- भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति या स्वभाव
- भारत में गरीबी और गरीबी रेखा से नीचे की
- भारत में कराधान: एक अवलोकन
- सार्वजनिक ऋण और घाटे की वित्त व्यवस्था
- गार (GAAR) क्या है
- कृषि यन्त्र और हरित क्रांति
- मानव विकास सूचकांक क्या है
- भारत में हरित क्रांति
- उदारीकरण के बाद की पंचवर्षीय योजनायें
- वाणिज्यिक बैंकों का संचालन: एक आलोचनात्मक समीक्षा
- डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ भारत में क्या बदलाव लाएगा?
- उदारीकरण से पहले भारत की पंचवर्षीय योजनाएं
- 1991 की नयी आर्थिक नीति
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) का अवलोकन
- 15.वैश्विक गरीबी परिदृश्य
- राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड)
- भारत में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSMEs)
- राष्ट्रीय विकास परिषद
- मुद्रा की आपूर्ति और मुद्रास्फीति के बीच सम्बन्ध
- मौद्रिक नीति का अवलोकन
- भारत में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी): एक समग्र अध्ययन
1.भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति या स्वभाव
आजादी के बाद से भारत की अर्थव्यवस्था एक ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ रही है। भारत के बड़े सार्वजनिक क्षेत्र ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ को सफल बनाने के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार रहे हैं । भारतीय अर्थव्यवस्था, मूल रूप से सेवा क्षेत्र (वर्तमान में सकल घरेलू उत्पाद का 60% हिस्सा प्रदान करता है) के योगदान और कृषि (जनसंख्या के लगभग 53% लोग) पर निर्भर है । ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है वैसे-वैसे अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी कम हो रही है तथा सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ रही है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की एक विकासशील अर्थव्यवस्था कहा जाता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएं
- स्वतंत्रता के बाद से ही भारत की अर्थव्यवस्था एक ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ रही है। भारत के बड़े सार्वजनिक क्षेत्र अर्थव्यवस्था के लिए रोजगार और राजस्व प्रदान करने के प्रमुख कारक रहे हैं ।
- विश्व व्यापार संगठन के अनुमानों के अनुसार वैश्विक निर्यात और आयात में भारत की हिस्सेदारी में क्रमश: 0.7% और 0.8% की वृद्धि हुई है जो 2000 में 1.7% थी और 2012 में 2.5% हो गई थी।
- आजादी के बाद से ही भारतीय अर्थव्यवस्था का परिदृश्य सोवियत संघ की कार्यप्रणाली से प्रेरित रहा था। 1980 के दशक तक विकास दर 5 से अधिक नहीं थी। कई अर्थशास्त्रिययों द्वारा इस स्थिर विकास को ‘हिंदू विकास दर’ कहा गया था।
- 1992 के दौरान देश में उदारीकरण के दौर की शुरुआत हुई। इसके बाद, अर्थव्यवस्था में सुधार होना शुरू हो गया था। विकास दर के इस नए चलन को ‘नई हिंदू विकास दर’ कहा जाता था।
- भारत की अर्थव्यवस्था में पारंपरिक ग्रामीण खेती, आधुनिक कृषि, हस्तशिल्प, आधुनिक उद्योगों की एक विस्तृत श्रृंखला और कई सेवाओं के विभिन्न क्षेत्र शामिल हैं।
- सेवा क्षेत्र आर्थिक विकास का प्रमुख स्रोत हैं। इसमें भारतीय अर्थव्यवस्था के आधे से ज्यादा उत्पादन के साथ श्रम शक्ति का एक तिहाई भाग शामिल है।
वर्तमान विश्लेषण
- वर्तमान में सकल घरेलू उत्पाद की कारक लागत (फैक्टर कॉस्ट), (2004-05के मूल्यानुसार) 5748564 करोड़ रुपए है (आंकड़ा 2013-14)
- प्रति व्यक्ति आय (वर्तमान मूल्यानुसार) 74,920 रुपये है। (2013-14)
- 2011-12 की सकल घरेलू बचत दर 30.8% है। (प्रतिशत के रूप में सकल घरेलू उत्पाद का़ वर्तमान बाजार मूल्य)
- तृतीयक क्षेत्र सकल घरेलू उत्पादन में लगभग 60% का योगदान देता है। (2012-13)
- कुल खाद्यान्न उत्पादन 265 मिलियन टन (2013-14) है।
- कुल वैश्विक निर्यात में भारतीय व्यापार का हिस्सा 1.8% है।
- विश्व के कुल आयात में भारत की हिस्सेदारी 2.5% है।
- भारत की आबादी का कुल आकार 1.26 बिलियन (2014) है।
- वर्ष 2015 की पहली छमाही के दौरान नई परियोजनाओं में अमेरिका और चीन को पछाड़ते हुए भारत में सभी देशों के बीच सर्वाधिक एफडीआई प्रवाह देखा गया। पिछले वर्ष की छमाही के 12 बिलियन डॉलर के मुकाबले 2015 में 31 बिलियन डॉलर का व्यय विदेशी कंपनियों द्वारा किया गया। जबकि इसी अवधि के दौरान चीन और अमेरिका में क्रमश: 28 और 27 बिलियन डॉलर का विदेशी निवेश हुआ।
- 2015 में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 330 बिलियन डॉलर का रहा जो कि इस समय (अप्रैल 2016) में अब तक के सर्वोच्च स्तर 355 बिलियन डॉलर पर खड़ा है।
- इंजीनियरिंग, पेट्रोलियम, रत्न एवं आभूषण, कपड़ा और औषधि शीर्ष पांच क्षेत्रों में वैश्विक मांग में कमी के कारण अगस्त 2015 में लगभग 25 फीसदी की गिरावट आई जो घटकर 13.33 बिलियन डॉलर हो गई। 2014-15 के दौरान इन पांच कारकों का कुल निर्यात में लगभग 66 फीसदी का योगदान था। पिछले वर्ष अगस्त में इन क्षेत्रों से कुल निर्यात 17.79 बिलियन डॉलर का रहा था।
- गरीबी आकलन:
I- रंगराजन समिति की सिफारिशों (ग्रामीण क्षेत्रों में एक दिन में 32 रुपये/दिन खर्च करने वाले और कस्बों तथा शहरों में 47 रुपये/दिन खर्च करने वाले लोगों को गरीब नहीं माना जाना चाहिए) के परिणामस्वरूप गरीबी रेखा से नीचे की आबादी में वृद्धि हुई है। इसमें तेंदुलकर समीति के 270 मिलियन आबादी के मुकाबले यह 2011-12 में 35 फीसदी की वृद्धि के साथ यह बढकर 363 बिलियन हो गई।
II- रंगराजन समिति द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार भारत की 29.5 फीसदी जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है जबकि 2009-10 में तेंदुलकर समीति के अनुसार यह 21.9 फीसदी थी। रंगराजन के अनुसार कुल आबादी में बीपीएल समूह की हिस्सेदारी 38.2 फीसदी की थी जिसमें दो साल की अवधि के दौरान गरीबी में 8.7 प्रतिशत अंकों की गिरावट दर्ज की गई।
भारतीय अर्थव्यवस्था एक मिश्रित अर्थव्यवस्था (सार्वजनिक और निजी क्षेत्र का संयोजन) है। अपनी प्रकृति के कारण वर्तमान में भारत की अर्थव्यवस्था को दुनिया की सबसे विकसित अर्थव्यवस्था के रूप में जाना जाता है। कुल सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का हिस्सा घटता जा रहा है जबकि सेवा क्षेत्र का हिस्सा बढ़ता जा रहा है या सकल घरेलू उत्पाद में तृतीयक क्षेत्र के योगदान में प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है (इसे भारत के विकसित होने के संकेत के रूप में देखा जाता है)।
2. भारत में गरीबी और गरीबी रेखा से नीचे की जनसंख्या
योजना आयोग (अब नीति आयोग) हर वर्ष के लिए समय-समय पर गरीबी रेखा और गरीबी अनुपात का सर्वेक्षण करता है जिसके सांख्यिकी और कार्यक्रम मंत्रालय का राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) बड़े पैमाने पर घरेलू उपभोक्ता व्यय के सैंपल सर्वे लेकर कार्यान्वित करता है।
आम तौर पर इन सर्वेक्षणों को पंचवार्षिक आधार (हर 5 वर्ष में) पर किया जाता है। हालांकि इस श्रृंखला में पिछले पाँच साल का सर्वेक्षण, 2009-10 (एनएसएस का 66वां दौर) में किया गया था। 2009-10 का वर्ष भारत में गंभीर सूखे की वजह से एक सामान्य वर्ष नहीं था, एनएसएसओ ने 2011-12 में बड़े पैमाने पर एक बार फिर सर्वेक्षण (एनएसएसओ का 68वां दौर) किया।
गरीबी को कैसे परिभाषित किया गया है?
भारत में गरीबी रेखा को परिभाषित करना हमेशा से ही एक विवादास्पद मुद्दा रहा है, विशेष रूप से 1970 के मध्य में जब पहली बार इस तरह की गरीबी रेखा का निर्माण योजना आयोग द्वारा किया गया था, जिसमें ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में क्रमश: एक वयस्क के लिए 2,400 और 2,100 कैलोरी की न्यूनतम दैनिक आवश्यकता को आधार बनाया गया था। डीटी लकड़ावाला और बाद में वाई के अलघ जैसे अन्य दूसरे अर्थशास्त्री समय-समय पर होने वाले गरीबी रेखा के सर्वेक्षण कार्य में शामिल रहे हैं।
हाल ही में इसमें कुछ संशोधनों के साथ गरीब लोगों की अन्य बुनियादी आवश्यकताओं पर विचार किया गया, जिसमें आवास, वस्त्र, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, वाहन, ईंधन, मनोरंजन, आदि शामिल था, ताकि प्रकार गरीबी रेखा की परिभाषा को और अधिक यतार्थवादी बनाया जा सके। यह कार्य यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान सुरेश तेंदुलकर ने 2009 और सी रंगराजन ने 2014 में किया।
तेंदुलकर समिति ने नए मानक तय किये जिसके अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में 27 रूपये और शहरी क्षेत्रों में 33 रूपये प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर रखा गया, और इस मानक के अनुसार गरीबी रेखा वाली आबादी में 22 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई की गई। यह काफी विवादस्पद रहा, क्योंकि संख्याओं को वास्तविकता से परे माना गया। बाद में रंगराजन समिति ने इस सीमा को बढा दिया जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में 32 रूपये और शहरी क्षेत्रों में 47 रूपये प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीबी रेखा रसे बाहर रखा गया और गरीबी रेखा में 30 फीसदी गिरावट की बात कहीं गई।
गरीबी रेखा
गरीबी रेखा के आंकलन का पुराना फार्मूला वांछित कैलोरी आवश्यकता पर आधारित है। इसमें अनाज, दालें, सब्जियां, दूध, तेल, चीनी आदि वो खाद्य वस्तुएं शामिल थी जो जरूरतमंद कैलोरी प्रदान करते हैं। कैलोरी की जरूरत उम्र, लिंग और कार्य पर निर्भर करती है जो एक एक व्यक्ति करता है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में औसत कैलोरी आवश्यकता 2400 कैलोरी, प्रति व्यक्ति प्रति दिन है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रति दिन है। चूंकि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग स्वंय को ज्यादा शारीरिक कार्यों में व्यस्त रखते हैं इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में कैलोरी की आवश्यकताओं को शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक रखा गया। इन गणनाओं के आधार पर, वर्ष 2000 में ग्रामीण क्षेत्रों में 328 रुपये प्रति माह और शहरी क्षेत्रों में 454 रुपये प्रति माह कमाने वाले मानक को गरीबी रेखा में शामिल किया गया था। इस तरह वर्ष 2000 में, ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले और 1,640 रुपये प्रति महीने से भी कम कमाई वाले पांच सदस्यों के एक परिवार को गरीबी रेखा के नीचे रखा गया।
स्रोत: एनएसएसओ डेटा
गरीबी रेखा के आंकलन और विवाद
आयोग के ताजा अनुमान के मुताबिक, शहरों में 28.65 रुपये और ग्रामीण इलाकों में 22.42 रुपये से ज्यादा रोज खर्च करने वाले लोग गरीब नहीं हैं। इस पैमाने की बड़े पैमाने पर सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा आलोचना की गई। इस मापदंड के अनुसार भारत में गरीबों की संख्या 2004-05 के 40.72 करोड़ से घटकर 2009-10 में 34.47 करोड़ रह गई है। यह गणना तेंदुलकर पैनल की पद्धति के अनुसार की गई थी।
बीपीएल जनसंख्या में भारतीय राज्यों की स्थिति: (एनएसएसओ डाटा)
यह बहुत ही दयनीय स्थिति है कि, भारत को एक विकासशील देश भी कहा जाता है और अभी भी यहां गरीबी रेखा से नीचे इतनी बड़ी आबादी रहती है।
3. भारत में कराधान: एक अवलोकन
भारत में कर प्रणाली
भारत में कर प्रणाली के लिए एक अच्छी तरह से विकसित संरचना है। जो केन्द्र, राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों के बीच स्पष्ट रूप से विभाजित है। केन्द्र सरकार व्यक्ति और संस्थाओं से कुछ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर वसूलती है। प्रत्यक्ष कर में व्यक्तिगत आयकर, संपत्ति कर और निगम कर शामिल है जबकि अप्रत्यक्ष कर में बिक्री कर, उत्पाद शुल्क, कस्टम ड्यूटी (राजस्व शुल्क) और सर्विस टैक्स (सेवा कर) शामिल है।
वैल्यू एडेड टैक्स (वैट), स्टाम्प ड्यूटी, राज्य उत्पाद शुल्क, भू-राजस्व कर और पेशा कर राज्यों द्वारा लगाया जाता है। स्थानीय निकाय: संपत्ति, चुंगी और पानी की आपूर्ति, जल निकासी आदि की उपयोगिताओं के लिए कर लगाने का अधिकार रखती हैं। भारतीय कराधान प्रणाली में पिछले एक दशक के दौरान जबरदस्त सुधार आया है। कर की दरों को तर्कसंगत बनाया गया है और कर प्रणाली को सही तरीके से लागू करने के लिए कर कानूनों को बेहतर बनाया गया है। कर प्रशासन को युक्तिसंगत बनाने की प्रक्रिया भारत में बहुत तेज गति से चल रही है।
स्रोत:वित्त मंत्रालय
भारत में प्रत्यक्ष कर इस प्रकार हैं :
प्रत्यक्ष कर
प्रत्यक्ष कर (आयकर, संपत्ति कर, निगम टैक्स आदि) के मामले में, बोझ सीधे करदाता पर पड़ता है। ये वह कर है जिनको करदाताओं द्वारा दूसरों पर स्थानांतरित नहीं किया जा सकता है।
आयकर: आयकर अधिनियम 1961, के अनुसार वह हर व्यक्ति, जो एक कर दाता है और जिनकी कुल आय अधिकतम छूटसीमा से अधिक है। वित्त अधिनियम में निर्धारित दर से आयकर के दायरे में आता है। इस तरह आयकर पिछले वर्ष की कुल आय पर भुगतान किया जाता है।
निगम कर: यह कर कंपनी की शुद्ध आय पर लगाया जाता है। विवरण:- वे कंपनियां (निजी और सार्वजनिक) दोनों जो भारत में कंपनी अधिनियम 1956 के तहत पंजीकृत है वे सभी कर का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी हैं। आकलन वर्ष 2014-15 के लिए घरेलू कंपनियों पर 30% की दर से कर लगाया गया है।
एक कंपनी की परिभाषा:
एक कंपनी वह कानूनी व्यक्ति है जो स्वतंत्र और पृथक रुप से अपने शेयरधारकों से अलग कानूनी इकाई के रुप में जानी जाती है। कंपनी की आय की गणना की जाती है और इसका मूल्यांकन कंपनी के हाथों में अलग से किया जाता है। हालांकि कंपनी की आय को उनके शेयरधारकों में लाभांश के रूप में वितरित किया जाता है, जिसे उनके अलग-अलग हाथों में मूल्यांकन किया जाता है। आय का इस तरह का वितरण कंपनी के व्यय के रूप में नहीं माना जाता है; वितरित की गई आय कंपनी के मुनाफे का विनियोग होता है।
एक कंपनी से संबंधित करों के विभिन्न प्रकार
1-न्यूनतम वैकल्पिक कर (मैट)
2- फ्रिंज बेनिफिट टैक्स (एफबीटी)
3- लाभांश वितरण कर (डीडीटी)
4- बैंकिंग नकदी लेनदेन कर (बीसीटीटी)
5- प्रतिभूति लेनदेन कर (एसटीटी)
- संपत्ति कर
•संपत्ति कर, यह कर भारत में संपत्ति कर अधिनियम, 1957 के तहत लगाया जाता है। संपत्ति से कमाए हुए लाभ पर लगने वाले कर को संपत्ति कर के रुप में जाना जाता है। इस कर को साल दर साल बाजार मूल्य के अनुसार संपत्ति पर लगाया जाता है। चाहे ऐसी संपत्ति से आय अर्जित हो या न हो। अधिनियम के तहत यह कर निम्नलिखित व्यक्तियों पर निर्धारण वर्ष के दौरान लिया जाता है। - व्यक्ति
- हिंदू अविभाजित परिवार (एचयूएफ)
III. कंपनी
स्रोत- वित्त मंत्रालय
- अप्रत्यक्ष कराधान
अप्रत्यक्ष कर वह कर होते हैं जो करदाताओं द्वारा दूसरों पर स्थानांतरित किया जा सकता हैं। यदि केंद्र सरकार ने विभिन्न सेवाओं पर सेवा कर की दर बढ़ाती है तो विक्रेता इस वृद्धि को सेवा लेनेवाले अंतिम उपभोक्ताओं पर हस्तांतरित कर देता है। बिक्री कर, माल की बिक्री पर लगाया जाता है । यह दो प्रकार का हो सकता हैं;। केंद्रीय बिक्री कर और राज्य बिक्री कर
- वैल्यू एडेड टैक्स (वैट)
वैट वह कर है जो उत्पादन के कई स्तरों पर लगाया जाता है। वस्तुओं का मूल्य जिस तरह से हर चरण पर बढ़ता जाता है, यह कर उसी चरणबद्ध तरीके से लगाया जाता है। राज्य स्तर पर वैट की शुरूआत सबसे महत्वपूर्ण कर सुधार है। राज्य स्तर पर लगनेवाले वैट ने राज्य बिक्री कर का स्थान लिया है। देश में इस कर की शुरुआत 1 अप्रैल 2005 से हुई थी।
- उत्पाद कर –
भारत में विनिर्मित वस्तुओं पर लगने वाले अप्रतय्क्ष कर को केंद्रीय उत्पाद कर कहते हैं। उत्पाद शुल्क योग्य वह वस्तुएं हैं जो केंद्रीय उत्पाद शुल्क अधिनियम में निर्दिष्ट की गई हैं
भारत में एकत्र केंद्रीय उत्पाद शुल्क के तीन प्रकार हैं
बेसिक एक्साइज ड्यूटी
केंद्रीय उत्पाद व साल्ट अधिनियम 1944 की धारा 3 के तहत वस्तुओं पर कर लगाया जाता है। इसके अंतर्गत नमक को छोड़कर भारत में निर्मित वस्तुओं पर कर वसूला जाता है। ये सभी केंद्रीय उत्पाद शुल्क अधिनियम 1985 में सूचीबद्ध होती हैं।
आबकारी का अतिरिक्त शुल्क
उत्पाद शुल्क (विशेष महत्व का माल) अधिनियम, 1957 की धारा 3 के तहत अनुसूची में वर्णित वस्तुओं के संबंध में कर संग्रह किया जाता है। इस कर को बिक्री कर के एवज में लगाया जाता है और केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच साझा किया जाता है। ये औषधीय और शौचालय से संबंधित सामान, चीनी व अन्य उद्योग से जुड़ी वस्तुओं पर लगाया जाता है।
विशेष उत्पाद शुल्क
वित्त अधिनियम 1978 की धारा 37 के अनुसार, जिन वस्तुओं पर बेसिक केंद्रीय उत्पाद व नमक शुल्क अधिनियम 1944 के तहत कर लगाया जाता है, वे सभी वस्तुएं इसके अंतर्गत आती है। विशेष उत्पाद शुल्क के तहत आनेवाली वस्तुओं में लगातार बदलाव होते रहते है।यह तय किया जाता है कि किन वस्तुओं पर कर लगाया जाएगा या किन पर नहीं।
- सीमा शुल्क
कस्टम या आयात शुल्क भारत में आयातित माल पर भारत की केन्द्रीय सरकार द्वारा लगाया जाता है। जिस दर से सीमा शुल्क माल पर लगाया है वह सीमा शुल्क टैरिफ के तहत निर्धारित माल के वर्गीकरण पर निर्भर करता है। सीमा शुल्क टैरिफ आम तौर पर नामकरण के एसएसएल प्रणाली(HSL)के तहत लगाया जाता है।
सीमा शुल्क को संरेखित करते हुए आसियान के स्तर पर लाये जाने की बात भारत में हो रही है। कृषि उत्पादों के अलावा अन्य सभी उत्पादों पर केंद्र सरकार ने सीमा शुल्क की दर को 12.5 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया है। हालांकि, केंद्र सरकार के पास ये अधिकार होता है कि वह चाहे तो किसी विशेष वस्तु के पूरे कर को माफ़ कर सकता है।
- सेवा कर–
सेवा कर की शुरुआत भारत में 1994 में की गई थी। यह मात्र 3 बुनियादी सेवाओं पर शुरू किया गया था। सामान्य बीमा, स्टॉक ब्रोकिंग और टेलीफोन पर सेवा कर लगाया गया था। आज काउंटर सेवा कर 120 से अधिक सेवाओं पर लागू किया जा चुका है। इस कर की दर में लगातार वृद्धि हुई है। वर्तमान में भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 60% इस कर से प्राप्त करता है। भारत में सेवा कर की वर्तमान दर 14% है।
4. सार्वजनिक ऋण और घाटे की वित्त व्यवस्था
देश की सरकार द्वारा आम जनता और वित्तीय संस्थाओं से लिया गया कर्ज सार्वजनिक ऋण या पब्लिक डेट कहलाता है। इसे सरकारी ऋण अथवा राष्ट्रीय कर्ज भी कहा जाता है। सार्वजनिक ऋण वह विदेशी कर्ज है, जो निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों की विदेशी मुद्रा देनदारियों को दर्शाता है और इसे विदेशी मुद्रा आय से वित्तपोषित किया जाता है। भारतीय संदर्भ में सार्वजनिक ऋण, केंद्र और राज्य सरकारों की कुल उधारी के रूप में माना जाता है। जब सरकार का खर्च, आय से अधिक हो जाएँ तब घाटे की वित्त व्यवस्था (आम जनता से उधार, बाहरी स्रोतों से उधार और मुद्रा की छपाई ) का सहारा लिया जाता है।
किसी भी वक्त सरकार पर कुल कर्ज का ये आंकड़ा देश की वित्तीय स्थिति का सटीक पैमाना है। भारत का विदेशी ऋण मार्च 2014 के अंत तक 446.3 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर मार्च 2015 के अंत तक 475.8 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया था। भारत के विदेशी ऋण में दीर्घकालिक उधारी का भाग सबसे ज्यादा रहा है।
A.आंतरिक देनदारियां
आंतरिक देनदारियों को चार भागों में बांटा गया है: (1) आंतरिक ऋण (2) छोटे बचत, जमा और भविष्य निधि, (3) अन्य खातों (4) रिजर्व फंड और जमा।
- आंतरिक ऋण- बाजार ऋण, ट्रेजरी बिल, और प्रतिभूतियां अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के लिए जारी किए जाते हैं?
बाजार ऋण– ये ऋण 12 महीने या उससे अधिक की परिपक्वता पर जारी किए जाते हैं। यह ऋण ब्याज पर जारी होता है। सरकार ऐसे ऋण लगभग हर साल जारी करती है। इन ऋणों को खुले बाजार में प्रतिभूतियों या अन्य माध्यमों से बिक्री के द्वारा उठाया जाता है। बाजार ऋण के अलावा, सरकार समय समय पर गोल्ड बांड की तरह बांड जारी करती है।
ट्रेजरी बिल– ट्रेजरी बिल सरकार के राजस्व और व्यय के बीच की खाई को पाटने के लिए लघु अवधि के फंड का एक प्रमुख स्रोत रहा है। इनकी परिपक्वता 91, 182 या 364 दिनों में होती है और हर शुक्रवार को यह जारी किए जाते हैं। ट्रेजरी बिल भारतीय रिजर्व बैंक, राज्य सरकारों, वाणिज्यिक बैंकों और अन्य दलों के लिए जारी किए जाते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के लिए जारी की गई प्रतिभूतियां- भारत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, पुनर्निर्माण और विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय बैंक (IBRD)के विकास के लिए योगदान देता है। ये योगदान अनिवार्य व व्याज रहित प्रतिभूतियों के माध्यम से दिया जाता है। भारत सरकार इन संस्थानों को आवश्यकतानुसार भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होती हैं।
2- लघु बचत, जमा और भविष्य निधि: लघु बचत योजनाओं से अर्थव्यवस्था में लगातार धन की आवाजाही हर वर्ष बढ़ती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण सरकार की विभिन्न लघु बचत योजनाएं हैं। इन बचत योजनाओं का मुख्य आकर्षण कर रियायतों का होना है। (जैसे राष्ट्रीय बचत प्रमाण पत्र) और ऐसी बचत योजनाओं के लालच में लोग पैसा लगाते हैं। जहां तक भविष्य निधि का सवाल है, वे दो श्रेणियों में विभाजित हैं। राज्य भविष्य निधि और पब्लिक प्रोविडेंट फंड
- अन्य खाते–ये मुख्य रूप से डाक बीमा और जीवन वार्षिकी निधि, हिंदू परिवार वार्षिकी निधि, अनिवार्य जमा पर उधार और आयकर वार्षिकी जमा, गैर सरकारी भविष्य निधि पर विशेष जमा शामिल हैं।
- रिजर्व फंड और जमा: रिजर्व फंड और जमा को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाता है। ब्याज और गैर ब्याज श्रेणी। वे मूल्यह्रास और रेलवे रिजर्व फंड और डाक विभाग और दूरसंचार विभाग, स्थानीय निधि की जमा, विभागीय और न्यायिक जमा, सिविल डिपॉजिट शामिल हैं।
B.बाह्य देनदारियां
विकासशील देशों को आर्थिक विकास के शुरूआती चरण में उच्च निवेश स्तर, सकारात्मक भुगतान संतुलन और उच्च तकनीकी विकास को बनाये रखने के लिए अधिक मात्र में विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होती है। भारत सरकार ने अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, पूर्व सोवियत संघ, जर्मनी आदि जैसे देशों और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, आईबीआरडी, आईडीए आदि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से ऋण लिया है। इस प्रकार केन्द्रीय सरकार के पास विदेशी देनदारियों में वृद्धि हुई है। सन् 1981 मार्च अंत तक भारत पर 11,298 करोड़ रुपये कर्ज था। जो सन् 1991 मार्च अंत तक बढ़कर 31,525 करोड़ रुपये हो गया। यह ऋण लगातार बढ़ रहा है सन् 2011मार्च अंत तक 1,56,347 करोड़ रुपए हो गया। दिसंबर 2014 तक भारत सरकार के ऊपर सकल घरेलू उत्पाद के 66% के बराबर कर्ज था।
घाटे की वित्त व्यवस्था का अर्थ
डॉ वी के आर वी राव घाटे की वित्त व्यवस्था को परिभाषित करते हुए कहा है कि “परिस्थितियां ऐसी बना दी जाती हैं जब सार्वजनिक राजस्व और सार्वजनिक व्यय के बीच के अंतर आ जाता है और इसे घाटे की वित्त व्यवस्था या बजटीय घाटा कहते हैं। घाटे की वित्त व्यवस्था को संभालने के लिए अतिरिक्त पैसे की आपूर्ति की जरूरत होती है। घाटे की वित्त व्यवस्था को दूर करने के लिए निम्न उपाय हैं।
- भारतीय रिजर्व बैंक से संचित नगद का उपयोग करना
- संस्थाओं, आम जनता व कॉरपोरेट घरानों को सरकारी प्रतिभूतियों की बिक्री
घाटे की वित्त व्यवस्था का उद्देश्य:
- बढ़े खर्च को पूरा करने के लिए –जब सरकार की आय उसके व्यय की तुलना में कम हो जाती है तो ऐसी दशा में सरकार के पास अतिरिक्त धन नहीं होता है जिसकी पूर्ति सरकार घटे की वित्त व्यवस्था करके करती है।
- मंदी का निदान:– विकसित देशों या विकासशील देशों में घाटे की वित्त व्यवस्था मंदी को हटाने के लिए आर्थिक नीति के साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। क्योंकि इन देशों के बाजार, मांग की कमी से ग्रसितरहते हैं। प्रो कीन्स ने भी अवसाद और बेरोजगारी के लिए एक उपाय के रूप में घाटे की वित्त व्यवस्था का सुझाव दिया है।
- आर्थिक विकास को बढ़ावा देना:– इस वित्त व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य भारत जैसे विकासशील देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देना है। सरकार के हाथ में घाटे की वित्त व्यवस्था एक ऐसा उपाय है जिससे विकास कार्यों के लिए पैसा जुटाया जाता है ।
- संसाधन जुटाना:– घाटे की वित्त व्यवस्था में संसाधनों को आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है। साथ ही यह अर्थव्यवस्था में मांग पैदा करती है।
- सब्सिडी अनुदान के लिए:– भारत जैसे देश में सरकार उत्पादकों (किसानों, उद्यमियों आदि) को विशेष प्रकार की वस्तु का निर्माण करने के लिए व प्रोत्साहित करने के लिए सब्सिडी देती है।
- सकल मांग में वृद्धि:घाटे की वित्त व्यवस्था में सकल मांग बढ़ जाती है, जिसके चलते सार्वजनिक व्यय बढ़ जाता है। यह लोगों की आय और क्रय शक्ति बढ़ाती है। वस्तुओं की उपलब्धता और सेवा में वृद्धि होती है जो उत्पादन और रोजगार के स्तर बढ़ा देती है।
घाटे की वित्त व्यवस्था के नकारात्मक प्रभाव
घाटे की वित्त व्यवस्था अपने दोषों से मुक्त नहीं है। यह भी अर्थव्यवस्था पर कुछ नकारात्मक प्रभाव डालती है। घाटे की वित्त व्यवस्था के बुरे प्रभाव नीचे दिए गए हैं।
- मुद्रास्फीति की दर में बृद्धि: –घाटे की वित्त व्यवस्था मुद्रास्फीति को जन्म देती है। क्योंकि घाटे की वित्त व्यवस्था से अर्थव्यस्था में मुद्रा की आपूर्ति और लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाती है जो वस्तुओं की कीमत को बढ़ा देती है।
- बचत पर प्रतिकूल प्रभाव: –घाटे की वित्त व्यवस्था मुद्रास्फीति की ओर जाती है और मुद्रास्फीति स्वैच्छिक बचत की आदत पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। हालांकि यह लोगों के लिए संभव नहीं है कि लोग बढ़ती कीमतों के बीच बचत की पिछली दर को बनाए रखे।
- निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव:– घाटे की वित्त व्यवस्था निवेश पर प्रतिकूल असर डालती है जब अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति बढ़ती है, उस वक्त ट्रेड यूनियन, कर्मचारी अधिक वेतन की मांग करते हैं। यदि उनकी मांगों को स्वीकार किया जाता है तो उत्पादन की लागत बढ़ जाती है जिससे निवेशक हतोत्साहित होते हैं।
- गार (GAAR) क्या है
टैक्स की चोरी और काले धन पर रोकथाम के लिए बनाया गया ‘गार अर्थात जनरल एंटी अवॉयइडेंस रूल्स (General Anti Avoidance Rules)’ नियमों का एक ऐसा समूह है, जिन्हें लागू करने के पीछे सरकार का एक ही लक्ष्य है कि जो भी विदेशी कंपनियाँ भारत में निवेश करें, वे यहाँ के तय नियमों के मुताबिक कर अदा करें |
गार नियम मूल रूप से प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) 2010 में प्रस्तावित हैं और तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने आम बजट 2012-13 को प्रस्तुत करते समय गार के प्रावधानों का उल्लेख किया था| लेकिन बाद में इन नियमों को लेकर उठे विवादों से बचने के लिए इसे स्थगित कर दिया गया और पार्थसारथी शोम की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गयी | आम बजट 2016-17 के भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने गार नियमों को 1 अप्रैल,2017 से लागू करने कि घोषणा की है |
पार्थसारथी शोम समिति की सिफारिशें
पार्थसारथी शोम समिति की सिफारिशें निम्नलिखित हैं:
- गार नियमों के क्रियान्वयन को तीन साल तक टाल दिया जाए
- गार नियमों का उपयोग मॉरिशस में कंपनियों की उपस्थिती की विश्वसनीयता की जांच करने के लिए न किया जाए
- कर लाभ की मौद्रिक सीमा 3 करोड. रुपये या इससे अधिक होने की स्थिति में ही गार के नियमों को लागू किया जाए
- गार को लागू करने के लिए नकारात्मक सूची तैयार की जाए, जिसमें लाभांश की अदायगी या कंपनी द्वारा शेयरों की दोबारा खरीद, सहायक कंपनी की स्थापना, सेज या अन्य क्षेत्र में इकाई की स्थापना को शामिल किया जाए
- कंपनियों के अंत:समूह लेन-देन पर गार नियमों को लागू न किया जाये
- आयकर कानून में संशोधन कर उसमें व्यावयासिक पूंजी को शामिल किया जाए
गार नियमों को लागू करने का मुख्य उद्देश्य क्या है ?
गार नियमों को लागू करने के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं :
- केवल करों के भुगतान से बचने के लिए संरचित किए सौदों या आय को कर के दायरे में लाना
- कर चोरी को रोक कर सरकारी राजस्व में वृद्धि करना
- कर प्रणाली की कमियों को दूर करना और कर चोरी में सहायक कर नियमों को दुरुस्त करना
- विदेशी निवेशकों द्वारा केवल कर लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से अपनाए जाने वाले रास्तों पर रोक लगाना
गार नियमों के लागू होने से कौन प्रभावित होगा ?
पूरी दुनिया में कंपनियां अपने व्यापार और निवेश की संरचना इस तरह करती हैं कि वह कर से बच सकें। नए नियमों की सबसे बड़ी मुश्किल उन पैसे प्रबंधकों के लिए होगी जो भारत में मॉरिशस जैसे टैक्स हैवन के माध्यम से निवेश करते हैं।
सरकार के मुताबिक, भारत में हर किसी को अपनी आमदनी पर टैक्स देना पड़ता है, ऐसे में विदेशी कंपनियों को छूट नहीं दी जा सकती | वह भी तब जब ज्यादातर विदेशों से आने वाला धन उन भारतीयों का है, जो विदेशों में काले धन के रूप में है |
यह काला धन उन टैक्स हैवेन देशों में रखा गया है, जिनके साथ भारत की दोहरा कराधान निवारण संधि (डीटीएए) लागू है| गार के लागू होने के बाद दोहरा कराधान निवारण संधि (डीटीएए) के तहत निवेश करने वाले निवेशक भी कर के दायरे में आ जाएंगे|
आम आदमी पर भी गार नियमों का असर पड़ेगा| उदाहरण के लिए अब करों से बचने का उपाय करने के लिए किसी कर्मचारी का वेतन कम नहीं रखा जा सकेगा | इसके अलावा केवल ब्याज भुगतान पर कर कटौती के लिए लिया जाने पारिवारिक कर्जा भी अब गार के नियमों का उल्लंघन माना जाएगा |
गार नियमों से संबंधित कुछ तथ्य
- सामान्य कर परिवर्जन-रोधी नियमों (गार) को उन विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) पर लागू नहीं किया जाना है, जिनके द्वारा आयकर अधिनियम की धारा 90 और 90ए के तहत कोई लाभ नहीं लिया जाता है| आयकर की धारा 90 और 90ए के तहत दोहरे कराधान से बचने का समझौता विभिन्न देशों के साथ किया जाता है. इसमें कंपनियों को दोहरे कराधान से बचने की व्यवस्था है|
- एफआईआई में जो प्रवासी निवेशक होंगे उन पर भी गार लागू नहीं होना है |
- 30 अगस्त 2010 से पहले किए गए निवेश पर गार के प्रावधान लागू नहीं होने हैं |
गार की आलोचना
- आयकर विभाग के अधिकारी इसका उपयोग निवेशकों को परेशान करने के लिए कर सकते हैं
- अधिकारियों के प्रशिक्षण की कमी के कारण इसे लागू करने में कठिनाई आ सकती है
- करों के मूल्यांकन के तरीके में बदलाव का निवेशकों और बाजार के विशेषज्ञों ने विरोध किया है|
6. कृषि यन्त्र और हरित क्रांति
भारत में हरित क्रांति के परिणामस्वरूप विभिन्न फसलों की उत्पादकता में वृद्धि हुई है | इस वृद्धि के पीछे मुख्य कारण थे अच्छी उपज देने वाले किस्म के वीजों का प्रयोग करना, रासायनिक खाद और नई तकनीकों का प्रयोग करना जिसके कारण 1960 के मध्य दशक के दौरान कृषि उत्पादकता में तेजी से वृद्धि हुई | इस उन्नति का श्रेय नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ नॉर्मन बोरलॉग और डॉ एमएस स्वामीनाथन को जाता है। इस क्रांति के कारण गेहूं की उत्पादकता में 2.5 गुना ; चावल में 3 गुना, मक्का में 3.5 गुना, ज्वार में 5 गुना और बाजरा में 5.5 गुना की वृद्धि हुई |
हरित क्रांति को बढ़ावा देने वाले साधन निम्न हैं :
सिंचाई
कृषि उत्पादन में वृद्धि और उत्पादकता, काफी हद तक पानी की उपलब्धता पर निर्भर करते है, अतः ये दोनों सिंचाई के लिए प्रमुख है | हालांकि, सिंचाई सुविधाओं की उपलब्धता भारत में अत्यधिक अपर्याप्त है, उदाहरण के लिए, 1950-51 में सकल सिंचित क्षेत्र के प्रतिशत के रूप में सकल फसल क्षेत्र का केवल 17 प्रतिशत था । योजनाओं की अवधियों में सिंचाई परियोजनाओं पर भारी निवेश के बावजूद,2009-10 में सकल फसल क्षेत्र के प्रतिशत के रूप में सकल सिंचित क्षेत्र केवल 45.3 प्रतिशत ही था (195.10 लाख हेक्टेयर में से 88.42 लाख हेक्टेयर )| यहाँ तक की, सकल फसल क्षेत्र का लगभग 55 प्रतिशत क्षेत्र अब भी बारिश पर निर्भर है। यही कारण है कि भारतीय कृषि को ‘मानसून में एक जुआ’ कहा जाता है।
भारतीय संदर्भ में वृद्धि की सिंचाई के कारण
- अपर्याप्त, अनिश्चित और अनियमित बारिश
- सिंचित भूमि पर बढ़िया उत्पादकता
- बहु फसल (एक से ज्यादा) को संभव करना
- नई कृषि नीति में भूमिका :उच्च उपज देने वाली किस्मों की योजनाओं का सफल कार्यान्वयन, काफी हद तक उपयुक्त समय पर पानी की उपलब्धता पर निर्भर करता है |
- खेती के तहत अधिक भूमि को लाना : वर्ष 2008-09 में कुल उपलब्ध भूमि का क्षेत्र 305,690,000 हेक्टेयर था। इसमें से 17.02 लाख हेक्टेयर बंजर और अनुत्पादक भूमि थी / अब जरुरत इस बात की है कि सरकार बंजर भूमि को कम करे और ज्यादा से ज्यादा बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाये /
- उत्पादन के स्तर में अस्थिरता को कम करना :सिंचाई उत्पादन और उपज का स्तर स्थिर रखने में मदद करती है। 1971-84 की अवधि में 11 प्रमुख राज्यों पर किये गए अध्ययन से पता चलता है सिंचित क्षेत्रों में कृषि उत्पादन में अस्थिरता का स्तर असिंचित क्षेत्रों के आधे से भी कम था |
- सिंचाई के प्रत्यक्ष लाभ:सिंचाई, कृषि उत्पादन में वृद्धि करके सरकार और किसानों दोनों को प्रत्यक्ष लाभ प्रदान करती है। सिंचित भूमि से उत्पदान बढ़ता है जिसके कारण किसानों और सरकार दोनों की आय बढती है /
- सिंचाई क्षमता व सिंचाई के साधन
भारत ने आजादी के बाद से अपनी सिंचाई क्षमता को बढ़ाया है | यह 1950-51 में 22.6 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 2006-07 में 102.8 लाख हेक्टेयर तक पहुंचा है जिसका अर्थ है इसमें 35.5 की वृद्धि हुई है | भारत में सिंचाई के साधनों को निम्न रूप में विभाजित किया जा सकता है :
- नहरें
- कूएँ
iii. तालाब
- अन्य स्रोत
लगभग भारत में 26.3 प्रतिशत सिंचित क्षेत्रों को नहरों के द्वारा पानी दिया जाता है |इसमें पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार और दक्षिणी राज्यों के कुछ हिस्सों के काफी बड़े क्षेत्र शामिल हैं | सभी को साथ लेकर देखा जाए तो , 2008-09 में कुल सिंचित क्षेत्र के 87.3 प्रतिशत को नहरों व कुओं से पानी प्रदान किया गया | तालाबों से ज्यादातर सिंचाई तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल और बिहार के कुछ हिस्सों में की जाती है|
सिंचाई से सम्बंधित कुछ समस्यायें :
- परियोजनाओं के पूरा होने में देरी होना |
- अन्तर्राज्यीय जल विवाद।
- सिंचाई विकास में क्षेत्री असमानाताएं।
- जल जमाव और लवणता:सिंचाई की शुरूआत से कुछ राज्यों में जल जमाव और लवणता की समस्याएं उत्पन्न हो गईं | 1991 में जल संसाधन मंत्रालय द्वारा गठित कार्य समूह ने आकलन किया कि लगभग 2.46 लाख हेक्टेयर सिंचित नियंत्रण वाले क्षेत्रों को जल जमाव से नुकसान हुआ।
- सिंचाई की लागत बढ़ना :लागत में वृद्धि होने के कारक निम्न हैं : (i) पहले की योजनाओं में निर्माण के लिए अपेक्षाकृत बेहतर स्थान की अनुपलब्धता; (ii) अपर्याप्त प्राथमिक सर्वेक्षण और निर्माण के दौरान ढाँचे व् बनावट में पर्याप्त संशोधन के लिए की गई अग्रणी जांच; (iii) कई परियोजनाओं को शुरू करने की इच्छा रखना जिसे सिंचाई के लिए उपलब्ध लागत से समायोजित किया जा सके |
- सिंचाई परियोजनाओं के संचालन में घाटा : जल प्रभार का शुल्क इतना कम रखा गया है कि इससे सञ्चालन का खर्चा निकालना भी मुश्किल हो जाता है इसी कारण भारत में अच्छी सिचाई सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हो पातीं हैं |
- बुनियादी ढांचे का पुराना हो जाना और गाद की वृद्धि होना :लगभग देश के कुल बांधों के 60 प्रतिशत बाँध दो दशकों से भी पुराने हैं | नहर के तंत्र को भी वार्षिक रखरखाव की जरूरत है।
- जलस्तर में गिरावट:देश के कई हिस्सों में हाल ही की अवधि में , खासकर पश्चिमी शुष्क क्षेत्रों में, भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण तथा वर्षा के पानी से अपर्याप्त पुनर्भरण के कारण जल स्तर में काफी गिरावट आई है |
उर्वरक
भारतीय किसान केवल खाद की जरुरत का दसवां हिस्सा ही इस्तेमाल करते हैं (जितना मिट्टी की उत्पादकता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है) | भारतीय मिट्टी में नाइट्रोजन और फास्फोरस की कमी है और इस कमी को उर्वरकों की एक बड़ी मात्रा का उपयोग करके अच्छा बनाया जा सकता है। चूंकि व्यापक खेती की संभावनाएँ अत्यंत सीमित है क्योंकि कृषि क्षेत्र के अधिकांश क्षेत्र पर पहले से ही खेती की जा रही है, वहाँ कोई विकल्प नहीं है लेकिन खाद की बड़ी मात्रा का उपयोग करके अधिक से अधिक क्षेत्रों में गहन खेती का विस्तार किया जा सकता है।
खपत, उत्पादन और उर्वरकों का आयात
भारत में उर्वरकों के उत्पादन में आज़ादी के बाद के समय से काफी वृद्धि हुई है | उदाहरण के लिए, 1960 -61 में 98 हजार टन से, नाइट्रोजन उर्वरक का उत्पादन 2010-11 में 12156 हजार टन तक पहुँच गया | फॉस्फेट उर्वरकों का उत्पादन वर्ष 1960-1961 में 52 हज़ार टन से बढ़कर 2010-11 में 4,222 हज़ार टन तक पहुँच गया |
अन्य उपकरण हैं:
- ट्रैक्टर
- ट्रॉली
III. ट्रिलर
- फसल काटने की मशीन
- थ्रसेर
- नलकूप
VII. नहरें
VIII. तालाब
इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उपकरणों की उपलब्धता और कृषि की उत्पादकता सकारात्मक रूप से एक-दूसरे से संबंधित है। यदि किसानों को साधन उपलब्ध कराए जाएँ तब निश्चित ही उत्पादकता में वृद्धि हो पाएगी |
7. मानव विकास सूचकांक क्या है
मानव विकास सूचकांक (HDI) जीवन प्रत्याशा, शिक्षा, और आय सूचकांकों का एक संयुक्त सांख्यिकी सूचकांक है जिसे मानव विकास के तीन आधारों द्वारा तैयार किया जाता है । इसे अर्थशास्त्री महबूब–उल–हक द्वारा बनाया गया था, जिसका 1990 में अर्थशास्त्रीअमर्त्य सेन द्वारा समर्थन किया गया, और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा प्रकाशित किया गया । UNDP ने मानव विकास सूचकांक की गणना के लिए एक नई विधि की शुरुआत की है। निम्नलिखित तीन सूचकांक इस्तेमाल किये जा रहे हैं:
1. जीवन प्रत्याशा सूचकांक (लम्बा व स्वस्थ जीवन)
- शिक्षा सूचकांक (शिक्षा का स्तर)
- आय सूचकांक (जीवन स्तर)
अपने 2010 की मानव विकास विवरण में, UNDP ने मानव विकास सूचकांक की गणना के लिए एक नई विधि का उपयोग शुरू किया है । निम्नलिखित तीन सूचकांकों इस्तेमाल किये जा रहे हैं:
- जीवन प्रत्याशा सूचकांक
- शिक्षा सूचकांक: इसमें शामिल है
- विद्यालय सूचकांक के औसत वर्ष
b. विद्यालय सूचकांक के प्रत्याशित वर्ष - आय सूचकांक
यूएनडीपी द्वारा जारी रिपोर्ट (2015) में भारत ने मानव विकास सूचकांक में थोड़ी प्रगति की है. भारत का एचडीआई इंडेक्स में 130 वां स्थान है. हालांकि अब भी यह निचले पायदान पर है. मानव विकास सूचकांक के 2014 के लिए तैयार रिपोर्ट में 188 देशों के लिए जारी यह रिपोर्ट मुख्य रूप से लोगों के जीवन स्तर को दर्शाती है.
जीवन प्रत्याशा में सुधार और प्रति व्यक्ति आय बढने से एचडीआई में भारत की स्थिति सुधरी है. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा आज जारी मानव विकास रिपोर्ट, 2015 में 188 देशों की सूची में भारत 130वें स्थान पर हैं. यह रैंकिंग 2014 के लिए है.ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत 131वें स्थान से 130वें सथान पर आया है. वर्ष 2009 से 2014 के बीच भारत का एचडीआई रैंक छह स्थान सुधरा है.
रिपोर्ट के साथ जारी एक नोट में कहा गया है, ‘‘भारत का एचडीआई मूल्य 2014 में 0.609 रहा और 188 देशों एवं क्षेत्रों की सूची में 130वें स्थान रहा. इसके साथ देश मानव विकास पैमाने पर मध्यम श्रेणी के देशों में आ गया है.’ इसके अनुसार, ‘‘1980-2014 के बीच भारत का एचडीआई मूल्य 0.362 से बढकर 0.609 पर पहुंचा है. यह 68.1 प्रतिशत वृद्धि को बताता है. औसतन सालाना वृद्धि 1.54 प्रतिशत रही.’ सूची में नार्वे पहले स्थान पर है जबकि आस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं. रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश तथा पाकिस्तान सूची में 142वें और 147वें स्थान पर हैं. ब्रिक्स देशों में भारत सबसे नीचे है. ब्रिक्स के अन्य देश ब्राजील, रुस, चीन एवं दक्षिण अफ्रीका हैं I
एचडीआई देश में मूल मानव विकास उपलब्धियों का औसत मापक है. यह मानव विकास के तीन मूल आयामों लंबा और स्वस्थ्य जीवन, ज्ञान तक पहुंच और उपयुक्त जीवन स्तर.में दीर्घकालीन प्रगति के आकलन को मापता है.जन्म के समय जीवन प्रत्याशा 2014 में 68 वर्ष रहा जो पिछले 67.6 तथा 1980 में 53.9 वर्ष था.प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय (जीएनआई) 2014 में 5,497 डालर रही जो 2014 में 5,180 डालर तथा 1980 में 1,255 डालर थी. 1980 से 2014 के बीच देश की प्रति व्यक्ति जीएनआई में 338 प्रतिशत की वृद्धि हुई I
यूएनडीपी की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में 2011 से स्कूली पढाई के प्रत्याशित वर्ष 11.7 वर्ष के स्तर पर बने हुए हैं. साथ ही स्कूली पढाई की का औसत वर्ष 2010 से 5.4 के स्तर पर कायम है l वर्ष 1980 से 2014 के बीच देश में लोगों का जन्म के समय जीवन प्रत्याशा 14.1 वर्ष बढ़ है. वहीं इसी दौरान स्कूली शिक्षा का औसत वर्ष 3.5 साल तथा प्रत्याशित वर्ष 5.3 वर्ष बढ़ा है |
सारांश: इस सूचकांक की इस बात पर आलोचना की जाती है कि यह सिर्फ तीन मापदंडों के आधार पर देशों की रैंकिंग जरी करता है I जो कि गलत है अतः इसे और भरोसेमंद बनाने के लिए इसमें व्यापक परिवर्तनों की अतिशीघ्र जरुरत है I
8. भारत में हरित क्रांति
दूसरी पंचवर्षीय योजना के उत्तरार्ध में फोर्ड फाउंडेशन के विशेषज्ञों के एक दल को कृषि उत्पादन और उत्पादकता के साधन बढ़ाने के लिए नये तरीके सुझाने के लिए भारत सरकार द्वारा आमंत्रित किया गया था | इस टीम की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने 1960 में सात राज्यों से चयनित सात जिलों में एक गहन विकास कार्यक्रम आरम्भ किया और इस कार्यक्रम को गहन क्षेत्र विकास कार्यक्रम (IADP) का नाम दिया गया था। 1960 के मध्य का समय कृषि उत्पादकता की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था। प्रो. नॉर्मन बोरलॉग तथा उनके साथियों द्वारा गेहूं की नई उच्च उपज किस्मों को विकसित किया गया और कई देशों द्वारा इसे अपनाया गया | बीजों की नई किस्मों द्वारा कृषि उत्पादन और उत्पादकता को बढाने के वादे के कारण, दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों ने एक व्यापक पैमाने पर इसे अपनाया । इस नई ‘कृषि रणनीति‘ को पहली बार भारत में 1966 के खरीफ के मौसम में अमल में लाया गया और इसे उच्च उपज देने वाली किस्म कार्यक्रम (HYVP) का नाम दिया गया था । इस कार्यक्रम को एक पैकेज के रूप में पेश किया गया था क्योंकि मुख्य तौर पर यह कार्यक्रम नियमित तथा पर्याप्त सिंचाई, खाद, उच्च उपज देने वाले किस्मों के बीज, कीटनाशकों पर निर्भर था |
हरित क्रांति के प्रभाव–
उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि–
HYVP केवल पांच फसलों के लिए सीमित था– गेहूं, चावल, जवार, बाजरा और मक्का। इसलिए, गैर खाद्यानों को नई रणनीति के दायरे से बाहर रखा गया। गेहूं वर्षों से हरित क्रांति का मुख्य आधार बना हुआ है। हमें नए बीजों का कृतज्ञ होना चाहिए, जिससे एक साल में करोड़ों का अतिरिक्त टन अनाज का उत्पादन किया जा रहा है |
हरित क्रांति के परिणामस्वरूप 1978-1979 में 131 मिलियन टन के रिकॉर्ड अनाज का उत्पादन हुआ | इस क्रांति के कारण भारत दुनिया के सबसे बड़े कृषि उत्पादकों के रूप में स्थापित हुआ | 1947 (जब भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त हुई) से 1979 के बीच 30% से अधिक खेत की प्रति इकाई उपज में सुधार हुआ है | हरित क्रांति के दौरान गेहूं और चावल की अधिक उपज देने वाली किस्मों के फसल क्षेत्र में वृद्धि हुई है |
- हरित क्रांति ने न केवल कृषि श्रमिकों को काफी रोज़गार उपलब्ध कराया बल्कि औद्योगिक श्रमिकों को भी उससे सम्बंधित कारखानों और पनबिजली स्टेशनों में रोज़गार के अवसर दिलवाए|
- संगठित बाजारों की व्यवस्था तथा सस्ते और आसन कृषि ऋण प्रणाली को अपनाया गया /
- सरकार द्वारा प्रोत्साहन मूल्य प्रणाली को अपनाया गया /
- देश में परंपरागत कृषि तकनीकी के स्थान पर आधुनिक तकनीकी को अपनाया गया जैसे,उन्नत किस्म के बीज ,कृतिम उर्वरक , सिचाई एवं कीटनाशक दवाएं तथा अन्य संसाधनों को अपनाया गया /
सुधार अवधि में कृषि विकास दर में गिरावट : 1980 के दशक के दौरान प्रभावशाली प्रदर्शन के पंजीकरण के बाद, आर्थिक सुधार अवधि (1991 में प्रारम्भ ) में कृषि विकास में गिरावट हुई। जैसा की यह स्पष्ट है, खाद्यान्न के उत्पादन की वृद्धि दर 1980 में 2.9 प्रतिशत प्रतिवर्ष से घटकर 1990 में 2.0 प्रतिशत प्रतिवर्ष पर आ गई तथा वर्तमान सदी के प्रथम दशक में 2.1 प्रतिशत प्रतिवर्ष पर स्थिर हो गया था |
कृषि विकास में कमी के कारण : तेज़ी से विकास के समय में कृषि विकास दर में गिरावट के मुख्य कारण हैं:
- कृषि के क्षेत्र में सार्वजनिक और व्यापक निवेश में महत्वपूर्ण गिरावट
- कृषि भूमि का परिमाण छोटा होना
- नई प्रौद्योगिकियों को विकसित करने में नाकामयाबी
- अपर्याप्त सिंचाई उपलब्ध होना
- प्रौद्योगिकी का कम उपयोग
- निवेश वस्तुओं का असंतुलित उपयोग
- योजना परिव्यय में गिरावट
- ऋण वितरण प्रणाली में दोष
हरित क्रांति और क्षेत्रीय असमानताओं का क्षेत्रीय प्रसार–
HYV कार्यक्रम 1966-67 में 1.89 मिलियन हेक्टेयर के एक छोटे से क्षेत्र पर शुरू किया गया था और 1998-99 में भी यह केवल 78.4 मिलियन हेक्टेयर ही सम्मिलित कर पाया जो केवल सकल फसल क्षेत्र का 40 प्रतिशत ही है | स्वाभाविक रूप से, नई तकनीक का लाभ केवल इस क्षेत्र में केंद्रित बना रहा । इसके अलावा, हरित क्रांति कई वर्षों से गेहूं तक ही सीमित बना हुआ है, इसके लाभ ज्यादातर गेहूं पैदा करने वाले क्षेत्रों में अर्जित हो रहे हैं |
- पारस्परिक असमानता :यहाँ एक आम सहमति है किहरित क्रांति के प्रारंभिक काल में, बड़े किसान, छोटे और सीमांत किसानों की तुलना में नई तकनीक से अधिक लाभान्वित हुए | नई तकनीक के आवेदन के लिए किया गया पर्याप्त निवेश बिलकुल भी प्रत्याशित नहीं था क्योंकि यह आमतौर पर ज्यादातर देश के छोटे तथा सीमान्त किसानों के मतलब से परे था | बड़े किसानों ने आय में ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाना जारी रखा क्योंकि प्रति एकड़ की कीमत कम थी और गैर-कृषि और खेत संपत्ति पर लाभ को पुनर्निवेश के द्वारा कई गुना अधिक कर लिया गया /
- श्रम अवशोषण का प्रश्न:यद्यपि यहाँ पारस्परिक असमानताओं और खेतिहर मजदूरों की वास्तविक मजदूरी पर नई कृषि नीति के प्रभाव के बारे में अर्थशास्त्रियों के बीच मतभेद है, वहाँ एक आम सहमति है कि नई तकनीकों को अपनाने के कारण कृषि क्षेत्र में श्रम अवशोषण कम हो गया है |
- कृषि व्यवहार में बदलाव :इस क्रांति की आलोचना इस बात पर भी की गई कि इसके कारण भारतीय किसान विदेशी बीजों पर नित्भर हो गए हैं और उनके परंपरागत बीज बाजार से गायब हो गए हैं जिसके कारण उन्हें अब बाजार से महंगे बीजों को खरीदना पड़ता है जो कि हर एक किसान के बस की बात नहीं है /
9. उदारीकरण के बाद की पंचवर्षीय योजनायें
योजना आयोग की स्थापना भारत सरकार के एक संकल्प के द्वारा मार्च, 1950 में की गयी थी । भारत की अर्थव्यवस्था के विकास की जिम्मेदारी पंचवर्षीय योजनाओं पर आधारित थी, जिसे योजना आयोग (प्रधानमन्त्री इसका पदेन अध्यक्ष होता हैं) द्वारा विकसित, निष्पादित तथा जांचा जाता है | अब योजना आयोग को नीति आयोग (राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान ) द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है। अब तक 12 पंचवर्षीय योजनाओं को योजना आयोग द्वारा आरम्भ किया गया है। किसी भी पंचवर्षीय योजना को अंतिम मंजूरी राष्ट्रीय विकास परिषद (NDC) द्वारा दी जाती है।
आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-1997)
1989-1991 का समय राजनीतिक उथल पुथल का था जिससे भारत में आर्थिक अस्थिरता हो गई थी और इसलिए कोई पंच वर्षीय योजना लागू नहीं की गई | 1990 और 1992 के बीच, भारत में केवल वार्षिक योजना ही बनी थीं । 1991 में, भारत के विदेशी मुद्रा भंडार (फॉरेक्स) भंडार को एक संकट का सामना करना पड़ा क्योंकि भारत के पास केवल अमेरिकी $ 1 अरब बचे थे | अतः दबाव के चलते, देश को समाजवादी अर्थव्यवस्था में सुधार का जोखिम लेना पडा | पी.वी. नरसिंह राव भारत गणराज्य के बारहवें प्रधानमंत्री और कांग्रेस पार्टी के प्रमुख थे, और भारत के आधुनिक इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक बदलाव इनकी देखरेख में संपन्न हुआ । इस समय डॉ मनमोहन सिंह ने भारत के मुक्त बाजार सुधारों की शुरुआत की जिसके कारण राष्ट्र दिवालिया होने से बाख गया था | इसी समय भारत में निजीकरण,उदारीकरण की शुरुआत हुई और भारत की अर्थव्यस्था को पूरे विश्व के साथ जुड़ने का मौका मिला।
उद्योगों के आधुनिकीकरण आठवीं योजना का एक प्रमुख आकर्षण था। इस योजना के तहत, भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास बढ़ते घाटे और विदेशी कर्ज को सही करने के लिए किया गया था। इस बीच भारत 1 जनवरी 1995 को विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बन गया | आर्थिक विकास के इस नये मॉडल को राव तथा मनमोहन मॉडल के रूप में जाना जाता है |
इस योजना के अंतर्गत आर्थिक विकास की दर लक्ष्य 5.6% के सापेक्ष 6.78% की एक औसत वार्षिक वृद्धि दर को हासिल कर लिया गया था ।
नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002)
नौवीं पंचवर्षीय योजना में भारत 1997 से 2002 के समय के दौरान तेजी से औद्योगीकरण, मानव विकास, पूर्ण पैमाने पर रोजगार, गरीबी में कमी, और घरेलू संसाधनों पर आत्मनिर्भरता के उद्देश्यों को प्राप्त करने के मुख्य उद्देश्य के साथ चला |
नौवीं योजना की अवधि के दौरान, विकास दर 5.35 प्रतिशत थी, जोकि 6.5 फीसदी के लक्ष्य की तुलना में एक प्रतिशत कम थी ।
दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007)
दसवीं पंचवर्षीय योजना के उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
- प्रति वर्ष 8% जीडीपी विकास दर को प्राप्त करना ।
- 2007 तक 5 प्रतिशत गरीबी अनुपात में कमी करना |
- कम से कम श्रम शक्ति के अलावा लाभदायक और उच्च गुणवत्ता वाले रोजगार उपलब्ध कराना।
- 2007 तक कम से कम 50% तक साक्षरता बढ़ाना और मजदूरी की दरों में लिंग भेद को कम करना ।
- 20 सूत्री कार्यक्रम पेश किया गए ।
लक्ष्य विकास: 8% , हासिल की गई विकास दर 7.8%
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012)
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
आय एवं गरीबी
- सकल घरेलू उत्पाद में बृद्धि दर को 8% से बढाकर 10% तक लाना और इसी स्तर पर स्थिर रखना | वर्ष 2016 -17 तक प्रति व्यक्ति आय को दोगुना करना |
- लाभ के प्रसार को व्यापक करने के लिए कृषि में प्रति वर्ष 4% की दर से वृद्धि करना |
- रोजगार के 70 लाख नए अवसर बनाना |
- शिक्षित बेरोजगारी को 5% से भी नीचे लाना ।
- अकुशल श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी दर को 20% तक बढ़ाना ।
- गरीबी को 10 प्रतिशत तक कम करना |
शिक्षा
- 2011-12 तक बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर में 20% तक कमी करना |
- प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा प्राप्ति के न्यूनतम मानकों का विकास करना और शिक्षा की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए नियमित परीक्षण की प्रभावशाली निगरानी |
- 7 साल या उसे ऊपर के व्यक्तियों के लिए साक्षरता दर में 85% तक वृद्धि करना |
- शिक्षा में लैंगिक अंतर को 10 प्रतिशत तक कम करना |
- योजना के अंत तक उच्च शिक्षा में आवेदन को वर्तमान 10 % से 15% तक बढ़ाना |
स्वास्थ्य
- 1000 जीवित जन्मों में से शिशु मृत्यु दर 28 तक और मातृ मृत्यु अनुपात प्रति 1 तक कम करना |
- कुल प्रजनन दर को 2.1 के स्तर पर लाना |
- 2009 तक सभी के लिए स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना |
- 0-3 आयु वर्ग के बच्चों में वर्तमान स्तर से आधे तक कुपोषण को कम करना |
- योजना के अंत तक महिलाओं और लड़कियों के बीच में अनीमिया को 50% तक कम करना |
महिलाओं और बच्चों के लिए
- 0-6 आयु समूह के लिए लिंग अनुपात को 2011-12 तक 935 तथा 2016-17 तक 950 तक बढ़ाना |
- यह सुनिश्चित करना कि सभी सरकारी योजनाओं का कम से कम 33 प्रतिशत प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लाभार्थी महिलायें और बालिकाएं हों |
- यह सुनिश्चित करना कि सभी बच्चे बिना किसी बाधा के एक सुरक्षित बचपन का आनंद उठा पायें |
- इन्फ्रास्ट्रक्चर को विकसित करना |
- 2009 तक सभी गांवों और बीपीएल परिवारों को बिजली कनेक्शन सुनिश्चित करना और 24 घंटे बिजली उपलब्ध कराना ।
- 2009 तक 1000 और उससे ऊपर(पहाड़ी और जनजातीय क्षेत्रों में 500) वाले आबादी की सभी बस्ती को हर मौसम में सड़क सुनिश्चित करना और 2015 तक सभी महत्वपूर्ण बस्तियों को इस योजना के अन्दर लेना ।
- नवम्बर, 2007 तक टेलीफोन द्वारा हर गांव को जोड़ना और 2012 तक सभी गांवों को ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी प्रदान करना |
- 2012 तक सभी के लिए वास स्थान प्रदान करना और 2016-17 तक सभी ग्रामीण गरीबों के लिए घर निर्माण के लिए कदम उठाना जिसके सभी गरीबों को इस योजना के अन्दर लाया जा सके |
पर्यावरण
- वन और वृक्षों से ढके क्षेत्रों में 5 प्रतिशत की वृद्धि करना |
- 2011-12 तक सभी प्रमुख शहरों में WHO द्वारा निर्धारित हवा की गुणवत्ता के मानकों को प्राप्त करना ।
- नदियों के जल को साफ करने के लिए 2011-12 तक सभी शहरी अपशिष्ट जल का निदान करना ।
- ऊर्जा दक्षता को 20% तक बढ़ाना |
विकास लक्ष्य 8.4% विकास दर हासिल की 7.9%।
बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017)
12 वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के दस्तावेज, जोकि 8.2 प्रतिशत की सालाना औसत आर्थिक विकास दर हासिल करना चाहते थे, वैश्विक वसूली के मद्देनज़र पहले की परिकल्पना से 9 प्रतिशत नीचे आ गए | अनुगामी अर्थ व्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए 12 वीं पंचवर्षीय योजना नीतिगत दिशानिर्देशों और सिद्धांतों द्वारा निर्देशित की गई है, जिसने वित्त वर्ष 2012-13 की पहली तिमाही में 5.5 प्रतिशत की मामूली वृद्धि दर को दर्ज किया |
योजना का उद्देश्य सभी प्रकार के बाधाओं को ख़त्म करके राष्ट्र के ढांचागत परियोजनाओं की तरक्की करना है। 12 वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत, योजना आयोग का मुख्य उद्देश्य ढांचागत विकास है, जिसमें अमेरिकी $ 1000000000000 के निजी निवेश को आकर्षित करना है, जोकि सरकार के सब्सिडी बोझ के सकल घरेलू उत्पाद को भी 2 प्रतिशत से 1.5 प्रतिशत तक कम करने को सुनिश्चित करेगा | यूआईडी योजना (विशिष्ट पहचान संख्या) देश में सब्सिडी के नकद हस्तांतरण के लिए एक मंच के रूप में कार्य करेगा।
अंत में यह कहा जा सकता है कि 12वी योजना का मुख्य उद्देश्य कृषि क्षेत्र में 4 प्रतिशत की विकास दर प्राप्त करना और वर्ष 2017 तक 10 प्रतिशत अंकों तक गरीबी कम करना है | इस योजना का मुख्य उद्देश्य तेज, और अधिक समावेशी और सतत विकास को प्राप्त करना है।
10. वाणिज्यिक बैंकों का संचालन: एक आलोचनात्मक समीक्षा
वाणिज्यिक बैंक देश की वित्तीय संस्थान प्रणाली का एक प्रमुख हिस्सा हैं । वाणिज्यिक बैंक वे लाभ कमाने वाले संस्थान हैं जो आम जनता से धन स्वीकार करते हैं और घरेलू, उद्यमियों, व्यवसायियों आदि जैसे व्यक्तियों को पैसे(ऋण) देते हैं | इन बैंकों का मुख्य उद्देश्य ब्याज, कमीशन आदि के रूप में लाभ कमाना है | इन सभी वाणिज्यिक बैंकों के कार्य भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) द्वारा नियंत्रित किये जाते है, जोकि एक केंद्रीय बैंक है तथा भारत में सर्वोच्च वित्तीय नियोग है |
भारत में वाणिज्यिक बैंको का ढांचा:
एक वाणिज्यिक बैंक की आय का मुख्य स्रोत उधार लेने और उधार देने के बीच की व्याज दरों का अंतर है जिसे वे ऋण लेने वाले उधारकर्ताओं से वसूलते हैं तथा वह दर जो जमाकर्ता को ब्याज के रूप में मिलती है |
भारत में कुछ वाणिज्यिक बैंक हैं – आईसीआईसीआई बैंक, भारतीय स्टेट बैंक, एक्सिस बैंक और एचडीएफसी बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया।
वर्तमान में, यहाँ भारत में भारतीय स्टेट बैंक ( इसके अन्य 5 सहभागी) और 20 राष्ट्रीकृत बैंक हैं | इसके अलावा, यहाँ दो बैंकों ओर हैं जिन्हें RBI द्वारा “अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों” के रूप में वृगिकृत किया गया है | आईडीबीआई (IDBI) और भारतीय महिला बैंक इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं।
वाणिज्यिक बैंकों का वर्गीकरण
- अनुसूचित बैंक:वे बैंक जिन्हें भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 की दूसरी अनुसूची में शामिल किया गया है | इन्हें निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत किया गया है :
- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक:ये वे बैंक हैं जिनकी अधिकाँश हिस्सेदारी सरकार के पास रहती है | उदाहरण के लिए; एसबीआई, पीएनबी, सिंडिकेट बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया आदि
- निजी क्षेत्र के बैंक:ये वे बैंक हैं जिनकी अधिकाँश हिस्सेदारी निजी वैयक्तिक के पास रहती है | उदाहरण के लिए ICICI बैंक, HDFC बैंक, AXIS बैंक आदि |
- विदेशी बैंक:ये वे बैंक हैं जिनके प्रधान कार्यालय देश के बाहर स्थित होते हैं | उदाहरण के लिए; सिटी बैंक, स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक, बैंक ऑफ़ टोक्यो लिमिटेड
- गैर अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक:ये वे बैंक हैं जिन्हें भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 की दूसरी अनुसूची में नहीं जोड़ा गया है |
वाणिज्यिक बैंकों के कार्य–
वाणिज्यिक बैंकों के प्राथमिक कार्य:
जमा स्वीकृति:
एक छोटी अवधि के ऋण व्यापारी होने के नाते, वाणिज्यिक बैंक जनता की जमाराशि को निम्न बचत के रूप में स्वीकार करते हैं :
- निश्चित अवधि जमा(FD)
- चालु जमा खाता (Current A/C)
III. आवर्ती जमा खाता (Recurring Deposit)
- बचत जमा खाता (Saving Account)
- कर बचत जमा
- प्रवासी भारतीयों के लिए जमा खाता
पैसा उधार देना: वाणिज्यिक बैंकों का एक दूसरा प्रमुख कार्य ऋण और अग्रिम राशि देना है और इस तरह उस पर ब्याज कमाना है। यह कार्य बैंकों की आय का मुख्य स्रोत है।
ओवरड्राफ्ट सुविधा: यह सुविधा वर्तमान खाता धारक को उसके खाते में जमा राशि से अधिक राशि निकालने की अनुमति देता है |
ऋण और अग्रिम नकदी: एक प्रकार का सुरक्षित व् असुरक्षित ऋण किसी प्रकार की जमानत के बदले | विनिमय पत्र की रियायत : यदि किसी व्यक्ति को तुरंत पैसा चाहिए, वह सम्बंधित वाणिज्यिक बैंक के समक्ष विनिमय पत्र प्रस्तुत कर सकता है तथा उस पर रियायत प्राप्त कर सकता है |
नकद ऋण:
यह दी गई सुरक्षा पर धन की एक निश्चित राशि को निकालने की सुविधा प्रदान करता है |
वाणिज्यिक बैंकों के अतिरिक्त कार्य:
एजेंसी के कार्य: बैंक एक एजेंट के रूप में अपने ग्राहकों की ओर से भुगतान करता है और इस तरह के एजेंसी कार्यों के लिए शुल्क लेता है जैसे :
- करों, बिलों का भुगतान
- बिल व् चेक के माध्यम से धन संचय करना आदि |
III. निधि अंतरण
- शेयरों और डिबेंचरों की बिक्री-खरीद
- लाभांश या ब्याज का संग्रह / भुगतान
- संपत्ति के ट्रस्टी और प्रबंधक के रूप में कार्य
VII. विदेशी मुद्रा लेनदेन
VIII. सामान्य उपयोगिता सेवाएं: लॉकर सुविधा
क्रेडिट निर्माण: यह वाणिज्यिक बैंकों के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है। एक बैंक अपने प्राथमिक जमा के आधार पर क्रेडिट बनाता है। यह आगे आम उधारकर्ताओं / कंपनियों / निवेशकों को धन उधार देता है | यह उधार दिया गया धन उन लोगों द्वारा जमा कराया जाता है जिनके पास अतिरिक्त धन होता है और वे अपने धन पर तय प्रतिफल अर्जित करना चाहते हैं | वाणिज्यिक बैंक पैसे देने करने वाले जमाकर्ताओं को दिए गए ब्याज दर की तुलना में ग्राहकों (उधारकर्ताओं) से अधिक ब्याज दर वसूलते हैं |
भारत में वाणिज्यिक बैंकों की सूची
SBI व सहभागी बैंक:
- स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर
- स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद
III. स्टेट बैंक ऑफ मैसूर
- स्टेट बैंक ऑफ पटियाला
- स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर
राष्ट्रीयकृत बैंक:
- इलाहाबाद बैंक
- आंध्रा बैंक
III. बैंक ऑफ बड़ौदा
- बैंक ऑफ इंडिया
- बैंक ऑफ महाराष्ट्र
- केनरा बैंक
VII. सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया
VIII. कॉर्पोरेशन बैंक
- देना बैंक
- इंडियन बैंक
- इंडियन ओवरसीज बैंक
XII. ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स
XIII. पंजाब एंड सिंध बैंक
XIV. पंजाब नेशनल बैंक
- सिंडिकेट बैंक
XVI. यूको बैंक
XVII. यूनियन बैंक ऑफ इंडिया
XVIII. यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया
XIX. विजया बैंक
विदेशी बैंक:
- एबीएन एमरो बैंक
- अबू धाबी कमर्शियल बैंक
III. अमेरिकन एक्सप्रेस बैंकिंग कॉरपोरेशन
- एबी बैंक
- बैंक इंटरनेशनल इंडोनेशिया
- बैंक ऑफ अमरीका
VII. बैंक ऑफ़ बहरीन और कुवैत
VIII. बैंक ऑफ़ सीलोन
- बार्कलेस बैंक
- बीएनपी पारिबास
- चीन ट्रस्ट वाणिज्यिक बैंक
XII. सिटी बैंक
XIII. डीबीएस बैंक
XIV. ड्यूश बैंक
- हांगकांग व शंघाई बैंकिंग कॉरपोरेशन
XVI. जेपी मॉर्गन चेस बैंक
XVII. स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक
XVIII. यूबीएस एजी
सार्वजनि के क्षेत्र के अन्य बैंक:
- आईडीबीआई बैंक
- भारतीय महिला बैंक
यहाँ यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है आने वाले वर्षों में वाणिज्यिक बैंकों के नेटवर्क आर्थिक विकास में एक प्रमुख भूमिका निभायेंगे, विशेष रूप से पूरे देश में वित्तीय समावेशन की योजना की शुरुआत के बाद |
11. डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ भारत में क्या बदलाव लाएगा?
डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ भारत सरकार का फ़्लैगशिप कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य भारत को डिजिटल रूप से सशक्त समाज व ज्ञान अर्थव्यवस्था में बदलना है| ‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ की शुरुआत 1 जुलाई,2015 को प्रधानमंत्री द्वारा की गयी थी| इस कार्यक्रम के तहत ग्रामीण क्षेत्रों को हाई स्पीड इंटरनेट नेटवर्क से जोड़ने की योजना है| ‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ के निम्नलिखित तीन मुख्य घटक हैं-
- डिजिटल अवसंरचना का निर्माण करना
- सेवाओं को डिजिटल रूप में प्रदान करना
III. डिजिटल साक्षरता में वृद्धि करना
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ क्या है?
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ भारत सरकार का एक अभियान है, जो यह सुनिश्चित करता है कि भारत सरकार के सभी कार्य ऑनलाइन किए जाए ताकि नागरिकों को जरूरी सरकारी सेवाएँ व जानकारी आसानी से प्राप्त हो सके और कागजी कार्यवाही व सरकारी कामकाज में लालफ़ीताशाही को कम किया जा सके |
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ का दृष्टिकोण क्या है?
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ का दृष्टिकोण भारत को डिजिटल रूप से सशक्त समाज व ज्ञान अर्थव्यवस्था में बदलना है|
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ की निगरानी कौन करेगा?
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ की निगरानी ‘डिजिटल इंडिया सलाहकार समूह’ द्वारा की जाती है, जिसका अध्यक्ष संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री होता है|
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ के क्षेत्र (Vision Areas)
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ मुख्य रूप से निम्नलिखित तीन क्षेत्रों पर ध्यान देता है:
- सभी नागरिकों हेतु डिजिटल अवसंरचना का विकास करना
- सेवाओं की प्राप्ति हेतु हाई स्पीड इंटरनेट नेटवर्क तक नागरिकों की पहुँच सुनिश्चित करना
- प्रत्येक नागरिक को एक विशिष्ट डिजिटल पहचान प्रदान करना
III. मोबाइल बैंकिंग आदि को बढ़ावा देकर डिजिटल व वित्तीय स्पेस में नागरिकों की भागीदारी बढ़ाना
- सामान्य सेवा केन्द्रों (Common Service Centre) तक सुगम पहुँच सुनिश्चित करना
- सुरक्षित व कुशल साइबर स्पेस को स्थापित करना
- शासन व माँग आधारित सेवाएँ
- विभिन्न विभागों से संबन्धित सेवाओं को समन्वित रूप से एक ही प्लेटफॉर्म से प्रदान करना
- ऑनलाइन व मोबाइल प्लेटफॉर्म के द्वारा सेवाओं की त्वरित व ‘रियल टाइम’ में डिलीवरी
III. व्यापार को सरल और बेहतर बनाने के लिए डिजिटल सेवाओं का प्रयोग करना
- वित्तीय लेन-देन को कैशलेस व इलेक्ट्रोनिक बनाना
- नागरिकों को डिजिटल रूप से सशक्त करना
- सार्वभौमिक डिजिटल साक्षरता
- सार्वभौमिक पहुँच युक्त डिजिटल संसाधन
III. भारतीय भाषाओं में डिजिटल संसाधनों व सेवाओं की उपलब्धता
- भागीदारीपूर्ण शासन के लिए सहयोगात्मक डिजिटल प्लेटफॉर्म
- नागरिकों द्वारा सरकारी दस्तावेजों/प्रमाणपत्रों को भौतिक रूप (Hard Copy) में जमा करने से मुक्ति
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ के लाभ क्या हैं?
भारत सरकार देश को ‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ के माध्यम से डिजिटल रूप से सशक्त समाज व ज्ञान अर्थव्यवस्था में बदलने के लिए बड़ा कदम उठा रही है| इसके निम्नलिखित लाभ प्राप्त होंगे:
- भ्रष्टाचार को कम करने में सहायक होगा
- सरकारी सेवाओं की गुणवत्तापूर्ण व त्वरित डिलीवरी को सुनिश्चित करेगा
III. कागज का कम प्रयोग होगा जो अंततः पर्यावरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण साबित होगा
- शासन में पारदर्शिता आएगी
- नागरिकों की शासन में भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी
इस कार्यक्रम द्वारा डिजिटल लॉकर, ई-शिक्षा, ई-स्वास्थ्य, ई-हस्ताक्षर, राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल जैसी सुविधाएं भी प्रदान की जाएंगी|
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ की प्रबंधकीय संरचना किस तरह की है?
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ की प्रबंधकीय संरचना निम्न तरह की है:
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ को कैसे बेहतर तरीके से कार्यान्वित किया जा सकता है?
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ एक ऐसा कार्यक्रम है, जिसमे कई सरकारी मंत्रालय व विभाग शामिल हैं | अतः इस कार्यक्रम को इलेक्ट्रोनिक व सूचना तकनीक विभाग (DeitY) द्वारा अन्य इकाईयों व मंत्रालयों के समन्वय के साथ ही सफलतापूर्वक लागू किया जा सकेगा | वास्तव में यह एक कार्यक्रम नहीं बल्कि अनेक तरह के विचारों व संकल्पनाओं के मिश्रण से बना एक दृष्टिकोण है, जिसे कार्यान्वित कर पारदर्शी ,भ्रष्टाचार मुक्त व कुशल शासन के लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है|
‘डिजिटल इंडिया कार्यक्रम’ के निम्नलिखित नौ स्तम्भ हैं:
- ब्रॉडबैंड हाइवे
- मोबाइल कनेक्टिविटी तक सार्वभौमिक पहुँच ConnectivityIII. जन तक इन्टरनेट पहुँच कार्यक्रम
- ई-शासन-तकनीक के द्वारा शासन में सुधार
- ई-क्रांति- सेवाओं की इलेक्ट्रोनिक डिलीवरी
- सूचना तक सभी की पहुँच
VII. इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण
VIII. रोजगार हेतु सूचना तकनीक
- जल्द परिणाम देने वाले कार्यक्रम (Early Harvest Programmes)
वर्ष 2019 तक ‘डिजिटल भारत कार्यक्रम’ से क्या परिणाम प्राप्त हो सकेंगें?
- 2.5 लाख गाँवों में ब्रॉडबैंड सुविधा, दूरसंचार कनेक्टिविटी
- इन्टरनेट तक पहुँच के लिए 400,000 पब्लिक इन्टरनेट पहुँच बिन्दु (Point)
III. सभी विश्वविद्यालयों व 2.5 लाख स्कूलों में वाई-फ़ाई सुविधा, नागरिकों के लिए पब्लिक वाई-फ़ाई हॉटस्पॉट्स
- डिजिटल समावेशन:1.7 करोड़ लोगों को सूचना-तकनीक, टेलीकॉम वे इलेक्ट्रोनिक क्षेत्र में रोजगार हेतु प्रशिक्षण
- रोजगार जनन (प्रत्यक्ष रूप से 1.7 करोड़ व अप्रत्यक्ष रूप से 8.5 करोड़ रोजगार जनन)
- ई-शासन व ई-सेवाओं की स्थापना
VII. स्वास्थ्य,शिक्षा व बैंकिंग सेवाओं में सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग
VIII. डिजिटल रूप से सशक्त नागरिक-पब्लिक क्लाउड, इंटरनेट पहुँच
12. उदारीकरण से पहले भारत की पंचवर्षीय योजनाएं
भारत में नियोजित आर्थिक विकास, पहली पंचवर्षीय योजना की स्थापना के साथ 1951 में शुरू हुआ था | पहली पंचवर्षीय योजना का मुख्य उद्देश्य देश में कृषि की हालत को सुधारना था क्योंकि कृषि पूरी अर्थव्यस्था का आधार है | दूसरी पंचवर्षीय योजना (महालनोबिस मॉडल पर आधारित) औद्योगिक विकास के लिए समर्पित थी | सन 1980 की अवधि तक भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 3.5% के आसपास थी (जिसे प्रोफेसर राज्कृष्णा द्वारा हिंदू विकास दर का नाम दिया गया था गया था) |
प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-1956)-
प्रथम भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 8 दिसंबर,1951 को भारत की संसद में पहली पंचवर्षीय योजना प्रस्तुत की थी | यह योजना हैरड़ –डोमर मॉडल पर आधारित थी। योजना में, मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र को ध्यान में रखा गया था I इसमें बांधों और सिंचाई के क्षेत्र में निवेश पर ज्यादा ध्यान दिया गया था । कृषि क्षेत्र पर सबसे ज्यादा बिपरीत प्रभाव भारत के विभाजन सेपड़ा । पहली योजना में INR 2,069 करोड़ रुपये का कुल योजना बजट सात व्यापक क्षेत्रों को आवंटित किया गया था: सिंचाई और ऊर्जा (27.2 प्रतिशत), कृषि और सामुदायिक विकास (17.4 प्रतिशत), परिवहन और संचार (24 प्रतिशत), उद्योग (8.4 प्रतिशत), सामाजिक सेवाएँ (16.64 प्रतिशत), भूमि पुनर्वास (4.1 प्रतिशत), और अन्य क्षेत्रों और सेवाओं के लिए ( 2.5 प्रतिशत )।
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के विकास का लक्ष्य 2.1% वार्षिक था, जबकि हासिल की गई विकास दर 3.6% थी। इस योजना में कुल घरेलू उत्पाद 15% बढ़ गया। अच्छे मानसून के कारण अपेक्षाकृत उच्च फसल की पैदावार हुई, मुद्रा भंडार तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई, (जो 8% बढ़ी थी) | जनसँख्या वृद्धि की दर, प्रति व्यक्ति आय से अधिक की थी, जिसके कारण देश में नकारात्मक माहौल पैदा हुआ | साथ ही कई सिंचाई परियोजनाएं जिसमें भाखड़ा बांध और हीराकुंड बांध भी शामिल हैं इस अवधि के दौरान शुरू किए गए थे।
दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-1961)
दूसरी पंचवर्षीय योजना, उद्योग पर केंद्रित थी, विशेष रूप से भारी उद्योगों पर। पहली योजना के विपरीत जोकि मुख्यतः कृषि पर केन्द्रित थी, दूसरी योजना में औद्योगिक उत्पादों के घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित किया गया, (विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के विकास में) | दूसरी पंचवर्षीय योजना ने महालनोबिस मॉडल का अनुसरण किया I इस आर्थिक विकास के मॉडल को भारतीय सांख्यिकीविद् प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने 1953 में विकसित किया था | इस योजना में उत्पादक के साधनों को अनुकूलतम तरीके से आवंटित करने पर बल दिया गया था ताकि विकास को लम्बी अवधी तक बनाये रखा जा सके | इस योजना ने भारत को एक बंद अर्थव्यवस्था के रूप में बढ़ावा दिया था जिसका मुख्य लक्ष्य आयातों की सहायता से देश के विकास को बढ़ाना था | इस अवधी में पनबिजली परियोजनाओं और भिलाई, दुर्गापुर तथा राउरकेला में पांच स्टील मिलों की स्थापना की गई। कोयला उत्पादन की वृद्धि हुई । अधिक रेलवे लाइनों को उत्तर पूर्व से जोड़ा गया।
सन 1958 में परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की गई और इसके पहले अध्यक्ष होमी जहांगीर भाभा चुने गए | टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान (TIFR) को एक शोध संस्थान के रूप में स्थापित किया गया था। सन् 1957 में एक प्रतिभा खोज छात्रवृत्ति कार्यक्रम की शुरुआत की गई जिससे बच्चों को परमाणु उर्जा के कार्यक्रम में प्रशिक्षित किया जाए | इस योजना में लक्ष्य विकास-4.5% और वास्तव में हासिल विकास दर हासिल :। 4.0%।
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उदारीकरण के बाद की पंचवर्षीय योजनायें
तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-1966)
तीसरी योजना में कृषि और गेहूं के उत्पादन में सुधार पर जोर दिया गया, लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध ने अर्थव्यवस्था में कमजोरी को उजागर किया और सरकार का ध्यान रक्षा उद्योग या भारतीय सेना की ओर स्थानांतरित कर दिया। 1965-1966 में भारत का एक युद्ध [भारत-पाक] पाकिस्तान के साथ हुआ । इस के कारण 1965 में गंभीर सूखा पड़ गया | इस युद्ध के कारण देश में मुद्रा स्फीति की स्थिती पैदा हो गई और सरकार का ध्यान अब मूल्य स्थिरीकरण की ओरहो गया | बांधों का निर्माण जारी रहा । कई सीमेंट और उर्वरक संयंत्रों को भी बनाया गया था। । पंजाब में गेहूं का प्रचुर मात्रा में उत्पादन होना शुरू हो गया| विकास लक्ष्य : 5.6%, वास्तविक विकास : 2.4%
चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-1974)
इस समय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं । इंदिरा गांधी सरकार ने 14 प्रमुख भारतीय बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तथा भारत में पहली हरित क्रांति से कृषि उत्पादन में काफी बृद्धि हुई । इसके अलावा, पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में स्थिति भयानक हो रही थी क्योंकि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम ने औद्योगिक विकास के लिए निर्धारित की गई धन राशि को युद्ध के खर्चों की तरफ मोड़ दिया | अमेरिका द्वारा बंगाल की खाड़ी में सातवें बेड़े की तैनाती पर भारत ने 1974 में समाइलिंग बुद्धा के नाम से भूमिगत परमाणु परिक्षण कर प्रतिक्रिया दी | इन बेड़ों से भारत को पश्चिमी पाकिस्तान पर हमला करने और युद्ध को विस्तार देने के खिलाफ सचेत करने के लिए तैनात किया गया था । विकास दर लक्ष्य 5.7% वास्तविक विकास दर 3.3%
पांचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-1979)-
इस योजना में रोजगार, गरीबी उन्मूलन, और न्याय पर जोर दिया गया । इस योजना में कृषि उत्पादन और रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता पर भी जोर दिया। 1978 में नव निर्वाचित मोरारजी देसाई की सरकार ने इस योजना को खारिज कर दिया। विद्युत आपूर्ति अधिनियम को 1975 में अधिनियमित किया गया, जिसने केन्द्र सरकार को बिजली उत्पादन और पारेषण में प्रवेश करने का अधिकार दिया ।
विकास दर लक्ष्य: 4.4% वास्तविक विकास दर: 5.0
छठी पंचवर्षीय योजना (1980-1985)
छठी योजना ने भी आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत को चिन्हित किया । मूल्य नियंत्रण को समाप्त कर दिया गया था और राशन की दुकानों को बंद कर दिया गया था। इसके कारण खाद्य पदार्थों की कीमतों तथा जीवन यापन की लागत में वृद्धि हो गई | यह नेहरूवादी समाजवाद का अंत था और इस अवधि के दौरान इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं ।
जनसंख्या को बढ़ने से रोकने के लिए परिवार नियोजन का विस्तार भी किया गया था।
विकास दर लक्ष्य 5.2% वास्तविक विकास दर 5.4%
सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-1990)
सातवीं योजना ने कांग्रेस पार्टी के सत्ता में आने की वापसी को चिह्नित किया । इस योजना ने प्रौद्योगिकी की उन्नत्ति करके उद्योगों की उत्पादकता के स्तर में सुधार लाने पर जोर दिया।
7 वीं पंचवर्षीय योजनाओं का मुख्य उद्देश्य आर्थिक उत्पादकता, खाद्यान्न के उत्पादन और रोजगार सृजन के क्षेत्र में विकास को स्थापित करने के लिए था ।
छठी पंचवर्षीय योजना के परिणामस्वरुप, कृषि के क्षेत्र में लगातार वृद्धि, मुद्रास्फीति की दर पर नियंत्रण, और अनुकूल भुगतान संतुलन प्राप्त हुआ है जिसने सातवें पंचवर्षीय योजना के आगे के आर्थिक विकास के लिए एक मज़बूत आधार प्रदान किया | विकास दर लक्ष्य 5.0% वास्तविक विकास दर 5.7%
13. 1991 की नयी आर्थिक नीति
आजादी के बाद 1991 का साल भारत के आर्थिक इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ। इससे पहले देश एक गंभीर आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा था। और इसी संकट ने भारत के नीति निर्माताओं को नयी आर्थिक नीति को लागू के लिए मजबूर कर दिया था । संकट से उत्पन्न हुई स्थिति ने सरकार को मूल्य स्थिरीकरण और संरचनात्मक सुधार लाने के उद्देश्य से नीतियों का निर्माण करने के लिए प्रेरित किया। स्थिरीकरण की नीतियों का उद्देश्य कमजोरियों को ठीक करना था, जिससे राजकोषीय घाटा और विपरीत भुगतान संतुलन को ठीक किया सके। संरचनात्मक सुधारों ने कठोर नियमों को दूर कर दिया था जिससे कारण सुधारों को भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में भी लागू किया गया।
और इन्ही नीतियों का परिणाम है कि आज भारत अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे विश्व स्तर के संस्थान को भी मदद दे सका ।
1991 की नई आर्थिक नीति के मुख्य उद्देश्य
1991 में तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह द्वारा नई आर्थिक नीति (New Economic policy) का शुभारंभ करने के पीछे मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं:
- भारतीय अर्थव्यवस्था को ‘वैश्वीकरण’ के मैदान में उतारना के साथ-साथ इसे बाजार के रूख के अनुरूप बनाना था।
- मुद्रास्फीति की दर को नीचे लाना और भुगतान असंतुलन को दूर करना ।
III. आर्थिक विकास दर को बढ़ाना और पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार का निर्माण करना ।
- आर्थिक स्थिरीकरण को प्राप्त करने के साथ-साथ सभी प्रकार के अनावश्यक प्रतिबंध को हटाकर एक बाजार अनुरूप अर्थव्यवस्था के लिए आर्थिक परिवर्तिन करना था।
- प्रतिबंधों को हटाकर, माल, सेवाओं, पूंजी, मानव संसाधन और प्रौद्योगिकी के अंतरराष्ट्रीय प्रवाह की अनुमति प्रदान करना था।
- अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में निजी कंपनियों की भागीदारी बढ़ाना था। यही कारण है कि सरकार के लिए आरक्षित क्षेत्रों की संख्या को घटाकर 3 कर दिया गया है।
1991 के मध्य की शुरूआत में भारत सरकार ने व्यापार, विदेशी निवेश, विनिमय दर, उद्योग, राजकोषीय व्यवस्था आदि को असरदार बनाने के लिए अपनी नीतियों में कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन किये ताकि अर्थव्यवस्था की धार को तेज किया जा सके।
नई आर्थिक नीति का मुख्य उद्देश्य एक साधन के रूप में अर्थव्यवस्था की दिशा में अधिक प्रतिस्पर्धी माहौल का निर्माण करने के साथ उत्पादकता और कार्यकुशलता में सुधार करना था।
नयी आर्थिक नीति के तहत निम्नलिखित कदम उठाए गए:
(I) वाणिज्यिक बैंकों द्वारा ब्याज दर का स्वयं निर्धारण:
उदारीकरण नीति के तहत सभी वाणिज्यिक बैंकों ब्याज की दर निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र होंगे । उन्हें भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित ब्याज की दरों को मानने की कोई बाध्यता नहीं होगी ।
(II) लघु उद्योग (एसएसआई) के लिए निवेश सीमा में वृद्धि:
लघु उद्योगों में निवेश की सीमा बढ़ाकर 1 करोड़ रुपये कर दी गयी है, जिससे ये कंपनियों अपनी मशीनरी को उन्नत बनाने के साथ अपनी कार्यकुशलता में सुधार कर सकते हैं।
(III) सामान आयात करने के लिए पूंजीगत स्वतंत्रता:
भारतीय उद्योग अपने समग्र विकास के लिए विदेशों से मशीनें और कच्चा माल खरीदने के लिए स्वतंत्र होंगे।
(V) उद्योगों के विस्तार और उत्पादन के लिए स्वतंत्रता:
इस नए उदारीकृत युग में अब उद्योग अपनी उत्पादन क्षमता में विविधता लाने और उत्पादन की लागत को कम करने के लिए स्वतंत्र हैं। इससे पहले सरकार उत्पादन क्षमता की अधिकतम सीमा तय करती थी। कोई भी उद्योग इस सीमा से अधिक उत्पादन नहीं कर सकता था। अब उद्योग बाजार की आवश्यकता के आधार पर स्वयं अपने उत्पादन के बारे में फैसला करने के लिए स्वतंत्र हैं।
(VI) प्रतिबंधित कारोबारी प्रथाओं का उन्मूलन:
एकाधिकार एवं प्रतिबंधात्मक व्यापार प्रथा (एमआरटीपी) अधिनियम 1969 के अनुसार, वो सभी कंपनियां जिनकी संपत्ति का मूल्य 100 करोड़ रूपये या उससे अधिक है, को एमआरटीपी कंपनियां कहा जाता था इसी कारण पहले उन पर कई प्रतिबंध भी थे, लेकिन अब इन कंपनियों को निवेश निर्णय लेने के लिए सरकार से पूर्वानुमति प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
1- उदारीकरण
औद्योगिक लाइसेंस और पंजीकरण को समाप्त करना:
इससे पहले निजी क्षेत्र को एक नया उद्यम शुरू करने के लिए सरकार से लाइसेंस लेना पड़ता था। इस नीति में निजी क्षेत्र को लाइसेंस और अन्य प्रतिबंधों से मुक्त कर दिया गया।
निम्न उद्योगों के लिए लाइसेंस अभी भी आवश्यक है:
(ए) परिवहन और रेलवे
(बी) परमाणु खनिजों का खनन
(सी) परमाणु ऊर्जा
(2) निजीकरण:
साधारण शब्दों में, निजीकरण का अर्थ निजी क्षेत्रों द्वारा उन क्षेत्रों में उद्योग लगाने की अनुमति देना है जो पहले सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे। इस नीति के तहत कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को निजी क्षेत्र को बेच दिया गया था। निजीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें निजी क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (पीएसयू) के मालिकाना हक का स्थानांतरण निजी हाथों में हो जाता है ।
निजीकरण का मुख्य कारण राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से पीएसयू का घाटे में चलना था। इन कंपनियों के प्रबंधक स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकते थे इसी कारण उनकी उत्पादन क्षमता कम हो गई थी। प्रतिस्पर्धा/गुणवत्ता बढ़ाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का निजीकरण कर दिया गया।
निजीकरण के लिए उठाए गए कदम:
निजीकरण के लिए निम्नलिखित कदम उठाए गए हैं:
- शेयरों की बिक्री:
भारत सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के शेयरों को सार्वजनिक और वित्तीय संस्थानों को बेच दिया, उदाहरण के लिए सरकार ने मारुति उद्योग लिमिटेड के शेयर बेच दिए । बेचे गए ये शेयर निजी उद्यमियों के हाथ में चले गए ।
- पीएसयू में विनिवेश:
सरकार ने उन पीएसयू में विनिवेश की प्रक्रिया शुरू कर दी थी जो घाटे में चल रहे थे। इसका तात्पर्य साफ था कि सरकार इन उद्योगों को निजी क्षेत्र में बेच दिया। सरकार ने 30000 करोड़ रूपये की कीमत के उद्यमों को निजी क्षेत्र को बेच दिया।
- सार्वजनिक क्षेत्र का न्यूनीकरण:
इससे पहले सार्वजनिक क्षेत्र को महत्व दिया जाता था और ऐसा माना जाता था कि यह औद्योगीकरण को बढ़ाने के साथ-साथ गरीबी को हटाने में भी मदद करता है। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के ये पीएसयू नयी आर्थिक नीति के अनुरूप कम नहीं कर सके और लक्ष्यों को हासिल करने में नाकाम रहे थे और इसी कारण बड़ी संख्या में उद्योगों को निजी क्षेत्रों के लिए आरक्षित कर दिया गया था, पीएसयू की संख्या घटकर 17 से 3 कर दी गयी।
(ए) परिवहन और रेलवे
(बी) परमाणु खनिजों का खनन
(सी) परमाणु ऊर्जा
(3) वैश्वीकरण:
वैश्वीकरण का अर्थ वैश्विक या विश्व भर में फैलने से है, अन्यथा व्यापार को पूरी दुनिया में ले जाना है। वैश्वीकरण का अर्थ मोटे तौर पर विदेशी निवेश, व्यापार, उत्पादन और वित्तीय मामलों के संबंध में बाकी दुनिया के साथ घरेलू अर्थव्यवस्था को जोड़ना है ।
वैश्वीकरण के लिए उठाए गए कदम:
वैश्वीकरण के लिए निम्नलिखित कदम उठाए गए:
(I) आयात दरों में कटौती: आयात पर सीमा शुल्क लगाया गया और निर्यात पर लगाए गए शुल्कों को धीरे-धीरे घटाया गया तांकि भारत की अर्थव्यवस्था को वैश्विक निवेशकों के लिए आकर्षक बनाया जा सके।
(II) दीर्घकालिक व्यापार नीति: विदेशी व्यापार नीति को लंबी अवधि के लिए लागू किया गया ।
नीति की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं:
(क) उदार नीति
(ख) विदेशी व्यापार पर सभी प्रकार के नियंत्रण हटा दिए गए है
(ग) बाजार में खुली प्रतियोगिता को प्रोत्साहित किया गया।
(III) मुद्रा की आंशिक परिवर्तनशीलता:
आंशिक परिवर्तनशीलता का अर्थ भारतीय मुद्रा को अन्य देशों की मुद्रा में एक निश्चित सीमा तक परिवर्तन करने से है । इसका सीधा फायदा यह हुआ कि अब विदेशी निवेशक या भारतीय निवेशक अपनी मुद्रा को आसानी से एक देश से दूसरे देश में ले जा सकते हैं ।
(IV) विदेशी निवेश की इक्विटी सीमा में बढोत्तरी:
कई क्षेत्रों में विदेशी पूंजी निवेश की सीमा 40 से लेकर 100 फीसदी तक बढ़ा दी गई है। 47 उच्च प्राथमिकता वाले उद्योगों में बिना किसी प्रतिबंधों के 100 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति दी गई है । इस नीति के लागू होने से भारत में विदेशी मुद्रा का प्रवाह बढेगा जो कि देश के विदेशी मुद्रा भंडार को मजबूती प्रदान करेगा ।
सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि यदि, वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व के मानचित्र पर चमक रही है, तो इसका पूरा श्रेय 1991 में लागू की गयी नई आर्थिक नीति को जाता है।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) का अवलोकन
सार्वजनिक वितरण प्रणाली का अर्थ सस्ती कीमतों पर खाद्य और खाद्यान्न वितरण के प्रबंधन की व्यवस्था करना है। गेहूं, चावल, चीनी और मिट्टी के तेल जैसे प्रमुख खाद्यान्नों को इस योजना के माध्यम से सार्वजनिक वितरण की दुकानों द्वारा पूरे देश में पहुंचाया जाता है। इस योजना का संचालन उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण के मंत्रालय द्वारा किया जाता है। इस योजना का मुख्य मकसद सस्ती दरों पर देश के कमजोर वर्ग को खाद्यान्न उपलब्ध कराना है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के उद्देश्य और विस्तार
- भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का मूल उद्देश्य उपभोक्ताओं को सस्ते और रियायती कीमतों पर आवश्यक उपभोग की वस्तुएं प्रदान करना है तांकि उन्हें वस्तुओं की बढती हुई कीमतों के प्रभाव से बचाया जा सके और जनसंख्या के न्यूनतम पोषण की स्थिति को भी बनाए रखा जा सके। इस प्रणाली को चलाने के लिए सरकार खरीद मूल्य पर व्यापारियों/ मिलों और उत्पादकों के साथ बाजार का एक बिक्री योग्य अधिशेष खरीद लेती है। इस प्रकार अनाज (मुख्यत: गेहूं और चावल) को खरीदकर इसे ग्राहकों में वितरित करने के लिए उचित राशन दुकानों और / या बफर स्टॉक के एक नेटवर्क के माध्यम से उपभोक्ताओं को वितरित किया जाता है। खाद्यान्न के अलावा, भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में खाद्य तेल, चीनी, कोयला, मिट्टी के तेल और कपड़े का भी वितरण किया जाता है। भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में वितरित की जाने वाली वस्तुओं में सबसे महत्वपूर्ण वस्तुएं चावल, गेहूं, चीनी और मिट्टी का तेल है।
- भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी आबादी को कवर करती है, जिसका यह अर्थ नहीं है कि इसका प्रत्यक्ष लक्ष्य कामकाजी लोग हैं। राशन कार्ड उन सभी लोगों को जारी किए जाते हैं जिनके पास विश्वसनीय आवासीय पता हो।
- पीडीएस का सालाना व्यय लगभग तीस हजार करोड़ रुपये से अधिक का है जिसमें लगभग160 लाख परिवार आते हैं और यह शायद दुनिया में अपनी तरह की वितरण वाला सबसे बड़ा नेटवर्क है।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए खाद्यान्न उपलब्ध कराने वाली मुख्य एजेंसी भारतीय खाद्य निगम (FCI) की स्थापना1965 में हुई थी। निगम का प्राथमिक कार्य अनाजों और अन्य खाद्य पदार्थों की खरीद, ब्रिकी, भंडारण, आंदोलन, सप्लाई, वितरण करना है। इसका मुख्य मकसद सुनिश्चत कराना है कि एक तरफ किसान को उसकी उपज का सही मूल्य मिल सके है और दूसरी तरफ उपभोक्ताओं को भारत सरकार द्वारा तयशुदा कीमतों पर केंद्रीय मूल्यों पर खाद्यान्न मिल सके।
खाद्य सुरक्षा व्यवस्था में खामियां
भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की विभिन्न मोर्चों पर आलोचना की गई है। मुख्य आलोचनाएं इस प्रकार हैं:
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली से गरीबों के लिए सीमित लाभ:कई अध्ययनों से यह पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों को पीडीएस से ज्यादा फायदा नहीं हुआ है जिस कारण उन्हें खुले बाजार पर अधिकर निर्भर रहना पडता है जहां अधिकांश वस्तुओं की कीमतें सार्वजनिक वितरण प्रणाली तुलनामें बहुत अधिक होती हैं। “पीडीएस के माध्यम से सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों तक ही अनाज पहुंच पाता है जो बहुत ही कम है”। सभी राज्यों में खर्च होने वाले एक रूपये में से केवल 22 पैसे ही गरीबों तक पहुँचते हैं। केवल गोवा, दमन और दीव में ही 1 रूपये में से 28 पैसे गरीबों तक पहुँचते हैं।
- पीडीएस लाभ में क्षेत्रीय विषमताएं:सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लाभ के वितरण में काफी क्षेत्रीय असमानताएं हैं। उदाहरण के लिए, 1995 में, चार दक्षिणी राज्य, आंध्र प्रदेश,कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के पास देश के कुल खाद्यान्न का लगभग आधा हिस्सा (48.7 फीसदी) वितरित हुआ था जबकि 1993-94 में पूरे देश की तुलना में इन राज्यों में गरीबी रेखा से नीचे की आबादी सिर्फ 18.4 फीसदी थी। इसकी तुलना में, चार उत्तर भारतीय राज्यों, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और ओडिशा (या बीमारू राज्य) में 1993-94 में 47.6 फीसदी से ज्यादा की जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे की थी जिनको सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अखिल भारतीय स्तर पर केवल 10.4 फीसदी अनाज प्रदान किया गया था।
- सिर्फ शहरी लोगों तक पहुच:अधिकांश अर्थशास्त्रियों ने यह पाया है कि पीडीएस योजना लंबे समय से अभी भी शहरी क्षेत्रों तक ही सीमीत है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी पहुंच अभी भी बहुत अपर्याप्त है।
- खाद्य सब्सिडी का बोझ:भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अत्यधिक सब्सिडी अथवा छूट दी जाती है और इससे सरकार पर एक काफी राजकोषीय बोझ पड़ता है। सन1980-81 के 662 करोड़ रुपये की खाद्य सब्सिडी 1991-92 में बढ़कर 2,850 करोड़ रुपये हो गई। 2010-11 में यह 62.930 करोड़ रुपये थी और वर्ष 2011-12 में 72,823 करोड़ रुपये हो गई।
- संचालन में असक्षमता:भारत सरकार के औद्योगिक लागत एवं मूल्य ब्यूरो (BICP) और कुछ शोधकर्ताओं ने यह पाया कि भारतीय खाद्य निगम के संचालन में कई अक्षमतांए हैं। खाद्यान्न के संचालन की आर्थिक लागत और ‘अन्य लागतें‘ (जिसमें आकस्मिक खरीद,वितरण लागत और भाड़े की लागत शामिल है) खरीद मूल्य में वृद्धि के कारण बढ़ रही हैं।
- पीडीएस के परिणामस्वरूप कीमतों में वृद्धि: कुछ अर्थशास्त्रियों ने कहा है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का संचालन ही वास्तविक रूप से चौतरफा मूल्य वृद्धि का कारण है। यही कारण है कि हर साल सरकार द्वारा खाद्यान्न की बड़ी खरीद वास्तव में खुले बाजार में शुद्ध मात्रा की उपलब्धता को कम कर देती है।
- पीडीएस में धांधली: सार्वजनिक वितरण प्रणाली की एक और आलोचना प्रणाली में लीकेज से संबंधित है जो परिवहन और भंडारण तथा खुले बाजार के डायवर्जन के रूप में होते हैं। लीकेज का प्रमुख हिस्सा भ्रष्टाचार है जिसके कारण खाद्यान्न खुले बाजार में पहुंचता है न कि उन लोगो तक जिनके लिए यह भेजा गया था ।
15.वैश्विक गरीबी परिदृश्य
विकासशील देशों में रहने वाले अत्यधिक आर्थिक गरीबी वाले लोगों के अनुपात में विश्व बैंक द्वारा एक दिन में 1 डॉलर से कम आमदनी वाले लोगों को रखा गया था । विश्व में गरीबी1990 में 28 प्रतिशत थी जो कि 2001 में 21 प्रतिशत और वर्तमान में लगभग 13% है। विश्व के कुछ देशों में गरीबी के हालत इस प्रकार है (आंकड़े विश्व बैंक– 2011)…सब सहारा अफ्रीका में आज लगभग 43% जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जी रही है, दक्षिण एशिया में 19% और यूरोप और मध्य एशिया में करीब 2% गरीब हैं। ( पैमाना- $ 1.90/दिन)
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) का अवलोकन
गरीबी रेखा की विभिन्न परिभाषाओं की वजह से, भारत में गरीबी (वर्तमान में कुल जनसंख्या का 21.9%) राष्ट्रीय अनुमान से भी अधिक दिखायी देती है। उप-सहारा अफ्रीका में गरीबी में1981 में 41 प्रतिशत की तुलना में 2001 में 46 प्रतिशत हो गयी है। लैटिन अमेरिका में गरीबी का अनुपात वही है जो पहले था। रूस जैसे पूर्व समाजवादी देशों में गरीबी में परिवर्तन हुआ है जहां यह पहले सरकारी तौर पर यह अस्तित्वहीन थी। संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दि विकास लक्ष्य ने कहा है कि गरीबी के मानक को 1990 के 1 डॉलर प्रतिदिन के मुकाबले 2015 तक आधा करने को कहा गया था । (नये सहस्राब्दि विकास लक्ष्य 2030तक गरीबी उन्मूलन करना चाहते हैं)।
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गरीबी के कारण:
- गरीबी का एक ऐतिहासिक कारण:ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन के तहत आर्थिक स्तर पर विकास कम रहा। औपनिवेशिक सरकार की नीतियों ने पारंपरिक हस्तशिल्प को बर्बाद कर दिया और कपड़े जैसे उद्योगों के विकास को हतोत्साहित किया।
- जनसंख्या की उच्च विकास दर:जैसा कि हम सब जानते हैं कि वैश्विक आबादी 7 अरब के आंकड़े को पार कर गयी है, लेकिन संसाधन उस अनुपात में नहीं बढ़ रहे हैं इसके कारण दुनिया में गरीबों की संख्या बढ़ती जा रही है।
- भूमि और अन्य संसाधनों का असमान वितरण: संसाधनों के असमान वितरण के कारण गरीब और गरीब हो रहा है तो अमीर साल दर साल अमीर होता जा रहा है। भारत में स्तिथि यह है कि 90% संसाधनों पर सिर्फ 10% लोगो का हक़ है।
- 4. भूमि सुधारजैसे प्रमुख नीतिगत पहलों जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में संपत्ति का पुनर्वितरण करना था,को ठीक से लागू नहीं किया गया।
- कई अन्य सामाजिक,सांस्कृतिक और आर्थिक कारकभी गरीबी के लिए जिम्मेदार हैं। कई लोग सामाजिक दायित्वों, धार्मिक अनुष्ठानों जैसे मुंडन, शादी समारोह, त्रियोदशी इत्यादि में बहुत सारा पैसा खर्च करते है और ऋण जाल में फस जाते हैं।
6- कृषि में कम उत्पादकता: ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारी मात्रा में उर्वरकों के उपयोग के बावजूद भूमि की उत्पादकता में प्रति वर्ष कमी आ रही है जिसके कारण पूरी दुनिया के किसानों की आर्थिक हालत कमजोर हैं।
7- संसाधनों का अल्पतम उपयोग: कृषि में छिपी हुई बेरोजगारी और अल्प रोजगार की दशाओ के कारण संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग नही हो पता है जिसके कारण किसानों की आर्थिक हालत कमजोर रहती है।
- मुद्रास्फीति:सतत और तेज मूल्य वृद्धि से गरीबी में वृद्धि हुयी है। इससे समाज में कुछ लोगों को लाभ हुआ है और निम्न आय वर्ग के व्यक्तियों के लिए अपनी आवश्यकताएं पूरा करना कठिन हो रहा है।
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गरीबी उन्मूलन के उपाय:
गरीबी हटाओ का नारा भारतीय विकास की रणनीति के प्रमुख उद्देश्यों में से एक रहा है। सरकार की मौजूदा गरीबी-विरोधी रणनीति मोटे तौर पर आर्थिक विकास के दो तथ्यों पर आधारित है (1) आर्थिक विकास को बढ़ावा देना (2) लक्षित गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम।
अस्सी के दशक में तीस साल से ज्यादा की अवधि तक चलने वाले कार्यक्रमों में प्रति व्यक्ति आय में हल्की वृद्धि हुयी थी लेकिन गरीबी में बहुत ज्यादा कमी नहीं हुई थी। सरकारी गरीबी अनुमान जिसमें 1950 के दशक में गरीबी में लगभग 45 फीसदी का इजाफा हुआ है, जो 80 के दशक तक वहीं बना रहा था। भारत की आर्थिक विकास दर दुनिया में सबसे तेजी उभरती हुयी विकास दरों में से एक है जबकि अफ्रीका महाद्वीप आज भी घोर गरीबी की चपेट में है ।
भारत में गरीबी उन्मूलन के निम्न उपाय किये गए हैं …
- पंडित दीनदयाल उपाध्यादय श्रमेव जयते कार्यक्रम
- वन बंधु कल्याण योजना
- राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम
- मेक इन इंडिया कार्यक्रम
- सरकारी ग्रामीण विकास कार्यक्रम
- काम के बदले अनाज योजना
- मुद्रा योजना
- स्व-सहायता समूह बैंक लिंकेज मॉडल
- प्रत्यक्ष लाभ अंतरण स्कीम
- प्रधानमंत्री जन-धन योजना
16. राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड)
यह एक शीर्ष बैंकिग संस्था है जो कृषि और ग्रामीण विकास के लिए पूंजी उपलब्ध कराती है। राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना 12 जुलाई, 1982 को 100 करोड़ रूपये की प्रदत्त धनराशि के साथ की गई थी। 2010 में नाबार्ड की प्रदत्त राशि 2,000 करोड़ रुपए पर पहुंच गई। यह ग्रामीण ऋण संरचना की एक शीर्ष संस्था है जो कृषि, लघु उद्योगों, कुटीर एवं ग्रामोद्योग तथा हस्तशिल्प आदि को बढ़ावा देने के लिए ऋण उपलब्ध कराता है।
नाबार्ड के कार्य:
नाबार्ड को एक विकास बैंक के रूप में निम्नलिखित कार्य करने के लिए स्थापित किया गया था:
- ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न विकास गतिविधियों को बढ़ावा देने हेतु निवेश और उत्पादन ऋण प्रदान करने वाली संस्थाओं के लिए एक शीर्ष वित्तपोषण एजेंसी के रूप में कार्य करने के लिए;
- निगरानी, पुनर्वास योजनाओं का निर्माण, ऋण संस्थाओं और कर्मियों के प्रशिक्षण के पुनर्गठन सहित ऋण वितरण प्रणाली के अवशोषण की क्षमता में सुधार लाने के लिए संस्थान निर्माण की दिशा में कदम उठाने हेतु;
- जमीनी स्तर पर ग्रामीण विकास कार्यों में सभी वित्तीय गतिविधियों से से जुडे संस्थानों के साथ सांमजस्य स्थापित करना तथा नीति निर्माण से संबंधित भारत सरकार, राज्य सरकारों, रिजर्व बैंक और अन्य राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों से संपर्क बनाए रखने के लिए;
- स्वंय नाबार्ड द्वारा वित्तपोषित परियोजनाओं की निगरानी और मूल्यांकन का कार्य करने के लिए।
- नाबार्ड एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम (आईआरडीपी) के तहत गठित की गई परियोजनाओं को उच्च प्राथमिकता देता है।
- यह एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम के अंतर्गत चलाए जा रहे गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों के लिए वित्त व्यवस्था का प्रबंधन करता है।
- नाबार्ड अपने कार्यक्रमों के तहत होने वाली सामूहिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए दिशा निर्देश देता है और उनके लिए 100% पुनर्वित्त सहायता प्रदान करता है।
- यह स्व-सहायता समूहों (SHGs) के बीच संबंधों को स्थापित करता है जिनका आयोजन गरीब और ग्रामीण क्षेत्रों में जरूरतमंद लोगों के लिए स्वैच्छिक एजेंसियों द्वारा किया जाता है।
- यह उन परियोजनाओं के लिए पूरा रिफाइनेंस करता है जो ‘नेशनल वाटरशेड डेवलेपमेंट प्रोगाम’ और नेशनल मिशन ऑफ वेस्टलैंड डेवलेपमेंट के तहत संचालित हो रहे हैं।
- यह “विकास वाहिनी” स्वयंसेवक कार्यक्रमों का भी समर्थन करता जो गरीब किसानों को ऋण और विकास गतिविधियों की पेशकश प्रदान करते हैं।
- यह ग्रामीण वित्तपोषण तथा किसानों के कल्याण हेतु विकास को सुनिश्चित करने के लिए समय-समय पर सहकारी बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का निरीक्षण भी करता है।
- नाबार्ड, आरबीआई को क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और सहकारी बैंकों के लिए लाइसेंस देने की भी सिफारिश करता है।
- नाबार्ड उन विभिन्न संस्थाओं के कर्मचारियों को प्रशिक्षण और विकास सहायता प्रदान करता है जो ऋण वितरण से संबंधित होती हैं।
- यह पूरे देश में कृषि और ग्रामीण विकास के लिए कार्यक्रम भी चलाता है।
- यह सहकारी बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के नियमों से भी जुड़ा रहता है और देश भर में आयोजित IBPS परीक्षा के माध्यम से उनकी प्रतिभा के अधिग्रहण का प्रबंधन भी करता है।
नाबार्ड की भूमिका:
- यह एक शीर्ष संस्था है जिसके पास ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि और अन्य आर्थिक गतिविधियों के लिए ऋण देने के साथ साथ नीति से संबंधित सभी मामलों से निपटने की योजना बना करने की शक्ति है, जो एक शीर्ष संस्था है।
- यह उन संस्थाओं के लिए एक रिफाइनेंसिंग एजेंसी है जो ग्रामीण विकास के लिए कई विकासात्मक कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए निवेश और उत्पादन ऋण प्रदान करते हैं।
- यह भारत में निगरानी, पुनर्वास योजनाओं के निर्माण, ऋण संस्थाओं के पुनर्गठन, और कर्मियों के प्रशिक्षण सहित भारत में ऋण वितरण प्रणाली की क्षमता में सुधार करता है।
- यह जमीनी स्तर पर विकास कार्यों में लगे संस्थानों के लिए सभी प्रकार की ग्रामीण वित्तपोषण गतिविधियों में सामंजस्य स्थापित करता है और नीति निर्माण से संबंधित भारत सरकार, राज्य सरकारों, और भारतीय रिजर्व बैंक तथा अन्य राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ संपर्क बनाए रखता है।
- यह देश के सभी जिलों के लिए सालाना ग्रामीण ऋण योजनाओं को तैयार करता है।
- यह भी ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग के क्षेत्र में अनुसंधान, और कृषि तथा ग्रामीण विकास को बढ़ावा देता है।
नाबार्ड की गतिविधियों में कुछ मील के पत्थर हैं:
व्यापार का संचालन:
- उत्पादक ऋण:नाबार्ड ने वर्ष 2012-13 के दौरान सहकारी बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों (आरआरबी) के लिए कुल मिलाकर 66,418 करोड़ रुपये के अल्पावधि ऋण को मंजूर किया जो 2012-13 के 65,176 करोड़ रुपये से अधिक था।
- निवेश ऋण:कृषि तथा संबद्ध क्षेत्रों, गैर-कृषि क्षेत्र की गतिविधियों और वाणिज्यिक बैंकों, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों तथा सहकारी बैंकों की सेवा क्षेत्र में 31 मार्च 2013 तक निवेश ऋण 17,674.29 करोड़ रुपये के स्तर पर पहुंच गया था जिसमें पिछले वर्ष के मुकाबले 14.6 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई थी।
- ग्रामीण अवसंरचना विकास निधि (आरआईडीएफ):ग्रामीण अवसंरचना विकास निधि (आरआईडीएफ) के माध्यम से 2012-13 के दौरान 16,292.26 करोड़ रुपये वितरित किए गये थे। सिंचाई सहित ग्रामीण सड़कों और पुलों, स्वास्थ्य और शिक्षा, मृदा संरक्षण, पेयजल योजनाओं, बाढ़ सुरक्षा, वन प्रबंधन आदि सहित 5.08 लाख परियोजनाओं के लिए 31 मार्च, 2013 तक 1,62,083 करोड़ रुपये का संचयी राशि मंजूरी की गई थी।
नए व्यापार की पहल:
नाबार्ड इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलेपमेंट असिस्टेंट (नीडा):
नाबार्ड ने ग्रामीण बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं के वित्त पोषण हेतु ऋण सहायता के लिए नीडा नाम की एक नई शुरुआत की गई है। वर्ष 2012-13 के दौरान नीडी के तहत 2,818.46 करोड़ रुपये मंजूर किए गए थे और 859.70 करोड़ रुपये का वितरण किया गया था।
अन्त में यह निष्कर्ष निकलता है कि नाबार्ड की क्षमता पर कृषि एवं ग्रामीण विकास अर्थव्यवस्था पूरी तरह से निर्भर है, जो आवश्यकताओं के अनुसार अपना कार्य कर रहा है।
- भारत में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSMEs)
सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र को विश्व भर में विकास के इंजन के रूप में जाना जाता है। दुनिया के कई देशों ने इस क्षेत्र के विकास के संबंध और सभी सरकारी कार्यों में समन्वय की देखरेख के लिए एक नोडल एजेंसी के रूप में एसएमई विकास एजेंसी की स्थापना की है। भारत के मामले में भी मध्यम उद्योग स्थापना को एक अलग नियम के अंतर्गत परिभाषित किया है जो कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) यानी सूक्ष्म,लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) विकास अधिनियम, 2006 (जो 02 अक्टूबर, 2016 से लागू हो गया है) है। विकास आयुक्त का कार्यालय (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम), सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय के अंतर्गत एक नोडल विकास एजेंसी (एमएसएमई) के रूप में कार्य करता है।
उदारीकरण से पहले औद्योगिक विकास और नीति
एसएमई–एमएसएमईडी अधिनियम, 2006 की परिभाषा
एसएमई की परिभाषा | |
विनिर्माण क्षेत्र (कुल संपत्ति) | |
सूक्ष्म उद्यम | 25 लाख रुपये अधिक नहीं। |
लघु उद्यम | 25 लाख रुपये से अधिक और 5 करोड रुपये से कम |
मद्यम उद्यम | 5 करोड़ रुपये से अधिक और 10 करोड़ रुपये से कम |
सेवा क्षेत्र (कुल संपत्ति) | |
सूक्ष्म उद्यम | 10 लाख रुपये से अधिक नहीं |
लघु उद्यम | 10 लाख रुपये से अधिक और 2 करोड रुपये से कम |
मद्यम उद्यम | 2 करोड़ रुपये से अधिक और 5 करोड़ रुपये से कम |
वैश्विक स्तर पर, एसएमई को आर्थिक विकास के इंजन के रूप में मान्यता प्राप्त है। सकल घरेलू उत्पाद में औपचारिक और अनौपचारिक रूप से छोटी कंपनियों का समग्र योगदान और मध्य तथा उच्च आय वाले समूह देशों में रोजगार का स्तर निम्न रहता है। जैसे-जैसे आय बढ़ती है तो अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा कम होने लगता है और इससे औपचारिक एसएमई क्षेत्र में वृद्धि होती है। बांग्लादेश में सभी औद्योगिक इकाइयां 90 फीसदी से अधिक रोजगार उपलब्ध करतीं है। एसएमई का वास्तविक महत्व चीन में देखा जा सकता है जहां एसएमई निर्यात में 68 फीसदी का योगदान देता है।
इकाइयों, रोजगार, निवेश, उत्पादन और निर्यात में एमएसएमई का प्रदर्शन
क्र.सख्या | वर्ष | कुल कार्यरत एमएसएमई (लाखों में) | रोजगार (लाख में) | तय निवेश (करोड़ में) | उत्पादन (वर्तमान लागत, करोड़ में) | निर्यात (करोड) |
1 | 2004-05 | 118 | 287 | 178699 | 429796 | 124417 |
2 | 2005-06 | 123 | 294 | 188113 | 497842 | 150242 |
3 | 2006-07 | 261 | 595 | 500758 | 709398 | 182538 |
4 | 2007-08 | 272 | 626 | 558490 | 790759 | 202017 |
5 | 2008-09 | 285 | 659 | 621753 | 880805 | 224136 |
6 | 2009-10 | 298 | 695 | 693835 | 982919 | 243620 |
7 | 2010-11 | 311 | 732 | 773487 | 1095758 | 256621 |
स्रोत: एमएसएमई मंत्रालय
भारतीय अर्थव्यवस्था में एसएमई की भूमिका और प्रदर्शन
पिछले छह दशकों के दौरान भारतीय लघु और मध्यम उद्यम (एसएमई) क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था में एक अत्यंत गतिशील क्षेत्र के रूप में उभरा है। एसएमई ने न केवल बड़े उद्योगों की तुलना में अपेक्षाकृत कम पूंजी लागत में भारी मात्रा रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों के औद्योगीकरण में भी मदद की है। लघु और मध्यम उद्यम पूरक इकाइयों की तुलना में बड़े उद्योग हैं औऱ यह क्षेत्र देश के सामाजिक और आर्थिक विकास में काफी योगदान देते हैं। आज इस क्षेत्र में 36 लाख इकाईया हैं जो 80 लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार प्रदान करती हैं। यह क्षेत्र 6,000 से अधिक उत्पादों के माध्यम से कुल विनिर्माण उत्पादन में 45% और देश के निर्यात में 40%के योगदान देने के अलावा सकल घरेलू उत्पादन में भी लगभग 8% का योगदान देता है। एसएमई क्षेत्र के पास देश भर में औद्योगिक विकास का प्रसार करने की क्षमता होने के साथ- साथ देश में समावेशी विकास की प्रक्रिया में एक बड़ा योगदान देने की भी क्षमता है।
घरेलू उत्पादन, महत्वपूर्ण निर्यात आय, कम निवेश आवश्यकताएं, परिचालनात्मक लचीलापन, स्थान संबंधी गतिशीलता, कम गहन आयात, उचित घरेलू तकनीक विकसित करने की क्षमता, आयात प्रतिस्थापन, रक्षा उत्पादन, प्रौद्योगिकी की दिशा में योगदान, घरेलू उन्मुख उद्योगों में प्रतिस्पर्धा और ज्ञान तथा प्रशिक्षण प्रदान करके निर्यात बाजार द्वारा नए उद्यमियों के निर्माण के माध्यम से योगदान देकर एसएमई राष्ट्र के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
अपने अदम्य उत्साह और विकास की अंतर्निहित क्षमताओं के बावजूद, एसएमई भारत में कई तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं। जैसे-
- उत्पादन का छोटा पैमाना
- पुरानी तकनीकी का इस्तेमाल
- आपूर्ति श्रृंखला की अक्षमताएं, बढ़ती हुई घरेलू और वैश्विक प्रतिस्पर्धा
- कार्यरत पूंजी की कमी
- समय पर बड़ी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से व्यापार प्राप्त नहीं होना।
- अपर्याप्त कुशल कार्यशक्ति
इस तरह के मुद्दों के साथ बने रहने तथा बड़े और वैश्विक उद्यमों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए एसएमई को अपने अभियान में नवीन दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। वो एसएमई जो अपने व्यवसायिक दृष्टिकोण में अंतरराष्ट्रीय, आविष्कारशील, अभिनव वाले हैं, उनके पास एक मजबूत तकनीकी आधार, प्रतिस्पर्धा की भावना और खुद को पुनर्गठित करने की इच्छाशक्ति है। ये एसएमई वर्तमान चुनौतियों का सामना करते हुए आसानी से सकल घरेलू उत्पाद में 22% योगदान दे सकते हैं। भारतीय एसएमई हमेशा औद्योगिक और संबंधित क्षेत्रों में नई प्रौद्योगिकियों, नए व्यापारिक विचारों को स्वीकार करने और स्वचालन प्राप्त करने के लिए तैयार हैं।
18. राष्ट्रीय विकास परिषद
योजना के निर्माण में राज्यों की भागीदारी होनी चाहिए, इस विचार को स्वीकार करते हुए सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा 6 अगस्त, 1952 ई० को राष्ट्रीय विकास परिषद का गठन हुआ था । राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) एक कार्यकारी निकाय है ।यह ना ही संवैधानिक है और न ही एक सांविधिक निकाय है। यह देश की पंचवर्षीय योजनाओं का अनुमोदन करती है। प्रधानमंत्री, परिषद का अध्यक्ष होता है । भारतीय संघ के सभी राज्यों के मुख्यमंत्री एवं योजना आयोग के सभी सदस्य इसके पदेन सदस्य होते हैं।
संरचना:
राष्ट्रीय विकास परिषद में शामिल होने वाले सदस्यों का वर्णन नीचे किया जा रहा है:
(1) भारत के प्रधानमंत्री (एनडीसी के अध्यक्ष)
(2) सभी राज्यों के मुख्यमंत्री
(3) सभी केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासक
(4) सभी कैबिनेट मंत्री
(5) योजना आयोग के सदस्य
उद्देश्य–
एनडीसी, योजना आयोग (अब नीति आयोग) का एक सलाहकार निकाय है। एनडीसी के प्रमुख उद्देश्यों का वर्णन निम्नवत् किया जा रहा है:
- योजना के पक्ष में देश के प्रयासों और संसाधनों को मजबूत बनाना और लामबंद करना।
- सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में आम आर्थिक नीतियों को बढ़ावा देना।
- देश के सभी भागों का संतुलित और तेजी विकास को सुनिश्चित करना।
इसके अलावा, एनडीसी सभी राज्यों के लिए उनकी समस्याओं और विकास से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करने के लिए एक मंच प्रदान करता है। इस प्रकार, यह विकास की योजनाओं के क्रियान्वयन में राज्यों के सहयोग को सुरक्षित करता है।
कार्य–
अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए, एनडीसी के कार्यों का वर्णन निम्नवत किया जा रहा है:
- योजना संसाधनों के मूल्यांकन सहित राष्ट्रीय योजना तैयार करने के लिए दिशा निर्देशों का निर्धारण करना।
- योजना आयोग द्वारा तैयार किये गये राष्ट्रीय योजना पर विचार करना।
- योजना और संसाधनों को बढ़ाने के रास्तों के लिए तथा योजना को लागू करने के लिए आवश्यक संसाधनों का मूल्यांकन करना।
- राष्ट्रीय विकास को प्रभावित करने वाले सामाजिक और आर्थिक नीतियों के महत्वपूर्ण सवालों पर विचार- विमर्श करना।
- समय-समय पर पंच वर्षीय योजना के कामकाज की समीक्षा करना।
- ऐसे उपायों की सिफारिश करना जो राष्ट्रीय योजना में निर्धारित लक्ष्यों और उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं।
19. मुद्रा की आपूर्ति और मुद्रास्फीति के बीच सम्बन्ध
बाजार में पैसे की आपूर्ति (भारत के मामले में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया) किसी भी देश के केंद्रीय बैंक की जिम्मेदारी होती है । भारतीय रिजर्व बैंक, अर्थव्यवस्था में मुद्रा की आपूर्ति के लिए करेंसी छपवाती है। सिक्के, वित्त मंत्रालय द्वारा विभिन्न टकसालों में ढलवाए जाते है लेकिन पूरे देश में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ही वितरित किए जाते हैं। अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति, मुद्रास्फीति की दर को निर्धारित करती है। पैसे की आपूर्ति अर्थव्यवस्था में जैसे- जैसे बढ़ती है उसी प्रकार मुद्रास्फीति भी बढ़ती जाती है।
अर्थव्यवस्था में मुद्रा केंद्रीय बैंक द्वारा जारी की जाती है । भारत में मुद्रा की आपूर्ति न्यूनतम आरक्षी प्रणाली (1957) के नियम के अनुसार की जाती है। इस नियम में यह प्रावधान है कि भारतीय रिजर्व बैंक 200 करोड़ की कुल संपत्ति (जिसमे कम से कम 115 करोड़ का सोना और 85 करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा को रखा जाता है ) को अपने पास संरक्षित रखती है। यदि भारतीय रिजर्व बैंक ने 200 करोड़ की कुल संपत्ति का मानक पूरा कर लिया है तो वह कितनी ही मात्रा में नयी मुद्रा को छाप सकती है (परन्तु रिजर्व बैंक ऐसा नहीं करता है क्योंकि देश में मुद्रास्फीति की दर बढ़ने का खतरा बढ़ जाता है)।
भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार मौद्रिक समुच्चय
- M0(रिजर्व मनी): प्रवाह में मुद्रा + आरबीआई के पास बैंको का जमा + आरबीआई के पास अन्य जमा= आरबीआई का सरकार के पास नेट क्रेडिट + आरबीआई का वाणिज्यिक क्षेत्र में नेट क्रेडिट + बैंकों पर आरबीआई का दावा + आरबीआई की कुल विदेशी संपत्तियां + जनता के लिए सरकार की मुद्रा देनदारियां – आरबीआई की कुल गैर मौद्रिक देनदारियां
- M1+ (संकीर्ण (नेरो) मनी): जनता के पास करेंसी + जनता की जमा पूंजी (बैंकिंग प्राणाली के साथ जमा की मांग+ आरबीआई की अन्य जमा)
- M2: M1 + डाकघर के साथ बचत जमा।
- M3(ब्रॉड मनी): M1 + बैंकों के साथ समयावधि जमा = सरकार के पास नेट बैंकिंग क्रेडिट + वाणिज्यिक क्षेत्र में बैंक क्रेडिट + बैंक सेक्टर की कुल विदेशी संपत्ति+ जनता के प्रति सरकार की मौद्रिक जिम्मेदारियां – बैंकिंग क्षेत्र की कुल गैर मौद्रिक देनदारियों (समय जमा के अलावा)।
- M4(ब्रॉड मनी): M3+ डाकघर बचत बैंकों के साथ सभी जमा (राष्ट्रीय बचत पत्र को छोड़कर)।
सितंबर 2015 में भारत में M3 मुद्रा की आपूर्ति 110835.65 अरब रुपए से बढ़कर अक्टूबर 2015 में 112200.55 अरब रुपए हो गई। 1972 से 2015 तक मुद्रा आपूर्ति में औसतन वृद्धि 18,279.23 अरब रुपए की हुई, 2015 में यह अब तक के सबसे बड़े स्तर पर थी। 1972 में यह निम्नतम 123.52 अरब रुपए थी। मुद्रा आपूर्ति (M3 ) की पूर्ति रिजर्व बैंक द्वारा की जाती है।
भारत में मुद्रास्फीति की दर को किस तरह से तय किया जाता है ?
थोक मूल्य सूचकांक: भारत उन कुछ गिने चुने देशों में जहां महंगाई थोक मूल्य सूचकाक, (WPI) के आधार पर केंद्रीय बैंक द्वारा की जाती है।
थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index) एक मूल्य सूचकांक है जो कुछ चुनी हुई वस्तुओं के सामूहिक औसत मूल्य का प्रतिनिधित्व करता है। भारत और फिलीपिन्स आदि देश थोक मूल्य सूचकांक में परिवर्तन को महंगाई में परिवर्तन के सूचक के रूप में इस्तेमाल करते हैं। किन्तु भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका अब उत्पादक मूल्य सूचकांक (producer price index) का प्रयोग करने लगे हैं।
थोक मूल्य सूचकांक के लिये एक आधार वर्ष होता है। भारत में अभी 2004-05 के आधार वर्ष के मुताबिक थोक मूल्य सूचकांक की गणना हो रही है। इसके अलावा वस्तुओं का एक समूह होता है जिनके औसत मूल्य का उतार-चढ़ाव थोक मूल्य सूचकांक के उतार-चढ़ाव को निर्धारित करता है। अगर भारत की बात करें तो यहाँ थोक मूल्य सूचकांक में ४३५ पदार्थों को शामिल किया गया है जिनमें खाद्यान्न, धातु, ईंधन, रसायन आदि हर तरह के पदार्थ हैं और इनके चयन में कोशिश की जाती है कि ये अर्थव्यवस्था के हर पहलू का प्रतिनिधित्व करें। आधार वर्ष के लिए सभी ४३५ सामानों का सूचकांक १०० मान लिया जाता है।
थोक मूल्य सूचकांक की गणना हर हफ़्ते होती है
सामानों के थोक भाव लेने और सूचकांक तैयार करने में समय लगता है, इसलिए मुद्रास्फ़ीति की दर हमेशा दो हफ़्ते पहले की होती है। भारत में हर हफ़्ते थोक मूल्य सूचकांक का आकलन किया जाता है। इसलिए महँगाई दर का आकलन भी हफ़्ते के दौरान क़ीमतों में हुए परिवर्तन दिखाता है।
अब मान लीजिए 13 जून को ख़त्म हुए हफ़्ते में थोक मूल्य सूचकांक 120 है और यह बढ कर बीस जून को 122 हो गई। तो प्रतिशत में अंतर हुआ लगभग 1.6 प्रतिशत और यही महंगाई दर मानी जाती है।
थोक मूल्य सूचकांक की कमियां
अमरीका, ब्रिटेन, जापान, फ़्रांस, कनाडा, सिंगापुर, चीन जैसे देशों में महँगाई की दर खुदरा मूल्य सूचकांक के आधार पर तय की जाती है। इस सूचकांक में आम उपभोक्ता जो सामान या सेवा ख़रीदते हैं उसकी क़ीमतें शामिल होती हैं। इसलिए अर्थशास्त्रियों के एक तबके का कहना है कि भारत को भी इसी आधार पर महँगाई दर की गणना करनी चाहिए जो आम लोगों के लिहाज़ से ज़्यादा सटीक होगी.
भारत में ख़ुदरा मूल्य सूचकांक औद्योगिक कामगारों, शहरी मज़दूरों, कृषि मज़दूरों और ग्रामीण मज़दूरों के लिए अलग-अलग निकाली जाती है लेकिन ये आँकड़ा हमेशा लगभग एक साल पुराना होता है।
भारत में थोक मूल्य सूचकांक को आधार मान कर महँगाई दर की गणना होती है। हालाँकि थोक मूल्य और ख़ुदरा मूल्य में काफी अंतर होने के कारण इस विधि को कुछ लोग सही नहीं मानते हैं।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (अंग्रेज़ी: consumer price index या CPI) घरेलू उपभोक्ताओं द्वारा खरीदे गये सामानों एवं सेवाओं (goods and services) के औसत मूल्य को मापने वाला एक सूचकांक है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की गणना वस्तुओं एवं सेवाओं के एक मानक समूह के औसत मूल्य की गणना करके की जाती है। वस्तुओं एवं सेवाओं का यह मानक समूह एक औसत शहरी उपभोक्ता द्वारा खरीदे जाने वाली वस्तुओ का समूह होता है।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक: सीपीआई वस्तुओं के प्रतिनिधित्व और घरों में सेवाओं के उपभोग के रुप में समझा जा सकता है। हालांकि, भारत में यह जनसंख्या के एक विशेष हिस्से से ही संबंध रखता है।
सीपीआई के प्रकार
- औद्योगिक कामगारों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-IW)
• कृषि श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकां (CPI-AW)
• शहरी गैर-श्रम कर्मचारियों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-UNME)निष्कर्ष:पैसे की आपूर्ति और मुद्रास्फीति एक दूसरे से सकारात्मक संबंध रखती हैं। जब अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति बढ़ती है और वस्तुओं की आपूर्ति/ उत्पादन नहीं बढ़ते हैं तो मुद्रास्फीति अनिवार्य रूप से बढ़ती है।
20. मौद्रिक नीति का अवलोकन
मुख्य भाग: मौद्रिक नीति एक ऐसी नियामक नीति है जिसके तहत केंद्रीय बैंक (भारत के मामले में आरबीआई) पैसे की आपूर्ति सामान्य आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए करता है। भारत में मुद्रा की आपूर्ति भारतीय रिजर्व बैंक करता है । सिक्के, वित्त मंत्रालय द्वारा ढालवाये जाते हैं लेकिन उनकी आपूर्ति भी भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा की जाती है। मौद्रिक नीति के मुख्य कारक हैं: नकद आरक्षित अनुपात, सांविधिक तरलता अनुपात, बैंक दर, रेपो दर, रिवर्स रेपो दर और खुले बाजार के परिचालन।
चक्रवर्ती समिति ने इस बात पर पर जोर दिया कि भारत में मौद्रिक नीति के महत्वपूर्ण उद्देश्यों में कीमतों में स्थिरता, विकास, समानता, सामाजिक न्याय, नए मौद्रिक और वित्तीय संस्थानों को बढ़ावा देना शामिल हैं।
मौद्रिक नीति के कारक
मौद्रिक नीति के कारक दो प्रकार के होते हैं:
- मात्रात्मक, सामान्य या अप्रत्यक्ष (सीआरआर एसएलआर, खुले बाजार परिचालन, बैंक दर, रेपो दर, रिवर्स रेपो दर)
- गुणात्मक, चयनात्मक या प्रत्यक्ष (मार्जिन मनी में बदलाव, प्रत्यक्ष कार्रवाई, नैतिक दबाब)
इन दोनों तरीकों से बाजार में मुद्रा की आपूर्ति निर्धारित की जाती हैं।
दो प्रकार के उपकरणों में, पहला है श्रेणी बैंक दर में बदलाव, जिसमें खुले बाजार का परिचालन और बदलते रिजर्व की आवश्यकता (नकद आरक्षित अनुपात, सांविधिक तरलता अनुपात) शामिल हैं। ये साधन वाणिज्यिक बैंकों के माध्यम से अर्थव्यवस्था में ऋण के समग्र स्तर को नियमित करते हैं। चयनात्मक ऋण नियंत्रण विशिष्ट प्रकार के क्रेडिट को नियंत्रित करता है।
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Structure of Banking System in India:
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सभी साधनों का उल्लेख इस प्रकार है:
A- बैंक दर नीति:
बैंक दर, वह दर है जिस पर केंद्रीय बैंक, वाणिज्यिक बैंकों को उधार देता हैं। केंद्रीय बैंक को जब यह लगता है कि मुद्रास्फीति लगातार बढ़ रही है, तो केंद्रीय बैंक दर को बढ़ा देता है और इस तरह केंद्रीय बैंक से उधार लेना महंगा हो जाता है। बैंक दर बढ़ने से वाणिज्यिक बैंक केंद्रीय बैंक (आरबीआई) से उधार लेना कम कर देते हैं।
वाणिज्यिक बैंकों, प्रतिक्रिया में, व्यापारियों को और उधारकर्ताओं को उधार देने के लिए व्याज दरों में वृद्धि कर देते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि वाणिज्यिक बैंकों से लोग उधार लेना कम कर देते हैं। ऋण के संकुचन से कीमतों में कमी आती है। इसके विपरीत, जब मुद्रास्फीति कम होती हैं, तो केंद्रीय बैंक व्याज दर को कम कर देती हैं जिससे वाणिज्यिक बैंकों से उधार लेना सस्ता हो जाता है। इस स्थिति में व्यवसायियों को अधिक उधार लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। निवेश भी प्रोत्साहित होता है जो उत्पादन , रोजगार, आय और मांग को बढ़ाता है I इस तरह नीचे जा रही कीमतों पर विराम लगता है।
B- खुला बाजार परिचालन:
खुले बाजार के परिचालन के तहत देश के केंद्रीय बैंक द्वारा प्रतिभूतियों की बिक्री और खरीद मुद्रा बाजार में की जाती है। जब कीमतें बढ़ रही होती हैं तो उन्हें नियंत्रित करने के जरूरत होती है, ऐसे समय में केंद्रीय बैंक प्रतिभूतियों को बेचता हैं जिससे वाणिज्यिक बैंकों का रिजर्व कम हो जाता है और वे व्यापारियों या आम जनता को ज्यादा उधार देने की स्थिति में नहीं होते हैं।
इसके अलावा इसका निवेश पर नकारात्माक असर पडता है और कीमतों में वृद्धि पर रोक लग जाती है। इसके विपरीत जब अर्थव्यवस्था में मंदी का बोलबाला होता है तो , केंद्रीय बैंक प्रतिभूति खरीदता है। जिससे वाणिज्यिक बैंकों का मुद्रा भंडार बढ़ जाता है और वे व्यापारियों और आम जनता अधिक उधार देने की स्तिथि में होते हैं । इस क्रम में निवेश, उत्पादन, रोजगार, आय और मांग अर्थव्यवस्था में बढ़ जाता है, इस तरह कीमत में गिरावट थम जाती है।
c- रिजर्व अनुपात में परिवर्तन:
इस विधि के तहत सीआरआर और एसएलआर के दो मुख्य जमा अनुपात होते हैं, जो वाणिज्यिक बैंकों की निष्क्रिय शेष नकदी घटा देते हैं या बढ़ा देते हैं। हर बैंक को नियमानुसार अपने जमा का कुछ प्रतिशत रिजर्व फंड के रुप में रखना पड़ता है और साथ ही केंद्रीय बैंकों के साथ भी अपनी कुल जमा का एक निश्चित प्रतिशत रखने होता है। जब मुद्रास्फीति/कीमतें बढ़ रही होती हैं, तो केंद्रीय बैंक आरक्षित अनुपात को बढ़ा देती हैं इस कारण वाणिज्यिक बैंकों को केंद्रीय बैंक के साथ और अधिक रिजर्व फंड रखने की आवश्यकता होती है। कम होते अपने रिजर्व भंडार की कारण और उधार देना कम कर देते हैं। निवेश, उत्पादन और रोजगार की मात्रा पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इसके विपरीत स्थिति में, जब आरक्षित अनुपात कम हो जाता है, वाणिज्यिक बैंकों का भंडार बढ़ जाता है। इन हालातों में बैंक अधिक उधार देते हैं और आर्थिक गतिविधि अनूकुल होती है।
- चयनात्मक ऋण नियंत्रण:
चयनात्मक ऋण नियंत्रण विशिष्ट प्रकार के ऋण को प्रभावित करने के लिए विशेष उद्देश्य के लिए किया जाता है। अर्थव्यवस्था के भीतर सट्टा गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए ये बदलते लाभ की आवश्यकता होती हैं। जब अर्थव्यवस्था में विशेष क्षेत्रों में कुछ वस्तुओं में सट्टा गतिविधि तेज होती है और कीमतें बढ़ना शुरू हो जाती हैं, तब केंद्रीय बैंक मार्जिन आवश्यकता को और बढ़ा देता है जिससे कि बाजार में मुद्रा की पूर्ति को कम किया जा सके ।
A- मार्जिन मनी में परिवर्तन
इसका परिणाम यह होता है कि ऋण लेने वालों को निर्दिष्ट प्रतिभूतियों के खिलाफ ऋण में कम पैसा दिया जाता है। उदाहरण के लिए, 70% मार्जिन आवश्यकता को बढ़ाने का मतलब 10,000 रुपये के मूल्य की प्रतिभूतियों के बदले उनके मूल्य का 30% ऋण दिया जाएगा अर्थात् ऋण के रूप में केवल 3,000 रुपये।
B- नैतिक दबाब: इस विधि के तहत रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंकों से अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति को नियंत्रित करने के लिए आग्रह करता है।
भारत में मौद्रिक नीति के उद्देश्य
- मूल्य स्थिरता:मूल्य स्थिरता का तात्पर्य आर्थिक विकास को बढ़ावा देने से है। इसका मुख्य उद्देश्य विकास परियोजनाओं को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए अनुकूल वातावरण बनाना और साथ ही उचित मूल्य स्थिरता को बनाए रखना।
- 2.बैंक ऋण का नियंत्रित विस्तार:यह भारतीय रिजर्व बैंक के महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है । बैंक ऋण का नियंत्रित विस्तार और मुख्य फोकस उत्पादन को प्रभावित किए बिना ऋण की आवश्कता पर विशेष ध्यान रखना है।
- स्थिर निवेश का संवर्धन:इसका मुख्य उद्देश्य गैर जरूरी निवेश को रोकते हुए उत्पादक निवेश को बढ़ाना होता है।
- निर्यात और खाद्यान्न खरीद संचालन के संवर्धन:मौद्रिक नीति का मुख्य उद्देश्य निर्यात को मजबूत करना और व्यापार की सुविधाओं को बढ़ाना। क्रम में निर्यात को बढ़ावा देने और व्यापार की सुविधा के लिए विशेष ध्यान देता है। यह मौद्रिक नीति का स्वतंत्र उद्देश्य है।
- क्रेडिट का वांछित वितरण:मौद्रिक प्राधिकरण का मुख्य कार्य प्राथमिकता क्षेत्र और छोटे उधारकर्ताओं को ऋण आवंटन के निर्णय पर नियंत्रण रखना है। यह नीति प्राथमिकता वाले क्षेत्र और छोटे ऋण लेने वालों को ऋण का निश्चित प्रतिशत आवंटित करने के लिए किया जाता है।
- क्रेडिट का समान वितरण:रिजर्व बैंक की नीति अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों और समाज के सभी लोगों को समान रुप से वितरण करना है।
- दक्षता को बढ़ावा देना:यह एक अनिवार्य पहलू है, जहां केंद्रीय बैंक अधिक ध्यान देते हैं। यह वित्तीय प्रणाली में दक्षता बढ़ाने के लिए कोशिश करता है और ऋण वितरण प्रणाली के परिचालन में कटौती करता है, ऐसे में ब्याज दरों की ढील के रूप में संरचनात्मक परिवर्तनों को शामिल करने के लिए ब्याज दरों में ढील, ऋण वितरण प्रणाली के परिचालन में सहजता और मुद्रा बाजार में नए साधनों का आरंभ किया जाता है।
- कठोरता को कम करना:भारतीय रिजर्व बैंक संचालन में लचीलापन लाने के लिए काफी स्वायत्तता प्रदान करने की कोशिश करता है। यह अधिक प्रतिस्पर्धी माहौल और विविधीकरण को प्रोत्साहित करता है। वित्तीय प्रणाली के संचालन में जब भी जहां भी आवश्यकता पड़ती है वहां यह अपना नियंत्रण रखता है।
निष्कर्ष:
अंत में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश के विकास में मौद्रिक नीति का कार्यान्वयन एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह द्विधारी तलवार की धार की तरह है, यदि बाजार में पैसे की जरूरत हो और पैसा नहीं है तो निवेशक प्रभावित होंगे (अर्थव्यवस्था में निवेश में गिरावट आएगी) और दूसरी तरफ अगर जरूरत से अधिक पैसे की आपूर्ति होगी तो गरीब वर्ग को प्रभावित होगा क्योंकि आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ जाएंगे। इसलिए इस नीति को बनाते समय नीति निर्माताओं को बहुत ही ज्यादा सावधान रहने की जरुरत है I
21. भारत में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी): एक समग्र अध्ययन
जीएसटी का अर्थ वस्तु एवं सेवा कर है। यह एक अप्रत्यक्ष कर है जिसे माल और सेवाओं की बिक्री पर लगाया जाता है। जीएसटी में कराधान के उद्देश्य के लिए वस्तु और सेवाओं के बीच कोई फर्क नहीं होगा। इस सिस्टम के लागू होने के बाद चुंगी, सेंट्रल सेल्स टैक्स (सीएसटी), राज्य स्तर के सेल्स टैक्स या वैट, एंट्री टैक्स, लॉटरी टैक्स, स्टैप ड्यूटी, टेलीकॉम लाइसेंस फीस, टर्नओवर टैक्स, बिजली के इस्तेमाल या बिक्री पर लगने वाले टैक्स, सामान के ट्रांसपोटेर्शन पर लगने वाले टैक्स खत्म हो जाएंगे।
देश में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू करने के लिए संविधान (122वां संशोधन) विधेयक, 2014, संसद में प्रस्तुत किया गया। संविधान में प्रस्तावित संशोधन में संसद और राज्य विधानसभा, दोनों को एक ही प्रकार के लेन-देन पर वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति पर जीएसटी लगाने के लिए कानून बनाने की शक्तियां प्रदान करेगा।
जीएसटी लगाने को लेकर तर्क:
वर्तमान में, संविधान केंद्र सरकार को विनिर्माण पर उत्पाद शुल्क और सेवाओं की आपूर्ति पर सेवा कर लगाने का अधिकार प्रदान करता है। इसके अलावा संविधान राज्य सरकारों को माल की बिक्री पर बिक्री कर या मूल्य वर्धित कर (वैट) लगाने का अधिकार प्रदान करता है। इन वित्तीय शक्तियों के विभाजनों ने देश में अप्रत्यक्ष करों की बहुलता का मार्ग प्रशस्त किया। इसके अलावा, केंद्र सरकार द्वारा माल की अन्तर्राज्यीय ब्रिक्री पर केंद्रीय बिक्री कर (सीएसटी) लगाया जाता है, लेकिन इसे निर्यातक राज्यों द्वारा एकत्र किया जाता है। इसके अलावा, कई राज्य स्थानीय क्षेत्रों में माल के प्रवेश पर प्रवेश-कर भी लगाते हैं।
देश में एक जटिल अप्रत्यक्ष कर ढांचे का ही परिणाम है कि राज्य और केंद्रीय स्तर पर बहुत अधिक मात्रा में कर लगाए जाते हैं, जो कि व्यापार और उद्योग में हिडन कॉस्ट के रूप में लगे रहते हैं। पहला, सभी राज्यों में कर दरों का कोई एकरूपता और संरचना नहीं है। दूसरा, वहाँ ‘टैक्स पर टैक्स’ के कारण करों की व्यापक सीमा है।
जीएसटी को लेकर राज्य सरकारों में चिंता भी है। बड़ा सवाल है कि टैक्स स्लैब क्या होगा और नुकसान हुआ तो उसकी भरपाई कौन करेगा। कहा जा रहा है कि जीएसटी का सिस्टम पूरी तरह तैयार नहीं है। इसके अलावा राज्य और केंद्र के बीच टैक्स बंटवारे को लेकर भी सवाल है। टैक्स बढ़ाने या घटाने का फैसला कौन करेगा इसपर भी चिंता है। राज्यों को मिली मनमर्जी से टैक्स वसूलने की छूट खत्म हो जाएगी। राज्यों की मांग है कि सरकार इस मुद्दे का कोई हल निकाले, या फिर उन्हें भारी-भरकम मुआवजा दे। वैसे मुआवजा न मिलने की स्थिति में राज्य सरकारों की मांग है कि पेट्रोलियम और एंट्री टैक्स को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा जाए। हालांकि ये पूरा का पूरा बोझ सीधे जनता पर आएगा, लेकिन सकल लागत के 10-12 प्रतिशत से ज्यादा का नहीं होगा।
स्त्रोत- वित्त मंत्रालय
गंतव्य आधारित खपत करः जीएसटी एक गंतव्य आधारित कर होगा। इसका अर्थ है कि सभी एसजीएसटी को आमतौर पर राज्य में वहां से एकत्र किया जाएगा जहां उपभोक्ताओं को वस्तुएं या सेवाएं बेची जा रही हैं।
केन्द्रीय करों शामिल हैं:
I- सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी
II- अतिरिक्त उत्पाद शुल्क
III- औषधीय और प्रसाधन अधिनियम के तहत आबकारी शुल्क लगाया जाता है।
IV- सेवा कर
V- अतिरिक्त सीमा शुल्क, सामान्यतः प्रतिकारी शुल्क (सीवीडी) के रूप में जाना जाता है
VI- सीमा शुल्क पर 4% का अतिरिक्त विशेष शुल्क (एसएडी)
VII- माल और सेवाओं की आपूर्ति के संबंध में उपकर और अधिभार
राज्य करों में शामिल हैं:
- वैट / बिक्री कर
II. केन्द्रीय बिक्री कर (केंद्र की ओर से लगाया जाता है और राज्य द्वारा एकत्र किया जाता है)
III. मनोरंजन कर
IV. चुंगी और एंट्री टैक्स (सभी रूपों में)
V. खरीद कर
VI. लक्जरी टैक्स
VII. लॉटरी, शर्त और जुए पर कर
VIII. माल और सेवाओं की आपूर्ति के संबंध में राज्यों का उपकर और अधिभार।
मानव उपभोग के लिए शराब को छोड़कर, सभी वस्तुओं और सेवाओं को जीएसटी के दायरे में लाया जाएगा।
संविधान संशोधन (122वां) विधेयक, 2014 की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं:
- जीएसटी, या वस्तु एवं सेवा कर को उत्पाद शुल्क, प्रतिकारी शुल्क (काउंटरवेलिंग), सेवा कर की तरह केंद्रीय अप्रत्यक्ष करों के नियम के अंतर्गत लगाने के साथ- साथ मूल्य वर्धित कर कर, चुंगी और प्रवेश कर, विलासिता कर लगाने का अधिकार राज्य के पास होगा।
- अंतिम उपभोक्ता को केवल सभी पिछले चरणों में जीएसटी आपूर्ति श्रृंखला में हुए लाभ पर अंतिम डीलर द्वारा लगाया गया जीएसटी कर देना होगा।
- पेट्रोलियम और पेट्रोलियम उत्पादोंको संवैधानिक रूप से जीएसटी के तहत ‘माल’ की की श्रेणी में शामिल किया गया है। हालांकि, यह भी प्रावधान किया गया है कि पेट्रोलियम और पेट्रोलियम उत्पादों को तब तक जीएसटी नहीं लगाया जाएगा जब तक जीएसटी परिषद की सिफारिशों के बाद इसे लगाने की तारीखों की घोषणा नहीं की जाती। वर्तमान में पेट्रोलियम और पेट्रोलियम उत्पादों पर राज्यों और केंद्र द्वारा लगाए जाने वाले कर, जैसे राज्यों द्वारा बिक्री कर / वैट और सीएसटी, और केंद्र द्वारा लगाए जाने वाला उत्पाद शुल्क, अंतरिम अवधि तक लगना जारी है ।
- केंद्र की ओर से तंबाकू और तंबाकू उत्पादों पर लगाए जाने वाले करों को जारी रखा जाएगा जो जीएसटी के दायरे से बाहर रहेंगे।
- मानव उपभोग वाली शराब के मामले में, राज्य द्वारा वर्तमान में लगाया जाने वाला कर जारी रहेगा, यानी, राज्य उत्पाद शुल्क और बिक्री कर / वैट।
- यह दो प्रकार का होगा- केन्द्र स्तर का जीएसटी केंद्र सरकार द्वारा लगाया जाएगा और राज्य स्तर का जीएसटी राज्यों द्वारा लगाया जाएगा।
- हालांकि, केवल केंद्र ही अंतर-राज्यीय व्यापार या वाणिज्य की आपूर्ति के दौरान जीएसटी लगा सकता है या एकत्र कर सकता है। एकत्रित किए गए कर का बटवारा जीएसटी परिषद की सिफारिशों पर संसद द्वारा तय किये गए नियमों के अनुसार राज्य और केंद्र के बीच किया जाएगा।
- जीएसटी परिषद के अध्यक्ष केंद्रीय वित्त मंत्री होंगे और वित्त राज्य मंत्री तथा प्रत्येक राज्य के वित्त मंत्री भी इसमें शामिल होंगे।
- विधेयक में वस्तुओं के अंतर-राज्यीय व्यापार पर एक अतिरिक्त कर लगाने का प्रस्ताव हे जो 1% से अधिक नहीं होगा तथा इसे केंद्र द्वारा लगाने के साथ केंद्र द्वारा ही एकत्र भी किया जाएगा ।
- जीएसटी मुआवजा:अभी हमारे देश में अप्रत्यक्ष कर वस्तु के उत्पादन बिंदु पर लगता है लेकिन अब यह उस स्थान पर लगेगा जहाँ पर उत्पाद अंतिम रूप से बेचा गया है इस कारण कुछ राज्यों को उनकी कर आय में कमी आने का अंदेशा है । परन्तु केंद्र सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह पहले 5 वर्ष तक राज्यों के सभी घाटों की भरपाई करने के लिए प्रतिबद्ध है।
जीएसटी को लेकर अन्तर्राष्ट्रीय अनुभव
विश्व के लगभग 140 देशों में जीएसटी लागू है 1954 में सबसे पहले फ़्रांस ने जीएसटी लागू किया, कनाडा में जीएसटी 60% की दर से लगाया जाता है जिससे कनाडा की जीडीपी में आश्चर्यजनक रूप से 24 % की बढ़ोत्तरी देखने को मिली कनाडा के अनुभवों को भारतीय परिप्रेक्ष्य के सबसे निकट कहा जा सकता है।