़ना)

14. प्राकृतिक क्षेत्र

15. भारत में वनों के प्रकार

16. जैवविविधता के लाभ

17. भारत में वायु की गुणवत्ता

18. ठोस अपशिष्ट प्रबंधन

19. जल प्रबंधन

20. ध्वनि प्रदूषण

21. गैर नवीकरणीय संसाधन

22. जल चक्र

23. ऊर्जा के नवीकरणीय संसाधन

24. ऊर्जा के गैर – अक्षय संसाधन

25. जैविक विविधता सम्मेलन (सीबीडी)

1. पर्यावरण प्रदूषण : अर्थ, प्रकार, प्रभाव, कारण तथा रोकने के उपाय

सभी जीव अपनी वृद्धि एवं विकास तथा अपने जीवन चक्र को चलाने के लिए संतुलित पर्यावरण पर निर्भर करते हैं | संतुलित पर्यावरण से तात्पर्य एक ऐसे  पर्यावरण से है, जिसमें प्रत्येक घटक एक निश्चित मात्रा एवं अनुपात में उपस्थित होता है | परंतु कभी-कभी मानवीय या अन्य कारणों से पर्यावरण में एक अथवा अनेक घटकों की मात्रा या तो आवश्यकता से बहुत अधिक बढ़ जाती है अथवा पर्यावरण में हानिकारक घटकों का प्रवेश हो जाता है। इस स्थिति में पर्यावरण दूषित हो जाता है तथा जीव समुदाय के लिए किसी न किसी रूप में हानिकारक सिद्ध होता है। पर्यावरण में इस अनचाहे परिवर्तन को ही ‘पर्यावरणीय प्रदूषण’ कहते हैं।

प्रदूषण के प्रकार

पर्यावरणीय घटकों के आधार पर पर्यावरणीय प्रदूषण को भी मृदा, वायु, जल एवं ध्वनि प्रदूषण आदि में बाँटा जाता है –

मृदा प्रदूषण

मृदा के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में कोई ऐसा अवांछनीय परिवर्तन जिसका प्रभाव मानव पोषण तथा फसल उत्पादन व उत्पादकता पर पड़े और जिससे मृदा की गुणवत्ता तथा उपयोगिता नष्ट हो, ‘मृदा प्रदूषण’ कहलाता है। कैडमियम, क्रोमियम, तांबा, कीटनाशक पदार्थ, रासायनिक उर्वरक, खरपतवारनाशी पदार्थ, विषैली गैसें आदि प्रमुख मृदा प्रदूषक हैं |

मृदा प्रदूषण के प्रभाव

मृदा प्रदूषण के प्रभाव निम्नलिखित हैं-

  • मृदा प्रदूषण से मृदा के भौतिक एवं रासायनिक गुण प्रभावित होते हैं और मिट्टी की उत्पादन क्षमता पर प्रभाव पड़ता है
  • कहीं-कहीं लोग मल जल से खेतों की सिंचाई करते है। इससे मृदा में उपस्थित छिद्रों की संख्या दिनों-दिन घटती जाती है और बाद में एक स्थिति ऐसी आती है कि भूमि की प्राकृतिक मल जल उपचार क्षमता पूरी तरह नष्ट हो जाती है
  • जब मृदा में प्रदूषित पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है तो वे जल स्रोतों में पहुंचकर उनमें लवणों तथा अन्य हानिकारक तत्वों की सान्द्रता बढ़ा देते हैं, परिणाम स्वरूप ऐसे जल स्रोतो का जल पीने योग्य नहीं रहता

मृदा प्रदूषण के प्रमुख कारण

मृदा प्रदूषण के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-   

  • असतत कृषि गतिविधियाँ
  • औद्योगिक कचरा
  • लैंडफिल से होने वाला रिसाव
  • घरेलू कूड़ा-कचरा
  • खुली जगह पर कूड़ा फेंकना
  • पालीथीन की थैलियाँ, प्लास्टिक के डिब्बे
  • अनियंत्रित पशुचारण

मृदा प्रदूषण रोकने के उपाय

मृदा प्रदूषण रोकने के लिए निम्न उपाय किए जा सकते हैं-

  • कूड़े-करकट के संग्रहण, निष्कासन एवं निस्तारण की व्यवस्था
  • कल-कारखानों से निकलने वाले सीवेज जल को मृदा पर पहुंचने से पूर्व उपचारित करना
  • नगर पालिका और नगर निकायों द्वारा अपशिष्ट का उचित निस्तारण
  • रासायनिक उर्वरको का उपयोग अधिक न किया जाए।
  • कीटनाशी, कवकनाशी एवं शाकनाशी आदि का उपयोग कम से कम किया जाए
  • आम जनता को मृदा प्रदूषण के दुष्प्रभावो की जानकारी दी जाए

वायु प्रदूषण

वायु गैसों का मिश्रण है और ये वायु में एक निश्चित मात्रा में पायी जाती हैं जब मानव जनित स्रोतो से उत्पन्न बाहरी तत्वों के वायु में मिलने से वायु की गुणवत्ता मे हृास हो जाता है और यह जीव-जंतुओ और पादपों के लिए हानिकारक हो जाती हैतो उसे वायु प्रदूषण कहते हैं और जिन कारकों से वायु प्रदूषित होती है उन्हें वायु प्रदूषक कहते है। कार्बन डाई ऑक्साइडकार्बन मोनो ऑक्साइड,सल्फर के ऑक्साइड,नाइट्रोजन के ऑक्साइड,क्लोरीन,सीसा,अमोनिया,कैडमियम,धूल आदि प्रमुख मानव जनित वायु प्रदूषक हैं |

वायु प्रदूषण के प्रभाव

वायु प्रदूषण के प्रभाव निम्नलिखित हैं-

  • प्रदूषित वायु के कारण सूर्य के प्रकाश की मात्रा मे कमी आ जाती है जिससे पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है
  • वायु प्रदूषण से मानव का श्वसन तंत्र प्रभावित होता है और उसमें दमाब्रोंकाइटिस,सिरदर्दफेफड़े का कैंसरखांसीआंखों में जलनगले का दर्दनिमोनियाहृदय रोग,उल्टी और जुकाम आदि रोग हो सकते है
  • वायु प्रदूषित क्षेत्रों में जब बरसात होती है तो वर्षा में विभिन्न प्रकार की गैसें एवं विषैले पदार्थ घुलकर धरती पर आ जाते हैं,जिसेअम्ल वर्षा कहा जाता है

वायु प्रदूषण के प्रमुख कारण

वायु प्रदूषण के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  • वाहनों में जीवाश्म ईंधन का दहन
  • फैक्टरियों से निकालने वाला धुआँ
  • रेफ्रीजरेटर,वातानुकूलन आदि द्वारा निकालने वाली गैसें
  • कृषि कार्यों मे कीटनाशी एवं जीवाणुनाशी दवा का उपयोग
  • फर्नीचरों पर की जाने वाली पॉलिश और स्प्रे पेंट बनाने में प्रयुक्त होने वाला विलायक
  • कूड़े कचरे का सड़ना एवं नालियों की सफाई न होना

वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के उपाय

वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के उपाय निम्नलिखित हैं-

  • उद्योगों की चिमनियों की उंचाई अधिक हो
  • कोयले अथवा डीज़ल के इंजनों का उपयोग कम किया जाए
  • मोटर वाहनों के कारबुरेटर की सफाई कर कार्बन मोनो आक्साइड का उत्सर्जन कम किया जा सकता है
  • लेड रहित पेट्रोल का ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाए
  • पुराने वाहन के संचालन पर प्रतिबंध लगाया जाए
  • घरों में सौर ऊर्जा का उपयोग ज्यादा किया जाए
  • यूरोमानकों का कड़ाई से पालन कराया जाए
  • ओज़ोन परत को क्षतिग्रस्त करने वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन (फ्रियॉन-11 तथा फ्रियॉन-12) के उत्पादन एवं उपयोग पर कटौती की जानी चाहिए।
  • कारखानों की चिमनियों में बैग फिल्टर का उपयोग किया जाना चाहिए

जल प्रदूषण

जल में निहित बाहरी पदार्थ जब जल के स्वाभाविक गुणों को इस प्रकार परिवर्तित कर देते हैं कि वह मानव स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो जाए या उसकी उपयोगिता कम हो जाए तो इसे जल प्रदूषण कहलाता है। जो वस्तुएं एवं पदार्थ जल की शुद्धता एवं गुणों को नष्ट करते हैं वे वायु प्रदूषक कहलाते हैं।

जल प्रदूषण के प्रभाव

जल प्रदूषण के प्रभाव निम्नलिखित हैं-

  • प्रदूषित जल में शैवाल तेजी से प्रस्फुटित होने लगता है और कुछ विशेष प्रकार के पौधों को छोड़कर शेष नष्ट हो जाते हैं
  • प्रदूषित जल में काई की अधिकता होने से सूर्य का प्रकाश गहराई तक नहीं पहुंच पाता जिससे जलीय पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया और उनकी वृद्धि प्रभावित होती है
  • दूषित जल को पीने से पशु-पक्षियों को तरह-तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं
  • प्रदूषित जल से मानव में पोलियो, हैजा, पेचिस, पीलिया, मियादी बुखार, वायरल फीवर आदि बीमारियां फैलती हैं

जल प्रदूषण के स्रोत

जल प्रदूषण के स्रोत अथवा कारण निम्नलिखित हैं-

  • घरेलू कूड़े-कचरे का जल में बहाया जाना अथवा फेंका जाना
  • वाहित मल
  • दोषपूर्ण कृषि पद्धतियों के कारण मृदाक्षरण
  • उर्वरकों के उपयोग में निरन्तर वृद्धि
  • उद्योगों आदि द्वारा भारी मात्रा मे अपशिष्ट पदार्थ जल स्रोतों यथा नदियों एवं जलाशयों में बहाया जाना
  • समुद्र के किनारे स्थित तेल के कुएं में लीकेज हो जाने से होने वाला तेल प्रदूषण
  • मृत, जले, अधजले शवों को जल में बहाना, अस्थि विसर्जन करना, साबुन लगाकर नहाना एवं कपड़े धोना आदि

जल प्रदूषण रोकने के उपाय

जल प्रदूषण रोकने के उपाय निम्नलिखित हैं-

  • जल स्रोतों के पास गंदगी फैलाने, साबुन लगाकर नहाने तथा कपड़े धोने पर प्रतिबन्ध हो
  • पशुओं के नदियों, तालाबों आदि मे नहलाने पर प्रतिबन्ध
  • सभी प्रकार के अपशिष्टों तथा अपशिष्ट युक्त बहिःस्रावों को नदियों तालाबों तथा अन्य जलस्रोतों मे बहाने पर प्रतिबन्ध
  • औद्योगिक बहिःस्राव या अपशिष्ट का समुचित उपचार
  • नदियो मे शवों , अधजले शवों, राख तथा अधजली लकड़ी के बहाने पर प्रतिबन्ध
  • उर्वरकों तथा कीटनाशकों का उपयोग आवश्यकता अनुसार ही हो
  • प्रदूषित जल को प्राकृतिक जल स्रोतों में गिराने से पूर्व उसमें शैवाल की कुछ जातियों एवं जलकुम्भी के पौधों को उगाकर प्रदूषित जल को शुद्ध करना
  • ऐसी मछलियों को जलाशयो मे छोड़ा जाना चाहिए जो मच्छरों के अण्डे, लारवा एवं जलीय खरपतवार कार क्षरण करती है।
  • कछुओं को नदियो एवं जलाशयो मे छोड़ा जाना
  • जन जागरूकता को बढ़ावा देना

ध्वनि प्रदूषण

अवांछनीय अथवा उच्च तीव्रता वाली ध्वनि को शोर कहते हैं। वायुमंडल में अवांछनीय ध्वनि की मौजूदगी या शोर को ही ‘ध्वनि प्रदूषण’ कहा जाता है। शोर से मनुष्यों में अशान्ति तथा बेचैनी उत्पन्न होती है। ध्वनि की सामान्य मापन इकाई डेसिबल कहलाती है।

ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव

ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव निम्नलिखित हैं-

  • जिन मज़दूरों को अधिक शोर मे काम करना होता है वे हृदय रोग, शारीरिक शिथिलता, रक्तचाप आदि अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाते है
  • विस्फोटों तथा सोनिक बमों की अचानक उच्च ध्वनि से गर्भवती महिलाओं में गर्भपात भी हो सकता है
  • लगातार शोर में रहने वाली महिलाओ के नवजात शिशुओं में विकृतियां उत्पन्न हो जाती हैं

ध्वनि प्रदूषण के प्रमुख कारण

ध्वनि प्रदूषण के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  • मोटर वाहनों से उत्पन्न होने वाला शोर
  • वायुयानो,मोटर वाहनों व रेलगाड़ियों तथा उनकी सीटी से होने वाला शोर
  • लाउडस्पीकरों एवं म्यूजिक सिस्टम से होने वाला शोर
  • कारखानों में मशीनों से होने वाला शोर

ध्वनि प्रदूषण रोकने के उपाय

ध्वनि प्रदूषण रोकने के उपाय निम्नलिखित हैं-

  • अधिक शोर उत्पन्न करने वाले वाहनो पर प्रतिबंध ।
  • मोटर के इंजनो तथा अन्य शोर उत्पन्न करने वाली मशीनो की संरचना में सुधार
  • उद्योगों को शहरी तथा आवासीय बस्तियों से बाहर स्थापित करना
  • उद्योगों के श्रमिकों को कर्णप्लग अथवा कर्णबन्दक प्रदान करना
  • वाहनो के साइलेंसरो की समय समय पर जांच
  • बैंड-बाजोंलाउडस्पीकरों एवं नारेबाजी पर उचित प्रतिबंध

 

2. पारिस्थितिकी का अर्थ

पर्यावरण (परि+आवरण) शब्द का शाब्दिक अर्थ है हमारे चारों ओर का घेरा अर्थात हमारे चारों ओर का वातावरण जिसमें सभी जीवित प्राणी रहते हैं और अन्योन क्रिया करते हैं। पर्यावरण का अंग्रेजी शब्द एनवॉयरमेंट है जो फ्रेंच भाषा के शब्द एनवॉयरनर से बना है, जिसका अर्थ है ‘घेरना।’ अतः पर्यावरण के अन्तर्गत किसी जीव के चारों ओर उपस्थित जैविक तथा अजैविक पदार्थों को सम्मिलित किया जाता है।

पारिस्थितिकी पर्यावरण अध्ययन का वह भाग है जिसमे हम जीवो, पौधो और जन्तुओं और उनके संबंधो या अन्य जीवित या गैर जीवित पर्यावरण पर परस्पराधीनता के बारे मे अध्ययन करते है ।

पारिस्थितिकी दो शब्दों से मिल कर बना है जो ग्रीक शब्द “ Oekologue” से लिया गया है:

(a) ‘Oekos’ का अर्थ घेराव/ आस पास का क्षेत्र

(b) ‘Logs’ का अर्थ एक पूरे पारिस्थितिकी पर अध्ययन मतलब ‘घेराव /आस पास का अध्ययन’
पारस्थितिक अध्ययन मे शामिल है:

  1. यह वातावरण मे ऊर्जा और पदार्थो के प्रवाह के अध्ययन से संबन्धित है।
  2. यह प्रकृति के अध्ययन और इसके क्रियाकलाप से संबन्धित है।
  3. यह पर्यावरण के जैविक और अजैविक घटको के बीच विभिन्न पदार्थों के आदान प्रदान से संबन्धित है। उदाहरण: भू जैव रासायनिक चक्र।

“पारिस्थितिकी” शब्द (“Okologie”) का आविष्कार जर्मन वैज्ञानिक अर्नस्ट हैकेल (1834-1919) ने 1866 मे किया। पारिस्थितिक सोच दर्शन मे स्थित धाराओं, विशेष रूप से नैतिकता और राजनीति के व्युत्पन्न है। अरस्तू और हिप्पोक्रेट जैसे प्राचीन यूनानी दार्शनिकों ने अपने प्राकृतिक इतिहास पर अध्ययन मे पारस्थितिकी की नीव रखी। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत मे आधुनिक पारिस्थितिकी और अधिक सख्त विज्ञान बन गया।  अनुकूलन और प्राकृतिक चयन से संबन्धित विकासवादी अवधारणाएं आधुनिक पारिस्थितिकी सिद्धान्त की आधारशिला बन गयी।

पारिस्थितिकी पर्यावरण अध्ययन का वह भाग है जिसमे हम जीवो, पौधो और जन्तुओं और उनके संबंधो या अन्य जीवित या गैर जीवित पर्यावरण पर परस्पराधीनता के बारे मे अध्ययन करते है । पारिस्थितिकी को जीव विज्ञान की शाखा के रूप मे परिभाषित किया जा सकता है जो जीवो के एक दूसरे के साथ संबंधो और उनके भौतिक परिवेशो की चर्चा / व्याख्या करता है। इसे जीवो के मध्य अन्तः क्रिया और उनके परिवेश के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप मे भी परिभाषित किया जा सकता है। पारिस्थितिकी शब्द का वास्तविक अर्थ “घर का अध्ययन” है। पारिस्थितिकी एक बहुआयामी विज्ञान है एवं विज्ञान की अन्य शाखाओ जैसे भूगोल, भूविज्ञान, मौसम विज्ञान, भूतत्व, भौतिकी और रसायन विज्ञान के साथ इसका संबंध है।

विज्ञान की अन्य शाखाओ के साथ यह अंतर-संबंध इसे विज्ञान का एक सबसे महत्वपूर्ण शाखा बनाता है।

पारिस्थितिकी जीवन के सभी पहलुओं, छोटे जीवाणुओं से लेकर पूरे ग्रह के विस्तार की प्रक्रियाओं तक, के बारे मे चर्चा करती है। पारिस्थिति विज्ञानिओ के अध्ययन के अनुसार प्रजातियों मे परभक्षण और परागण जैसे अनेक असमानताये और जटिल संबंध पाये जाते है।  जीवन की विविधता स्थलीय (मध्य) से लेकर जलीय परिस्थितिकी प्रणालियों तक अलग अलग निवासों मे सुनियोजित है।

पारिस्थितिकी वातावरण, पर्यावरणवाद, प्राकृतिक इतिहास या पर्यावरण विज्ञान का पर्याय नहीं है। इसका विकसवादी जीव विज्ञान, आनुवंशिकी और आचार विज्ञान से घनिष्ठ संबंध है।

साथ ही साथ पारिस्थितिकी एक मानव विज्ञान भी है। जीव संरक्षण पारिस्थितिकी के  कई व्यावहारिक उपयोग है। संरक्षण जीव विज्ञान, आद्रभूमि प्रबंधन, प्राकृतिक संसाधन (कृषि पारिस्थितिकी, कृषि, वानिकी, कृषि वानिकी, मत्स्य पालन), नगर नियोजन (शहरी पारिस्थितिकी), सामुदायिक स्वास्थ्य, अर्थशास्त्र, बुनियादी और अनुप्रयुक्त विज्ञान, और मानव सामाजिक संपर्क (मानव पारिस्थिकी) में पारिस्थितिकी के कई व्यावहारिक उपयोग है।

उदाहरण के तौर पर, स्थिरता दृष्टिकोण का चक्र पर्यावरण की तुलना मे पारिस्थितिकी को अधिक मानते है। इसे मानवों से अलग नहीं समझा जाता है। जीव (मानव सहित) और पारिस्थितिक तंत्र रचना के संसाधनों के परिणाम स्वरूप, जैव भौतिकी प्रतिक्रिया तंत्र को व्यवस्थित बनाए रखने के लिए जो ग्रह के जैविक और अजैविक घटको पर किए गए प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। पारिस्थितिक तंत्र जीवन के समर्थक कार्यो को बनाए रखता है, और बायोमास उत्पाद (खाद्य, ईंधन, फाइबर, और औषधि), जलवायु नियंत्रण, वैश्विक भू-जैव रसायनिक चक्र, पानी का छनना, मृदा निर्माण, कटाव नियंत्रण, बाढ़ सुरक्षा और वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, आर्थिक या आंतरिक मूल्य के कई अन्य प्राकृतिक विशेषताओ, जैसे प्राकृतिक पूंजी का उत्पादन करता है।

 

3. पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर शब्दावली (जार्गन)

विभिन्न प्रकार की शब्दावली (जार्गन) जो पर्यावरण और पारिस्थितिकी में उपयोग की जाती है, का वर्णन इस प्रकार है:

छत्र या मंडप (Canopy)

शाखाओं से आच्छादित और वृक्ष के अग्रभाग से पत्तों का गठन को कहते है

मंडप घनिष्ठता (Canopy Density)

वृक्ष के मंडप से आच्छादित भूमि का प्रतिशत क्षेत्र, यह एक दशमलव गुणांक के रूप में व्यक्त किया जाता है और मंडप को एकता के रूप में किनारे करता है।

मानचित्र कला संबंधी सीमा (Cartographic Limit)

एक विशेष आकृति (फीचर) का न्यूनतम क्षेत्र जिसे दिये गये पैमाने पर एक मानचित्र में प्रस्तुत किया जा सकता है।

बदलाव वाला सांचा (Change Matrix)

एक दिये गये क्षेत्र के लिए वन आच्छादित श्रेणियों में यह परिवर्तन होता है। इस अवधि के दौरान एक-दूसरे वर्ग से क्षेत्र परिवर्तन दिखा कर एक मैट्रिक्स का लगातार दो बार मूल्यांकन होता है।

शीर्ष क्षेत्र (Crown Area )

यह जमीन पर एक पेड़ की शीर्ष क्षैतिज प्रक्षेपण वाला क्षेत्र है।

कृषि योग्य गैर वन क्षेत्र (Culturable Non Forest Area (CNFA)

यह शुद्ध भौगोलिक क्षेत्र है, इसका बाहरी आवरण वनों से आच्छादित होता है जो पेड़ वनस्पति का समर्थन कर सकते हैं (इस प्रकार, झीलों के अधीन क्षेत्रों को छोड़कर, नदी के किनारों, बारहमासी बर्फ से ढके पहाड़ आदि)। सीएनएफए वह क्षेत्र है जहां वृक्ष आच्छादित डेटा का संग्रहण पेड़ों के आकलन के लिए किया जाता है।

डिजिटल इमेज प्रोसेसिंग (Digital Image Processing (DIP)

कंप्यूटर और डीआईपी सॉफ्टवेयर का उपयोग कर डिजिटल उपग्रह आंकड़ों की व्याख्या और वर्गीकरण।

एरर मैट्रिक्स (Error Matrix/Confusion matrix)

भाषातंरित उपग्रह आंकड़ों के वर्गीकरण की सटीकता का आकलन करने के लिए यह एक मात्रात्मक साधन है। इसके तहत संदर्भ डेटा (जमीनी हकीकत) की श्रेणी दर श्रेणी अनुमानित ढंग से चयनित स्थानों में वर्गीकरण के समान परिणाम के साथ तुलना की जाती है। इसे एक वर्ग मैट्रिक्स में प्रस्तुत किया जाता है।

कृत्रिम रंग मिश्रण)( False Color Composite)

लाल, हरे और नीले चैनलों पर उपग्रहीय डेटा के किसी भी तीन वर्णक्रमीय समूहों द्वारा उत्पन्न तस्वीर वास्तविक रंग में आकृति (फीचर) को प्रदर्शित नहीं करती है।

कृषिक्षेत्र वानिकी (Farm Forestry)

कृषि भूमि पर के संविदा खंडों की खेती औऱ प्रबंधन का अभ्यास।

वन क्षेत्र (Forest Area)

सरकार के रिकॉर्ड में एक जंगल के रूप में दर्ज क्षेत्र। इसे “दर्ज किया गया वन क्षेत्र” के रूप में भी जाना जाता है।

वन आवरण (Forest Cover)

दस प्रतिशत का एक छत्र पेड़ों के घनत्व के साथ या अधिक ध्यान दिये बगैर स्वामित्व के साथ सभी प्रकार की भूमि, एक हेक्टेयर से ज्यादा का क्षेत्र और कानूनी स्थिति। इस प्रकार की भूमि को जंगली क्षेत्र के डेटा में दर्ज कराना जरूरी नही है। इसमें बगीचे, बांस और खजूर भी शामिल हैं।

वन सूची (Forest Inventory)

जंगलों के बढ़ते हुए भंडार और अन्य विशेषताओं के लिए जंगलों के कुछ मानदंडों का परिमाण। जंगलों के कुछ मानदंडों के माप से बढ़ रहा है भंडारण और जंगलों की अन्य विशेषताओं का आकलन करने के लिए।

भौगोलिक सूचना प्रणाली (Geographic Information System (GIS)

अभिग्रहण, भंडारण, जोड़ तोड़, विश्लेषण और डेटा प्रदर्शित करने की एक कम्प्यूटर आधारित प्रणाली जो स्थानिक दृष्टि से पृथ्वी को संदर्भित करती है।

ग्रीन वॉश (Green Wash)

जंगली क्षेत्रों की सीमा तक आम तौर पर एसओआई की शीर्ष परत हल्के हरे रंग में दिखती है।

प्रगतिशील भंडार (Growing Stock)

पर्वतीय क्षेत्र और पश्चिमी घाट विकास कार्यक्रम के लिए योजना आयोग द्वारा अपनाए गये मानदंडों के आधार पर “पर्वतीय तालुकाओं” के तहत 50 प्रतिशत से अधिक अपने भौगोलिक क्षेत्र के साथ एक जिला।

भूमि का आवरण (Land Cover)

उपग्रह आंकड़ों से व्यापक भूमि उपयोग के वर्ग की व्याख्या। इसमें बहुत ही घने जंगल, मध्यम घने जंगल, खुले वन, साफ़ वन और इस रिपोर्ट के प्रायोजन के लिए गैर वन शामिल हैं।

वनस्पतियां (मैन्ग्रोव)

नमक सहनीय सदाबहार वनीय पारिस्थितिकी तंत्र मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय और उप उष्णकटिबंधीय तटीय और / अंतर-ज्वारीय क्षेत्रों में पाये जाते हैं।

सदाबहार आवरण (मैन्ग्रोव क्षेत्र)

रिमोट सेंसिंग डाटा की व्याख्यानुसार सदाबहार वनस्पति के तहत आच्छादित। यह वन क्षेत्रों में शामिल है। जल निकाय और खाड़िया सदाबाहर आवरण में शामिल नहीं है।

मामूली घने जंगल (Moderately Dense Forest)

40 प्रतिशत या उससे अधिक और 70 प्रतिशत से कम के वन आवरण के एक क्षेत्र को  मामूली रूप से  घने जंगल कहा जाता है

जंगल क्षेत्र में शुद्ध परिवर्तन (Net Change in Forest Cover)

एक दिए गए क्षेत्र के लिए दो आकलन की अवधि में वन क्षेत्र में सकारात्मक और नकारात्मक परिवर्तन का योग।

खुले जंगल (Open Forest)

10 प्रतिशत या उससे अधिक और 40 प्रतिशत से कम के साथ वन आवरण के एक छत्र घनत्व की सभी भूमियों को कहा जाता है।

संरक्षित वन (Protected Forest (PF)

भारतीय वन अधिनियम या अन्य राज्यों के वन अधिनियम के प्रावधानों के अधीन अधिसूचित क्षेत्रों के पास सुरक्षा की सीमित सीमा होती है। कुछ रुकावटों के अलावा संरक्षित वन में सभी गतिविधियों की अनुमति होती है।

भौगोलिक क्षेत्र (Physiographic Zone)

एक भौगोलिक क्षेत्र उन भौगोलिक क्षेत्रों का गठन करता है जहा पेड़ वनस्पति के विकास के लिए जिम्मेदार कारकों में व्यापक समानता दिखती है। भौगोलिक क्षेत्रों देश में पेड़ आच्छादन का आकलन करने के लिए तबके के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं।

दर्ज किये गए वन क्षेत्र  Recorded Forest Area (RFA)

एक ही “वन क्षेत्र’ के रूप में यानी भौगोलिक क्षेत्र सरकार के रिकॉर्ड में वनों के रूप में दर्ज किया जाता है।

आरक्षित वन (आरएफ) Protected Forest (PF)

भारतीय वन अधिनियम या अन्य राज्यों के वन अधिनियम के प्रावधानों के अधीन अधिसूचित क्षेत्रों के पास सुरक्षा की सीमित सीमा होती है। निषिद्ध के अलावा संरक्षित वन में सभी गतिविधियों की अनुमति होती है।

स्क्रब (सफ़ाई)

अवक्रमित वन भूमि में 10 प्रतिशत से कम छत्र घनत्व कम होता है।

स्थानिक संकल्प (Spatial Resolution)

पृथ्वी की सतह पर न्यूनतम क्षेत्र जिसे उपग्रह संवेदक द्वारा कब्जा किया जा सकता है।

वर्णक्रमीय संकल्प (Spectral Resolution)

तरंग लंबाई की सीमा जिससे एक उपग्रह की छवि (इमेजिंग) प्रणाली का पता लगा सकते हैं। यह चौड़ाई और वर्णक्रम बंधन की संख्या को दर्शाता है। वर्णक्रमीय बंधन, अधिक से अधिक संकरे बंधन।

विषयगत नक्शे (Thematic Maps)

मानचित्र, आम तौर पर 1:50,000 के पैमाने पर वनों के प्रकार, प्रमुख प्रजातियों की रचना, छत्र घनत्व और अन्य भूमि के उस प्रयोग को दिखाता है जो हवाई तस्वीरों की व्याख्या का प्रयोग करके तथा जमीनी हकीकत द्वारा सत्यापित किया जाता है

वृक्ष

एक बड़े जंगली बारहमासी पौधे में एक सुपरिभाषित तना (बोले या ट्रंक) और न्यूनतम या अधिकतम सिरे होते हैं। इसमें बांस, ताड, फलों के पेड़ आदि भी शामिल हैं, और केले और लंबी झाड़ियां या बेल जैसे गैर बारहमासी, गैर जंगली प्रजातियां शामिल नहीं है। भंडार के बढ़ने और पेड़ों के आवरण का आकलन करने हेतु प्रयोजन के लिए केवल इन पेड़ों में 10 सेमी या उससे अधिक की आंचल ऊंचाई (DBH) से मापा जाता है।

जंगलों के बाहर वृक्ष (Trees Outside Forests (TOF)

मापे गये क्षेत्र के बाहर उगने वाले वृक्षों को जंगली क्षेत्र में दर्ज किया जाता है।

जनजातीय जिलों में (Tribal Districts)

जनजातीय उप-योजना (भारत सरकार) के तहत आदिवासी जिलों के रूप में चिह्नित जिले।

अवर्गीकृत वन (Unclassed Forests)

एक क्षेत्र जो जंगल के रूप में दर्ज है, लेकिन सुरक्षित या संरक्षित वन की श्रेणी में शामिल नहीं है। इस तरह के जंगलों की स्वामित्व स्थिति से एक से दूसरे राज्य में बदल जाती है।

बहुत घने वन (Very Dense Forest)

वन क्षेत्र में 70 प्रतिशत और उससे अधिक की एकछत्र घनत्व वाली भूमि।

दृश्य व्याख्या (Visual Interpretation)

सामान्य रूप से आवर्धक कांच और प्रकाश तालिका का उपयोग करके उपग्रह डेटा व्याख्या की एक मैनुअल विधि

 

4. पर्यावरण के अर्थ

पर्यावरण को वातावरण या स्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें एक व्यक्ति, जीव, या पौधे रहते हैं या कार्य करते हैं | “पर्यावरण” शब्द भौतिक और जैविक दुनिया के सभी तत्वों, साथ ही इन सबके बीच के सम्बन्धों को दर्शाता है। यह मनुष्य के जीवन चक्र में पूर्व प्रख्यात भूमिका निभाता है क्योंकि मानव जीवन पर्यावरण पर अत्यधिक निर्भर है| पर्यावरण के पास पर्यावरण उत्पादक मूल्य, सौंदर्यबोध / मनोरंजन मूल्य है;जिसे बाद में  “पर्यावरण हमारे लिए क्या करता है” के अनुच्छेद के तहत समझाया गया है।

पर्यावरण उन स्थितियों का महायोग है जो हमें निश्चित समय और स्थान के आसपास घेरे हुए है | यह भौतिक, जैविक और सांस्कृतिक तत्वों की संपर्क प्रणाली से बना हुआ है जो कि आपस में व्यक्तिगत और सामूहिक रूप दोनों प्रकार से आपस में जुड़े हैं। पर्यावरण स्थितियों का कुल योग है जिसमे एक जीव को  जीवित रहना पड़ता है या जीवन प्रक्रिया को बनाए रखना होता है|  यह जीवित जीव की वृद्धि और विकास को प्रभावित करता है।

अन्य शब्दों में पर्यावरण उस परिवेश को दर्शाता है जो कि सजीवों को सभी तरफ से घेरे रहता है व उनके जीवन को प्रभावित करता है | यह वायुमंडल, जलमंडल, स्थलमंडल और जीवमंडल से बना होता है। इसके प्रमुख घटक मिट्टी, पानी, हवा, जीव और सौर ऊर्जा हैं। पर्यावरण ने एक आरामदायक जीवन जीने के लिए हमें सभी संसाधन प्रदान किए हैं ।

इस प्रकार, पर्यावरण का संदर्भ किसी भी चीज़ से है जोकि वस्तु के एकदम आस-पास है और उस पर सीधा प्रभाव डालती है |हमारा पर्यावरण उन चीजों या साधनों को दिखाता है जो हमसे भिन्न हैं और हमारे दैनिक जीवन या गतिविधि को प्रभावित करते हैं |

पर्यावरण के घटक:

पर्यावरण मुख्य रूप से वायुमंडल, जलमंडल, स्थलमंडल और जीवमंडल से बना होता है। लेकिन इन्हें साधारणतया दो प्रकार से विभजित किया जा सकता है जैसे की – सूक्ष्म पर्यावरणमैक्रो वातावरण | इसे दो अन्य प्रकार में विभाजित किया जा सकता है,शारीरिक और जैविक वातावरण के रूप में, जो नीचे चर्चा की गई है|

  • सूक्ष्म पर्यावरणका अर्थ है जीव का निकटतम स्थानीय वातावरण |
  • मैक्रो पर्यावरणका अर्थ है चारों ओर की सभी भौतिक और जैविक परिस्थितियों जो जीवों के आसपास बाह्य रूप से होते हैं |
  • भौतिक वातावरणसभी अजैविक कारकों या स्थितियों को दर्शाता है जैसे तापमान, प्रकाश, वर्षा, मिट्टी, खनिज आदि| यह वायुमंडल, स्थलमंडल और जलमंडल से बना होता है |
  • जैविक पर्यावरणमें सभी जैविक कारक या जीवित रूपों से बना होता है जैसे पौधे, जीव, सूक्ष्म जीव

पर्यावरण हमारे लिए क्या करता है?

  • प्रकृति के उत्पादक मूल्य:कच्चा माल जो की प्रयोग किया जाता है
  1. नई दवाओं के विकास के लिए
  2. औद्योगिक उत्पादों और

III. पर्यावरण हमारे लिए कच्चे पदार्थों का एक भंडार हैं जिनसे भविष्य में हजारों नए उत्पादों विकसित किए जा सकें|

सौन्दर्य और मनोरंजन का साधन: पर्यावरण हमारी सौंदर्य और मनोरंजन  जैसी जरूरतों का भी पूरा ख्याल रखता है इसके कई उदहारण हमारे दैनिक जीवन में मिलते रहते हैं |

• प्रकृति की विकल्प मान्यता : यदि  हम हमारे सभी संसाधनों का उपयोग कर लेते हैं सभी जीवों को मर देते हैं या वे पृथ्वी से विलुप्त हो जाते हैं, हवा प्रदूषित हो जाती है, भूमि बंजर हो जाती हैं, तथा पृथ्वी के हर कोने पर कूड़ा कचरा इकठ्ठा कर लेते हैं तो इतना तो तय है कि हम आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ भी रहने लायक नहीं छोड़ रहे हैं|

हमारी वर्तमान पीढ़ी ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं और जीवनशैली को जीवन की अव्यावहारिक पद्धति पर विकसित कर लिया है। हालांकि, प्रकृति ने हमें कई विकल्प प्रदान किए हैं कि किस तरह हम इन वस्तुओं व सेवाओं का उपयोग कर सकते हैं। अब यदि जल्दी ही हम लोगों ने अपनी जरूरतों को काबू में नहीं किया तो आने वाले समय में इसके भयानक परिणाम सबको भुगतने होंगे|

5. पारिस्थितिकी तंत्र के अवयव या घटक

एक पारिस्थितिकी तंत्र जिसमें एक दिए गए क्षेत्र में रहने वाली सभी वस्तुएं (पौधेजानवर और जीव) शामिल रहती हैं तथा एक दूसरे के साथ मिलकर निर्जीव वातावरण (मौसम,पृथ्वीसूर्यमिट्टीजलवायुवातावरण) को प्रभावित करती हैं।

पारिस्थितिकी प्रणालियों के अध्ययन में मुख्य रूप से कुछ प्रक्रियाओं का अध्ययन शामिल होता है जो सजीवया जैविकनिर्जीव घटकोंया अजैव घटकों को जोड़ता है। ऊर्जा परिवर्तन और जैव-भू-रासायनिक चक्र वे मुख्य प्रक्रियाएं हैं जो पारिस्थितिकी तंत्र पर्यावरण के क्षेत्र में शामिल हैं। जैसा कि हमने पहले भी सीखा है कि पारिस्थितिकी को आम तौर पर जीवों का पर्यावरण के साथ एक दूसरे को प्रभावित करने के रूप में परिभाषित किया जाता है। हम व्यक्तिगतजनसंख्यासमुदायऔर पारिस्थितिकी तंत्र के स्तर पर पारिस्थितिकी का अध्ययन कर सकते हैं।

“अजैविक” और “जैविक” शीर्षकों के तहत क्रमित कर हम एक पारिस्थितिकी तंत्र के कुछ हिस्सों को स्पष्ट कर सकते हैं।

अजैविक घटक जैविक घटक
सूरज की रोशनी प्राथमिक उत्पादक
तापमान शाकाहारी
वर्षा मांसाहारी
पानी या नमी सर्वाहारी
मिट्टी या जल रसायन (जैसे, पी, NH4 +) डिट्राईटीवॉर्स
आदि. आदि.

जैविक समुदायों में शामिल सामान्य “कार्यात्मक समूह” ऊपर दिखाये गये हैं। एक कार्यात्मक समूह, जीवों से बनी एक जैविक श्रेणी है जो व्यवस्था में ज्यादातर एक ही तरह का कार्य करती हैं; उदाहरण के लिए, एक कार्यात्मक समूह के सभी संश्लेषक पौधे या प्राथमिक उत्पादक। कार्यात्मक समूह में सदस्यता वास्तविक खिलाड़ियों (प्रजाति) पर ज्यादा निर्भर नहीं करती बल्कि केवल पारिस्थितिकी तंत्र में कार्य करने वालों पर निर्भर करती है।

पारिस्थितिकी तंत्र की संरचना:

संरचनात्मक पहलू

वह घटकजो एक पारिस्थितिकी तंत्र के संरचनात्मक पहलुओं को बनाने में शामिल होते हैं:

1) अकार्बनिक पहलू – C, N, CO2, H2O.

2) कार्बनिक यौगिक – प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, और लिपिड – लिंक अजैविक से जैविक पहलू।

3) जलवायु व्यवस्थाएं – तापमान, नमी, प्रकाश और स्थलाकृति।

4) निर्माता – पौधे।

5) दीर्घ उपभोक्ता – फागोट्रोप्स – बड़े जानवर।

6) लघु उपभोक्ता – मृतजीवी अवशोषक – कवक।

पारिस्थितिक तंत्र के प्रकार

 

उत्पादक, उपभोक्ता और संग्रहणकर्ता

प्रत्येक सजीव किसी न किसी तरह से अन्य जीवों पर निर्भर रहता है। पौधे शाकाहारी जानवरों का भोजन हैं, जो खुद मांसाहारी जानवरों के लिए भोजन हैं। इस प्रकार पारिस्थितिकी तंत्र में विभिन्न स्तर हैं।

पौधे पारिस्थितिकी तंत्र में ‘ प्राथमिक उत्पादक’ होते हैं जैसे वे सूर्य से ऊर्जा का प्राप्त करके अपने भोजन का निर्माण करते हैं। जंगलों में यह पौधों के जीवन समुदाय का निर्माण करते हैं। समुद्र में ये बड़े समुद्री शैवालों से छोटे शैवालों में शामिल हो जाते हैं।

 

शाकाहारी जानवर प्राथमिक उपभोक्ता हैं वे उत्पादकों पर निर्भर रहते हैं। एक जंगल में यह कीड़े, एम्फिबिया, सरीसृप, पक्षियों और स्तनधारी हैं। शाकाहारी जानवरों के उदाहरण में खरगोश, हिरण और हाथी शामिल है जो पौधे के जीवन पर निर्भर रहते हैं। घास के मैदानों में कृष्णमृग जैसे शाकाहारी जानवर दिख सकते हैं। अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में, चिंकारा या भारतीय चिकारे जैसी प्रजातियां होती हैं।

एक उच्च उष्णकंटिबंधीय स्तर पर मांसाहारी पशु, या माध्यमिक उपभोक्ता शाकाहारी जानवरों पर निर्भर रहते हैं। हमारे जंगलों में, मांसाहारी जानवर बाघ, तेंदुए, सियार, लोमड़ी और छोटी जंगली बिल्लियां होती हैं।

अपघटक या डेट्रीटीवोर्स उन जीवों का एक समूह हैं जो कीड़ों, कीटों, जीवाणुओं और कवकों जैसे छोटे जानवरों से मिलकर बनते हैं। यह मृत कार्बनिक पदार्थों का छोटे कणों में विभाजन करते हैं और अंत सरल पदार्थों में बदल जाते हैं जिसका पौधों द्वारा पोषण के रूप में उपयोग किया जाता है।

इस प्रकार अपघटन प्रकृति का एक महत्वपूर्ण कार्य है इस के बिना सभी पोषक खत्म हो सकते हैं और किसी भी नये जीवन का उत्पादन नहीं किया जा सकता।

 

  1. पृथ्वी के वायुमण्डल की संरचना संगठन

पृथ्वी के चारों ओर व्याप्त गैसीय आवरण को वायुमण्डल कहा जाता है, जो पृथ्वी के गुरुत्वीय बल के कारण पृथ्वी के साथ संलग्न है यह सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी किरणों के अवशोषण और ग्रीनहाउस प्रभाव द्वारा दिन व रात के धरातलीय तापमान को संतुलित रखकर पृथ्वी पर जीवन की रक्षा करता है |

वायुमंडल का संघटन

वायुमण्डल का संघटन निम्न तत्वों से मिलकर बनता है-

  • गैस
  • जलवाष्प
  • धूलकण

वायुमण्डल में 78% नाइट्रोजन, 21%ऑक्सीजन, 0.93% आर्गन, 0.03% कार्बन डाई ऑक्साइड तथा अल्प मात्रा में हाइड्रोजन, हीलियम, ओज़ोन, निऑन, जेनान आदि गैसें उपस्थित रहती हैं।

वायुमण्डल में जलवाष्प की मात्रा 3% से 5% तक होती है, जिसकी प्राप्ति मुख्य रूप से महासागरों, जलाशयों आदि के वाष्पीकरण से होती है। जलवाष्प की मात्रा भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर घटती जाती है। जल वाष्प के कारण ही बादल, कोहरा, पाला, वर्षा, ओस, हिम, ओला, हिमपात होता है। वायुमण्डल में ओजोन परत सूर्य से आने वाली मानव जीवन के लिए हानिकारक पराबैंगनी किरणों की 93-99% मात्रा को अवशोषित कर पृथ्वी सतह तक आने से रोक लेती है | ओजोन की परत की खोज 1913 में फ़्राँस के भौतिकविज्ञानी फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी।

वायुमंडल में धूल कण, खनिज कण, परागकण,ज्वालामुखी राख आदि के कण भी पाये जाते हैं | इन्हें ‘ऐरोसोल’ भी कहा जाता है और इनके अभाव में बादलों का निर्माण नहीं हो सकता है, क्योंकि इन्हीं के सहारे जलवाष्प एकत्र होती है | इसीलिए इन्हें ‘आर्द्रताग्राही नाभिक’ भी कहा जाता है |

पृथ्वी के वायुमण्डल की संरचना

पृथ्वी के वायुमण्डल को पृथ्वी की सतह से लेकर उसके ऊपरी स्तर तक निम्नलिखित पाँच स्तरों में बाँटा गया है-

  • क्षोभमण्डल (Troposphere)
  • समतापमण्डल (Stratosphere)
  • मध्यमण्डल (Mesosphere)
  • तापमण्डल (Thermosphere)
  • बाह्यमण्डल (Exosphere)

क्षोभमण्डल

  • यह वायुमण्डल की सबसे निचली परत है,जिसकी ऊँचाई ध्रुवों पर लगभग 8 किमी. और भूमध्यरेखा पर लगभग 18 किमी. होती है
  • सभी वायुमंडलीय या मौसमी घटनाएँ इसी मण्डल में घटित होती हैं
  • सम्पूर्ण वायुमण्डल का 80% द्रव्यमान इसी मण्डल में उपस्थित है|वायुमंडल का लगभग 50% द्रव्यमान तो6 किमी. की ऊँचाई तक ही मिलता है, जो मुख्यतः नाइट्रोजनऑक्सीजन और कुछ अन्य गैसों से मिलकर बना है
  • वायुमंडल की लगभग सम्पूर्ण जलवाष्प क्षोभमंडल में ही पायी जाती है,इसी कारण यहाँ मौसमी घटनाएँ होती हैं |
  • क्षोभमंडल में नीचे से ऊपर जाने पर50C/किमी. की दर से तापमान घटता जाता है|
  • इसकी सबसे ऊपरी सीमा क्षोभमण्डल सीमा(Tropopause) कहलाती है |

समतापमण्डल

  • यह वायुमण्डल की दूसरी सबसे निचली परत है,जिसकी ऊँचाई लगभग 12 से 50 किमी. होती है |
  • ओज़ोन परत इसी मण्डल की ऊपरी सीमा पर पायी जाती है, जो पराबैंगनी किरणों का अवशोषण करती है |
  • समतापमण्डल में तापमान लगभग समान रहता है लेकिन ऊँचाई बढ़ने के साथ इसका ताप बढ़ने लगता है,जिसका कारण पराबैंगनी किरणों का ओज़ोन परत द्वारा अवशोषण है |
  • वायुमण्डलीय या मौसमी घटनाएँ इस मण्डल में घटित नहीं होती हैं|
  • इसकी सबसे ऊपरी सीमा समताप सीमा (Stratopause)कहलाती है |
  • वायुयान की उड़ान हेतु यह मण्डल सर्वाधिक उपयुक्त होता है |

मध्यमण्डल

  • यह वायुमण्डल की तीसरी सबसे निचली और समतापमण्डल के ऊपर स्थित परत है,जिसकी ऊँचाई लगभग 50 से 80 किमी. होती है|
  • क्षोभमण्डल में नीचे से ऊपर जाने पर से तापमान घटता जाता है|
  • मध्यमण्डल की सबसे ऊपरी सीमा पृथ्वी का सबसे ठंडा स्थान है, जहाँ का औसत तापमान लगभग −85°C होता है |
  • अन्तरिक्ष से पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करने वाले लगभग सभी उल्कापिंड इस परत आकर जल जाते हैं |

तापमण्डल

  • यह मध्यमण्डल के ऊपर स्थित परत है,जिसकी ऊँचाई लगभग 80 से 700 किमी. होती है |
  • तापमण्डल में नीचे से ऊपर जाने पर से तापमान बढ़ता जाता है|
  • इसकी सबसे ऊपरी सीमा तापसीमा (Thermopause)कहलाती है |
  • तापमंडल की निचली परत (80 – 550 किमी.)आयनमण्डल कहलाती है क्योंकि यह परत सौर्यिक विकिरण द्वारा आयनीकृत (Ionized) हो जाती है | आयनमंडल पूरी तरह से बादल व जलवाष्प विहीन परत है | आयनमंडल से ही रेडियो तरंगें परावर्तित होकर वापस पृथ्वी की ओर लौटती हैं और रेडियो,टेलीवीजन आदि के संचार को संभव बनाती हैं | संचार उपग्रह इसी मण्डल में स्थित होते हैं |
  • उत्तरी ध्रुवीय प्रकाश (aurora borealis) तथा दक्षिणी ध्रुवीय प्रकाश (aurora australis) की घटनाएँ तापमण्डल में ही घटित होती हैं |

बाह्यमण्डल

  • यह तापमण्डल के ऊपर स्थित परत है,जिसकी ऊँचाई लगभग 700 से 10,000 किमी. तक होती है |
  • यह वायु मण्डल की सबसे बाहरी परत है,जो अंततः अन्तरिक्ष में जाकर मिल जाती है|
  • बाह्यमण्डल में हाइड्रोजन व हीलियम गैस की प्रधानता होती है|

 

7. ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन : कारण और परिणाम

कोई भी गैस जो सूर्य से आने वाले लघुतरंगीय विकिरण को तो पृथ्वी पर आने देती है, लेकिन पृथ्वी से वापस जाने वाले दीर्घतरंगीय विकिरण को अवशोषित कर पृथ्वी के

तापमान को बढ़ा देती है, ग्रीनहाउस गैस कहलाती है | वर्तमान में मानवीय कारणों से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती मात्रा वैश्विक तापन व जलवायु परिवर्तन का कारण बन गयी है | इनकी मात्रा को अगर नियंत्रित न किया गया तो यह मानव के साथ साथ सम्पूर्ण जीव-जगत के लिए घातक साबित होंगी|

ग्रीनहाउस प्रभाव

पृथ्वी के वायुमंडल में उपस्थित ग्रीनहाउस गैसों के कारण पृथ्वी से उत्सर्जित होने वाले ताप के अवशोषण और वायुमंडलीय तापमान में वृद्धि की घटना को ग्रीनहाउस प्रभाव कहते हैं |वास्तव में ग्रीनहाउस प्रभाव की घटना के कारण ही पृथ्वी पर तापमान नियंत्रित रहता है और पौधों आदि को उनकी वृद्धि के लिए आवश्यक ताप की प्राप्ति हो पाती है |

ग्रीनहाउस गैसें

वातावरण में प्रकृतिक रूप से पायी जाने वाली ग्रीनहाउस गैसें (GHG) निम्नलिखित हैं:

  • कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2)(सबसे प्रमुख ग्रीनहाउस गैस)
  • मीथेन (CH4)
  • जल वाष्प
  • नाइट्रस ऑक्साइड (N2O)
  • फ्लुओरीनीकृत गैसें

मानव द्वारा निर्मित या संश्लेषित ग्रीन हाउस गैसें निम्नलिखित हैं :

  • क्लोरोफ़्लोरोकार्बन (CFCs)
  • हाइड्रो फ़्लोरोकार्बन (HFCs)
  • पर फ़्लोरोकार्बन’ (PFCs)
  • सल्फर हेक्साक्लोराइड (SF6)

वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि के कारण

ग्रीनहाउस गैसों का पृथ्वी के वायुमण्डल पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है, क्योंकि ये गैसें पृथ्वी के लिए कंबल का कार्य करती हैं| यदि ये गैसें उपस्थित न हों और ये ताप का अवशोषण न करें तो पृथ्वी एक ठंडे ग्रह में बादल जाएगी और मानव जीवन अपने वर्तमान स्वरूप में नहीं रह पाएगा | अतः ग्रीनहाउस गैसें हमेशा से वायुमंडल में उपस्थित रही हैं और हमेशा से ग्रीनहाउस प्रभाव द्वारा पृथ्वी के एक निश्चित तापमान को बनाए रखा है | प्राकृतिक रूप से पायी जाने वाली ग्रीनहाउस गैसें पृथ्वी के तापमान को एकाएक नहीं बदलती हैं|

लेकिन 19वीं व 20वीं सदी में मानवीय गतिविधियों से उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा के वायुमंडल में मिलने से वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि होती गयी | इसका परिणाम वैश्विक तापन (Global Warming) व अन्य जलवायविक परिवर्तनों के रूप में वर्तमान में उपस्थित है | वैश्विक तापन से तात्पर्य पृथ्वी के दीर्घकालिक औसत तापमान में वृद्धि होना है |

ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं :

  • औद्योगिकीकरण
  • नगरीकरण
  • उपभोक्तावादी संस्कृति
  • वाहनों में जीवाश्म ईंधनों के जलने से उत्पन्न धुआँ
  • वनों का विनाश

ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के उपाय

ग्रीनहाउस गैसों  के उत्सर्जन को कम कर वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को नियंत्रित करना आज की आवश्यकता बन चुकी है, ताकि वैश्विक तापन के दुष्प्रभावों से बचा जा सके| ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के उपाय निम्नलिखित हैं :

  • नवीकरणीयव न्यून प्रदूषणकारी ऊर्जा स्रोतों का अधिक प्रयोग किया जाए
  • टेलीविज़न, रेफ्रीजरेटर, एयर-कंडीशनर आदि ग्रीनहाउस गैसों को उत्सर्जित करने वाली उपभोक्ता वस्तुओं का कम से कम प्रयोग किया जाए
  • वाहनों का कम प्रयोग किया जाए या फिर सीएनजी जैसे कम प्रदूषणकारी ईंधन का वाहनों में प्रयोग किया जाए
  • वनीकरण को बढ़ावा दिया जाए, क्योंकि वृक्ष कार्बन डाई ऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों को अवशोषित करते हैं
  • ऊर्जा का विवेकपूर्ण व सतत प्रयोग किया जाए
  • गहरे महासागरों में कार्बन डाई ऑक्साइड का निस्तारण (Disposal),जहाँ वे निम्न तापमान व उच्च दबाव में अर्ध-स्थायी यौगिकों में बदल जाती हैं |

 

8. वैश्विक तापन/ग्लोबल वार्मिंग के कारण और संभावित परिणाम कौन से हैं?

वर्तमान में मानवीय गतिविधियों के कारण उत्पन्न ग्रीनहाउस गैसों के प्रभावस्वरूप पृथ्वी के दीर्घकालिक औसत तापमान में हुई वृद्धि को वैश्विक तापन/ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है |ग्रीनहाउस गैसें पृथ्वी से बाहर जाने वाले ताप अर्थात दीर्घतरंगीय विकिरण को अवशोषित कर पृथ्वी के तापमान को बढ़ा देती हैं, इस प्रक्रिया को ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ कहते हैं | ग्रीन हाउस गैसों में मुख्यतः कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, ओज़ोन आदि गैसें शामिल हैं |

1880 से 2012 की अवधि के दौरान पृथ्वी के औसत सतही तापमान में 0.85°C  की वृद्धि दर्ज की गयी है |1906 से 2005 की अवधि के दौरान पृथ्वी के औसत सतही तापमान में 0.74±0.18°C की वृद्धि दर्ज की गयी है |

वैश्विक तापन के कारण

वैश्विक तापन का प्रमुख कारण मानवीय गतिविधियों के कारण वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि होना है | ग्रीनहाउस गैसों में मुख्य रूप से कार्बन डाई ऑक्साइड(CO2), मीथेन(CH4) , नाइट्रस ऑक्साइड(N2O), ओज़ोन (O3), क्लोरोफ़्लोरो कार्बन (CFCs) आदि गैसें शामिल हैं | किसी भी ग्रीनहाउस गैस का प्रभाव वातावरण में उसकी मात्रा में हुई वृद्धि, वातावरण में उसके रहने की अवधि और उसके द्वारा अवशोषित विकिरण के तरंगदैर्ध्य (Wavelength of Radiation) पर निर्भर करता है | ग्रीनहाउस गैसों में कार्बन डाई ऑक्साइड(CO2) वातावरण में सर्वाधिक मात्रा में उपस्थित है | ग्रीनहाउस गैसों उत्सर्जन मुख्यतः जीवाश्म ईंधनों के दहन, उद्योगों, मोटर वाहनों, धान के खेतों, पशुओं की चराई, रेफ्रीजरेटर, एयर-कंडीशनर  आदि से होता है |

हालाँकि वायुमंडल में सर्वाधिक मात्रा में पायी जाने वाली गैसें नाइट्रोजन, ऑक्सीज़न और ऑर्गन हैं, लेकिन ये ग्रीनहाउस गैसें नहीं हैं क्योंकि इनके अणु में एक ही तत्व के दो परमाणु शामिल हैं, जैसे-नाइट्रोजन (N2) ऑक्सीज़न (O2) या फिर एक ही तत्व का परमाणु इनके अणु में पाया जाता है ,जैसे- ऑर्गन (Ar) | जब ये वाइब्रेट (Vibrate ) होते हैं तो इनके इलैक्ट्रिक चार्ज के वितरण में कोई परिवर्तन नहीं आता है, अतः ये अवरक्त विकिरण (Infrared Radiation) से लगभग अप्रभावित रहते हैं |

जिन गैसों के अणुओं में अलग अलग तत्वों के दो परमाणु पाये जाते हैं, जैसे- कार्बन मोनो ऑक्साइड (CO) या हाइड्रोजन क्लोराइड (HCl)  वे अवरक्त विकिरण को अवशोषित तो करते हैं लेकिन अपनी विलेयता (Solubility) और अभिक्रियाशीलता (Reactivity ) के कारण वातावरण में बहुत कम समय तक ही रहते हैं |अतः ये भी ग्रीनहाउस प्रभाव में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं देते हैं, इसीलिए ग्रीनहाउस गैसों की चर्चा करते वक्त इन्हें छोड़ दिया जाता है  |

वैश्विक तापन के संभावित परिणाम

वैश्विक तापन के संभावित परिणाम निम्नलिखित हो सकते हैं-

  • ग्लेशियरों का पिघलना:ताप बढ़ने से ग्लेशियर पिघलने लगते हैं और उनका आकार कम होने लगता है और ग्लेशियर पीछे हटने लगते हैं |
  • समुद्री जलस्तर में वृद्धि: ग्लेशियरों के पिघलने से प्राप्त जल जब सागरों में मिलता है तो समुद्री जल स्तर में वृद्धि हो जाती है
  • नदियों में बाढ़:ग्लेशियरों से कई बारहमासी नदियां निकलती है और ग्लेशियर के जल को अपने साथ बहाकर ले जाती हैं | यदि ग्लेशियरों के पिघलने की दर बढ़ जाएगी तो नदी में जल की मात्रा बढ़ जाएगी जोकि बाढ़ का कारण बन सकती है |
  • वर्षाप्रतिरूप में परिवर्तन:वर्षा होने और बादलों के बनने में तापमान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है | अतः ताप में वृद्धि के कारण वर्षा-प्रतिरूप या पैटर्न भी बदल जाएगा अर्थात कहीं वर्षा पहले से कम होगी तो कहीं पहले से ज्यादा होने लगेगी | वर्षा की अवधि में भी बदलाव आ जाएगा |
  • प्रवाल भित्ति का विनाश: समुद्री-जल के ताप बढ़ने से प्रवाल भित्ति का विनाश होने लगता है | वर्तमान में लगभग एक तिहाई प्रवाल भित्तियों का अस्तित्व ताप वृद्धि के कारण संकट में पड़ गया है |
  • समुद्रीजल के ताप बढ़ने से प्लैंकटन का विनाश:समुद्री-जल के ताप बढ़ने से प्लैंकटन का विनाश होने लगता है | प्लैंकटन समुद्री जल प्राथमिक जीव हैं | अल्युशियनद्वीप का पारिस्थितिकी तंत्र, जिसमें व्हेल, समुद्री शेर, मछलियाँ, सी अर्चिन आदि अन्य जलीय जीव शामिल हैं, अब प्लैंकटन की कमी के कारण सिकुड़ गया है |
  • प्रवसन में वृद्धि:ताप में वृद्धि होने सागरीय जलस्तर ऊपर उठेगा तो तटीय क्षेत्र व द्वीप जलमग्न हो जाएंगे और तटीय क्षेत्र के निवासी आंतरिक भागों की ओर प्रवास करने के लिए मजबूर हो जाएंगे|

 

9. मृदा प्रदूषण

मृदा प्रदूषण तब उत्पन्न होता है जब मनुष्य सीधे या परोक्ष रूप से मिट्टी मे हानिकारक पदार्थो, रसायनों या वस्तुओं का प्रयोग करता है जिसके परिणाम स्वरूप अन्य जीवित चीजों के नुकसान का कारण बनता है या मृदा या पानी के पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट कर देता है।

मृदा प्रदूषकों मे, विभिन्न रसायनों (कार्बनिक और अकार्बनिक) जो प्राकृतिक रूप से मृदा मे उत्पन्न होने वाले और मनुष्य के द्वारा निर्मित दोनों हो सकता है, की एक विशाल विविधता शामिल है। दोनों ही मामलो मे, मृदा प्रदूषण के लिए मानव गतिविधियां (जैसे कि – मानव गतिविधियों के कारण जैसे कि आकस्मिक रिसाव और बिखराव, जमाव, विनिर्माण प्रक्रियाओ इत्यादि के कारण स्वास्थ्य जोखिम के स्तर पर उन रसायनो का मृदा मे संचय होना) मुख्य कारण रही है। प्राकृतिक प्रक्रियाओं के कारण भी संचयन संभव है।

मृदा प्रदूषण के विभिन्न कारकों कि व्याख्या निम्नलिखित है: इन कारणों मे से, निर्माण स्थल (अपने लगभग सर्वव्यापी प्रकृति की वजह से) शहरी क्षेत्रो मे मृदा प्रदूषण के लिए महत्वपूर्ण कारक होते है। सामान्य रूप मे, निर्माण स्थलों पर रखा गया कोई भी रसायन मृदा को प्रदूषित कर सकता है। हालाँकि, उन रसायनों से अधिक खतरा है जो आसानी से हवा के द्वारा (सूक्ष्म कणिकाओं के रूप मे) स्थानांतरित हो सकते है और जो PAHs जैसे जीवित जीवों मे गिरावट और जैवसंचयन के प्रतिरोधी होते है। इसके अतिरिक्त, निर्माण स्थल के धूल हवा के द्वारा आसानी से चारो तरफ फैल सकती है और यह सूक्ष्म आकार के कण (10 मायक्रोन से भी कम) होने की वजह से खतरनाक होती है।  इस प्रकार के निर्माण धूल स्वशन सम्बन्धी रोग , अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और यहाँ तक कि कैंसर भी उत्पन्न कर सकते है।

मृदा क्षरण के कारण:
भूक्षरण या मिट्टी का कटाव / मृदा अपरदन: मृदा अपरदन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो अक्सर पानी के बहाव और हवा के चलने से होती है, यह मानव गतिविधियों जैसे कि कृषि, निर्माण कार्य, पशुओं के द्वारा अत्यधिक चराई, घास की परतों को जलाना और वनो की कटाई के कारण बहुत तीब्र गति से फैलता है।
आज पानी और मिट्टी दोनों को एकीकृत उपचार विधियों के माध्यम से संरक्षित किया जा रहा है। इसमे से कुछ सबसे आम तौर से प्रयोग किए जा रहे तरीकों मे साधारणतया दो प्रकार के उपचार प्रयोग किए जा रहे है।

  • क्षेत्र उपचार मे क्षेत्र की पूरी भूमि का उपचार शामिल है।
  • जल निकासी प्रबंध के अंतर्गत प्राकृतिक जल शृंखला (नालियाँ) के उपचार शामिल है ।

उर्वरको का अत्यधिक उपयोग: यह मिट्टी को भुरभुरा और मिट्टी को कटाव/अपरदन के लिए अतिसंवेदनशील बनाता है।
अत्यधिक लवण और पानी: अत्यधिक सिंचाई से जल जमाव की स्थिति उत्पन्न होती है जिसके परिणाम स्वरूप मृदा का लवणीकरण होता है।
मृदा प्रदूषण और इसके प्रभाव:

मृदा प्रदूषण हम सबके साथ साथ पौधों और जंतुओं को भी प्रभावित कर सकता है। हालांकि, आम तौर पर बच्चे अधिक अतिसंवेदनशील / कोमल होते है। इसका यह कारण है की बच्चे विभिन्न प्रदूषकों के प्रति अधिक संवेदनशील होते है और उदाहरण के तौर पर, मैदान मे नियमित रूप से खेलने के कारण वे मिट्टी के निकट संपर्क मे आ सकते है। इसलिए, वयस्कों की तुलना मे बच्चो के लिए मृदा प्रदूषण हमेशा अधिक जोखिम से भरा होता है। जबकि कोई भी मृदा प्रदूषण से प्रभावित हो सकता है, मृदा प्रदूषण का प्रभाव आयु, सामान्य स्वास्थ्य की स्थिति, और अन्य कारणों पर भी आधारित हो सकता है।

  1. मनुष्यों के स्वास्थ्य पर प्रभाव:यह ध्यान मे रखते हुये कि किस प्रकार से मिट्टी प्रदूषण लोगों को बीमार करने का एक बहुत बड़ा कारण है, हमें खुद को बहुत सतर्क रखना होगा। प्रदूषित मिट्टी मे पैदा होने वाली फसले और पौधे अधिक प्रदूषण को अवशोषित करते है और फिर इसे मानव जाति को स्थानांतरित कर देते है। इसके परिणाम स्वरूप छोटे और भयंकर  रोगो मे अचानक वृद्धि हो सकती है।

इस तरह की मिट्टी से  लंबे अवधि के तक संपर्क में रहने के कारण मानव शरीर की आनुवांशिक बनावट प्रभावित हो सकती है, जिसके परिणाम स्वरूप जन्मजात बीमारियाँ और लंबे अवधि के लिए स्वास्थ्य समस्या उत्पन्न हो सकती है जिसे आसानी से ठीक नहीं किया जा सकता है। वास्तव मे, यह काफी हद तक पशुधन को बीमार कर सकता है और इसके कारण लंबे समयावधि मे खाद्य विषाक्तता हो सकती है। यदि पौधे इस मिट्टी मे विकसित नहीं हो सके तो मृदा प्रदूषण के परिणाम स्वरूप बड़े पैमाने पर अकाल कि स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

  1. पौधो के विकास पर प्रभाव:मिट्टी के व्यापक प्रदूषण के कारण किसी भी प्रणाली का पारिस्थितिक संतुलन प्रभावित हो जाता है। जब अल्प समय मे मिट्टी के रसायन मौलिक रूप से परिवर्तित होते है तो अधिकांश पौधे अनुकूलन मे असमर्थ रहते है। कवक और जीवाणु मिट्टी मे पाये जाते है जो इसे क्षरण होने से पूर्व एक साथ बाधे रहते है, जिससे मृदा अपरदन की एक अन्य समस्या उत्पन्न होती है।

मृदा की उत्पादकता धीरे धीरे कम होने के कारण कृषि के लिए भूमि अनुपयुक्त होने लगती है, और किसी स्थानीय पौधे की वृद्धि होने लगती है। मृदा प्रदूषण के कारण जमीन का एक विशाल हिस्सा स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। अवांछित रेगिस्तान जो इसके मूल वनस्पति कि वृद्धि के लिए उपयुक्त है, इस प्रकार की भूमि जीवन के अधिकांश रूपो को समर्थन नहीं कर सकती।

  1. मिट्टी की उर्वरता मे कमी:मिट्टी मे उपस्थित जहरीले रसायन मिट्टी की उर्वरता/उत्पादकता को कम कर सकते है और इसलिए मिट्टी की उपज मे भी कमी हो सकती है। दूषित मिट्टी का प्रयोग फलों और सब्जियों के उत्पादन के लिए किया जाता है जिसमे पोषक तत्वो की कमी हो सकती है और कुछ जहरीले पदार्थ भी शामिल हो सकते है जिसके कारण इसका उपभोग करने वाले लोगो को गंभीर स्वास्थ्य की समस्या हो सकती है।
  2. विषाक्त धूल:भरावक्षेत्रों से उत्सर्जित होने वाली विषाक्त और अशुद्ध / बदबूदार गैसें पर्यावरण को प्रदूषित करती है और इसके कारण कुछ लोगो के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। अप्रिय गंध लोगो के लिए असुविधा का कारण बनती है।
  3. मिट्टी की संरचना मे परिवर्तन:मिट्टी मे मिट्टी के कई जीवो (जैसे की केंचुएं) की मृत्यु के परिणाम स्वरूप मृदा की संरचना मे परिवर्तन हो सकता है। इसके अलावा, यह अन्य परभक्षियों को भी भोजन की तलाश मे अन्य स्थानों पर जाने के लिए मजबूर कर सकता है।

वर्तमान मे प्रदूषण की गति की जाँच के लिए कई तरीकों का सुझाव दिया गया है। पर्यावरण की सफाई के लिए इस तरह के प्रयासों को खड़ा करने के लिए समय और संसाधनो की प्रचुर मात्रा मे आवश्यकता है। उद्योगो को खतरनाक कचरे से निपटारे के लिए निर्देश  दिये जा चुके हैं, जिसका उद्देश्य उन क्षेत्रों को कम करना है जो प्रदूषित हो चुके है। खेती की जैविक विधियों का समर्थन किया जा रहा है, जिसमे रसायनो से भरे कीटनाशकों और उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता है। ऐसे पौधो के प्रयोग का उत्साहवर्धन किया जा रहा है जो मिट्टी से प्रदूषको को दूर कर सके। हालाँकि, लक्ष्य आगे बहुत दूर है, और मृदा प्रदूषण की रोकथाम के लिए कई साल लगेंगे।

 

10. ओज़ोन परत अवक्षय (ह्रास)

समताप मण्डल मे ओज़ोन की मात्रा मे अवक्षय (कमी) ही ओज़ोन परत अवक्षय / ह्रास / रिक्तिकरण है। अवक्षय तब प्रारम्भ होता है जब सीएफ़एस गैसे समताप मण्डल मे प्रवेश करती है। सूर्य से निकलने वाले परबैगनी (अल्ट्रा वायलेट) किरणें (सीएफ़एस गैसों) ओज़ोन पर्त को खंडित करता है। खंडन की इस प्रक्रिया के द्वारा क्लोरिन परमाणु का उत्सर्जन होता है। क्लोरिन परमाणु ओज़ोन से क्रिया करती है जिससे एक रसायन चक्र प्रारम्भ होता है जो उस क्षेत्र मे ओज़ोन की अच्छी परत को नष्ट कर देता है।

1970 के दशक के बाद से यह माना जाता है की ओज़ोन ह्रास (अवक्षय) दो अलग लेकिन संबन्धित घटनाओं का वर्णन करता है। एक अध्ययन के अनुसार पृथ्वी के समताप मण्डल (ओज़ोन परत) मे ओज़ोन की कुल मात्र मे प्रति दशक 4% की दर से लगातार गिरावट आ रही है। उत्तरार्द्ध घटना को ओज़ोन छिद्र के रूप मे जाना जाता है।

समतापमंडलीय ओजोन परत परबैगनी किरणों को अवशोषित कर लेती है जिससे पृथ्वी पर आने वाली परबैगनी किरणों की मात्र में कमी आ जाती है।  यह ओजोन परत मानव की मोतियाबिंद, त्वचा कैंसर, मेलेनोमा इत्यादि रोगों से रक्षा करती है।  इन परबैगनी किरणों के संपर्क में आने से मुनष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है ।  इन किरणों से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया भी प्रभावित होती है तथा जीवित प्राणी के न्युक्लियक अम्ल नष्ट हो जाते है।

सीएफ़सी और अन्य सायहक पदार्थों को ओज़ोन अवक्षय पदार्थ (ओडीएस) के रूप मे माना जाता है। चूँकि ओज़ोन परत परबैगनी किरणों (अल्ट्रावायलेट किरण) की सबसे हानिकारक यूवीबी तरंगधैर्य (280-315) को पृथ्वी के वातावरण मे प्रवेश करने से रोकती है, ओज़ोन परत मे प्रत्यक्ष (देखी गयी) और अनुमानित रूप से आयी कमी पूरे विश्व मे चिंता का विषय बना हुआ है जिसके परिणाम स्वरूप मोंट्रियल प्रोटोकॉल को अपनाया गया है जो सीएफ़सी, हैलोन, और अन्य ओज़ोन अवक्षय रसायनों जैसे कि कार्बन टेट्राक्लोराइड और ट्राइक्लोरो ईथेन के उत्पादन पर रोक लगती है

सीएफ़सी का आविष्कार थॉमस मिग्ले जूनियर के द्वारा 1920 मे किया गया था। 1970 से पहले इनका प्रयोग वातानुकूलन (एयर कंडीस्निंग) और प्रशीतलन इकाइयों मे एरोसाल स्प्रे प्रणोदको के रूप मे और संवेदनशील इलेक्ट्रोनिक उपकरणो की सफाई प्रक्रिया मे किया जाता था। ये कुछ रसायनिक क्रियाओं के गौड़ उत्पाद के रूप मे भी होते थे। इन यौगिको के लिए कभी किसी महत्वपूर्ण प्राकृतिक श्रोतों की पहचान नहीं की गयी है – वातावरण मे इनकी उपस्थिती पूरी तरह से मानव विनिर्माण के कारण है। जैसा की ऊपर दिया गया है, जब इस तरह के ओज़ोन अवक्षय रसायन समताप मण्डल मे पहुचते है, वे क्लोरिन परमाणुओं को उत्सर्जित करने के लिए पराबैगनी किरणों के द्वारा पृथक कर दिये जाते है। क्लोरिन परमाणु एक उत्प्रेरक के रूप मे कार्य करता है और प्रत्येक परमाणु समताप मण्डल से हटा दिये जाने से पूर्व प्रति हजार मे से दस ओज़ोन अणुओ को कम सकता है। सीएफ़सी अणुओं की लंबी आयु को देखते हुये, सुधार (ओजोन क्षरण के) मे लगने वाले समय को दशकों मे मापा जाता है। ऐसी गणना की गयी है कि एक सीएफ़सी अणु जमीन कि सतह से वायुमंडल की ऊपरी सतह तक जाने के लिए लगभग पाँच से सात साल का औसत समय लेता है और ऐसा कह सकते है कि ये वहाँ पर लगभग एक शताब्दी तक रह सकते है और इस अवधि के दौरान एक सौ हजार ओज़ोन अणुओं कों नष्ट कर सकते है।

अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र अंटार्कटिक समताप मण्डल का क्षेत्र है जिसमे हाल ही के ओज़ोन स्तर, 1975 के पहले के परिमाण मे कम से कम 33 % तक गिर गए थे। सितंबर से लेकर दिसम्बर के प्रारम्भ तक अंटार्कटिक बसंत के दौरान ओज़ोन छिद्र बनते है, जैसे ही प्रबल पश्चिमी हवाये महाद्वीप के चरो ओर बहने लगती है और और एक वायुमंडलीय घेरे का निर्माण करती है। इस ध्रुवीय भँवर के भीतर निचली समताप मण्डलीय ओज़ोन का 50% से अधिक अंटार्कटिक बसंत के दौरान नष्ट हो जाता है।

जैसा कि ऊपर उल्लिखित है, ओज़ोन अवक्षय का प्रमुख कारण क्लोरिन युक्त गैसों (मुख्य रूप से सीएफ़सी और संबन्धित हैलोकार्बन) की उपस्थिती है। परबैगनी किरणों की उपस्थिती मे, ये गैसे अपघटित हो कर क्लोरिन अणुओ कों मुक्त करती है, जो ओज़ोन के विनाश के लिए उत्प्रेरित करती है। क्लोरिन, उत्प्रेरित ओज़ोन अवक्षय गैसीय अवस्था मे हो सकता है, लेकिन ध्रुवीय समताप मंडलीय बादलो की उपस्थिती मे इसमे नाटकीय रूप से वृद्धि होती है।

ये ध्रुवीय समताप मंडलीय बादल ( पीएससी ) भीषण ठंढ मे सर्दियों के दौरान बनते है। ध्रुवीय सर्दिया 3 महीने तक बिना सौर्य विकिरण (धूप) के अंधकारमय होती है। सूर्य के प्रकाश मे कमी की वजह से तापमान मे गिरावट और ध्रुवीय भंवर के जाल और हवा को ठंढा करती है। और जब बसंत आता है तब सूर्य का प्रकाश एक उत्प्रेरक के रूप मे कार्य करता है और रसायनिक प्रतिक्रिया मे सहायता करता है जिसके परिणाम स्वरूप ओज़ोन छिद्र का निर्माण होता है।

ओज़ोन परत अवक्षय के परिणाम:

  • परबैगनी किरणों की पृथ्वी पर वृद्धि
  • बेसल और पपड़ीदार कोशिका कैंसर – मानव मे कैंसर का एक सबसे सामान्य रूप।
  • घातक मेलानोमा – अन्य प्रकार का त्वचा कैंसर।
  • कोर्टिकल मोतियाबिंद।
  • परबैगनी किरणों की वृद्धि से फसलों के प्रभावित होने की संभावना है। पौधो के आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण विभिन्न प्रजातियों मे जैसे कि चावल साइनोबैक्टीरिया पर निर्भर रहता है जो नाइट्रोजन के धारण के लिए इसकी जड़ो मे रहता है। साइनोबैक्टीरिया परबैगनी किरणों के प्रति संवेदनशील होते है और इसकी वृद्धि के परिणाम स्वरूप प्रभावित हो सकते है।

 

11. वातावरण का गैसीय चक्र

वातावरण मे गैसों के होने की वजह से पृथ्वी पर जीवन संभव हो सकता है। पौधो और वृक्षो को कार्बनडाई आक्साइड से जीवन मिलता है और वृक्ष मनुष्य को जीवन प्रदान करते है। इस तरह से दोनों एक दूसरे पर निर्भर है। सूर्य के प्रकाश की उपस्थिती मे पौधे अपनी पत्तियों के माध्यम से वातावरण से कार्बनडाई आक्साइड ग्रहण करते है। पौधे अपने जड़ के द्वारा मृदा से सोखे गए पानी को कार्बनडाई आक्साइड से मिलाते है।

कार्बन चक्र : सूर्य के प्रकाश की उपस्थिती मे पौधे अपनी पत्तियों के माध्यम से वातावरण से कार्बनडाई आक्साइड ग्रहण करते है। पौधे अपने जड़ के द्वारा मृदा से सोखे गए पानी को कार्बनडाई आक्साइड से मिलाते है। सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति मे वे कार्बोहाइड्रेट का निर्माण करते है जिसमे कार्बन संचित होता है। इस प्रक्रिया को प्रकाश संश्लेषण कहते है। इस जटिल प्रक्रिया के द्वारा पौधे अपना वृद्धि और विकास करते है। इस प्रक्रिया मे पौधे वातावरण मे ऑक्सीजन छोड़ते है जिस पर जन्तु श्वसन क्रिया के लिए निर्भर रहते है। इसलिए पौधे पृथ्वी के वातावरण मे ऑक्सीजन के प्रतिशत के नियंत्रण और निगरानी मे सहायक होते है।

ऑक्सीजन चक्र : श्वसन क्रिया के दौरान पौधो और जन्तुओं के द्वारा ऑक्सीजन वायुमंडल से लिया जाता है। पौधे प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के दौरान वातावरण मे ऑक्सीजन छोडते है। यह ऑक्सीजन चक्र को कार्बन चक्र से जोड़ता है। वनो की कटाई से हमारे वातावरण मे ऑक्सीजन का स्तर तेजी से घट रहा है।

ऑक्सीजन चक्र एक जैव रसायनिक चक्र है जो इसके तीन मुख्य भंडारणों मे ऑक्सीजन की गति की व्याख्या करता है: वातावरण (हवा), जीवमंडल मे जैविक पदार्थो की कुल मात्रा (पूरे पारिस्थितिक तंत्र का वैश्विक योग) और स्थलमंडल (पृथ्वी का आवरण)। जलमंडल मे ऑक्सीजन चक्र की विफलता (पृथ्वी पर, पृथ्वी के ऊपर और पृथ्वी के अंदर जल की मिश्रित मात्रा पायी गयी) के परिणामस्वरूप हायपोक्सिक मण्डल का विकास हो सकता है। ऑक्सीजन चक्र के संचालन का मुख्य कारण प्रकाश संश्लेषण है जो पृथ्वी के आधुनिक वातावरण और पृथ्वी पर जीवन के लिए जिम्मेदार है।

नाइट्रोजन चक्र : भूमि तथा पौधों में विभिन्न विधियों द्वारा वायुमंडल की स्वतंत्र नाइट्रोजन का नाइट्रोजनीय यौगिकों के रूप में स्थायीकरण और उनके पुनः स्वतंत्र नाइट्रोजन में परिवर्तित होने का अनवरत प्रक्रम।

मिट्टी मे नाइट्रोजन युक्त बैक्टीरिया और कवक पौधों को नाइट्रोजन प्रदान करते है, जो इसे नाइट्रेट के रूप मे अवशोषित करते है। नाइट्रेट पौधो के उपापचय का भाग होता है जो पौधो के नये प्रोटीन बनाने मे मदद करता है। यह उन जन्तुओं के द्वारा उपयोग किया जाता है जो पौधो को खाते है। फिर यह नाइट्रोजन मांसाहारी जन्तुओं मे चला जाता है, जब वे शाकाहारी जन्तुओं को खाते है। और अंत मे यह मृत जन्तुओं के द्वारा जैव अपघटक की मदद से मिट्टी मे चला जाता है। नाइट्रोजन चक्र वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से नाइट्रोजन अपने कई रसायनिक रूपों में परिवर्तित होता है। यह रूपान्तरण/बदलाव जैविक और भौतिक दोनों प्रक्रियाओं से किया जा सकता है।

नाइट्रोजन चक्र मे यौगिकीकरण, अमोनिकरण, नाइट्रीकरण , और विनाइट्रीकरण  जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाएं शामिल है। पृथ्वी के वायुमंडल का अधिकतर भाग (78%) नाइट्रोजन है जो इसे नाइट्रोजन का सबसे विशाल भंडार बनाता है। हालांकि, वायुमंडलीय नाइट्रोजन का जैविक उपयोग के लिए उपलब्धता सीमित है जो कई प्रकार के परिस्थितिकी प्रणालियों मे उपयोगी नाइट्रोजन के अभाव को जन्म देती है। नाइट्रोजन चक्र परिस्थिति वैज्ञानिकों के लिए विशेष रुचिकर है, क्योंकि नाइट्रोजन की उपलब्धता पारिस्थितिकी तंत्र की प्रक्रियाओं की दर को प्रभावित कर सकती है।

 

12. जलीय विभंजन (हाइड्रोलिक फ्रेक्चरिंग)

जलीय विभंजन (जलीय दरार, जलीय हाइड्रो रैकिंग, फ्रेकिंग) एक बेहतर उर्जा  वाली तकनीक है जिसमें चट्टानों को तरल या द्रव्य द्वारा खंडित किया जाता है। इस प्रक्रिया में गहरी चट्टानों में दरार पैदा करने के लिए वेलबोर में ‘फ्रेकिंग द्रव’ के उच्च दवाब वाले इंजेक्शन (मुख्य रूप से पानी, युक्त रेत और अन्य सामाग्री के साथ एजेंटों के बीच बढ़िया तालमेल की सहायता से) का प्रयोग किया जाता है। इसके प्रयोग से प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम, और लवणीय जल अधिक स्वतंत्र रूप से प्रवाहित होते है। जब कुओं में से जलीय द्रव के दबाव को हटा दिया जाता है तो जलीय विभंजन के छोटे कण दरार को खुला रखने में सफल हो जाते है।

जलीय विभंजन का इस्तेमाल पहली बार 1947 में हुआ था लेकिन आधुनिक विभंजन तकनीक को क्षैतिज सतही जल विभंजन कहा जाता है जिसने शेल गैस के निष्कर्षण को किफायती बना दिया है। इसका प्रयोग पहली बार टेक्सास के बार्नेट शेल में 1998 में किया गया था। एक अत्यधिक दबाव जलीय विभंजन द्रव के इंजेक्शन से प्राप्त शक्ति या ऊर्जा, चट्टान में नये मार्ग बनाता है जो निष्कर्षण (निकासी) दर और हाइड्रोकार्बन की मुख्य बहाली में वृद्धि कर सकता है।

जलीय विभंजन के जन्मदाताओं का मानना है कि इस प्रक्रिया के माध्यम से बहुत बड़ी मात्रा में आर्थिक लाभ अर्जित किये जा सकते हैं। जबकि इसके विरोधकर्ताओं का मानना है कि इस प्रक्रिया से पर्यावरण को खतरा होगा और भूमिगत जल का प्रदूषण, हवा की गुणवत्ता का जोखिम, सतह में गैसों और जलीय विभंजन रसायनों का प्रवास, प्रवाह वापसी और गिरावट से सतही संदूषण और इनसे होने वाले स्वास्थ्य प्रभाव शामिल हैं भूमिगत जल का प्रदूषण, हवा की गुणवत्ता का जोखिम, सतह में गैसों और जलीय विभंजन रसायनों का प्रवास, प्रवाह वापसी और गिरावट से सतही संदूषण और इनसे होने वाले स्वास्थ्य प्रभाव शामिल हैं । इन्हीं कारणों से जलीय विभंजन पर कुछ देशों ने प्रतिबंध या इसे निलंबित करने तक का मन बना लिया है।

क्रियाविधि या तंत्र:

दूषितकरण

इस प्रक्रिया के दौरान मीथेन गैस और जहरीले रसायन, बाहर  निकलकर आस-पास के भूजल को दूषित करते हैं।

मीथेन की सांद्रता, उन कुओं में 17 गुना अधिक होती है जो विभंजन के निकटवर्ती स्थानों के आसपास होते हैं। अधिक गहराई वाली चट्टानों में दरारों पर अत्यधिक वजन वाली चट्टानी परतों और संयोजन के गठन के कारण अक्सर दवाब बढ जाता है। यह अवरोधी प्रक्रिया “लचीले” विभंजन में विशेष रूप से महत्वपूर्ण होती है जिसमें इस दबाव को दूर करने के लिए दरार वाली दीवारों की आवश्यकता होती है। विभंजन तब होता है जब चट्टान के भीतर तरल पदार्थ के दबाव से प्रभावी बल को दूर किया जाता है। न्यूनतम मुख्य बल लचीला हो जाता है और पदार्थ की तन्य शक्ति बढ जाती है। इस तरह का विभंजन गठन आम तौर पर समतलीय लम्बवत से न्यूनतम दवाब के उन्मुख होता है और इस कारण से कुओं में जलीय विभंजन का प्रयोग, दवाब उन्मुखीकरण के निर्धारण के लिए किया जाता है।

वैज्ञानिक की मुख्य चिंता इस बात को लेकर हैं कि विभंजन में प्रयुक्त रसायनों से एक खतरा यह हो सकता है कि ये प्रयुक्त रसायन भूमिगत को बहुत बुरी तरह से प्रदूषित कर सकते हैं ।

 

13. प्रवाल विरंजन (श्वेत पड़ना)

जब तापमानप्रकाशया पोषक जैसी स्थिति में प्रवालों पर परिवर्तित होने का दवाब पड़ता है तो वे अपने ऊतकों में रहने वाले सहजीवी शैवालों को त्याग देती हैं जिसके कारण प्रवाल पूरी तरह  से विरंजित (पूरी तरह सफेद) हो सकते हैं। प्रवाल विरंजन का कारण गर्म पानी या गर्म तापमान हो सकता है। जब पानी अत्यधिक गर्म होता है तो प्रवाल अपने ऊतकों में रहने वाले सूक्ष्म शैवाल (zooxanthellae) को त्याग देते हैं जिस कारण वे पूरी तरह से प्रवाल विरंजित (पूरी तरह सफेद) हो जाते हैं। यह प्रवाल विरंजन कहलाता है।

जब एक प्रवाल विरंजन होता है तो यह मरता नहीं है अर्थात एक प्रवाल, विरंजन के दौरान भी जीवित रह सकता हैं लेकिन वे अत्यधिक दवाब औऱ मृत्यु के साये में रहते है।

2005 मेंअमेरिका ने एक बड़ी विरंजन (ब्लीचिंग) घटना के कारण कैरेबियन सागर में एक साल में ही अपनी आधी प्रवाल भित्तियों को खो दिया था। वर्जिन द्वीप समूह और प्यूर्टो रिको के नजदीक उत्तरी एंटिल्स के आसपास केंद्रित गर्म पानी दक्षिण की ओर फैल गया था। पिछले 20 वर्षों के उपग्रह आंकड़ों की तुलना करने पर यह स्पष्ट होता है कि 2005 की थर्मल दवाब वाली घटना संयुक्त रूप से पिछले 20 वर्षों की तुलना में सबसे बड़ी घटना थी।

सभी विरंजन घटनाएं गर्म पानी के कारण नहीं होती है।

जनवरी 2010 मेंफ्लोरिडा में ठंडे पानी का तापमानप्रवाल विरंजन की घटना मुख्य कारण रहा था जिसके कारण कुछ प्रवालों की मौत हो गयी थी। पानी का तापमान साल के इस समय में होने वाले वाले तापमान की तुलना में 12.06 डिग्री फारेनहाइट गिर गया था। शोधकर्ता इस बात का मूल्यांकन कर रहे हैं कि क्या गर्म पानी की तरह ही (जिससे प्रवाल प्रभावित होते हैं) ठंडे तनाव वाली घटना प्रवालों को बीमारी के लिए अधिक अतिसंवेदनशील क्यों कर रही है।

प्रवाल विरंजन की घटना तब घटित होती है जब प्रवाल समूह और सूक्ष्म शैवाल (zooxanthellae)  के बीच संबंध टूट जाते हैं जो प्रवालों को उनका अधिकतर रंग प्रदान करते हैं।

सूक्ष्म शैवाल (zooxanthellae) के बगैर प्रवाल जानवर के ऊतक पारदर्शी हो जाते है और प्रवाल के चमकीले सफेद कंकाल का पता चल जाता है।

प्रवाल जब एक बार विरंजित हो जाते है तो उनको भूख लगना शुरू हो जाती है। हालांकि कुछ प्रवाल खुद खाने के लिए सक्षम हो जाते हैं लेकिन अधिकतर प्रवाल सूक्ष्म शैवाल (zooxanthellae)  के बगैर जीवित रहने के लिए संघर्ष करते हैं।

यदि स्थिति सामान्य हो जाती है तो प्रवाल अपने सूक्ष्म शैवाल (zooxanthellae) को हासिल कर अपने सामान्य रंग में लौट आते हैं। हांलाकि इस दवाब से प्रवाल के विकास और प्रजनन में कमी तथा बीमारी की संवेदनशीलता में वृ्द्धि की संभावना रहती है।

यदि दवाब बना रहता है तो प्रक्षालित प्रवाल मर जाते है। वह प्रवाल भित्तियां जिनकी मृत्यु दर अधिक है उन्हें विरंजन के बाद ठीक होने में दशकों लग सकते हैं।

प्रवाल विरंजन के कारण

प्रवाल विरंजन का मुख्य कारण समुद्र के तापमान से उत्पन्न गर्मी का दवाब है। केवल चार सप्ताह के लिए केवल एक ही डिग्री सेल्सियस की तापमान वृद्धि विरंजन घटनाओं को गति प्रदान कर सकती है।

यदि यह तापमान लंबी अवधि तक जारी रहता है (आठ या अधिक सप्ताह) तो प्रवालों का मरना शुरू हो जाता है। पानी का उच्च तापमान क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर भित्तियों को प्रभावित कर सकता है।

अन्य दवाब भी विरंजन का कारण हो सकते हैं। जिसमें ताजे पानी का सैलाब (कम लवणता) और तलछटों या प्रदूषक क्षेत्रों में पानी की मामूली गुणवत्ता शामिल है।

प्रवाल विरंजनप्रवालों की एक सामान्यीकृत दवाब की प्रतिक्रिया है और इसकाकारण जैविक और अजैविक कारकों की संख्या हो सकती हैं जिसमें शामिल हैं:

  • पानी के तापमान में कमी या वृद्धि होना ( आमतौर पर अधिक)।
  • अत्यधिक मछली मारने के कारण प्राणीमन्दप्लवक स्तर में गिरावट की वजह से भुखमरी।
  • सौर विकिरण में वृद्धि होना।
  • पानी रसायन में परिवर्तन (विशेष रूप से अम्लीकरण में) ।
  • बढ़ा हुआ अवसादन (गाद अपवाह के कारण)
  • जीवाण्विक संक्रमण
  • लवणता में परिवर्तन
  • तृणनाशक
  • कम ज्वार और जोखिम
  • साइनाइड द्वारा मछली पकड़ना
  • ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र का जल स्तर ऊंचा (वाटसन)

 

14. प्राकृतिक क्षेत्र

हमारा वातावरण हमें रोजमर्रा के जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की एक किस्म प्रदान करता है। इन प्राकृतिक संसाधनों में हवा, पानी, मिट्टी, खनिज के साथ-साथ जलवायु और सौर ऊर्जा शामिल हैं जो प्रकृति के निर्जीव या “अजैविक” भाग का निर्माण करते हैं। ‘जैविक’ या प्रकृति के सजीव भाग पौधों, जानवरों और रोगाणुओं से मिलकर बनते हैं। भौतिक भूगोल की दृष्टि से, पृथ्वी चार प्रमुख घटकों से बनती है: वायुमंडल, जीवमंडल, स्थलमंडल, और जलमण्डल।

पृथ्वी के संसाधन

विभिन्न स्रोतों या ‘क्षेत्रों द्वारा प्रदत्त संसाधन

1) वायुमंडल: वायुमंडल पृथ्वी पर एक सुरक्षा कवच का निर्माण करता है। सबसे निम्नतम परत, क्षोभमंडल है। क्षोभमंडल  हमारे जीवित रहने के लिए एकमात्र जरूरी गरम हिस्सा है जो केवल 12 किलोमीटर घना है। समताप मंडल 50 किलोमीटर घना है और सल्फेट की एक परत इसमें शामिल है जो बारिश होने के लिए महत्वपूर्ण है। इसमें ओजोन की परत भी शामिल है, जो पराबैंगनी (अल्ट्रा वायलेट) प्रकाश को अवशोषित करती है जिसके कारण पृथ्वी पर कैंसर रोग फैलता है,  इसके बगैर पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं है। यह एक जटिल गतिशील प्रणाली है। यदि इसकी प्रणाली बाधित होती है तो यह पूरी मानव जाति को प्रभावित करती है। हवा के प्रमुख प्रदूषक औद्योगिक इकाइयों द्वारा निर्मित होते हैं जो हवा में कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और जहरीले धुएं के रूप में विभिन्न प्रकार की गैसें छोड़ते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड का बिलडिप (buildup) जिसे वायुमंडल में ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ के रूप में जाना जाता है, वर्तमान ग्लोबल वार्मिंग में अग्रणी भूमिका निभाता है।

धुंध (स्मॉग): जीवाश्म ईंधन के दहन से भी हवा में छोड़े गये कणों की मात्रा बढ़ जाती है। इन सभी प्रदूषकों के उच्च स्तर की उपस्थिति दृश्यता में कमी का कारण बनती है विशेषकर ठंड के मौसम में जब पानी जम जाता है। इसे धुंध के रूप में जाना जाता है और यह वायु प्रदूषण का जीता जागता संकेत है।

2) जलमण्डल: जलमंडल पृथ्वी की दो तिहाई हिस्से को कवर करता है। जलमंडल का एक प्रमुख हिस्सा, सागर का समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र है। जबकि केवल एक छोटे से हिस्से में ताजा पानी होता है। नदियों, झीलों और ग्लेशियरों में ताजा पानी हमेशा वाष्पीकरण और वर्षा की एक प्रक्रिया से नवीकृत हो जाता है। इसमें से कुछ ताजा पानी भूमिगत जलवाही स्तर में निहित होता है। वनों की कटाई जैसी मानवीय गतिविधियां जलमंडल में गंभीर परिवर्तन अथवा संकट पैदा करती हैं। जब एक बार वनस्पति की भूमि परत निकल जाती है तो बारिस के कारण मिट्टीसमुद्र में  बह कर चली जाती है / इसी प्रकार उद्योग और सीवेज से रसायन नदियों और समुद्र में बहने या फैलने लगते हैं।

कॉलिफोर्म मानव आंतों में पाया जाने वाला एक बैक्टीरिया का समूह है जिसकी पानी में उपस्थिति, सूक्ष्मजीवों रोगों को जन्म देने के कारण बनता है।

गंगा एक्शन प्लान:  गंगा में पानी की बहुत खराब गुणवत्ता के कारण यह करोड़ों रुपये के परियोजना की शुरूआत 1985 में की गयी थी।

3) स्थलमंडल: स्थलमंडल का गठन एक गर्म पदार्थ के रूप में लगभग 4.6 बिलियन वर्ष पहले हुआ था। लगभग 3.2 अरब साल पहले पृथ्वी काफी ठंडी हो गयी और अदभुत घटना घटित हुई- कि हमारे नक्षत्र पर जीवन की शुरूआत हुई। पृथ्वी की पपड़ी 6 या 7 किलोमीटर घनी या मोटी है और महाद्वीपों में बंटी हुई है। स्थलमंडल के 92 तत्वों में केवल आठ क्रस्टल चट्टाने ही आम घटक हैं। इन घटकों में होती हैं:

  • 47%, ऑक्सीजन होती है
  • 28% सिलिकॉन होती है,
  • 8%, अल्युमिनियम होती है
  • 5%, आयरन होती है
  • जबकि सोडियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम और कैल्शियम प्रत्येक 4% निहित होती है।

ये तत्व एक साथ लगभग 200 आम खनिज यौगिकों का निर्माण करते हैं। जब चट्टानें टूटती हैं तो उस मिट्टी का गठन करते हैं जिस पर मनुष्य खेती के लिए निर्भर रहता है। उनका खनिज भी कच्चा माल होता हैं जिसे विभिन्न उद्योगों में प्रयोग किया जाता हैं।

मिट्टी एक मिश्रण है। इसमें चट्टान के छोटे कण (विभिन्न आकार के) शामिल होते हैं। इसमें जीवीत जीवों के सड़े हुए टुक़डे (मल) भी शामिल होते हैं। जिसे खाद कहा जाता है। इसके अतिरिक्तमिट्टी की गुणवत्ता का निर्णय इसमें पाये जाने वाले कणों के आकार से किया जाता है। मिट्टी की गुणवत्ता का निर्णय खाद और इसमें पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवों की मात्रा से लिया जाता है। खाद मिट्टी की संरचना तय करने में एक प्रमुख कारक है क्योंकि इस कारण मिट्टी और अधिक छिद्रपूर्ण हो जाती है और पानी तथा हवा को भीतर तक भूमिगत होने में मदद करती है। खनिज पोषक तत्व जो विशेष मिट्टी में पाये जाते हैं वो उन चट्टानों पर निर्भर रहते हैं जिनसे उनका निर्माण होता है। एक मिट्टी की पोषक तत्व सामग्रीखाद में मौजूद इसकी मात्रा और मिट्टी की गहराई के कुछ कारक यह निर्णय करते हैं कि धरती पर कौन से पौधे पनप सकते हैं।

जीवमंडल: यह पृथ्वी पर अपेक्षाकृत पतली परत है जिसमें जिंदगी मौजूद हो सकती है। इसमें हवापानीचट्टानें और मिट्टी जो संरचनात्मक और कार्यात्मक पारिस्थितिक इकाइयों का गठन करती हैं जिसे एक साथ विशाल वैश्विक जीवित रहने वाले प्रणाली के रूप में जाना जा सकता है और इसे हमारी पृथ्वी के रूप में जाना जाता है। इस ढांचे के भीतरमोटे तौर पर इसी तरह के भूगोल और जलवायु की विशेषता के साथ-साथ पौधों और पशु जीवन के समुदायों के विभिन्न जैव भौगोलिक स्थानों को सुविधानुसार विभाजित किया जा सकता है। ये अलग-अलग महाद्वीपों में होते हैं। इन के भीतरछोटी-छोटी जैव-भौगोलिक इकाइयां संरचनात्मक अंतर के आधार पर पहचानी जा सकती हैं और विशिष्ट जानने योग्य पारिस्थितिक तंत्र के कार्यात्मक पहलुओं के एक परिदृश्य को एक विशिष्ट गुण प्रदान करते हैं। इस पारिस्थितिक तंत्र को समझने के लिए एक सरलतम उदाहरण एक तालाब है। यह किसी भी अन्य पारिस्थितिकी तंत्र की प्रकृति को समझने के लिए एक मॉडल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है और मूल्यांकन करने के लिए समय परिवर्तन के साथ इसे किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र में देखा जा सकता है।

15. भारत में वनों के प्रकार

भारत में विविध प्रकार के वन पाये जाते हैं, दक्षिण में केरल के वर्षावनों से उत्तर में लद्दाख के अल्पाइन वन, पश्चिम में राजस्थान के मरूस्थल से लेकर पूर्वोत्तर के सदाबहार वनों तक। जलवायु, मृदा का प्रकार, स्थलरूप तथा ऊँचाई वनों के प्रकारों को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक हैं। वनों का विभाजन, उनकी प्रकृति, बनावट, जलवायु जिसमें वे पनपते हैं तथा उनके आस-पास के पर्यावरण के आधार पर किया जाता है।

वनों के प्रकार

  • शंकुधारीवन: उन हिमालय पर्वतीय क्षेत्रों में पाये जाते हैं जहां तापमान कम होता है। इन वनों में सीधे लम्बे वृक्ष पाये जाते हैं जिनकी पत्तियां नुकीली होती हैं तथा शाखाएँ नीचे की ओर झुकी होती है जिससे बर्फ इनकी टहनियों पर जमा नहीं हो पाती। इनमें बीजों के स्थान पर शंकु होते हैं इसलिए इन्हें जिम्नोस्पर्म भी कहा जाता है। चौड़ी पत्तियों वाले वनों के कई प्रकार होते हैं- जैसे सदाबहार वन, पर्णपाती वन, काँटेदार वन, तथा मैंग्रोव वन। इन वनों की पत्तियाँ बड़ी – बड़ी तथा अलग – अलग प्रकार की होती हैं।
  • सदाबहारवन:  पश्चिमी घाट पूर्वोत्तर भारत तथा अंडमान निकोबार द्वीप समूह में स्थित उच्च वर्षा क्षेत्रों में पाये जाते हैं। यह वन उन क्षेत्रों में पनपते हैं जहां मानसून कई महीनों तक रहता है। यह वृक्ष एक दूसरे से सटकर लगातार छत का निर्माण करते हैं। इसलिए इन वनों में धरातल तक प्रकाश नहीं पहुंच पाता। जब इस परत से थोड़ा प्रकाश धरातल तक पहुंचता है तब केवल कुछ छायाप्रिय पौधे ही धरती पर पनप पाते हैं। इन वनों में आर्किड्स तथा फर्न बहुतायत में पाये जाते हैं। इन वृक्षों की छाल काई से लिपटी रहती है। यह वन जन्तु तथा कीट जीवन में प्रचुर हैं।
  • आर्द्रसदाबहार वन: दक्षिण में पश्चिमी घाट के साथ तथा अंडमान – निकोबार द्वीप समूह तथा पूर्वोत्तर में सभी जगह पाये जाते हैं। यह वन लंबे, सीधे सदाबहार वृक्षों से जिनकी तना या जड़े त्रिपदयीय आकार की होती हैं से बनते हैं जिससे ये तूफान में भी सीधे खड़े रहते हैं। यह पेड़ काफी दूरी तक लंबे उगते हैं जिसके पश्चात ये गोभी के फूल की तरह खिलकर फैल जाते हैं। इन वनों के मुख्य वृक्ष जैक फल, सुपारी, पाल्म, जामुन, आम तथा हॉलॉक हैं। इन वनों में तने वाले पौधे जमीन के नजदीक उग जाते हैं, साथ में छोटे वृक्ष तथा फिर लंबे वृक्ष उगते हैं। अलग – अलग रंगों के सुन्दर फर्न तथा अनेक प्रकार के आर्किड्स इन वनों के वृक्षों के साथ उग जाते हैं।
  • अर्द्धसदाबहार वृक्ष: इस प्रकार के वन पश्चिमी घाट, अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह तथा पूर्वी हिमालयों में पाये जाते हैं। इन वनों में आर्द्र सदाबहार वृक्ष तथा आर्द्र पर्णपाती वनों का मिश्रण पाया जाता है। यह वन घने होते हैं तथा इनमें अनेक प्रकार के वृक्ष पाये जाते हैं।
  • पर्णपातीवन: यह वन केवल उन्हीं क्षेत्रों में पाये जाते हैं जहां मध्यम स्तर की मौसमी वर्षा जो केवल कुछ ही महीनों तक होती है। अधिकतर वन जिमें टीक के वृक्ष उगते हैं इसी प्रकार के होते हैं। यह वृक्ष सर्दियों तथा गर्मियों के महीनों में अपनी पत्तियां गिरा देते हैं। मार्च तथा अप्रैल के महीनों में इन वृक्षों पर नयी पत्तियां उगने लगती हैं। मानसून आने से पहले ये वृक्ष वर्षा की उपस्थिति में वृद्धि करते हैं। यह पत्तियां गिरने तथा इनकी चौड़ाई बढ़ने का मौसम होता है। क्योंकि प्रकाश इन वृक्षों के बीच से वनों के तल तक पहुंच सकता है। इसलिए इनमें घनी वृद्धि होती है।
  • कांटेदारवन: यह वन भारत में कम नमी वाले स्थानों पर पाये जाते हैं। यह वृक्ष दूर – दूर तथा हरी घास से घिरे रहते हैं। कांटेदार वृक्षों को कहते हैं जो जल को संरक्षित करते हैं। इनमे कुछ वृक्षों की पत्तियां छोटी होती हैं तथा कुछ वृक्षों की पत्तियां मोटी तथा मोम युक्त होती हैं ताकि जल का वाष्पीकरण कम किया जा सके। कांटेदार वृक्षों में लंबी तथा रेशेयुक्त जड़ें होती हैं जिनसे पानी काफी गहराई तक पहुंच पाता है। कई वृक्षों में कांटे होते हैं जो पानी की हानि को कम करते हैं तथा जानवरों से रक्षा करते हैं।
  • मैंग्रोववन: नदियों के डेल्टा तथा तटों के किनारे उगते हैं। यह वृक्ष लवणयुक्त तथा शुद्ध जल सभी में वृद्धि करते हैं। यह वन नदियों द्वारा बहाकर लायी गई मिट्टियों में अधिक वृद्धि करते हैं। मैंग्रोव वृक्षों की जड़ें कीचड़ से बाहर की ओर वृद्धि करती हैं जो श्वसन भी करती हैं।

भारत का वन क्षेत्र (पर्यावरण तथा वन मंत्रालय द्वारा जारी 2013 के प्रतिवेदन के अनुसार)

श्रेणी क्षेत्रफल भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिशत हिस्सा
वन क्षेत्र

(क) बहुत घने वन

(ख) अपेक्षाकृत कम घने वन

(ग) खुले वन

कुल वन क्षेत्र

स्क्रब

गैर-वन क्षेत्र

कुल भौगोलिक क्षेत्र

 

 

83,502

318,745

 

295,651

697,898

41,383

2,547,982

3,287,263

 

2॰54

9॰70

 

8॰99

21॰23

1॰26

77॰51

100॰00

 

16. जैवविविधता के लाभ

 

कृषि, वानिकी, मत्स्यिकी, स्थायी प्राकृतिक जलक्रम, उपजाऊ मृदा, संतुलित जलवायु तथा अनेक अन्य वृहद पारिस्थितिक तंत्र जैव विविधता के संरक्षण पर निर्भर करते हैं। खाद्य पदार्थों का उत्पादन जैव विविधता के लिए विभिन्न प्रकार के खाद्य पौधों, परागण की प्रक्रिया, कीट नाशक, पौषक तत्वों तथा बीमारियों से सुरक्षा एवं बचाव पर निर्भर करता है। औषधीय पौधे तथा उत्पादित औषधियाँ दोनों ही जैव-विविधता पर निर्भर करती हैं। जैव विविधता में कमी के कारण मनुष्य में बीमारियों के संक्रमण की अधिकता तथा स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में वृद्धि देखी गई हैं।
जैवविविधता के लाभ

  1. उपभोगिक प्रयोग मान: लकड़ी का सीधा प्रयोग, भोजन, ईंधन की लकड़ी, समुदायों द्वारा चारे का प्रयोग।
  2. उत्पादित प्रयोग मान: जैव प्रौद्योगिकी वैज्ञानिक जैविक क्षेत्रों में पौधों तथा जीवों में ऐसी आनुवांशिक विशेषताओं को खोजते हैं जिन्हें बेहतर किस्म की फसलें जो कृषि तथा पौधों के कार्यक्रमों या बेहतर पशुधन प्राप्त करने में सहायता करती हैं। उद्योगपतियों के लिए, जैव विविधता नए उत्पाद बनाने का भण्डार गृह है। भेषज वैज्ञानिकों के लिए जैव विविधता एक कच्चा पदार्थ है जिससे पौधों या जीवों से उत्पन्न होने वाली नई दवाईयाँ प्राप्त की जा सकती हैं। कृषि वैज्ञानिकों के लिए जैव विविधता फसलों को बेहतर किस्मों को उत्पन्न करने में सहायता करती है।

3.

औषधि स्रोत प्रयोग
एट्रोपीन बैलाडोना एन्टीकोलीनर्जिक, डायरिया में आंतों के दर्द को कम करना।
बोमलेन अन्नानास तन्तुओं में दर्द से हुई सूजन को कम करना।
कैफीन चाय, कॉफी केन्द्रीय कोशिका तंत्र को जगाना।
कपूर कपूर का पेड़ एक जगह पर रक्त का प्रसार बढ़ाना रेबीफेशीएन्ट
कोकेन कोकोआ एनलजैसिक तथा लोकल एनैस्थैटिक, दर्द को कम करना विशेषता शल्य चिकित्सा में।
कोडीन अफीम, पॉपी एनलजैसिक, दर्द निवारक
मोर्फीन अफीम, पॉपी एनलजैसिक, दर्द निवारक
कोल्चीसोन ऑट्मन क्रोकस एन्टी कैन्सर
डिजीटोक्सिन कौमान फाक्सग्लोव हृदय रोगों में लाभकर
डाओस्जेनिन वाइल्ड यैम्स महिला गर्भरोधन तथा गर्भाधारण रोकने में सहायक
एल-डोपा वेल्वेट बीन्स पार्किन्सन रोग के ईलाज में सहायक
एरगोटामीन राई-स्मट या एरगोट माइग्रेन, सिरदर्द तथा हीमोरेज के ईलाज में सहायक
ग्लैजीओवाइन ओकोटिआ ग्लैजिओवी एन्टी डिपैसेन्ट
गौसीपोल कौटन मेल कान्ड्रासैप्टिव
एन्डीसिन एन-आक्साइड हैलीओट्रोपियम इन्डीकम एन्टी कैन्सर एजेन्ट
मैन्थाल पुदीना रूबीफेशीन्ट, रक्त के प्रवाह को बढ़ाना
मोनोक्रोटालिन कोटोलारिया सैसिलिफ्लोरा एन्टी कैन्सर एजेन्ट
पैपेन पपीता अधिकाधिक प्रोटीन तथा म्यूकस को द्रवित करना पाचन क्रिया में
पैनीसिलिन पैनीसिलीयम फन्गस एन्टीबायोटिक बैक्टीरिया समाप्त करना, संक्रमण रोकना
क्यूनीन पीला सिन्कोना मलेरिया में लाभदायक
रिसर्पाइन भारतीय स्नेकरूट उच्च रक्त चाप में सहायक
स्कोपोलामीन थोर्न एप्पल सेडेटिव
टैक्सोल पैसिफिक यू एन्टी कैन्सर
विन्बलास्टीन रोसी पेरीविंकल एन्टी कैन्सर

कई प्रकार के उद्योग मुख्यत: फार्मास्यूटिकल्स अधिक आर्थिक मूल्य वाले यौगिकों को पहचानने पर निर्भर करती है जिन्हें अनेक जंगली प्रजातियों तथा प्राकृतिक वनों में पाये जाने वाले पौधों में ढूँढा जाता है। इसे जैविक पूर्वेक्षण (Biological Prospecting) कहते हैं।

  1. सामाजिक मूल्य– जैव-विविधता के उपभागक तथा उत्पादित मान निकटतम रूप से पारंपरिक समुदायों के सामाजिक चिंतन से संबंधित हैं। पारिस्थितिक तंत्र के लोग जैव विविधता को अपने जीवन का एक भाग समझकर तथा अपने सांस्कृतिक तथा धार्मिक विचारों के द्वारा मूल्य देते हैं। अनेक प्रकार की फसलों को पारंपरिक कृषि तंत्रों में उगाया जाता है तथा इससे अनेक प्रकार के उत्पादों को प्रत्येक वर्ष उगाने तथा बिक्री करने की आज्ञा मिली है। पिछले कुछ वर्षों में किसानों को नकदी फसलें भारतीय तथा अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के लिए उगाने के लिए आर्थिक लाभांश मिलने लगे हैं। इस कारण आम बाजारों में खाद्य पदार्थों की कमी, बेरोजगारी (क्योंकि नकदी फसलों मुख्यत: मशीनों उगाई जाती हैं) भूमिहीनता तथा भुखमरी तथा बाढ़ के प्रकोप की संभावना ने जन्म लिया है।
  2. नैतिक मूल्यजैव-विविधता के संरक्षण से संबंधित नैतिक मूल्य मुख्यत: सभी प्रकार के जीवनों को संरक्षित करने पर निर्भर हैं। सभी प्रकार के जीवनों को पृथ्वी पर पनपने का अधिकार है। मनुष्य केवल पृथ्वी की विस्तृत जातियों के परिवारों का मात्र छोटा अंश है। परम्पराओं के द्वारा, भारतीय सभ्यता ने प्रकृति को कई पीढ़ियों तक सुरक्षित रखा है। यह कई संस्कृतियों की प्राचीन दर्शन का मुख्य भाग है। हमारे देश में हमारे पास कई प्रथाएं हैं जिन्हें कई राज्यों में आदिवासी जनजातियों ने संरक्षित किया है। यह पवित्र स्थान जो कि पवित्र मंदिरों के समीप स्थित है यह, जीन बैंक (पौधों के लिए) का काम करते हैं।
  3. सौंदर्य मूल्य– ज्ञान तथा जैवविविधता की उपस्थिति की प्रशंसा भी जैवविविधता को संरक्षित करने का एक मुख्य कारण है। जीव जंतुओं को भोजन के लिए मारने के अलावा जैवविविधता एक पर्यटकों के लिए एक मुख्य आकर्षण है।
  4. विकल्प मूल्य:भविष्य की संभावनाओं को खुला रखना ताकि उनका उपयोग हो सके, विकल्प मूल्य कहलाता है। हालांकि यह पता लगाना कि कौन से पशु या पौधों की प्रजातियां भविष्य में अधिकाधिक उपयोग में आएंगी लगभग असंभव प्रतीत होता है।

 

17. भारत में वायु की गुणवत्ता

भारतीय महानगरों मुख्यत: दिल्ली में वायु की गुणवत्ता प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 19 लाख लोग प्रतिवर्ष भारत में वायु प्रदूषण के कारण मर जाते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा मई, 2014 में तथा याले विश्वविद्यालय द्वारा फरवरी, 2014 में प्रकाशित अध्ययनों में नई दिल्ली की वायु को भारत अपितु समूचे विश्व में सबसे अधिक प्रदूषित पाया गया है। 2॰5 व्यास से कम आकार के कणों की उपस्थिति नवम्बर 2014 से अब तक दर्ज की गई। पाँच वर्षों के वार्षिक औसत के अनुसार, 2॰5 व्यास के आकार के कणों से लगभग प्रदूषण 100 था, जबकि इस वर्ष यह वर्ष 2013 के 101 तथा वर्ष 2012 के 98 की तुलना में 114 था।

कणिका तत्व क्या हैं?

सल्फेट, नाइट्रेट्स, अमोनिया, सोडियम क्लोराइड, ब्लैक कार्बन, खनिज धूल तथा जल कणिका तत्व के उदाहरण हैं। ये सभी अत्यधिक हानिकारक वायु प्रदूषक हैं। यह फेफड़ों में एकत्रित होकर, श्वसन, हृदय संबंधी रोगों तथा कैंसर की संभावनाओं को बढ़ा देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 10 माइक्रोन या उससे कम व्यास के कण स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक हानिकारक हैं। ये कण फेफड़ों में अत्यधिक गहराई तक पहुँच सकते हैं।

मोबाइल एप्पसफर

भारत की पहली वायु गुणवत्ता मापने वाली मोबाइल एप्प-सफर का शुभारंभ 17 फरवरी, 2015 को भारतीय उष्णकटिबंधीय जलवायु विज्ञान संस्थान में पुणे, महाराष्ट्र में किया गया।

सफर वायु गुणवत्ता जलवायु भविष्यवाणी तथा अनुसंधान व्यवस्था का नाम है जो पहली बार 2010 में दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान आरंभ हुई। सफर परियोजना के निदेशकगुफैन बेग हैं। इस एप्प को केन्द्रीय भूविज्ञान मंत्रालय द्वारा प्रारंभ किया गया ताकि वास्तविक समय में आनलाइन वायु गुणवत्ता संबंधी जानकारी उपलब्ध हो सके। इस समय यह एप्प सुविधा केवल पुणे तथा दिल्ली में ही उपलब्ध है। परन्तु मई, 2015 तक यह मुम्बई में भी उपलब्ध हो जाएगी। 2017 तक यह पूर्वानुमान सुविधा चैन्नई तथा कोलकाता तक भी फैल जाएगी।

यह व्यवस्था भारतीय मोसामिकी संस्थान तथा आई॰आई॰टी॰एम॰ द्वारा संयुक्त रूप से संचालित की जा रही है तथा इसका पूर्वानुमान ढाँचा आई॰आई॰टी॰एम॰ के आदित्यानामक सुपरकम्प्यूटर से संचालित किया जा रहा है।

मोबाइल एप्पसफर की विशेषताएँ

  • सफर – वायु मोबाइल में चलने वाली पहली सुविधा है जो वायु की गुणवत्ता का तत्काल तथा आगामी पूर्वानुमान बताती है।
  • यह सुविधा भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसमिकी संस्थान, पुणे के वैज्ञानिकों के द्वारा विकसित की गई है।
  • यह सुविधा उपभोक्ता के स्थान पर वायु की गुणवत्ता का तत्काल तथा आगामी पूर्वानुमान बताती है इसमें एक रंग संबंधी व्यवस्था से यह पूर्वानुमान पता चलते हैं जैसे हरे रंग का अर्थ है अच्छा, पीले रंग का अर्थ है मध्यम वर्गीय प्रदूषण, संतरी का अर्थ है खराब तथा लाल का अर्थ है बेहद खराब और गाढ़ा भूरा मतलब अत्यधिक प्रदूषित।
  • यह सुविधा पहले गूगल के एंडराइड से चलने वाले फोनों पर उपलब्ध होगी और फिर उप्पल के आइ ओ एस पर।
  • उपभोक्ता इस सुविधा से प्राप्त जानकारी को ट्विटर, फेसबुक तथा ई-मेल से सांझा कर सकते हैं।
  • इस सुविधा से वायु प्रदूषण से होने वाली हानियों का पता लगाने तथा योजना बनाने वालों को वायु प्रदूषण के व्यवहारिक मापदंड सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।

18. ठोस अपशिष्ट प्रबंधन

ठोस अपशिष्ट प्रबंधन का संबंध अपशिष्ट पदार्थों के निकास से लेकर उसके उत्पादन व पुनः चक्रण द्वारा निपटान करने की देखरेख से है| अतः ठोस अपशिष्ट प्रबंधन को निम्न रूप में परिभाषित किया जा सकता है: ठोस अपशिष्ट के उत्पादन का व्यवस्थित नियंत्रण, संग्रह, भंडारण, ढुलाई, निकास पृथ्थ्करण, प्रसंस्करण, उपचार, पुनः प्राप्ति और उसका निपटान |

नगरपालिका अपशिष्ट पदार्थ (MSW ) शब्द का प्रायः इस्तेमाल शहर, गाँव या कस्बे के कचरे के लिए किया जाता है जिसमे रोज़ के कचरे को इकठ्ठा कर व उसे ढुलाई के द्वारा निपटान क्षेत्र तक पहुंचाने का काम होता है| नगरपालिका अपशिष्ट पदार्थ (MSW) के स्त्रोतों में निजी घर, वाणिज्यिक प्रतिष्ठानो और संस्थाओं के साथ साथ औद्योगिक सुविधाएं भी आती हैं | हालांकि, MSW  औद्योगिक प्रक्रियाओं से निकले कचरे, निर्माण और विध्वंस के मलबे, मल के कीचड़, खनन अपशिष्ट पदार्थों या कृषि संबंधी कचरे को अपने में शामिल नहीं करता है |नगरपालिका अपशिष्ट पदार्थों में विविध प्रकार की सामग्री आती है | इसमे खाद्य अपशिष्ट जैसे सब्जियाँ या बचा हुआ मांस, बचा हुआ खाना, अंडे के छिलके आदि ,जिसे गीला कचरा कहा जाता है ,और साथ ही साथ कागज़, प्लास्टिक, टेट्रापेक्स,प्लास्टिक के डिब्बे, अखबार, काँच की बोतलें, गत्ते के डिब्बे, एल्युमिनियम की पत्तियाँ, धातु की चीज़ें, लकड़ी के टुकड़े इत्यादि ,जिसे सूखा कचरा कहा जाता है ,जैसे अपशिष्ट पदार्थ आते हैं |

अपशिष्ट प्रबंधन निम्नलिखित  गतिविधियों का समूह है :

  1. कचरे का संग्रह, ढुलाई,प्रशोधन व निपटान
  2. उत्पादन का नियंत्रण, देखरेख व व्यवस्थापन, अपशिष्ट पदार्थों का संग्रह, ढुलाई, प्रशोधन व निपटान ; और
  3. प्रक्रिया में संशोधन, पुनः उपयोग व पुनर्चक्रण द्वारा अपशिष्ट पदार्थ की रोकथाम

अपशिष्ट प्रबंधन शब्द सभी प्रकार के कचरे से संबंध रखता है चाहे वह कच्चे माल की निकासी के दौरान उत्पन्न हुआ हो, या फिर कच्चे माल के मध्य और अंतिम उत्पाद के प्रसंस्करण के दौरान निकला हुआ हो या अन्य मानव गतिविधियों जैसे नगरपालिका (आवासीय, संस्थागत व वाणिज्यक), कृषि संबंधी और विशेष (स्वास्थ्य देखभाल, खतरनाक घरेलू अपशिष्ट, माल का कीचड़) से संबंधित हो | अपशिष्ट प्रबंधन का अभिप्राय स्वास्थ्य, पर्यावरण या सौदर्यात्मक पहलुओं पर कचरे के प्रभाव को कम करने का है |

अपशिष्ट प्रबंधन से संबंधित मुद्दे निम्न हैं:

  1. कचरे का उत्पादन
  2. कचरा कम करना
  3. कचरे को हटाना
  4. कचरे की ढुलाई
  5. अपशिष्ट प्रशोधन
  6. पुनर्चक्रण और पुन: उपयोग
  7. भंडारण, संग्रह, ढुलाई और स्थानातरण
  8. उपचार
  9. भराव क्षेत्र निपटान
  10. पर्यावरण महत्व
  11. वित्तीय और व्यापारिक पहलू
  12. नीति और अधिनियम
  13. शिक्षण और प्रशिक्षण
  14. योजना और कार्यान्वयन

अपशिष्ट प्रबंधन के साधन विभिन्न देशों (विकसित व विकासशील देश), प्रदेशों (शहरी और ग्रामीण क्षेत्र), व्यावसायिक क्षेत्रों (आवासीय और औद्योगिक) में एकसमान नहीं हैं |

शहरी और औद्योगिक कचरे के नियंत्रण के उपाय :

एक एकीकृत अपशिष्ट प्रबंधन के रणनीति के तीन मुख्य घटक निम्न हैं :

  1. कचरे की निकासी में कमी
  2. पुनर्चक्रण
  3. निपटान

 

19. जल प्रबंधन

जल संसाधन प्रबंधन, जल संसाधनों के इष्टतम उपयोग के आयोजन, विकास, वितरण और प्रबंधन से सम्बंधित गतिविधि है । यह जलचक्र प्रबंधन का उप-समुच्चय हैं । आदर्श रूप से, जल संसाधन प्रबंधन की योजना सभी की पानी की मांग को पूरा करने और उन मांगों को पूरा करने के लिए एक समान आधार पर पानी आवंटित करने से सम्बंधित है |

जल चक्र, वाष्पीकरण और वर्षा के माध्यम से, हाइड्रोलोजिकल प्रणाली को बनाए रखता है जो नदी, झीलों को बनाते हैं और कई किस्म की जलीय प्रणाली को आश्रय देते हैं | झीलें, स्थलीय और जलीय पारिस्थितिकी तंत्रों के बीच के मध्यवर्ती रूप हैं और इनमें पौधों और जन्तुओ की अनेक प्रजातियाँ पायी जाती हैं जो नमी पर निर्भर रहतीं हैं |

जल से सम्बंधित सांख्यिकी

जल पृथ्वी की सतह के 70% भाग पर फैला हुआ हैं, लेकिन इसमें से केवल 3% ताजा पानी है। इसमें से 2% ध्रुवीय बर्फ पेटियों में है और केवल 1% नदियों, झीलों और अवभूमि जलवाही स्तर में है। इसका केवल एक अंश ही वास्तव में इस्तेमाल किया जा सकता है। वैश्विक स्तर पर पानी का 70% भाग कृषि के लिए, लगभग 25 %  उद्योग के लिए  और केवल 5% घरेलू उपयोग के लिए प्रयोग किया जाता है। हालांकि यह विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न होता है जैसे औद्योगिक देश उद्योग के लिए जल के एक बड़े प्रतिशत का उपयोग करते हैं | भारत में कृषि के लिए 90%, उद्योग के लिए 7% और घरेलू इस्तेमाल के लिए 3% जल का उपयोग होता है।आज कुल वार्षिक मीठे पानी की निकासी 3800 घन किलोमिटर के लगभग है जो 50 साल पहले का दोगुना है (बांधों पर विश्व आयोग की रिपोर्ट, 2000) ।अध्ययनों से संकेत मिलता है कि एक व्यक्ति को पीने और स्वच्छता के लिए कम से कम प्रति दिन 20 से 40 लीटर पानी की जरूरत होती है |

भारत में 2025 तक पानी की उपलब्धता बहुत ही नाज़ुक स्तर तक पहुँचने की उम्मीद है | वैश्विक स्तर पर 31 देशों में पानी की कमी है और 2025 तक 48 देशों को पानी की कमी का गंभीर सामना करना पड़ सकता है| संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार 2050 तक 4 अरब लोग गंभीर रूप से पानी की कमी से प्रभावित होगे । इस पानी के बंटवारे को लेकर कई देशों के बीच संघर्ष को बढ़ावा मिलेगा। भारत में करीब 20 प्रमुख शहर स्थायी या अस्थाई पानी की कमी का सामना करते हैं । ऐसे 100 देश हैं जो 13 बड़ी नदियों और झीलों के पानी के सहभागी हैं । अंतर्राष्ट्रीय समझौते जो ऐसे देशों में पानी के निष्पक्ष वितरण की देखरेख करते हैं विश्व शांति के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं। भारत और बांग्लादेश ने पहले से ही गंगा के पानी के उपयोग पर बातचीत के जरिए समझौता किया है।

स्थायी जल प्रबंधन: ‘पानी बचाओ’ अभियान लोगों को हर जगह पानी की कमी के खतरों के बारे में जागरूक करने के लिए चलाया हैं। दुनिया के जल संसाधनों के बेहतर प्रबंधन के लिए कई कदम उठाए जाने की जरूरत है। इन उपायों में शामिल हैं:

  • कुछ बड़ी परियोजनाओं के निर्माण के बजाय कई छोटे जलाशयों को बनाना ।
  • छोटे जलग्रहण बांधों का विकास करना और झीलों की रक्षा करना।
  • मृदा प्रबंधन, सूक्ष्म जलग्रहण विकास और वनीकरण द्वारा भूमिगत जलभृतों को फिर से अत्यधिक जल सम्पन्न बना देना जिससे कि बड़े बांधों की ज़रूरत घट जाए |
  • नगर निगम के कचरे का निदान व पुनर्चक्रण कर इस जल का कृषि के लिए उपयोग करना ।
  • बांधों और नहरों से रिसाव की रोकथाम।
  • शहरों में प्रभावी वर्षा जल संचयन का प्रचार करना ।
  • कृषि के क्षेत्र में जल संरक्षण के उपायों को लागू करना जैसे रिसाव वाली सिंचाई का प्रयोग करना ।
  • पानी का वास्तविक मूल्य निर्धारित करने से लोग अधिक ज़िम्मेदारी व कुशलता से इसका उपयोग करेंगे और पानी की बर्बादी कम करेंगे |
  • कटाई क्षेत्रों में जहां भूमि निम्न दर्जे की हो जाती है, पहाड़ी ढलानों पर मेड्बंधी कर मृदा प्रबंधन किया जा सकता है और प्लग पर नाले बनाकर नमी बनाए रखने में मदद मिलेगी और निम्न दर्जे के क्षेत्रों को फिर से हरा भरा बनाना मुमकिन हो जाएगा |

बांधों की समस्याएं

  • विखंडन और नदियों का प्राकृतिक परिवर्तन।
  • नदी के पारिस्थितिक तंत्र पर गंभीर प्रभाव
  • लोगों के विस्थापन के कारण बड़े बांधों के सामाजिक परिणाम।
  • आसपास की भूमि का जल जमाव और स्थिरीकरण ।
  • जानवरों की संख्या को कम करना, उनके निवास स्थान को नुकसान पहुँचाना और उनके प्रवास मार्गों को काटना ।
  • नाव द्वारा मछली पकड़ने और पर्यटन में बाधा पड़ना ।
  • वनस्पतियों के सड़ने तथा जलप्रवाह से कार्बन अंतः प्रवाह के कारण जलाशयों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के प्रभाव का हाल में ही पता चला है |

सरदार सरोवर परियोजना

1993 में भारत में सरदार सरोवर परियोजना से विश्व बैंक के पीछे हट जाने के कारण जल मग्न क्षेत्रों के स्थानीय लोगों की आजीविका और उनके घरों के डूब जाने का खतरा पैदा हो गया था | गुजरात में नर्मदा पर बने इस बांध ने कई हज़ार आदिवासी लोगों को विस्थापित कर दिया जिनका जीवन और जीविका इस नदी, वन और कृषि भूमि से जुड़ी हुई थी| नदी के किनारे रहने वाले मछुआरों ने अपनी भूमि को खो दिया है, जबकि इसका लाभ नीचे के क्षेत्रों में रहने वाले अमीर किसानों को होगा जिन्हें कृषि के लिए पानी मिल जाएगा।

हिमाचल प्रदेश में कूल्हें

हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में चार सौ से अधिक साल पहले नहर सिंचाई की एक स्थानीय प्रणाली को विकसित किया गया जिसे कुल्ह कहा गया । नदियों में बह रहे पानी को इन कुल्हों के द्वारा मानव निर्मित नालों में बाँट दिया गया जो पानी को पहाड़ी ढलानों पर बने कई गाँव में ले जाती थी। इन कूल्हों में बह रहे पानी का प्रबंधन सभी गांवों के बीच आम सहमति से किया गया था। दिलचस्प बात यह है कि रोपण के मौसम के दौरान, ऊंचाई वाले गावों से पहले पानी का इस्तेमाल कुल्ह के स्रोतों से दूर गावों द्वारा किया जाता है । इन कूल्हों की देखरेख दो या तीन लोगों द्वारा की जाती है जिन्हें ग्रामीणों द्वारा भुगतान किया जाता है | सिंचाई के अलावा, इन कूल्हों से पानी को मिट्टी में भी डाल दिया जाता है और विभिन्न जगहों पर पौधों को पानी मिल जाता है । सिंचाई विभाग द्वारा कूल्हों पर अधिकार लिए जाने से, ज़्यादातर कूल्हें निर्जीव हो गईं और पहले की तरह पानी की सौहार्दपूर्ण भागीदारी नहीं रही है|

जल संचयन भारत में एक पुरानी अवधारणा है, जिनके विभिन्न नाम इस प्रकार हैं:

  • राजस्थान में खाड़ियाँ, तालाब और नदियाँ ,
  • महाराष्ट्र में बंधर और ताल,
  • मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बंधी, बिहार में अहर और प्यने
  • हिमाचल प्रदेश में कूल्ह,
  • जम्मू क्षेत्र के कंडी इलाके में तालाब,
  • तमिलनाडु में एरिस (तालाब),
  • केरल में सुरंगम, और
  • कर्नाटक में कट्टा, सबसे प्राचीन जल संचयनों में से हैं जिसमें जल संवहन का प्रयोग अभी तक किया जाता है | स्थानीय जल संसाधनों पर लोगों के नियंत्रण ने इन संसाधनों के कुप्रबंधन और अति उपभोग को कम कर दिया है |

 

20. ध्वनि प्रदूषण

तेज विक्षोभी ध्वनि को वातावरण में इसके विपरीत प्रभाव का अनुमान  लगाये  बगैर  उत्पन्न करने को ध्वनि प्रदूषण कहते हैं। सबसे ज्यादा बाहरी शोर का स्रोत दुनिया भर में मुख्य रूप से मशीनों और परिवहन प्रणालियों, मोटर वाहन, विमान, और रेलगाड़ियों के कारण होता है।

क्षेत्र के अनुसार परिवेश शोर की अनुमति इस प्रकार है:

क्षेत्र दिन (6.00 – 21.00 Hr) रात्रि (21.00 – 6.00 Hr)
उद्योग 75 dB 70 dB
व्यापारिक 65 dB 55 dB
आवास 55 dB 45 dB
शांत क्षेत्र 50 dB 40 dB

शारीरिक स्वास्थ्य पर ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव

अत्यधिक शोर का  सबसे प्रत्यक्ष हानिकारक प्रभाव कान पर पड़ता  है और इससे अस्थायी या स्थायी रूप से श्रवण शक्ति खो जाती है जिसे  अस्थायी सीमा पारी (टीटीएस) कहते हैं | इस हालत से पीड़ित लोग कमजोर ध्वनियों का भी पता लगाने में भी असमर्थ होते हैं |  हालांकि सुनने की क्षमता आम तौर पर  एक महीने के भीतर आ जाती है |महाराष्ट्र में  गणेश मंडलों के पास के इलाके में रहने वाले लोगों को जहां गणेश उत्सव के दस दिन तक ज़ोर से संगीत बजता रहता है उन्हे आमतौर पर इस घटना से पीड़ित होना पड़ता है | स्थायी नुकसान, आमतौर पर जिसे शोर प्रेरित स्थायी सीमा पारी (NIPTS)कहा जाता है सुनने की क्षमता को नुकसान पहुंचाता है जिसे किसी भी प्रकार से ठीक नहीं किया जा सकता |

80 dBA स्तर की आवाज़ के नीचे श्रवण  शक्ति की क्षति  बिलकुल भी नहीं होती है |  हालांकि 80 और 130dBA के बीच ध्वनि के स्तर पर अस्थायी प्रभाव देखा गया है | लगभग 50 प्रतिशत लोग  अपने काम के दौरान 95 dBA ध्वनि के स्तर के संपर्क में आते हैं उनमें NIPTS विकसित हो जाती है  और ज़्यादातर लोग जोकि 105  dBA से अधिक ध्वनि के स्तर पर आते हैं उन्हे कुछ  हद तक स्थायी बहरापन हो जाता है | 150 DBA या उससे ज्यादा का ध्वनि स्तर शारीरिक रूप से मानव के कान के पर्दे को फाड़ सकता है | श्रवण शक्ति के नुकसान की डिग्री ध्वनि के अवधि ऑर तीव्रता पर निर्भर करता है | ध्वनि भावनात्मक या मानसिक प्रभाव का कारण भी बन सकते हैं जैसे चिड़चिड़ापन, चिंता और तनाव । शोर के महत्वपूर्ण स्वास्थ्य प्रभाव में एकाग्रता और मानसिक थकान जैसे बीमारियाँ शामिल हैं |

ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव

आम तौर पर, ध्वनि प्रदूषण की वजह से तनाव संबन्धित समस्याएँ , भाषण हस्तक्षेप, बहरापन , नींद व्यवधान, और उत्पादकता में कमी जैसी बीमारियाँ  शामिल हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है, इसके तीन प्रमुख प्रभाव हैं जिन्हें हम देख सकते हैं :

शोर और सुनने में रुकावट होना

एक व्यक्ति पर  शोर प्रदूषण का  तत्काल और तीव्र प्रभाव, लंबे समय की अवधि के लिए, बहरापन होना  है। एक व्यक्ति के लिए लंबे समय तक  आवेगी शोर में रहने के कारण उसके कान के पर्दे को नुकसान पहुँच सकता है जिसके वजह से स्थायी बहरापन हो सकता है |

ध्वनि और उपद्रव समुद्री पशु

समुद्री वैज्ञानिकों को तेल अभ्यास, पनडुब्बियों और अन्य जहाजों पर से और समुद्र के अंदर इस्तेमाल कियाजाने से  अत्यधिक शोर होने से  चिंतित हैं। बहुत से समुद्री जीव , विशेष रूप से व्हेल, भोजन ढूँढने, संवाद करने के लिए, रक्षा और समुद्र में जीवित रहने के लिए श्रवण शक्ति का उपयोग करती हैं | उदाहरण के लिए, एक नौसेना की पनडुब्बी के सोनार के प्रभाव से 300 मील दूर स्रोत से महसूस किया जा सकता है।

(सोनार पण्डुब्बियों और अन्य मछ्ली पकड़ने की नौकाओं द्वारा पानी  की गहराई को मापने के लिए, वस्तु की निकटता जानने के लिए या पानी में अन्य वस्तुओं की आवाजाही के लिए  ध्वनि के उपयोग को कहते हैं |

इन किनारे वाली कई  व्हेलों को शारीरिक आघात का सामना करना पड़ा है जिसमें  मस्तिष्क व कान  के आसपास खून बहना  और अन्य ऊतकों और उनके अंगों में  बड़े बुलबुले बनना |

शोर और उपद्रव का सामान्य स्वास्थ्य पर  प्रभाव

ध्वनि प्रदूषण का स्वास्थ्य पर प्रभाव में चिंता, और तनाव की प्रतिक्रिया  और कई मामलों में भय भी शामिल है | शारीरिक अभिव्यक्तियों में  सिर दर्द, चिड़चिड़ापन और घबराहट और थकान  महसूस करना   और कार्य कुशलता में कमी होना शामिल होना है । उदाहरण के लिए, आपके शहर में पूरी रात  दमकल कर्मियों का, पुलिस या एंबुलेंस का  साइरन बजने से हर रोज सुबह में लोगों को (विशेष रूप से बुजुर्ग लोगों) तनाव होगा और थके हुए महसूस करेंगे |

यह ध्यान देने योग्य बात है कि ये प्रभाव ध्वनि परेशानी ना लगें परंतु सच्चाई यह है कि समय के साथ इनके परिणाम बहुत ही चिंताजनक हो सकते हैं |

ध्वनि नियंत्रण तकनीक

निम्न चार मूलभूत तरीके हैं जिनसे ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकता है :

  1. तेज़ ध्वनि करने वाले स्रोतों को कम करना ,
  2. ध्वनि प्रदूषण करने वाले मार्गों को बंद करना
  3. ध्वनि के पथ की लंबाई को बढ़ाना और प्राप्तकर्ता की रक्षा करना
  4. ध्वनि स्तर के स्रोतों को कम करना

21. गैर नवीकरणीय संसाधन

गैर नवीकरणीय संसाधन वह खनिज हैं जो लाखों साल से स्थलमंडल में बनते आए हैं और एक संवृत प्रणाली का गठन करते हैं | ये गैर नवीकरणीय संसाधन, एक बार इस्तेमाल में आते हैं, एक अलग रूप में पृथ्वी पर रहते हैं और जब तक पुनर्नवीनीकरण न हो जाये, ये अपशिष्ट पदार्थ बन जाते हैं। गैर नवीकरणीय संसाधनों में जीवाश्म ईंधन भी शामिल हैं जैसे तेल और कोयला, यदि इन्हे वर्तमान दर पर निकाला जाये तो ये जल्दी ही पूरी तरह से खत्म हो जाएंगे |
अतः एक गैर नवीकरणीय संसाधन(जिसे सीमित संसाधन भी कहा जाता है ) वह संसाधन है जोकि मानव समय के ढांचे अनुसार सार्थक ढंग से सतत आर्थिक निकासी के लिए एक पर्याप्त दर पर खुद को नवीनीकृत नहीं करता है|एक उदाहरण है कार्बन आधारित, जैविक व्युत्पन्न ईंधन। मूल कार्बनिक पदार्थ, गर्मी और दबाव की सहायता के साथ, तेल या गैस के रूप में ईंधन बन जाते हैं। पृथ्वी खनिज और धातु अयस्क, जीवाश्म ईंधन (कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस)और  जलवाही स्तर में कुछ भूजल सभी गैर-नवीकरणीय संसाधन हैं।

पृथ्वी खनिज और धातु अयस्क:

भूमि खनिज और धातु अयस्क गैर नवीकरणीय संसाधनों के अन्य उदाहरण हैं। धातु अपने आप में विशाल मात्रा मे भूपटल में मौजूद हैं और केवल मनुष्य द्वारा इनकी निकासी की जाती है जहां प्राकृतिक भूगर्भीय प्रक्रियाओं (जैसे गर्मी, दबाव, जैविक गतिविधि, अपक्षय और अन्य प्रक्रियाओं के रूप में)  द्वारा संकेंद्रित होता है  इन सभी खनिजों का जुटाव प्राकृतिक भौगोलिक क्रियायों के कारण होता है। इन प्रक्रियाओं के होने में आम तौर पर प्लेट टेक्टोनिक्स, विवर्तनिक घटाव और क्रस्टल रीसाइक्लिंग का योगदान होता है ।  इन प्रक्रियाओं के होने में दशकों से लाखों साल तक का समय लगता है |

जीवाश्म ईंधन:

प्राकृतिक संसाधन जैसे कोयला, पेट्रोलियम (कच्चा तेल) और प्राकृतिक गैस को   स्वाभाविक रूप से बनने में हजारों साल लगते हैं और इन्हें इतने शीघ्रता से नहीं  बदला जा सकता जितनी जल्दी इसे उपयोग में लाया जाता है | अंततः यह माना जाता है कि जीवाश्म आधारित संसाधन उत्पत्ति के लिहाज से काफी महंगे हो जाएँगे और मानव को अपनी निर्भरता को ऊर्जा के अन्य स्रोतों पर स्थानांतरित करना होगा । इन संसाधनों को नाम दिया जाना अभी बाकी है।
वर्तमान में, मनुष्यों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाला मुख्य ऊर्जा का स्रोत, गैर नवीकरणीय जीवाश्म ईंधन है। 17 वीं सदी में आंतरिक दहन इंजन प्रौद्योगिकी के बाद से, पेट्रोलियम और अन्य जीवाश्म ईंधन निरंतर मांग में बने हुए हैं। नतीजतन, पारंपरिक बुनियादी ढांचे और परिवहन प्रणाली जो ज्वलन इंजन के लिए उपयुक्त हैं, दुनिया भर में प्रमुखता से बने हुए हैं। वर्तमान दर में जीवाश्म ईंधन के लगातार प्रयोग से ग्लोबल वार्मिंग बढ्ने का खतरा बन रहा है और अधिक गंभीर जलवायु परिवर्तन का कारण माना जा रहा है।

परमाणु ईंधन:

1987 में, पर्यावरण और विकास (WCED) पर (विश्व आयोग), एक संगठन संयुक्त राष्ट्र की ओर से गठित किया गया लेकिन संयुक्त राष्ट्र से स्वतंत्र था, जिसने  विखंडन रिएक्टरों को विभिन्न वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। एक वर्ग में वे रिएक्टर है जो मानव विकास के लिए उर्जा का विकास करते हैं और दूसरा वो वर्ग है जो परमाणु उर्जा का विकास करते हैं ।

यूरेनियम जो कि एक प्रमुख नाभिकीय ईंधन है परन्तु यह पृथ्वी में बहुत कम मात्र में पाया जाता है और दुनिया भर में केवल 19 देशों में इसकी खुदाई होती है । यूरेनियम 235 जो कि मुख्यतः ऊष्मा उत्पन्न करता है , का प्रयोग अंतिम रूप से विद्युत् टरबाइन को चलने में उपयोग किया जाता है और इसी से अन्ततः बिजली का उत्पादन होता है ।

परमाणु ऊर्जा दुनिया की ऊर्जा का कुल 6% और दुनिया की बिजली का 13-14% उत्पन्न करती है। परमाणु ऊर्जा उत्पादन ,संभावित खतरनाक रेडियोधर्मी संदूषण के साथ जुड़ा हुआ है क्योंकि यह अस्थिर तत्वों पर निर्भर करता है |  विशेष रूप से, दुनिया भर में हर साल परमाणु बिजली की सुविधा के अनुसार लगभग निम्न स्तर पर 200,000 मीट्रिक टन और मध्यवर्ती स्तर अपशिष्ट (LILW) और उच्च स्तर अपशिष्ट (HLW) (अपशिष्ट के रूप में नामित ईंधन खर्च सहित) के 10,000 मीट्रिक टन का उत्पादन करता है ।

 

22. जल चक्र

जब बारिश होती है, पानी जमीन के समानांतर चलता है और नदियों में प्रवाहित होता है या सीधे समुद्र में गिर जाता है। वर्षा जल का एक भाग जो भूमि पर गिरता है,वह जमीन में रिस जाता है । साल भर इसी तरह जल भूमिगत रूप में संग्रहीत हो जाता है ।  जल के साथ पौधों द्वारा मिट्टी से पोषक तत्वों को भी खींच लिया जाता है । पानी जल वाष्प के रूप में पत्तियों से उड़ जाता है और वातावरण में वापस चला जाता है । वाष्प हवा से हल्की होती है अतः जल वाष्प ऊपर उठती है और बादलों का रूप ले लेती है। हवाएँ लंबी दूरी तक बादलों को उड़ा कर ले जाती हैं और जब बादल अधिक ऊपर उठ जाते हैं तो वाष्प संघनित हो जाती है और बादल बन जाती हैं जो बारिश के रूप में जमीन पर गिरती हैं।यद्यपि यह एक अंतहीन चक्र है जिस पर जीवन निर्भर करता है| मानव गतिविधियां के कारन होने वाले प्रदूषण के जरिये वातावरण में भारी बदलाव आ रहा है जो वर्षा के स्वरूप में फेरबदल कर रहा है |

वाष्पीकरण क्या है और यह क्यों होता है?

वाष्पीकरण एक प्रक्रिया है जिसमें पानी तरल रूप से गैस या वाष्प में बदल जाता है । वाष्पीकरण प्राथमिक मार्ग है जिसमें होकर तरल जल वायुमंडलीय जल वाष्प के रूप में जल चक्र में शामिल होता है। अध्ययनों से यह पता चलता है कि महासागरों, समुद्र, झीलों और नदियों से होने वाला वाष्पीकरण 90 प्रतिशत वातावरणीय नमी प्रदान करता हैं, शेष 10 प्रतिशत नमी पौधों से होने वाले वाष्पोत्सर्जन से प्राप्त होती है |
वाष्पोत्सर्जन:

पौधे की पत्तियों से पानी का मुक्त होना

वाष्पोत्सर्जन एक प्रक्रिया है जिसमें पौधों की जड़ों से पत्तियों पर स्थित छोटे छिद्रों तक नमी को ले जाया जाता है,जहां ये भाप में परिवर्तित हो कर वातावरण में चली  जाती है | वाष्पोत्सर्जन अनिवार्य रूप से पौधों की पत्तियों से पानी का वाष्पीकरण है | एक अनुमान के अनुसार वातावरण में पाई जाने वाली 10% नमी वाष्पोत्सर्जन के द्वारा पौधों से प्राप्त होती है |

पौधों से होने वाला वाष्पोत्सर्जन एक अदृश्य प्रक्रिया है : जैसे कि पानी का वाष्पीकरण पत्तियों की सतह से होता है, तो आप बाहर जाकर पत्तियों को श्वास लेते हुए नहीं देख सकते |बढ़ते मौसम के दौरान, एक पत्ती कई बार अपने स्वयं की वज़न की तुलना में अधिक पानी को भाप बनाकर उड़ाती  हैं | एक बड़ा शाहबलूतका(ओक ) का वृक्ष प्रति वर्ष 40,000 (1510000 लीटर ) गैलन पानी भाप बना कर उड़ा देता है |

संघनन: वह प्रक्रिया जिसके द्वारा पानी भाप से तरल अवस्था में बदल जाता है |

संघनन वह प्रक्रिया है जिसमें वायु में मौजूद जलवाष्प तरल पानी में बदल जाता है। यह बादलों के गठन के लिए जिम्मेदार और संघनन जल चक्र के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये बादलों के रचना के लिए उत्तरदायी हैं।ये बादल वर्षा की उत्पत्ति करते हैं जोकि जल चक्र के भीतर पृथ्वी की सतह पर जल के वापस आने का प्राथमिक मार्ग हैं | संघनन वाष्पीकरण के विपरीत क्रिया है।

संघनन जमीनी स्तर के कोहरे के लिए जिम्मेदार है जिसमें आपके ठंडे कमरे से बाहर गरम और नमी वाले दिन बाहर जाने पर आपके  चश्मे में कोहरा जम जाता है, ठंडी चाय के गिलास के बाहर पानी का टपकना, तथा ठंड के दिनों में घर की खिड़कियों में अंदर की तरफ पानी का कोहरा बनना शामिल है |

वर्षा: पानी का तरल या ठोस अवस्था में वातावरण से बाहर, जमीन या पानी की सतह पर गिरना|

वर्षण बादल से निकला हुआ पानी है जो स्लीट,वर्षा,हिम व ओले आदि के रूप में रिथ्वी पर गिरती है । यह जल चक्र में प्राथमिक संयोजन है जो पृथ्वी के वायुमंडल में जल का वितरण  करती  है |

भूमि के ऊपर तैरते बादलों में जल वाष्प तथा पानी की बूंदें होती हैं जो गाढ़े पानी की छोटी बूँदें होती  हैं। ये  बूंदें वर्षं के रूप में गिरने के लिए काफी चोटी हैं लेकिन वे बादलों के रूप में दिखने के लिए काफी बड़े होते हैं । पानी लगातार आकाश में  वाष्पित  और  संघनित हो रहा है। यदि आप ध्यान से  बादल को देखें तो आप पाएंगे कि बादल के कुछ भाग (वाष्पन से) गायब हो रहा है जबकि कुछ भाग (संघनन से) बढ़ रहा है । ज़्यादातर बादलों में संघनित पानी वर्षण के रूप में नहीं गिरता क्योंकि इनकी गति इतनी तेज़ नहीं होती कि वे वायु के तेज़ वेग को काबू कर  सकें जो बादलों को संभालते हैं । वर्षण के लिए, पहले छोटी पानी की बूंदों को संघनित होना जरुरी है  जिसमे धूल के छोटे कण, नमक, ओर कोहरे के छोटे कण भी शामिल होंगे,जो नाभिक के रूप में  कार्य करते हैं | कणों के टकराने से  पानी की बूंदें जलवाष्प के अतिरिक्त संघनन के रूप में विकसित हो सकती हैं । यदि ज्यादा टकराने के कारण एक तेज़ वेग के साथ बूंदों की उत्पत्ति होती है जोकि बादलों के तेज़ वेग की गति से आगे बढ़ पाएँ तब वह वर्षण के रूप में बादलों से गिरेगा |यह कोई छोटा कार्य नहीं है,इसमे एक वर्षा के बूंद के उत्पादन के लिए,लाखों बादलों की बूंदों की जरूरत होती है |

 

23. ऊर्जा के नवीकरणीय संसाधन

नवीकरणीय वह ऊर्जा है जो नवीकरणीय (अर्थात स्वाभाविक रूप से पूनःपूर्ति में सक्षम) प्राकृतिक संसाधनों, जैसे-सूर्य ताप , वायु , वर्षा , ज्वार और भूतापीय गर्मी से उत्पन्न होती है । नवीकरणीय  ऊर्जा प्रौद्योगिकियों को सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, पनबिजली / लघु पनबिजली, बायोमास और जैव ईंधन के रूप में परिभाषित किया जाता है  ।

ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों के उदाहरण

आपने देखा होगा कि जल, वायु, सूर्य और जैव ईंधन (वनस्पति )  सभी स्वाभाविक रूप से उपलब्ध हैं तथा इन्हें कृत्रिम रूप से बनाया नहीं जा सकता जबकि अन्य ऊर्जा संसाधन स्वाभाविक रूप से मौजूद नहीं है,उनका  गठन किया गया है । नवीकरणीय ऊर्जा संसाधन हमेशा उपयोग किये  जा सकने के लिए उपलब्ध हैं, और कभी खत्म नहीं होंगे | यही कारण है कुछ लोग इसे हरित ऊर्जा कहते हैं ।

नवीकरणीय  ऊर्जा संसाधन  और ऊर्जा दक्षता के लिए महत्वपूर्ण अवसर अन्य ऊर्जा के स्रोतों की  तुलना में ,जोकि सीमित देशों में केन्द्रित है,व्यापक भौगोलिक क्षेत्रों में मौजूद है । नवीकरणीय  ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता के  निरंतर विकास और ऊर्जा स्रोतों के तकनीकी विविधीकरण की त्वरित तैनाती का नतीजा  ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक लाभ होगा। यह पर्यावरण प्रदूषण को भी कम करेगा (क्योंकि जीवाश्म ईंधन के जलने से वायु प्रदूषण होता है) और सार्वजनिक स्वास्थ्य में भी सुधार होगा, प्रदूषण के कारण समय से पहले मौत को कम करने में मदद मिलेगी| केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में स्वास्थ्य से जुड़ी हुई सालाना 100 अरब डॉलर की लागत को बचाया जा सकता है | नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत,जो अपनी ऊर्जा सीधे या परोक्ष रूप से सूर्य से प्राप्त करते हैं जैसे कि जल तथा वायु,से लगभग 1 अरब साल तक मानव ऊर्जा की आपूर्ति करने की उम्मीद कर रहे हैं |

21 वीं सदी के लिए अक्षय ऊर्जा नीति नेटवर्क अर्थात REN21 की 2014 की रिपोर्ट के आधार पर, नवीकरणीय ऊर्जा हमारे वैश्विक ऊर्जा की खपत में  19 प्रतिशत का योगदान देती है और  क्रमश: 2012 और 2013 में हमारी बिजली उत्पादन के लिए 22 प्रतिशत का योगदान दिया। यह ऊर्जा की खपत 9% पारंपरिक जैव ईंधन  के रूप में, 4.2% ऊष्मा ऊर्जा ( गैर जैव ईंधन ), 3.8% पन बिजली और 2% बिजली के रूप में विभाजित होती है जो वायु, सौर, भूतापीय और जैव ईंधन  से आता है |  नवीकरणीय  प्रौद्योगिकियों में 2013 में दुनिया भर के US $ 214 खराब से भी अधिक है जिसमें चीन और अमरिका जैसे देश वायु, पनबिजली, सौर और जैव ईंधन  में भारी  निवेश कर रहे  हैं |

वैश्विक नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता

नवीकरणीय ऊर्जा के मामले में भारत की स्थिति:

भारत में नवीकरणीय ऊर्जा नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के दायरे में आता है। भारत विश्व का पहला देश है जिसने  1980 के दशक में, गैर पारंपरिक ऊर्जा संसाधन का एक मंत्रालय स्थापित किया | भारत की संचयी ग्रिड इंटरेक्टिव या ग्रिड लस्त  नवीकरणीय 33.8 GW तक पहुँच गई है, जिसमें से 66%वायु से आता है जबकि  सौर PV जैव ईंधन और नवीकरणीय ऊर्जा के लघु पनबिजली  के साथ लगभग 4.59% का योगदान देती है जोकि भारत में स्थापित है |

नवीकरणीय ऊर्जा का भविष्य:

नवीकरणीय  ऊर्जा प्रौद्योगिकियाँ  प्रौद्योगिकीय परिवर्तन, बड़े पैमाने पर उत्पादन और बाजार में प्रतिस्पर्धा के कारन सस्ती हो रही हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि दुनिया के हर देश में दैनिक आधार पर  ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ती  जा रही है और ऊर्जा के गैर नवीकरणीय स्रोतों के अति प्रयोग के कारण ग्लोबल वार्मिंग की समस्या हो रही है |

अतः आने वाले वर्षों में विश्व में उन देशों द्वारा राज किया जाएगा जोकि  ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों की प्राप्ति में दक्षता हासिल कर लेंगे |

24. ऊर्जा के गैर – अक्षय संसाधन

ऊर्जा प्रकृति में स्वतंत्र रूप से मौजूद है लेकिन  उसमे से कुछ असीमित मात्रा में मौजूद है जो कभी समाप्त नहीं होती, उसे  नवीकरणीय ऊर्जा कहा जाता है जबकि  बाकी ऊर्जा सीमित मात्रा में उपलब्ध है,जिसे बनने में तो करोड़ों साल लग जाते हैं लेकिन समाप्त एक दिन में हो जाती है,इन्हें गैर- नवीकरणीय/अनवीकरणीय ऊर्जा संसाधन कहा जाता है। गैर- नवीकरणीय ऊर्जा जीवाश्म ईंधनों (कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस) और यूरेनियम से प्राप्त होने वाली ऊर्जा है। जीवाश्म ईंधन मुख्य रूप से कार्बन से बनता  है।

ऊर्जा कई स्रोतों से आती है और इन स्रोतों का वर्णन करने के लिए हम दो शब्दों के उपयोग करते हैं : नवीकरणीय  और गैर-नवीकरणीय।

गैर नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों को पुनः उपयोग  नहीं जा सकता अर्थात इनका एक बार उपयोग करने के बाद पुनर्नवीकरण (करोड़ों सालों तक ) नहीं किया जा सकता । गैर नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों में जीवाश्म ईंधन से प्राप्त ऊर्जा और परमाणु ऊर्जा शामिल हैं।

जीवाश्म ईंधन

जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस) उन जानवरों और पौधों के अवशेषों से बने हैं जो सेंकड़ों-लाखों साल पहले (डायनासोर के समय से पहले) जीवित थे। ये कार्बोनिफेरस काल के दौरान बने थे। उन पौधों ने जो करोड़ों वर्ष पहले जीवित थे, प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के माध्यम से सूर्य की प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदल दिया गया|  यह ‘सौर ऊर्जा’  (और अभी भी है) खाद्य श्रृंखला अर्थात जीवों में स्थानांतरित हो गई,  और जब ये जीव मर गए,तो रासायनिक ऊर्जा उनमें ही संचित रह गयी|

किसी जीवाश्म ईंधन के बनने में तीन महत्वपूर्ण चरण जरूरी हैं: कार्बनिक पदार्थ (जानवर या पौधों के अवशेष) का संचय, कार्बनिक पदार्थ के संरक्षण अर्थात उसे ऑक्सीकरण से बचाने के लिए हवा का बहिष्कार (उदाहरण के लिए, समुद्र या दलदल में होना) और जीवाश्म ईंधन-जैसे तेल ओर प्राकृतिक गैस को कार्बनिक पदार्थ में रूपांतरित होना|  यह आमतौर पर कार्बनिक पदार्थों का तलछट की परतों से ढकने के कारण होता है,जिसके कारण दबाव व गर्मी बढ़ जाती है (50–150°C)| जीवाश्म ईंधन को गैर नवीकरणीय ऊर्जा के रूप में वर्णित किया जाता है,क्योंकि इस प्रक्रिया को घटित होने में करोड़ों वर्ष लग जाते हैं |
जीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्पादन होता है,जो एक ग्रीन हाउस गैस है ।कोयले अर्थात एक प्रकार के जीवाश्म ईंधन के जलने से सिर्फ कार्बन डाइऑक्साइड ही पैदा नहीं होता है,बल्कि यह सल्फर भी वायुमंडल में छोड़ता है,जिससे वायु प्रदूषण में वृद्धि होती है|

कोयला

कोयला एक ठोस जीवाश्म ईंधन है जिसे तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है : लिग्नाइट, बिटुमिनस और एन्थ्रेसाइट । लिग्नाइट कोयला पृथ्वी की सतह के करीब पाया जाता है और इसका खनन आसान है परंतु इसमें सल्फर की मात्रा काफी अधिक होती है | बिटुमिनस कोयला सबसे ज्यादा प्रयोग में आने वाला कोयला है जिसे हम जलाते हैं, और यह लिग्नाइट की तुलना में कम प्रदूषण फैलाने वाला होता है। एन्थ्रेसाइट उच्चतम गुणवत्ता का कोयला है, यह काला और चमकदार होता है और पृथ्वी की गहराई में पाया जाता है। कोयले के जलने से होने वाले प्रदूषण के अलावा, कोयला का खनन भी पर्यावरण में समस्याएँ पैदा करता है क्योंकि कोयले के खनन के लिए हमें जमीन को खोदना पड़ता है|

तेल

तेल एक तरल जीवाश्म ईंधन है जोकि गहरा भूरा, पीला या हरे रंग का हो सकता है |एक बार इसके भण्डार का पता लग  जाने पर इसका खनन आसान है क्योंकि तरल होने के कारण यह आसानी से पाइप के माध्यम से प्रवाहित हो सकता है जिसके कारण इसका परिवहन आसान होता है | हालांकि इसका पता लगाना कठिन  होता है|तेल के संग्रहों को पहचानने और  इन संग्रहों का पता लगाने  के लिए तथा संभावित ड्रिलिंग साइटों को खोजने के लिए वैज्ञानिकों  को चट्टानों और भू आकृतियों का अध्ययन करना चाहिए । एक बार छेद किया जाता  है और यदि वहाँ  तेल पाया जाता है, तो इसे फिर उपरी सतह को लाया जाता है, इसे ‘कच्चा तेल’ कहा जाता है। कच्चे तेल को रिफाइनरी तक पहुंचाया जाता है जो इसे अलग अलग तापमान पर गरम करते हैं और  आंशिक आसवन नामक प्रक्रिया के माध्यम से अलग अलग प्रकार के ईंधन ( जैसे कि पेट्रोल, जेट ईंधन और डीजल आदि  ) अलग करते हैं | तेल को केवल परिवहन के लिए ही नहीं इस्तेमाल किया जाता है  बल्कि इसे अलग-अलग उत्पादों जैसे प्लास्टिक, टायर और सिंथेटिक सामाग्री (जैसे -पॉलिएस्टर) के निर्माण में भी इस्तेमाल किया जाता है |

प्राकृतिक गैस

जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि ये जीवाश्म ईंधन गैस(उदहारण के लिए, मीथेन और रसोई गैस ) के रूप में है | यह अक्सर महासागरों के नीचे और तेल भंडार के पास पाई जाती है। प्राकृतिक गैस संग्रहों का सर्वेक्षण करना तेल की खोज करने के समान ही है। एक बार  प्राकृतिक गैस क्षेत्र के बारे में पता चल जाता है तो इसके ड्रिलिंग प्रक्रिया भी तेल की प्रक्रिया के समान होती है| गैस को उसके स्रोतों से पाइप के माध्यम से निकाला जाता है व बाद में इस्तेमाल के लिए इकट्ठा कर लिया जाता है । प्राकृतिक गैस का उपयोग खाना पकाने और तपन के रूप में किया जाता है  और साथ ही साथ कई प्रकार के उत्पादों को बनाने के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है,जैसे प्लास्टिक, उर्वरक और दवाइयाँ |

25. जैविक विविधता सम्मेलन (सीबीडी)

जैविक विविधता सम्मेलन (सीबीडी) की स्थापना विभिन्न सरकारों द्वारा 1992 रियो डी जनेरियो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन के दौरान हुई थी। इसे उस समय अपनाया गया था जब वैश्विक नेताओं ने भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक जीवित नक्षत्र सुनिश्चित करते हुए वर्तमान जरूरतों को पूरा करने के लिए “सतत विकास‘  की एक व्यापक रणनीति पर सहमति व्यक्त की थी। 193 सरकारों द्वारा इस पर हस्ताक्षर किए गए थे। सीबीडी ने वैश्विक जैविकविविधता को कायम रखने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की थी जो सीधे-सीधे अरबों लोगों की आजीविका का समर्थन करता है और वैश्विक आर्थिक विकास की नींव रखता है।

जैविकविविधता सम्मेलन (सीबीडी) एक कानूनी रूप से बाध्यकारी एक अंतरराष्ट्रीय संधि है। सम्मेलन के तीन मुख्य लक्ष्य है:

  • जैविक विविधता (या जैविकविविधता) का संरक्षण;
  • इसके घटकों का सतत उपयोगऔर
  • आनुवांशिक संसाधनों से उत्पन्न होने वाले लाभ का उचित और न्यायसंगत बंटवारा

दूसरे शब्दों मेंइसका उद्देश्य जैविकविविधता के संरक्षण और सतत उपयोग के लिए राष्ट्रीय रणनीति विकसित करना है। इसे अक्सर सतत विकास के संबंध में महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में देखा जाता है।

जून 1992 को रियो डी जनेरियो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन के दौरान सम्मेलन में हस्ताक्षर हुए थे और 29 दिसंबर 1993 से यह प्रभावी हो गया था।

वर्ष 2010 जैविकविविधता का अंतरराष्ट्रीय वर्ष था। जैविकविविधता सम्मेलन का सचिवालय जैविकविविधता के अंतरराष्ट्रीय वर्ष का केन्द्र बिन्दु है। 2010 में पक्षकारों के 10 वें सम्मेलन (सीओपी) में अक्टूबर माह के दौरान नगोयाजापान में जैविकविविधता सम्मेलन में नगोया प्रोटोकॉल अपनाया गया था। 22 दिसंबर, 2010 को संयुक्त राष्ट्र ने 2011 से 2020 की अवधि को जैविकविविधता के संयुक्त राष्ट्र दशक के रूप में मनाने की घोषणा की। अक्टूबर2010 में नागोया में सीओपी 10 के दौरान सीबीडी हस्ताक्षर करने वालों ने एक सिफारिश का पालन किया।

सीबीडी कैसे कार्य करता है?

पक्षकारों का सम्मेलन (सीओपी) प्रत्येक 2 वर्षों में नए मुद्दों की पहचान करने और लक्ष्यों को हासिल करने तथा जैविकविविधता के नुकसान की पहचान के लिए बैठक करती है।

सीबीडी हस्ताक्षरकर्ता सरकारों को सीओपी निर्णयों के आधार पर रणनीति और कार्य योजना के कार्यान्व्यन को राष्ट्रीय स्तर पर विकसित करने की रिपोर्ट सौपना जरूरी होता है।

2020 का लक्ष्य

2010 मेंजापान में सीबीडी पक्षकारों के 10वें सम्मेलन के दौरान 193 देशों की सरकारें एकत्र हुयीं और विश्व की बहुमूल्य प्रकृति को बचाने के लिए एक नई रणनीति की स्थापना की गयी थी। एक 20 सूत्रीय योजना को अपनाया गया था जिसे सरकारों द्वारा पूरे विश्व में बड़े पैमाने पर विलुप्त हो रही प्रजातियों और दुनिया भर के महत्वपूर्ण निवास स्थलों के नुकसान से निपटने में मदद करने के लिए अगले 10 वर्षों में लागू किया जाना है। विश्व भर में जैविकविविधता का बचाव योजना के हिस्से के रूप मेंसरकारें विश्व में 17% भूमि  को संरक्षित क्षेत्र के रूप में बढ़ावा देने के लिए तथा 2020 तक हमारे महासागरों के 10% क्षेत्र को समुद्री संरक्षित क्षेत्रों के रूप में कवर करने के लिए प्रयास करने पर सहमत हुए हैं।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ (WWF) और सीबीडी (CBD– Convention on Biodiversity)

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने 1980 के दशक में सीबीडी के विकास का समर्थन किया थाहै। सीओपी द्वारा मजबूत लक्ष्य और कार्य योजनाओं को गोद लेने की वकालत करने और राष्ट्रीय सरकारों द्वारा उनके क्रियान्वयन के लिए यह वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करता है।

नागोया प्रोटोकॉल

पहुंच और लाभ बंटवारे पर नागोया प्रोटोकॉल (एबीएस) 29 अक्टूबर2010 को नागोया,जापान में अपनाया गया था इसका उद्देश्य आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से उत्पन्न होने वाले लाभ का उचित और न्यायसंगत बंटवारा है जिससे यह जैविकविविधता के संरक्षण और सतत उपयोग में योगदान दे सके।

उद्देश्य

आनुवंशिक संसाधन का उपयोग और जैविकविविधता पर आयोजित सम्मेलन के उपयोग (एबीएस) से होने वाले लाभों के निष्पक्ष और समान बंटवारा जैविकविविधता सम्मेलन का एक पूरक समझौता है। यह सीबीडी के तीन में से एक लक्ष्य के प्रभावी कार्यान्व्यन के लिए एक पारदर्शी कानूनी ढांचा प्रदान करता है। यह आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से उत्पन्न लाभ का उचित और न्यायसंगत बंटवारा भी करता है।