Biology
1.कोशिका : संरचना एवं कार्य
- पादप व जंतु कोशिका का वर्गीकरण
- कोशिका (Cell)
- कोशिका विभाजन: असूत्री, समसूत्री व अर्द्धसूत्री विभाजन
- उद्विकास : अर्थ, प्रमाण और सिद्धान्त
- जीवों का पाँच जगत वर्गीकरण
7.जीवधारी : लक्षण एवं वर्गीकरण
8.शरीर के तंत्र (Systems of Body)
- पोषण (Nutrition)
- जंतुओं में पोषण किस तरह से होता है?
- पादपों में पोषण किस तरह से होता है?
- पादप जगत का वर्गीकरण किस तरह से किया जाता है ?
- पौधों में परिसंचरण तंत्र की क्रियाविधि
14.पुष्पीय पौधों में लैंगिक प्रजनन
- जंतुओं में लैंगिक प्रजनन
- पौधों में अलैंगिक प्रजनन क्या है और यह किन विधियों से होता है?
17.आनुवांशिकी मानव के वंशानुगत गुणों को कैसे परिभाषित करती है?
18.भिन्न प्रकार के रोग एवं उनके लक्षण
19.औषधियाँ
- कोशिका : संरचना एवं कार्य
कोशिका जीवों की संरचनात्मक एवं कार्यात्मक इकाई है, जिसकी खोज रॉबर्ट हुक ने 1665 ई. में की थी | एक ही कोशिका वाले जीवों, जैसे- जीवाणु, प्रोटोज़ोआ और यीस्ट्स, आदि को एककोशिकीय प्राणी (Unicellular Organisms) और एक से अधिक कोशिका वाले जटिल जीवों को बहुकोशिकीय जीव (Multicellular Organisms) कहा जाता है |
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पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जीवों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है:
- अकोशिकीय जैवअर्थात् ऐसे जीव जिनमें कोई कोशिका नहीं पाई जाती है, जैसे- विषाणु (Virus)|
- कोशिकीय जीवअर्थात् ऐसे जीव जिनमें एक या एक से अधिक कोशिकाएं पाई जाती हैं | कोशिकीय प्राणियों को पुनः प्रोकैरियोटिक और यूकैरियोटिक नामक दो भागों में बाँटा जाता है|
- प्रोकैरियोटिक जीव
- यूकैरियोटिक जीव
प्रोकैरियोटिक जीवों की विशेषताएं निम्नलिखित है :
- इन जीवों में अविकसित और आदिम (Primitive) कोशिकाएं पाई जाती हैं
- इनका आकार छोटा होता है
- केन्द्रक नहीं पाया जाता है
- केन्द्रक द्रव्य भी नहीं पाया जाता है
- केवल एक क्रोमोसोम पाया जाता है
- कोशिकांग भी कोशिका भित्ति से घिरे हुए नहीं पाए जाते हैं
- कोशिका विभाजन असूत्री विभाजन (Amitosis) द्वारा होता है
- जीवाणु (Bacteria) व नील-हरित शैवाल जैसे साइनोबैक्टीरिया प्रोकैरियोटिक जीवों के उदाहरण हैं|
यूकैरियोटिक जीवों की विशेषताएं निम्नलिखित है :
- इनमें विकसित और नवीन कोशिकाएं पाई जाती हैं
- इनका आकार बड़ा होता है
- केन्द्रक पाया जाता है
- केन्द्रक द्रव्य भी पाया जाता है
- एक से अधिक क्रोमोसोम पाए जाते हैं
- कोशिकांग भी कोशिका भित्ति से घिरे हुए पाए जाते हैं
- कोशिका विभाजन समसूत्री विभाजन (Mitosis) और अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis) द्वारा होता है
कोशिका की संरचना
सभी कोशिकाओं में तीन निम्नलिखित कार्यात्मक क्षेत्र (Functional Region) पाए जाते हैं :
- कोशिका या प्लाज्मा झिल्ली(Cell or Plasma Membrane) और कोशिका भित्ति (Cell Wall)
- केन्द्रक/न्यूक्लियस (Nucleus)
- केन्द्रक द्रव्य/साइटोप्लाज्म (Cytoplasm)
कोशिका की बाहरी सतह प्लाज्मा झिल्ली होती है, जिसके अन्दर केन्द्रक द्रव्य/साइटोप्लाज्म पाया जाता है | माइटोकांड्रिया (Mitochondria), क्लोरोप्लास्ट (Chloroplasts) आदि विभिन्न कोशिकांग साइटोप्लाज्म में ही तैरते हुए पाए जाते हैं |
अंग (Organs) | कोशिकांग (Cell Organelles) |
1. ये बहुकोशिकीय जीवों में पाए जाते हैं| | 1. ये सभी यूकैरियोटिक जीवों में पाए जाते हैं| |
2. इनका आकार बड़ा होता है | | 2. इनका आकार छोटा होता है | |
3. ये किसी भी जीव के शरीर के ऊपर या नीचे पाए जा सकते हैं | | 3. ये प्रायः आतंरिक (Internal) होते हैं | |
4. अंगों का निर्माण ऊतकों (Tissues) से होता है और ऊतकों का निर्माण कोशिकाओं से होता है | कोशिका के अन्दर ही कोशिकांग पाए जाते हैं | | 4. इनका निर्माण सूक्ष्म और वृहद् अणुओं (Molecules) से होता है | |
5. अंग आपस में मिलकर अंग-प्रणाली का निर्माण करते हैं और अंग प्रणाली किसी जीव के शरीर का निर्माण करती है | | 5. कोशिकांग आपस में मिलकर कोशिका का निर्माण करते हैं | |
प्लाज्मा झिल्ली के कार्य:
प्लाज्मा झिल्ली कुछ पदार्थों के कोशिका के अन्दर और बाहर जाने पर नियंत्रण रखती है | अतः प्लाज्मा झिल्ली को चयनात्मक पारगम्य झिल्ली (Selective Permeable Membrane) भी कहते हैं |
(i) प्रसरण (Diffusion) : अधिक सघन (Condense) पदार्थ से कम सघन पदार्थ की ओर प्रवाह प्रसरण कहलाता है| यह प्रवाह तब तक होता रहता है जब तक दोनों पदार्थों की सघनता समान न हो जाये| प्रसरण की दर गैसीय पदार्थों में द्रव व तरल पदार्थों की तुलना में अधिक होती है |
(j) परासरण (Osmosis) : आंशिक रूप से पारगम्य (Permeable) झिल्ली के सहारे उच्च जलीय सांद्रता (Concentration) वाले भाग से निम्न जलीय सांद्रता वाले भाग की ओर जल का प्रवाह परासरण कहलाता है |
(k) एंडोसाइटोसिस (Endocytosis) : प्लाज्मा झिल्ली के सहारे कोशिका द्वारा पदार्थों का अंतर्ग्रहण (Ingestion) एंडोसाइटोसिस कहलाता है |
(l) एक्सोसाइटोसिस (Exocytosis) : इस प्रक्रिया में पुटिका (Vesicle) झिल्ली प्लाज्मा झिल्ली से टकराकर अपने पदार्थों को आस-पास के माध्यम में निकाल देती है | इसे‘कोशिका वमन (Cell Vomiting)’ कहते हैं |
2. पादप व जंतु कोशिका का वर्गीकरण
- कोशिका जीवन की सबसे छोटी कार्यात्मक व संरचनात्मक इकाई है, जिसके अध्ययन को‘साइटोलॉजी (Cytology)’कहा जाता है | पादप व जंतुओं की कोशिकाओं की संरचना अलग- अलग होती है, जो पादपों को जंतुओं से भिन्न करती है | इस विभिन्नता को समझने के लिये प्लाज्मा झिल्ली (Plasma Membrane), कोशिका भित्ति (Cell Wall), गाल्जीकाय (Golgi Bodies), माइटोकोंड्रिया (Mitochondria), लाइसोसोम (Lysosomes) और लवक (Plastids) आदि कोशिका अवयवों (Cell Component) का अध्ययन आवश्यक है |
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- कोशिका के अवयव :
- कोशिका के अवयव निम्नलिखित होते हैं-
- प्लाज्मा झिल्ली :कोशिका के सभी अवयव एक पतली झिल्ली द्वारा घिरे रहते हैं जिसे कोशिका झिल्ली कहते हैं | यह जंतु, पादप व सूक्ष्म जीवों की कोशिकाओं में पाई जाती है और इसका निर्माण लिपिड्स, प्रोटीन और कुछ मात्रा में कार्बोहाइड्रेट से मिलकर होता है | कोशिका भित्ति पतली और अर्द्धपारगम्य ( Semipermeable) झिल्ली है जिसका कार्य कोशिका के अवयवों को इकट्ठा रखना और कोशिका के अन्दर व बाहर जाने वाले पदार्थों का निर्धारण करना है |
- कोशिका भित्ति :यह केवल पादप कोशिका में पाई जाती है और सेलुलोज की बनी होती है | यह कोशिका के की सुरक्षा के साथ-साथ उसके निश्चित आकार व आकृति को बनाये रखने में सहायक है| यह कोशिका झिल्ली के बाहर पायी जाती है|
- केन्द्रक :यह कोशिका का सबसे प्रमुख अवयव है जो कोशिका के प्रबंधक (Manager) के समान कार्य करता है | केन्द्रक (Nucleus ) में धागे जैसी संरचना वाला पदार्थ भरा होता है, जो प्रोटीन और डीएनए( Deoxy Ribonuclic Acid) से बना होता है और ‘क्रोमैटिन’ कहलाता है| वंशानुगत गुणों को एक पीढ़ी से दुसरी पीढ़ी तक ले जाने वाले गुणसूत्रों (Chromosome) का निर्माण इसी क्रोमैटिन से होता है | क्रोमैटिन के अलावा केन्द्रक में गोल सघन रचनाएँ पाई जाती है जिन्हें ‘केंद्रिका (Nucleolus)’ कहा जाता है |
केन्द्रक (Nucleus) | केंद्रिका (Nucleolus) |
1. इसमें जीव की आनुवांशिक जानकारी निहित होती है| | 1. यह केन्द्रक का घटक है| |
2. यह दो झिल्लियों से घिरा होता है| | 2. यह झिल्ली से घिरा नहीं होता है| |
3. यह कोशिका की कार्यप्रणाली और संरचना को नियंत्रित करता है | | 3. यह राइबोसोम की उप-इकाइयों (Sub-Units) का संश्लेषण करता है| |
- साइटोप्लाज्म (Cytoplasm):यह कोशिका का वह भाग है जो प्लाज्मा झिल्ली और केन्द्रक जाल (Nuclear Envelope) के मध्य पाया जाता है| इसकी आतंरिक परत कोएंडोप्लाज्म (endoplasm) और बाहरी परत को एक्टोप्लाज्म (ectoplasm) नाम से जाना जाता है| साइटोप्लाज्म में साइटोसोल (cytosol) से बना होता है जिसमें अनेक कोशिकांग (Organelles) व अन्य उत्पाद (जैसे – स्टार्च व लिपिड्स) पाए जाते है |
- (i)एंडोप्लाज्मिक रेटिकुलम (Endoplasmic Reticulum -ER): इसका प्रमुख कार्य कोशिका झिल्ली और केन्द्रक झिल्ली आदि का निर्माण करने वाली प्रोटीनों व वसाओं (Fats) का परिवहन (Transport) करना है |इसके कुछ भागों पर किनारे-किनारे राइबोसोम लगे रहते हैं| ये दो प्रकार की होती हैं :
- (a)रुक्ष एंडोप्लाज्मिक रेटिकुलम (Rough Endoplasmic Reticulum -RER):इनमें संश्लेषण के लिए राइबोसोम पाए जाते है |
- (b)मृदु एंडोप्लाज्मिक रेटिकुलम (Smooth Endoplasmic Reticulum -SER):इनमें राइबोसोम नहीं पाए जाते हैं और इनका उद्देश्य लिपिडों का स्रावण (SecretiOn) होता है |
- (ii)राइबोसोम्स (Ribosomes) : यह राइबोन्यूक्लिक अम्ल (Ribonucleic Acid) व प्रोटीन की बनी होती है और प्रोटीन संश्लेषण(Synthesis) द्वारा प्रोटीन का निर्माण करती है ,इसीलिए इसे ‘प्रोटीन की फैक्ट्री’ भी कहा जाता है | इसका नामकरण रॉबर्ट ने किया था|
- (iii)गॉल्जीकाय (Golgi Body) : इसकी खोज कैमिलो गॉल्जी ने की थी |यह सूक्षम नलिकाओं( Tubules) के समूह और थैलियों का बना होता है | यहाँ कोशिका द्वारा संश्लेषित प्रोटीन व अन्य पदार्थों की थैलियों के रूप में पैकिंग की जाती है और उन्हें गंतव्य स्थान (Destination) तक पहुँचाया जाता है और कुछ पदार्थों को कोशिका से बाहर भी निकाला जाता है | इसे ‘कोशिका का यातायात प्रबंधक’ भी कहा जाता है |ये कोशिका भित्ति और लाइसोसोम का निर्माण भी करती हैं |
- (iv)लाइसोसोम (Lysosomes) : इसकी खोज डी डूवे ने की थी, जोकि सूक्ष्म, गोल और इकहरी झिल्ली से घिरी थैलीनुमा रचनाएँ होती हैं | इसका प्रमुख कार्य बाहर से आने वाले प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और विषाणुओं का पाचन करना है अतः यह एक प्रकार से कोशिका की ‘कचरा निपटान प्रणाली (Garbage Disposable System)’ है| इसमें 24 तरह के एंजाइम पाए जाते हैं | इसे ‘कोशिका की आत्मघाती थैली’ भी कहा जाता है क्योंकि कोशिका के क्षतिग्रस्त होने पर यह फट जाती है एंजाइम स्वयं की ही कोशिका को समाप्त कर देते हैं |
- (v)माइटोकोंड्रिया (Mitochondria) : इसकी खोज अल्टमैन ने की थी और इसका नामकरण बेंडा ने किया था | ये कोशिका का श्वसन स्थल है और ऊर्जायुक्त कार्बनिक पदार्थों का ऑक्सीकरण यहीं होता है जिससे काफी मात्रा में ऊर्जा (एटीपी) का उत्पादन होता है, इसीलिए इसे ‘कोशिका का शक्ति केंद्र’ (Power House of the Cell) भी कहते हैं |
- (vi)लवक (Plastids) : यह केवल पादप कोशिओकाओं में ही पाया जाता है और जंतु कोशिकाओं में अनुपस्थित होता है| इनका अपना स्वयं का जीनोम होता है और विभाजित होने की क्षमता भी रखते हैं | लवक के निम्नलिखित तीन प्रकार होते हैं :
- वर्णी लवक (Chromoplasts):ये रंगीन लवक होते हैं और प्रायः लाल, पीले और नारंगी रंग के होते हैं |ये पौधों के रंगीन भागों, जैसे- पुष्प, बीज आदि में पाए जाते हैं और परागण (Pollination) के लिए कीटों को आकर्षित करते हैं |
- हरित लवक (Chloroplasts):इसमें हरे रंग का पदार्थ क्लोरोफिल होता है जो पादपों को प्रकाश-संश्लेषण में सहायता करता है, इसीलिए इसे ‘कोशिका का रसोई घर’ भी कहा जाता है |
- अवर्णी लवक (Leucoplasts):ये रंगहीन लवक हैं और सूर्य के प्रकाश से वंचित पादप के अंगों , जैसे- जड़, भूमिगत तना आदि में पाए जाते हैं और कार्बोहाइड्रेट (स्टार्च), वसा (Fat) और प्रोटीन के रूप में भोजन का संचय (Store) करते हैं |
- (vii) रसधानी/रिक्तिका (Vacuoles):यह कोशिका की निर्जीव रचना है जो पादप कोशिकाओं में प्रायः बड़ी और केंद्र में स्थित होती हैं और जंतु कोशिकाओं में छोटी और अस्थायी होती हैं | इसमें तरल पदार्थ भरा रहता है| यह पादप कोशिकाओं को दृढ़ता (Rigidity) प्रदान करता है और चयापचय (Metabolic) से उत्पन्न विषैले उप-उत्पादों (By-Products) का संचय (Store) करता है |
- (viii) पेरौक्सीसोम्स (Peroxisomes):यह छोटा और गोल जैसा कोशिकांग है जिसमें शक्तिशाली ऑक्सीडेटिव एंजाइम पाए जाते हैं| ये कोशिका के विषैले पदार्थों को कोशिका से बाहर करते है |
- (ix) तारककाय (Centrosome) :यह केवल जंतु कोशिकाओं में पाया जाता है और कोशिका विभाजन में सहायता करता है | इसकी खोज बोबेरी ने की थी | इसके अन्दर एक या दो कण जैसी संरचनाएं पाई जाती हैं जिन्हें ‘सेंट्रियोल्स’ कहते हैं |
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- जंतु व पादप कोशिका की तुलना:
जंतु कोशिका | पादप कोशिका |
1. प्रायः आकार में छोटी होती हैं | 1. आकार में जंतु कोशिका से बड़ी होती हैं |
2. कोशिका भित्ति (Cell wall) अनुपस्थित रहती है | 2. सेलुलोज ( जैसे-प्लाज्मा झिल्ली) से बनी कोशिका भित्ति उपस्थित रहती है |
3. लवक (Plastids) युग्लीना के छोड़कर अन्य जंतुओं में अनुपस्थित रहते हैं | 3. लवक (Plastids) उपस्थित होते हैं |
4. रसधानी/रिक्तिका (Vacuoles) बहुत छोटी और अस्थायी होती हैं | 4. विकसित पादप में रसधानी/रिक्तिका (Vacuoles) बड़ी होती हैं |
5. इसका आकार लगभग वृत्ताकार होता है | 5. इसका आकार लगभग आयताकार होता है |
6. तारककाय (Centrosome) और सेंट्रियोल्स (Centrioles) उपस्थित रहते है | 6. तारककाय (Centrosome) और सेंट्रियोल्स (Centrioles) अनुपस्थित रहते हैं |
3. कोशिका (Cell)
1665 में सर्वप्रथम रॉबर्ट हुक ने कोशिका (cell) का वर्णन किया था। दो जर्मन जीव वैज्ञानिकों – एम. श्लाइडन और टी. श्वान ने 1838-39 में कोशिका सिद्धान्त (cell theory) प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार सभी जीवों का निर्माण कोशिकाओं से होता है।
प्रोकैरिओट और यूकैरिओट कोशिकाएँ
जीवधारियों में दो प्रकार के कोशकीय संगठन हैं। एक प्रकार है प्राककेन्द्रकी (प्रोकैरिओट) जिनमें केंद्रक झिल्लीबद्ध नहीं होता, जबकि सुकेन्द्रकी (यूकैरिओट) में एक सुस्पष्टï केंद्रक दो झिल्लियों से घिरा होता है। कोशिका के मुख्य अवयव निम्न हैं-
- कोशिका भित्ति– सभी जीवाणु व हरे-नीले शैवाल की कोशिकाएँ एक दृढ़ कोशिका भित्ति से बद्ध होती हैं, जो पादप के समान किंतु प्राणियों से भिन्न हैं, जिसके कारण उन्हें प्राय: पादप वर्ग में शामिल किया जाता है।
- जीवद्रव्य कला– सभी जीव कोशिकाएं एक विभेदक पारगम्य झिल्ली द्वारा घिरी होती हैं जिसे जीवद्रव्यकला कहते हैं। यह कोशिका के बाहर और भीतर पदार्थों की गति का नियंत्रण करती है।
- केंद्रक– सभी यूकैरियोट जीवों में एक सुस्पष्टï केंद्रक (nucleus) होता है। यह केंद्रक सभी कोशिकीय क्रियाओं का नियंत्रण केंद्र है।
- हरित लवक– यह प्रकाश संश्लेषण क्रिया के केंद्र हैं, इसलिए सिर्फ प्रकाश संश्लेषित पादप कोशिकाओं में ही पाए जाते हैं।
- सूत्रगुणिका– यह एक दुहरी झिल्लीबद्ध कोशिकांग है। यह ऊर्जा उत्पादन से सम्बंधित है। इसलिए इनको कोशिका का शक्ति केंद्र (power house) कहते हैं।
- राइबोजोम– राइबोजोम प्रोटीन संश्लेषण का केंद्र होते हैं और प्रोकैरिओट व यूकैरिओट- दोनों कोशिकाओं में पाए जाते हैं।
- लाइसोसोम– लाइसोसोम अपघटन एंजाइम की थैलियाँ हैं, जो बहुत सारे पदार्थों को अपघटित करती हैं।
- तारक केंद्र (centrioles)– तारक केंद्र सभी प्राणियों और कुछ निम्न पादपों में पाए जाते हैं। यह मुख्यत: सूत्रीविभाजन तर्कु (Mitotic Spindle) या पक्ष्याभ (Celia) आदि के संगठन से सम्बंधित होते हैं।
कोशिका विभाजन (Cell Division)
प्रत्येक जीव जिसमें जनन लैंगिक क्रिया द्वारा होता है, का जन्म एककोशीय युग्मनज (Zygote) से होता है, जिसके बार-बार विभाजित होने से शरीर की अनेक कोशिकाएँ बनती हैं। इस विभाजनों के बगैर इतने प्रकार के ऊतक (tissues) और अंग (organ) नहीं बन पाते। यह विभाजन दो चरणों में पूरा होता है। केंद्रक विभाजन जिसे सूत्रीविभाजन (mitosis) कहते हैं और कोशिका विभाजन (Cytokinesis) कहलाता है।
- सूत्रीविभाजन (Mitosis)– सूत्रीविभाजन जीवों की कायिक कोशिकाओं (Somatic cells) में होता है। इसलिए इसे कायिक कोशिका विभाजन भी कहते हैं। चूंकि गुणसूत्र संख्या सूत्रीविभाजन के दौरान समान ही रहती है यानी संतति कोशिकाओं (Daughter cells) की गुणसूत्र संख्या जनक कोशिका जितनी ही रहती है, इसलिए इसे समसूत्री विभाजन (equational division) भी कह सकते हैं।
- अद्र्धसूत्रीविभाजन (Meiosis) – सूत्रीविभाजन के विपरीत इसमें गुणसूत्र संख्या कम होकर आधी रह जाती है, क्योंकि इसमें पूरे गुणसूत्र समजात गुणसूत्र (homologus chromosomes) अलग हो जाते हैं न कि उनके अद्र्धगुणसूत्र। संतति कोशिकाओं में गुणसूत्र संख्या जनन कोशिका से आधी होने के कारण इस विभाजन को न्यूनीकरण विभाजन (reductional division) भी कहते हैं।
4. कोशिका विभाजन: असूत्री, समसूत्री व अर्द्धसूत्री विभाजन
पुरानी कोशिका का विभाजित होकर नयी कोशिकाओं का निर्माण करना कोशिका विभाजन कहलाता है | कोशिका विभाजन को सर्वप्रथम 1955 ई. में विरचाऊ ने देखा था | मृत, क्षतिग्रस्त या पुरानी कोशिकाओं को बदलने जैसे अनेक कारणों से कोशिका का विभाजन होता है, ताकि जीवित जीव वृद्धि कर सके | जीवों की वृद्धि कोशिका के आकार के बढ़ने से नहीं बल्कि कोशिका विभाजन द्वारा और अधिक कोशिकाओं के जनन से होती है | मानव शरीर में प्रतिदिन लगभग दो ट्रिलियन कोशिकाओं का विभाजन होता है |
कोशिका विभाजन में विभाजित होने वाली कोशिका को जनक कोशिका (Parent cell ) कहा जाता है | जनक कोशिका अनेक संतति कोशिकाओं (Daughter cells) में विभाजित हो जाती है और इस प्रक्रिया को ‘कोशिका चक्र’ कहा जाता है | कोशिकाओं का विभाजन निम्नलिखित तीन तरीकों से होता है,जिनमें से प्रत्येक तरीके की अपनी कुछ खास विशेषताएँ होती हैं-
(i) असूत्री (Amitosis ) (ii) समसूत्री (Mitosis) (iii) अर्द्धसूत्री (Meiosis)
असूत्री विभाजन : यह विभाजन जीवाणु,नील हरित शैवाल, यीस्ट, अमीबा, और प्रोटोज़ोआ जैसी अविकसित कोशिकाओं में होता है |इसमें सबसे पहले कोशिका का केंद्रक विभाजित होता और उसके बाद कोशिका द्रव्य का विभाजन होता है और अंततः दो नयी संतति कोशिकाओं का निर्माण होता है |
समसूत्री विभाजन: इस कोशिका विभाजन को ‘कायिक कोशिका विभाजन’ (Somatic cell division) भी कहा जाता है क्योंकि यह विभाजन कायिक कोशिकाओं में होता है और दो एकसमान कोशिकाओं का निर्माण होता है | समसूत्री विभाजन में हालाँकि कोशिका का विभाजन होता है लेकिन गुणसूत्रों की संख्या समान बनी रहती है | जन्तु कोशिकाओं में समसूत्री विभाजन को सबसे पहले वाल्थर फ्लेमिंग ने 1879 ई. में देखा था और उन्होनें ने ही इसे ‘समसूत्री (Mitosis)’ नाम दिया था | समसूत्री विभाजन एक सतत प्रक्रिया है जिसे निम्नलिखित पाँच चरणों में बाँटा जाता है:
1. प्रोफेज (Prophase): समसूत्री विभाजन का प्रथम चरण
- मेटाफेज (Metaphase):समसूत्री विभाजन का द्वितीय चरण
- एनाफेज(Anaphase): समसूत्री विभाजन का तृतीय चरण
- टीलोफेज (Telophase):समसूत्री विभाजन का चतुर्थ चरण
- साइटोकाइनेसिस (Cytokinesis):समसूत्री विभाजन का चौथा चरण
प्रोफेजः
- सभी जन्तु कोशिकाओं और कुछ पादपों (कवक व कुछ शैवाल) की कोशिकाओं में पाया जाता है
- तारककेंद्रक (Centriole) खुद की प्रतिलिपि तैयार करता है और दो नए तारककेंद्रों (Centrioles/Centrosomes) में बंट जाता है, जो कोशिका (ध्रुवों) के विपरीत किनारों की तरफ चले जाते हैं।
- स्पिंडल फाइबर या फाइबरों की श्रृंखला प्रत्येक तारककेंद्र के आसपास के क्षेत्र से निकलती है और नाभिक (Nucleus) की तरफ बढ़ती है।
- कवक और कुछ शैवाल को छोड़ दें तो स्पिंडल फाइबर बिना तारककेंद्र की उपस्थिति के विकसित होता है।
- जिन गुणसूत्रों की प्रतिलिपि बन चुकी है, वे छोटे और मोटे हो जाते हैं।
- क्रोमैटिड प्रत्येक गुणसूत्र के प्रतिलिपि का आधा होता है जो सेंट्रोमियर (Centromere) से एक दूसरे से जुड़े होते हैं।
- बाद के प्रोफेज चरण में नाभिक और नाभिकीय झिल्ली विखंडित होने लगती है।
मेटाफेजः
- गुणसूत्र के जोड़े खुद को इस प्रकार संरेखित करते हैं कि कोशिका का केंद्र और प्रत्येक सेंट्रोमियर प्रत्येक ध्रुव से एक स्पिंडल फाइबर से जुड़ जाए।
- सेंट्रोमियर विभाजित होता है और अलग किए गए क्रोमैटिड स्वतंत्र संतति गुणसूत्र बन जाते हैं।
एनाफेजः
- स्पिंडल फाइबर छोटे होने लगते हैं।
- ये सहयोगी क्रोमैटिड्स पर बल डालते हैं, जो उन्हें एक दूसरे से अलग खींचता है।
- स्पिंडल फाइबर लगातार छोटा होता जाता है, क्रोमैटिड्स को विपरीत ध्रुवों पर खींचता जाता है।
- यह प्रत्येक संतति कोशिका में गुणसूत्रों के एकसमान सेट का पाया जाना सुनिश्चित करता है।
टीलोफेजः
- गुणसूत्र पतला हो जाता है।
- नाभकीय आवरण बनता है, यानि प्रत्येक नये गुणसूत्र समूह के चारों तरफ नाभिकीय झिल्ली बन जाती है।
- संतति गुणसूत्र किनारों पर पहुंचते हैं।
- स्पिंडल फाइबर पूरी तरह से समाप्त हो जाता है।
साइटोकाइनेसिसः
- नाभिक के विभाजन के बाद, कोशिका द्रव्य विभाजित होना शुरु हो जाता है।
- मूल वृहद कोशिका दो छोटी एकसमान कोशिकाओं में बंट जाती है और प्रत्येक संतति कोशिका भोजन ग्रहण करती है, विकसित होती है तथा विभजित हो जाती है औऱ यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है।
- संतति कोशिकाओं के संचरण द्वारा यह चयापचय (Metabolism) की निरंतरता को बनाए रखता है।
- यह घाव को भरने, क्षतिग्रस्त हिस्सों को फिर से बनाने (जैसे-छिपकली की पूंछ), कोशिकाओं के प्रतिस्थापन (त्वचा की सतह) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है | लेकिन यदि यह प्रक्रिया अनियंत्रित हो गई तो यह ट्यूमर या कैंसर वृद्धि का कारण बन सकती है।
* समसूत्री विभाजन में, यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि दो संतति कोशिकाओं में समान संख्या में गुणसूत्र हों और इसलिए इनमें जनक कोशिका के समान गुण ही पाए जाते हैं।
अर्द्धसूत्री विभाजन:
यह विशेष प्रकार का कोशिका विभाजन है, जो जीवों की जनन कोशिकाओं में होता है और इस प्रकार युग्मक (Gametes) (यौन कोशिकाएं) बनते हैं। इसमें क्रमिक रूप से दो कोशिका विभाजन होते हैं, जो समसूत्री के समान ही होते हैं लेकिन इसमें गुणसूत्र की प्रतिलिपि सिर्फ एक बार ही बनती है। इसलिए, आमतौर पर युग्मकों में गुणसूत्रों की संख्या कायिक कोशिकाओँ की तुलना में आधी होती है। इसके दो उप-चरण होते हैं– अर्द्धसूत्री विभाजन-I और अर्द्धसूत्री विभाजन-II
- अर्द्धसूत्री विभाजन-I: इसे चार उप-चरणों में बांटा जा सकता हैः प्रोफेज-I, मेटाफेज-I, एनाफेज-I और टीलोफेज-I
- अर्द्धसूत्री विभाजन-II: इसे भी चार उप-चरणों में बांटा जा सकता हैः प्रोफेज-II, मेटाफेज-II, एनाफेज-II और टीलोफेज-II
अर्द्धसूत्री विभाजन-I
प्रोफेज-I: अर्द्धसूत्री विभाजन की ज्यादातर महत्वपूर्ण प्रक्रियाएं प्रोफेज-I के दौरान होती हैं–
- गुणसूत्र सघन होते हैं और दिखाई देने लगते हैं।
- तारककेंद्र बनते हैं और ध्रुवों की तरफ बढ़ने लगते हैं।
- नाभिकीय झिल्ली समाप्त होने लगती है।
- सजातीय (Homologous) गुणसूत्र युग्मित होकर टेट्राड (Tetrad) बनाते हैं।
- प्रत्येक टेट्राड में चार क्रोमैटिड्स होते हैं।
- क्रॉसिंग ओवर प्रक्रिया द्वारा सजातीय गुणसूत्रों में आनुवंशिक सामग्री का विनिमय होगा, जोकि चार अनोखे क्रोमैटिड बनाकर आनुवंशिक विविधता में वृद्धि करता है।
मेटाफेज-I
- तारककेंद्र से सूक्ष्मनलिकाएं (Microtubules) विकसित होंगी और सेंट्रोमियर से जुड़ जाएंगी, जहां टेट्राड कोशिका के मध्य रेखा पर उससे मिलेगा।
एनाफेज-I
- सेंट्रोमियर विखंडित हो जाएगा, साइटोकाइनेसिस शुरु होगा और सजातीय गुणसूत्र अलग हो जाएंगे लेकिन सहयोगी क्रोमैटिड्स (Sister Chromatids) अभी भी जुड़े रहेंगे।
टीलोफेज-I:
- गुणसूत्र की प्रजातियों पर निर्भर करता है जो पतले हो सकते हैं और दो अगुणित (haploid) संतति कोशिकाओं के निर्माण द्वारा साइटोकाइनेसिस पूरा होता है।
अर्द्धसूत्री विभाजन-II:
प्रोफेज-II:
- नाभिकीय झिल्ली लुप्त हो जाती है, तारक केंद्र बनते हैं और ध्रुवों की तरफ बढ़ने लगते हैं।
मेटाफेज-II:
- सूक्ष्मनलिकाएं सेंट्रोमियर पर जुड़ जाती हैं और तारककेंद्र से बढ़ती हैं और सहयोगी क्रोमैटिड्स कोशिका की मध्य रेखा के साथ जुड़ जाती हैं ।
एनाफेज-II:
- साइटोकाइनेसिस शुरु होता है, सेंट्रोमियर विखंडित होते हैं और सहयोगी क्रोमैटिड्स अलग हो जाते हैं।
टीलोफेज-II:
- प्रजातियों के गुणसूत्र पर निर्भर करता है जो पतले हो सकते हैं और चार अगुणित (haploid) संतति कोशिकाओं के निर्माण द्वारा साइटोकाइनेसिस पूरा होता है।
समसूत्री और अर्द्धसूत्री विभाजन के बीच तुलना:
5. उद्विकास : अर्थ, प्रमाण और सिद्धान्त
प्रारम्भिक व आदिम जीवों में लाखों-करोड़ों वर्षों के दौरान क्रमिक रूप से कुछ ऐसे परिवर्तन आ जाते हैं कि प्रारम्भिक प्रजाति से अलग एक नयी प्रजाति उत्पन्न हो जाती है, इस प्रक्रिया को ही उद्विकास (Evolution) कहा जाता है | जीवों के संबंध में इसे ‘जैव उद्विकास’ का नाम दिया जाता है |
वर्तमान में पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी पादपों व जंतुओं का वर्तमान विकास बहुत समय पहले पृथ्वी पर पाये जाने वाले उनके पूर्वजों से क्रमिक परिवर्तन के द्वारा हुआ है | दो प्रजातियों की विशेषताओं में जितनी अधिक समानता पायी जाती है, वे जैव उद्विकास के संदर्भ में उतनी ही अधिक गहराई से आपस में जुड़े होते हैं |
जैव उद्विकास को ‘पिटेरोसोर्स ( Pterosaur)’ पक्षी के उदाहरण से से समझा जा सकता है| यह एक उड़ने वाला सरीसृप (Reptile) है, जो लगभग 150 मिलियन वर्ष पहले पृथ्वी पर पाया जाता था | इसका जीवन की शुरुआत प्रारम्भ में स्थल पर रहने वाली एक बड़ी छिपकली के रूप में हुआ था | कई मिलियन वर्षों के दौरान इसके पैरों के मध्य त्वचा की परतें विकसित हो गईं जिसने इसे छोटी-मोटी दूरी तक उड़ने योग्य बना दिया | बाद के कुछ और मिलियन वर्षों के दौरान इसके पैरों के बीच की त्वचा की परतों और उसे सहयोग करने वाली हड्डियों और माँसपेशियों का विकास पंखों के रूप में हो गया जिसने इसे लंबी दूरी तक उड़ान भरने योग्य पक्षी के रूप में विकसित कर दिया | इस तरह जमीन पर रहने वाला एक जीव उड़ने वाले पक्षी में बदल गया और एक नयी प्रजाति (उड़ने वाले सरीसृप) का जन्म हो गया |
पिटेरोसोर्स का एक स्थलीय जीव से उड़ने वाले सरीसृप के रूप विकास
जीवों के एक निश्चित क्रम में विकसित होने अर्थात जैव उद्विकास की प्रक्रिया के संबंध में निम्नलिखित को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है :
(i) समजात अंग (Homologous organs)
(ii) समरूप अंग (Analogous organs)
(iii) जीवाश्म (Fossils)
(i) समजात अंग: ऐसे अंग जिनकी मूल रचना तो समान होती हैं लेकिन उनका प्रयोग अलग-अलग कार्यों के लिए होता है, समजात अंग कहलाते हैं |छिपकली के पंजे (Forelimb) ,चमगादड़ व पक्षी के पंख ,मानव के पंजे , मेंढक के पंजे आदि में ह्यूमेरस, रेडिओ अल्ना, कार्पल्स, मेटाकार्पल्स आदि अस्थियाँ होती हैं अर्थात मूल रचना एक जैसी होती है, परंतु इन सभी का कार्य अलग-अलग होता है | चमगादड़ का पंख उड़ने के लिए, मानव का हाथ वस्तु को पकड़ने के लिए, छिपकली के पंजे का प्रयोग दौड़ने के लिए होता है |
(ii) समरूप अंग: ऐसे अंग जिनकी मूल रचना तो अलग-अलग होती है लेकिन वे एक जैसे दिखाई देते हैं और समान कार्य के लिए प्रयुक्त होते हैं, जैसे- किसी पक्षी के पंख और किसी कीट (Insect) के पंख दिखने में व कार्य में एक जैसे होते हैं यानि दोनों का प्रयोग उड़ने के लिए किया जाता है, लेकिन उनकी मूल रचना अलग तरह की होती है|
(iii) जीवाश्म: बहुत समय पहले पृथ्वी पर पाये जाने वाले जीवों व जंतुओं के वर्तमान में मिलने वाले अवशेष जीवाश्म कहलाते हैं | जीवाश्मों की प्राप्ति जमीन की खुदाई से होती है | जब कोई जीव मर जाता है, तो सूक्ष्म-जीव ऑक्सीजन व नमी की उपस्थिति में उनका अपघटन (Decompose) कर देते हैं और वे जीवाश्म में बदल जाते हैं | उदाहरण के लिए जीवाश्म पक्षी कहलाने वाला आर्कियोप्टेरिक्स दिखने में पक्षी के समान था लेकिन उसकी कई अन्य विशेषताएँ सरीसृपों (Reptiles) से मिलती थीं | उसमें पक्षियों के समान पंख पाये जाते थे लेकिन उसके दाँत व पूँछ सरीसृपों के समान थी | इसीलिए इसे पक्षियों व सरीसृपों के बीच की कड़ी माना गया है और यह कहा गया कि पक्षियों का उद्विकास सरीसृपों से हुआ है |
आर्कियोप्टेरिक्स : पक्षियों व सरीसृपों के बीच की कड़ी
डार्विन का जैव विकास संबंधी सिद्धान्त
चार्ल्स डार्विन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़’ में अपने उद्विकास संबंधी सिद्धान्त को प्रस्तुत किया, जिसे ‘प्राकृतिक चयन का सिद्धान्त’ (Theory of Natural Selection) का नाम दिया गया | इस सिद्धान्त के अनुसार प्रकृति सबसे योग्यतम व अनुकूलतम जीव को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आनुवांशिक लक्षणों के वाहक के रूप में चुनती है और ये नियम पादपों व जंतुओं सभी पर लागू होता है |
डार्विन के सिद्धान्त की मुख्य संकल्पनाएँ :
- सभी जीवों में प्रचुर संतानोत्पत्ति की क्षमता होती है अतः अधिक जनसंख्या के कारण प्रत्येक जीव को अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सजातीय, अंतर्जातीय व पर्यावरणीय संघर्ष करना पड़ता है| इसीलिए कुल जनसंख्या संतुलित रहती है |
- दो सजातीय पूरी तरह समान नहीं होते है | यह विविधता उनमें वंशानुक्रम में मिले लक्षणों की विविधता के कारण पैदा होती है |
- जीवों में पायी जाने वाली कुछ विविधताएँ जीवन-संघर्ष के लिए लाभदायक होती हैं जबकि कुछ अन्य हानिकारक होती हैं |
- जिन जीवों में जीवन-संघर्ष के लाभदायक गुण पाये जाते हैं, जीवन-संघर्ष में अधिक सफल होते हैं और जीवन-संघर्ष हेतु अयोग्य जीव समाप्त हो जाते हैं |
- जीवन-संघर्ष हेतु लाभदायक गुण पीढ़ी-दर-पीढ़ी इकट्ठे होते रहते हैं और कुछ समय बाद उत्पन्न जीवधारियों के लक्षण अपने मूल जीवधारियों से इतने भिन्न हो जाते हैं कि एक नयी जाति बन जाती है |
हालाँकि डार्विन के सिद्धान्त को व्यापक मान्यता प्रदान की गयी लेकिन इस आधार पर इसकी आलोचना कि गयी कि यह सिद्धान्त ‘जीवों में भिन्नताओं का जन्म कैसे होता है’ की व्याख्या नहीं कर पाता है | डार्विन के सिद्धान्त के बाद अनुवांशिकी का विकास हुआ| अब यह माना जाता है कि जीवों में भिन्नताओं का जन्म उनके जीन के कारण होता है | अतः अनुवांशिक पदार्थ उद्विकास की मूल सामग्री है | बाद में इसी तथ्य के आधार पर डार्विन के सिद्धान्त में संशोधन किया गया |
उद्विकास का सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त ‘उद्विकास का संश्लेषण सिद्धान्त’ है जो यह मानता है कि जीवों की उत्पत्ति ‘अनुवांशिक विविधता’ और ‘प्राकृतिक चयन’ की अंतर्क्रिया पर आधारित है | कभी-कभी जीव-जाति पूरी तरह समाप्त हो जाती है, वह विलुप्त हो जाती है |डोडो ऐसा ही एक न उड़ सकने वाला विशाल पक्षी था जो आज विलुप्त हो चुका है | जब कोई जीव-जाति एक बार समाप्त हो जाती है तो उसे किसी भी तरह से दुबारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता है |
6. जीवों का पाँच जगत वर्गीकरण
अध्ययन की दृष्टि से जीवों को उनकी शारीरिक रचना,रूप व कार्य के आधार पर अलग-अलग वर्गों में बाँटा गया है | जीवों का ये वर्गीकरण एक निश्चित पदानुक्रमिक दृष्टि अर्थात् जगत (Kingdom), उपजगत(Phylum), वर्ग (Class), उपवर्ग(Order), वंश(Genus) और जाति(Species) के पदानुक्रम में किया जाता है | इसमें सबसे उच्च वर्ग ‘जगत’ और सबसे निम्न वर्ग ‘जाति’ होती है| अतः किसी भी जीव को इन छः वर्गों के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है|
वर्गीकरण विज्ञान का विकास
सर्वप्रथम अरस्तू ने जीव जगत को दो समूहों अर्थात् वनस्पति व जंतु जगत में बाँटा था |उसके बाद लीनियस ने अपनी पुस्तक ‘Systema Naturae’ में सभी जीवधारियों को पादप व जंतु जगत में वर्गीकृत किया |लीनियस को ‘आधुनिक वर्गीकरण प्रणाली का पिता’ कहा जाता है क्योंकि उनके द्वारा की गयी वर्गीकरण प्रणाली के आधार पर ही आधुनिक वर्गीकरण प्रणाली की नींव पड़ी है|
1969 ई. में परंपरागत द्विजगत वर्गीकरण प्रणाली का स्थान व्हिटकर (Whittaker) द्वारा प्रस्तुत पाँच जगत प्रणाली ने ले लिया | व्हिटकर ने सभी जीवों को निम्नलिखित पाँच जगत (Kingdoms) में वर्गीकृत किया:
- मोनेरा जगत (KingdomMonera): इस जगत में प्रोकैरियोटिक जीव अर्थात् जीवाणु (Bacteria), सायनोबैक्टीरिया और आर्कीबैक्टीरिया शामिल हैं|
- प्रोटिस्टा जगत(Kingdom Protista): इस जगत में एककोशिकीय यूकैरियोटिक जीव शामिल हैं | पादप व जंतु के बीच स्थित युग्लीना इसी जगत में शामिल है |
- कवक जगत (Kingdom Fungi): इसमें परजीवी तथा मृत पदार्थों पर भोजन के लिए निर्भर जीव शामिल है | इनकी कोशिका भित्ति काईटिन की बनी होती है |
- पादप जगत (Kingdom Plantae):इस जगत में शैवाल व बहुकोशिकीय हरे पौधे शामिल हैं |
- 5. जंतु जगत (Kingdom Animal):इसमें सभी बहुकोशिकीय जंतु शामिल होते हैं | इसे ‘मेटाजोआ’भी कहा जाता है |
1982 ई. में मार्ग्युलियस व स्वार्त्ज़ (Margulius and Schwartz) ने पाँच जगत वर्गीकरण का पुनरीक्षण (Revision) किया | इसमें एक प्रोकैरियोटिक और चार यूकैरियोटिक जगत अर्थात् प्रोटोसिस्टा (Protocista), कवक, पादप व जंतु को शामिल किया गया | वर्तमान में इस वर्गीकरण प्रणाली को ही सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है |
- मोनेरा जगत (प्रोकैरियोटिक):
इसे पुनः आर्कीबैक्टीरिया (Archaebacteria) और यूबैक्टीरिया(Eubacteria ) में बाँटा जाता है, जिनमें से आर्कीबैक्टीरिया अधिक प्राचीन है |
- आर्कीबैक्टीरिया: इनमें से अधिकांश स्वपोषी (Autotrophs) होते हैं और वे अपनी ऊर्जा चयापचय क्रिया (Metabolic Activities), रासायनिक ऊर्जा के स्रोतों (जैसे-अमोनिया,मीथेन,और हाइड्रोजन सल्फाइड गैस) के आक्सीकरण से प्राप्त करते हैं | इन गैसों की उपस्थिति में ये अपना स्वयं का अमीनो अम्ल बना सकते हैं | इन्हें तीन वर्गों में बाँटा जाता है- मेथोनोजेंस (मीथेन का निर्माण करते है), थर्मोएसिडोफिल्स (अत्यधिक उष्ण और अम्लीय पर्यावरण के प्रति अनुकूलित) तथा हैलोफिल्स (अत्यधिक लवणीय पर्यावरण में बढ़ने वाले)|
- यूबैक्टीरिया: इनमें प्रायः झिल्ली से घिरे हुए केन्द्रक आदि कोशिकांग(Organelles) नहीं पाए जाते हैं | न्युक्लियोएड (Nucleoid) एकमात्र गुणसूत्र की तरह कार्य करता है | प्रकाश संश्लेषण व इलेक्ट्रानों का हस्तांतरण (Transfer) प्लाज्मा झिल्ली पर होता है |
यूबैक्टीरिया
- प्रोटिस्टा जगत(प्रोटोसिस्टा)
- इसमें विभिन्न प्रकार के एककोशिकीय यूकैरियोटिक जीव, जैसे एककोशिकीय शैवाल, प्रोटोज़ाआ और एककोशिकीय कवक शामिल हैं|
- ये स्वपोषी (जैसे- एककोशिकीय कवक,डायटम) या परपोषी (जैसे- प्रोटोज़ाआ) होते हैं|
- एककोशिकीय कवक, क्लोरेला, युग्लीना, ट्रिपैनोसोमा (नींद की बीमारी का कारण ), प्लाज्मोडियम, अमीबा, पैरामीशियम (Paramecium), क्लामिडोमोनास (Chlamydomonas) आदि इसके उदाहरण हैं|
पैरामीशियम
- कवक जगत
- इसमें वे पौधे शामिल हैं जो प्रकाश संश्लेषण (photosynthetic) क्रिया द्वारा अपना भोजन स्वयं तैयार नहीं कर पाते हैं |
- ये परपोषी (Heterotrophic) और यूकैरियोटिक होते हैं |
- कुछ कवक परजीवी(Parasites) होते हैं और जिस पौधे पर रहते हैं उसी से अपने लिए पोषक पदार्थ प्राप्त करते हैं |
- कुछ कवक, जैसे पेंसीलियम, अपघटक (Decomposer) होते हैं और मृत पदार्थों से पोषक तत्व प्राप्त करते हैं |
- इनमें भोजन को ग्लाइकोजन के रूप में संचयित (Store) किया जाता है|
- कवकों के उदाहरण यीस्ट, मशरूम, दीमक आदि हैं |
- पादप जगत
- इसमें बहुकोशिकीय पौधे शामिल होते हैं|
- ये यूकैरियोटिक होते हैं |
- इनमें कोशिका भित्ति (Cell wall) पाई जाती है|
- इनमें टोनोप्लास्त झिल्ली से घिरी हुई एक केन्द्रीय रिक्तिका/ रसधानी (vacuole) पाई जाती है |
- ये पौधों के लिए भोजन को स्टार्च और लिपिड्स के रूप में संचय (Store) करते हैं|
- इनमें लवक (Plastids) उपस्थित होते हैं|
- ये स्वपोषी होते है अर्थात् अपना भोजन स्वयं तैयार करते हैं |
- पादपों की वृद्धि असीमित होती है |
- शाखाओं के कारण इनका आकार अनिश्चित होता है |
- जंतु जगत
- जंतुओं में भित्ति रहित (wall less) यूकैरियोटिक कोशिकाएं पाई जाती हैं |
- ये परपोषी होते है|
- जंतुओं की वृद्धि सीमित होती है |
- जंतुओं में प्रायः एक निश्चित आकार व रूप पाया जाता है |
- ज्यादातर जंतु चलायमान (Mobile) होते हैं |
- जन्तुओं में कोशिका, ऊतक (Tissue), अंग व अंग प्रणाली के क्रमिक स्तर पाए जाते हैं |
7.जीवधारी : लक्षण एवं वर्गीकरण
जीव विज्ञान जीवधारियों का अध्ययन है, जिसमें सभी पादप और जीव–जंतु शामिल हैं। विज्ञान के रूप में जीव विज्ञान का अध्ययन अरस्तू के पौधों और पशुओं के अध्ययन से शुरू हुआ, जिसकी वजह से उन्हें जीव विज्ञान का जनक कहा जाता है। लेकिन बायोलॉजी शब्द का प्रथम बार प्रयोग फ्रांसीसी प्रकृति विज्ञानी जीन लैमार्क ने किया।
जीवधारियों के लक्षण:
- संगठन (organisation) –सभी जीवों का निर्धारित आकार व भौतिक एवं रासायनिक संगठन होता है।
- उपापचय (Metabolism) –पशु, जीवाणु, कवक आदि अपना आहार कार्बनिक पदार्थों से ग्रहण करते हैं। हरे पादप अपना आहार पर्यावरण से जल, कार्बन-डाइऑक्साइड और कुछ खनिजों के रूप में लेकर उन्हें प्रकाश संश्लेषण के द्वारा संश्लेषित करते हैं।
- वृद्धि व परिवर्धन–जीवधारियों में कोशिका के विभाजन और पुनर्विभाजन से ढेर सारी कोशिकाएं बनती हैं, जो शरीर के विभिन्न अंगों में विभेदित हो जाती हैं।
- जनन (Reproduction)– निर्जीवों की तुलना में जीवधारी अलैंगिक अथवा लैंगिक जनन द्वारा अपना वंश बढ़ाने की क्षमता द्वारा पहचाने जाते हैं।
जीवधारियों का वर्गीकरण (Classification of Living Organism) –
द्विपाद नाम पद्धति (Binomial Nomenlature) के अनुसार हर जीवधारी केे नाम में दो शब्द होते हैं। पहला पद है वंश (Generic) नाम जो उसके संबंधित रूपों से साझा होता है और दूसरा पद एक विशिष्टï शब्द होता है (जाति पद)। दोनों पदों के मिलने से जाति (species) का नाम बनता है। 1969 में आर. एच. व्हीटेकर ने जीवों को 5 जगतों (Kingdoms) में विभाजित किया। ये पाँच जगत निम्नलिखित हैं-
- मोनेरा (Monera)-इस जगत के जीवों में केंद्रक विहीन प्रोकेरिओटिक (procaryotic) कोशिका होती है। ये एकल कोशकीय जीव होते हैं, जिनमें अनुवांशिक पदार्थ तो होता है, किन्तु इसे कोशिका द्रव्य से पृथक रखने के लिए केंद्रक नहीं होता। इसके अंतर्गत जीवाणु (Bacteria) तथा नीलरहित शैवाल (Blue Green algae) आते हैं।
- प्रोटिस्टा (Protista)-ये एकल कोशकीय (Unicellular) जीव होते हैं, जिसमें विकसित केंद्रक वाली यूकैरियोटिक (Eucaryotic) कोशिका होती है। उदाहरण- अमीबा, यूग्लीना, पैरामीशियम, प्लाज्मोडियम इत्यादि।
- कवक (Fungi)-ये यूकैरियोटिक जीव होते हैं। क्योंकि हरित लवक और वर्णक के अभाव में इनमें प्रकाश संश्लेषण नहीं होता। जनन लैंगिक व अलैंगिक दोनों तरीके से होता है।
- प्लान्टी (Plantae) –ये बहुकोशकीय पौधे होते है। इनमें प्रकाश संश्लेषण होता है। इनकी कोशिकाओं में रिक्तिका (Vacuole) पाई जाती है। जनन मुख्य रूप से लैंगिक होता है। उदाहरण- ब्रायोफाइटा, लाइकोपोडोफाइटा, टेरोफाइटा, साइकेडोफाइटा, कॉनिफरोफाइटा, एन्थ्रोफाइटा इत्यादि।
- एनीमेलिया (animalia)-ये बहुकोशिकीय यूकैरियोटिक जीव होते हैं जिनकी कोशिकाओं में दृढ़ कोशिका भित्ति और प्रकाश संश्लेषीय तंत्र नहीं होता। यह दो मुख्य उप जगतों में विभाजित हैं, प्रोटोजुआ व मेटाजुआ।
मुख्य प्राणी संघ निम्न हैं–
- प्रोटोजुआ–यह सूक्ष्मजीव एककोशकीय होते हैं। उदाहरण- ट्रिपैनोसोमा, यूग्लीना, पैरामीशियम, प्लाज्मोडियम आदि।
- पोरीफेरा–इनका शरीर बेलनाकार होता है। उदाहरण- साइकॉन, यूस्पंजिया, स्पंजिला।
- सीलेनट्रेटा–यह पहले बहुकोशकीय अरीय सममिति वाले प्राणी हैं। इनमें ऊतक और एक पाचक गुहा होती है। उदाहरण- हाइड्रा, जैली फिश आदि।
- प्लेटीहेल्मिन्थीज–इन प्राणियों का शरीर चपटा, पतला व मुलायम होता है। यह कृमि जैसे जीव होते हैं। उदाहरण- फेशिओला (लिवर फ्लूक), शिस्टोजोमा (रक्त फ्लूक) आदि।
- एश्स्केलमिन्थीज–यह एक कृमि है जिनका गोल शरीर दोनों ओर से नुकीला होता है। उदाहरण- एस्केरिस (गोलकृमि), ऑक्सियूरिस (पिनकृमि), ऐन्साइलोस्टोमा (अंकुशकृमि) आदि।
- ऐनेलिडा–इन कृमियों का गोल शरीर बाहर से वलयों या खंडों में बंटा होता है। उदाहरण- फेरेटिमा (केंचुआ), हिरूडिनेरिका (जोंक) आदि।
- आर्थोपोडा–शरीर खण्डों में विभक्त होता है जो बाहर से एक सख्त काइटिन खोल से ढंका होता है। उदाहरण- क्रस्टेशिआन (झींगा), पैरीप्लेनेटा (कॉकरोच), पैपिलियो (तितली), क्यूलेक्स (मच्छर), बूथस (बिच्छू), लाइकोसा (वुल्फ मकड़ी), स्कोलोपेन्ड्रा (कनखजूरा), जूलस (मिलीपीड) आदि।
- मोलास्का –इन प्राणियों की देह मुलायम खण्डहीन होती है और उपांग (ड्डश्चश्चद्गठ्ठस्रड्डद्दद्गह्य) नहीं होते। उदाहरण- लाइमेक्स (स्लग), पटैला (लिम्पेट), लॉलिगो (स्क्विड) आदि।
- एकाइनोडर्मेटा–इसमें शूलीय चर्म वाले प्राणी शामिल हैं। ये कई मुलायम नलिका जैसी संरचनाओं से चलते हैं, जिन्हें नाल पाद (ट्यूबफीट) कहते हैं। उदाहरण- एस्ट्रोपैक्टेन (तारामीन), एकाइनस (समुद्री अर्चिन) आदि।
- कॉर्डेटा –संघ कॉर्डेटा पाँच उपसंघों में विभाजित किये जाते हैं-
- हेमीकॉर्डेटा –इनमें ग्रसनी, क्लोम, विदर और पृष्ठïीय खोखली तंत्रिका रज्जु पाई जाती है। उदाहरण- बैलेनोग्लोसस (टंग वार्म)।
- यूरोकॉर्डेटा–इन थैली जैसे स्थिर जीवों में वयस्क अवस्था में तंत्रिका रज्जु और पृष्ठï रज्जु (नोटोकार्ड) नहीं होता। उदाहरण- हर्डमेनिया, डोलियोलम (कंचुकी) आदि।
- सिफेलोकॉर्डेटा–इन प्राणियों में कॉर्डेटा संघ के विशिष्टï लक्षण मौजूदा रहते हैं। उदाहरण- ब्रेंकियोस्टोमा (ऐम्फिऑक्सस) आदि।
- ऐग्नेथा–यह कशेरूकियों का एक छोटा सा समूह है जिसमें चूषण मुख होता है। ऐसे प्राणियों को चक्रमुखी (साइक्लोस्टोम) कहते हैं।
- नैथोस्टोमाटा–इसमें मछलियाँ, उभयचर (एम्फीबिया), सरीसृप, पक्षी तथा स्तनधारी प्राणी शामिल हैं। यह उप संघ पाँच वर्गों में विभाजित किया जाता है-
-
- पिसीज–ये जलीय, असमतापी, जबड़े वाले कशेरुकी हैंै जो जीवन भर जल में रहने के लिए अनुकूलित हैं। इनके शरीर शल्कों से ढंके रहते हैं, क्लोमो द्वारा ये श्वसन करती हैं और पंखों (द्घद्बठ्ठ) की मदद से चलते हैं। उदाहरण – लैबियो (रोहू), कतला (कटला), हिप्पोकैम्पस (समुद्री घोड़ा) आदि।
- ऐम्फीबिया –यह असमतापी कशेरूकी हैं जिनमें चार टांगें और शल्कहीन चर्म होते हैं जो ज्यादातर गीला रहता है। उदाहरण- राना टिगरीना (मेंढक), बुफो (टोड), सैलेमेन्ड्रा (सलामेन्डर) आदि।
- रेप्टीलिया–इन असमतापी कशेरूकियों में सख्त शल्कीय त्वचा होती है। उदाहरण- टेस्टूडो (कछुआ), हेनीडैक्टाइलस (छिपकली), क्रोकोडाइलस (मगरमच्छ) आदि।
- एवीज (पक्षीवर्ग)-पक्षी ही ऐसे जीव हैं जिनका शरीर पंखों से ढंका रहता है। इनके अग्रपाद पंखों में रूपांतरित होकर उड़ान में काम आते हैं। उदाहरण पैसर (गौरैया), कोर्वस (कौआ), कोलंबा (कबूतर), पावो (मोर) आदि।
- मैमेलिया (स्तनी वर्ग)-ये समतापी कशेरूकी सबसे उच्च वर्ग के हैं। इनका शरीर बालों से ढंका रहता है। इनमें दुग्ध-ग्रंथियाँ होती हैं जिससे वे नन्हें बच्चों का पोषण करते हैं। उदाहरण- डक बिल्ड प्लैटिपस और स्पाइनी चींटीखोर, फैलिस (बिल्ली), कैनिस (कुत्ता), पैन्थरा (शेर, चीता, बाघ) मकाका (बंदर), ऐलिफस (हाथी), बैलीना (व्हेल), होमो सेपिएन्स (मानव) आदि।
8.शरीर के तंत्र (Systems of Body)
प्रत्येक कार्य के लिए कई अंग मिलकर एक तंत्र बनाते हैं जैसे भोजन के पाचन के लिए पाचनतंत्र (Digestive system), श्वसन के लिए श्वसन तंत्र आदि।
शरीर के अंगों को उनकी क्रियाओं के अनुसार कुछ प्रमुख तंत्रों में निम्नलिखित प्रकार से विभाजित किया गया है-
- पाचन तंत्र ( Digestive system )– पाचन तंत्र में मुख, ग्रासनली, आमाशय, पक्वाशय, यकृत, छोटी आँत, बड़ी आँत इत्यादि होते हैं। पाचन तंत्र में भोजन के पचने की क्रिया होती है। भोजन में हम मुख्य रूप से प्रोटीन, कार्बोहाइ़ड़्रेट और वसा लेते हैं। इनका पाचन पाचन तंत्र में उपस्थिति एन्जाइम व अम्ल के द्वारा होता है।
- श्वसन तंत्र (respiratory system)– श्वसन तंत्र में नासा कोटर कंठ, श्वासनली, श्वसनी, फेंफड़े आते हैं। सांस के माध्यम से शरीर के प्रत्येक भाग में ऑक्सीजन पहुँचता है तथा कार्बन डाईऑक्साइड बाहर निकलती है। रक्त श्वसन तंत्र में में सहायता करता है। शिराएं अशुद्ध रक्त का वहन करती हैं और धमनी शुद्ध रक्त विभिन्न अंगों में पहुँचाती है।
- उत्सर्जन तंत्र (Excretory system)– उत्सर्जन तंत्र में मलाशय, फुफ्फुस, यकृत, त्वचा तथा वृक्क होते हैं। शारीरिक क्रिया में उत्पन्न उत्कृष्टï पदार्थ और आहार का बिना पचा हुआ भाग उत्सर्जन तंत्र द्वारा शरीर के बाहर निकलते रहते हैं। मानव शरीर में जो पथरी बनती है वह सामान्यत: कैल्शियम ऑक्सलेट से बनती है। फुफ्फुस द्वारा हानिकारक गैसें निकलती हैं। त्वचा के द्वारा पसीने की ग्रंथियों से पानी तथा लवणों का विसर्जन होता है। किडनी में मूत्र का निर्माण होता है।
- परिसंचरण तंत्र (Circulatory System)– शरीर के विभिन्न भागों में रक्त का विनिमय परिसंचरण तंत्र के द्वारा होता है। रक्त परिसंचरण तंत्र में हृदय, रक्तवाहिनियां नलियां (Blooad vessels), धमनी (Artery), शिराएँ (veins), केशिकाएँ (cappilaries) आदि सम्मिलित हैं। हृदय में रक्त का शुद्धीकरण होता है। हृदय की धड़कन से रक्त का संचरण होता है। रक्त संचरण की खोज सन 628 में विलियम हार्वे ने किया था। सामान्य व्यक्ति में एक मिनट में 72 बार हृदय में धकडऩ होती है।
- अंत:स्रावी तंत्र (Endorcine system)– शरीर के विभिन्न भागों में उपस्थित नलिका विहीन ग्रंथियों को अंत:स्रावी तंत्र कहते हैं। इनमें हार्मोन बनते हैं और शरीर की सभी रासायनिक क्रियाओं का नियंत्रण इन्हीं हार्मोनों द्वारा होता है। उदाहरण- अवटु ग्रंथि (thyroid gland), अग्न्याशय (Pancreas), पीयूष ग्रंथि (Pituitory Gland), अधिवृक्क (Adrenal gland) इत्यादि। पीयूष ग्रन्थि को मास्टर ग्रन्थि भी कहते हैं। यह परावटु ग्रंथि को छोड़कर अन्य ग्रंथियों को नियंत्रित करती है।
- कंकाल तंत्र (Skeletal System)– मानव शरीर कुल 206 हड्डिïयों से मिलकर बना है। हड्डिïयों से बने ढांचे को कंकाल-तंत्र कहते हैं। हड्डिïयां आपस में संधियों से जुड़ी रहती हैं। सिर की हड़्डी को को कपाल गुहा कहते हैं।
- लसीका तंत्र (Lymphatic System)– लसीका ग्रंथियाँ विषैले तथा हानिकारक पदार्थों को नष्टï कर देती हैं और शुद्ध रक्त में मिलने से रोकती हैं। लसीका तंत्र छोटी-छोटी पतली वाहिकाओं का जाल होता है। लिम्फोसाइट्स ग्रंथियां विषैले तथा हानिकारक पदार्र्थों को नष्ट कर देती हैं और शुद्ध रक्त को मिलने से रोकती है।
- त्वचीय तंत्र (Cutaneous System)– शरीर की रक्षा के लिए सम्पूर्ण शरीर त्वचा से ढंका रहता है। त्वचा का बाहरी भाग स्तरित उपकला (Stratified epithelium) के कड़े स्तरों से बना होता है। बाह्म संवेदनाओं को अनुभव करने के लिए तंत्रिका के स्पर्शकण होते हैं।
- पेशी तंत्र (Muscular System)– पेशियाँ त्वचा के नीचे होती हैं। सम्पूर्ण मानव शरीर में 500 से अधिक पेशियाँ होती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं। ऐच्छिक पेशियाँ मनुष्य के इच्छानुसार संकुचित हो जाती हैं। अनैच्छिक पेशियों का संकुचन मनुष्य की इच्छा द्वारा नियंत्रित नहीं होता है।
- तंत्रिका तंत्र (Nervous System)– तंत्रिका तंत्र विभिन्न अंगों एवं सम्पूर्ण जीव की क्रियाओं का नियंत्रण करता है। पेशी संकुचन, ग्रंथि स्राव, हृदय कार्य, उपापचय तथा जीव में निरंतर घटने वाली अनेक क्रियाओं का नियंत्रण तंत्रिका तंत्र करता है। इसमें मस्तिष्क, मेरू रज्जु और तंत्रिकाएँ आती हैं।
- प्रजनन तंत्र– सभी जीवों में अपने ही जैसी संतान उत्पन्न करने का गुण होता है। पुरुष और स्त्री का प्रजनन तंत्र भिन्न-भिन्न अंगों से मिलकर बना होता है।
- विशिष्टï ज्ञानेन्द्रिय तंत्र (Special Organ System)– देखने के लिए आँखें, सुनने के लिए कान, सूँघने के लिए नाक, स्वाद के लिए जीभ तथा संवेदना के लिए त्वचा ज्ञानेन्द्रियों का काम करती हैं। इनका सम्बंध मस्तिष्क से बना रहता है।
- पोषण (Nutrition)
पादप अपने कार्बनिक खाद्यों के लिए (कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन और विटामिन) केवल वायुमंडल पर ही निर्भर नहीं रहते हैं, इसलिए इन्हें स्वपोषी (Autotrophs) कहते हैं। कुछ जीवाणु भी सौर ऊर्जा या रासायनिक ऊर्जा का इस्तेमाल कर अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं। उन्हें क्रमश: फोटोऑटोट्रॉफ या कीमोऑटोट्रॉफ कहते हैं। दूसरी तरफ जीव, कवक और अधिकांश जीवाणु, अपना भोजन निर्माण करने में सक्षम नहीं हैं और वे इसे वायुमंडल से प्राप्त करते हैं। ऐसे सभी जीवों को परपोषी (heterotroph) कहते हैं।
भोजन (Food)
जीवधारी मुख्यत: ऊर्जा प्राप्त करने के लिए खाते हैं। भोजन के निम्नलिखित अवयव होते हैं-
- कार्बोहाइड्रेट– इसका फार्मूला CN(H2O)N है। इसके स्रोत आलू, चावल, गेहूँ, मक्का, केला, चीनी इत्यादि हैं। इसको तीन भागों में बांटा गया है-
- मोनोसैकेराइड– ये सबसे सरल शर्करा होती हं। उदाहरण- राइबोज़, पेन्टोजेज, ग्लूकोज, फ्रक्टोज आदि।
- डाइसैकेराइड– ये दो मोनोसैकेराइड इकाइयों के जोड़ से बनते हैं। उदाहरण- लेक्टोज, सुक्रोज आदि।
- पॉलीसैकेराइड– ये बहुत सारी मोनोसैकेराइड इकाइयों के जोड़ से बनते हैं। उदाहरण- स्टार्च, ग्लाइकोजेन, सैल्युलोज।
- वसा (Fat)– इन पदार्थों में C, H व O होते हैं, लेकिन रासायनिक तौर पर ये कार्बोहाइड्रेट से बिल्कुल अलग हैं। वसा ग्लिसरॉल और वसीय अम्लों के ईस्टर हैं।
- प्रोटीन (Protein)– ये सामान्यतया C, H, o, N और S से बनते हैं। ये खाद्य जटिल रासायनिक यौगिक होते हैं और छोटी आंत द्वारा नहीं तोड़े जा सकते हैं। ये एंजाइम द्वारा तोड़े जाते हैं। इनके मुख्य स्रोत दूध, अण्डे, मछली, माँस, दालें आदि हैं।
पाचन (digestion)
पाचन की प्रक्रिया में खाने के कण टूटकर अणु बनाते हैं जो इतने छोटे होते हैं कि रक्त प्रवाह में मिल कर जहाँ उनकी आवश्यकता होती हैं वहीं शरीर में वितरित हो जाते हैं।
लगभग 90 प्रतिशत पचा हुआ भोजन और 10 प्रतिशत जल व खनिज छोटी आंत द्वारा अवशोषित किए जाते हैं। 3-6 घंटे के दौरान जब भोजन छोटी आंत में रहता है तब सक्रिय परिवहन और विसरण दोनों ही सरलीकृत पोषकों के अवशोषण के लिए आवश्यक हैं। अमीनो अम्ल, शर्करा, कुछ विटामिन, खनिज और जल अंकुरों की कोशिकाओं में प्रवेश कर जाती हैं। लेकिन वसीय अम्ल और ग्लीसरॉल सूक्ष्म बिंदुकों के रुप लैक्टील में प्रवेश करते हैं।
विटामिन | आवश्यकता |
विटामिन A | ५००० IU* |
विटामिन – B कॉम्पलेक्स थायोमीन | 1.5 मिग्रा. |
राइबोफ्लेविन | 1.8 मिग्रा |
नियासिन | 18 मिग्रा. |
विटामिन B6 | 2 मिग्रा |
पेन्टोथेनिक एसिड | 10 मिग्रा |
विटामिन C या एस्कॉर्बिक एसिड | 75 मिग्रा. |
विटामिन D | ४०० IU* |
विटामिन K | ** |
* अंतर्राष्ट्रीय यूनिट | |
** शरीर की आंत के जीवाणुओं द्वारा संश्लेषित |
पोषणिक आवश्यकताएँ
एक संतुलित आहार में पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, जल और खनिज पदार्थ उचित अनुपात में और विटामिन प्रचुर मात्रा में होने चाहिए। इन सभी पदार्थों की पोषक विशेषताएँ निम्न हैं-
- प्रोटीन– इन्हें जीवन की सामग्री कहते हैं। एक ग्राम प्रोटीन के पूर्ण दहन पर 5-6 kcal मिलती है। इसलिए प्रोटीन की दैनिक औसत जरूरत 55 से 70 ग्राम होती है।
- कार्बोहाइड्रेट– कार्बोहाइड्रेट पाचन में मुख्य अंतिम उत्पाद ग्लूकोज होता है। इसका ऊर्जा उत्पादन में सक्रियता से उपयोग होता है। एक ग्राम ग्लूकोज के पूर्ण दहन पर2 Kcal निकलती है। कार्बोहाइड्रेट की दैनिक आवश्यकता 400-500 ग्राम होती है।
- वसा– वसा ऊर्जा का मुख्य स्रोत है जिसके एक ग्राम के पूर्ण दहन से0 Kcal कैलरी ऊर्जा मिलती है। एक सामान्य आहार में करीब 75 ग्राम वसा होनी चाहिए। वसा की कमी से कुछ अपूर्णता रोग हो जाते हैं।
- खनिज– ये कोशिका और ऊतक की भौतिक दशा को कायम रखने में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कैल्शियम, सोडियम, पौटेशियम, आइरन इत्यादि प्रमुख खनिज हैं।
- विटामिन– इनकी आवश्यकता अल्प मात्रा में होती है, लेकिन इनकी कमी से अपूर्णता रोग हो जाते हैं। विटामिनों की न्यूनतम आवश्यकता निम्न तालिका में दी गई है-
विशिष्ट कैलोरी आवश्यकताएँ
कैलोरी की मात्राएँ आवश्यकता लिंग, आयु, कार्य की प्रकृति और पर्यावरण पर निर्भर करती है। आहार ग्रहण करने से उपापचय 10 प्रतिशत उद्दीप्त (stimulate) हो जाता है। 8 घंटों के आराम के दौरान, हल्की फुल्की क्रियाओं में, ऊर्जा व्यय ४० Kcal प्रति घण्टा तक बढ़ जाता है
10. जंतुओं में पोषण किस तरह से होता है?
भोजन को ग्रहण करना तथा उसका ऊर्जा प्राप्ति और शारीरिक वृद्धि व मरम्मत के लिए उपयोग करना ‘पोषण’ कहलाता है| जन्तु आवश्यक पोषक पदार्थ भोजन के माध्यम से ही ग्रहण करते हैं| वे पदार्थ जो जंतुओं की जैविक क्रियाओं के संचालन के लिए आवश्यक होते हैं, ‘पोषक पदार्थ’ कहलाते हैं|
जंतुओं को निर्मित (Readymade) भोजन की आवश्यकता होती है, इसीलिए वे पौधों या जीवों को खाकर भोजन प्राप्त करते हैं| उदाहरण के लिए, साँप मेंढक को खाता है, कीट जंतुओं के मृत शरीर को खाते हैं और चिड़िया कीटों को खाती है|
पोषण प्रणाली
किसी भी जीव द्वारा भोजन ग्रहण करने की प्रक्रिया ‘पोषण प्रणाली’ (Modes Of Nutrition) कहलाती है| पोषण प्रणाली दो तरह की होती है:
1) स्वपोषी (Autotrophic)
2) परपोषी (Heterotrophic)
परपोषी पोषण प्रणाली
सभी जीव सरल अकार्बनिक पदार्थों, जैसे-कार्बन डाइ ऑक्साइड व जल, से अपना भोजन निर्मित नहीं कर पाते हैं| वे अपने भोजन के लिए दूसरे जीवों पर निर्भर रहते हैं| इस तरह की पोषण प्रणाली को ‘परपोषी पोषण प्रणाली’ कहा जाता है और जो जीव भोजन के लिए दूसरे जीवों या पौधों पर निर्भर रहते है, उन्हें ‘परपोषी’ कहा जाता है| जन्तु अपने भोजन के लिए दूसरे जीवों या पौधों पर निर्भर रहते हैं, क्योंकि वे अपना भोजन स्वयं निर्मित नहीं कर सकते हैं, इसीलिए उन्हें ‘परपोषी’ (Heterotrophs) कहा जाता है| मनुष्य, कुत्ता, बिल्ली, हिरण, गाय, शेर के साथ-साथ यीस्ट जैसे अहरित पादप (Non-Green Plants) परपोषी होते हैं|
परपोषी पोषण प्रणाली के प्रकार
परपोषी पोषण प्रणाली निम्नलिखित तीन प्रकार की होती है:
i) मृतोपजीवी पोषण (Saprotrophic nutrition)
ii) परजीवी पोषण (Parasitic nutrition)
iii) पूर्णभोजी/प्राणीसम पोषण (Holozoic nutrition)
मृतोपजीवी पोषण
ग्रीक शब्द ‘सैप्रो’ (Sapro) का अर्थ होता है-‘सड़ा हुआ’ या ‘मृत’| वे जीव जो अपना भोजन मृत एवं सड़े हुए अकार्बनिक पदार्थों से प्राप्त करते हैं, ‘मृतोपजीवी’ कहलाते हैं| ये जीव मृत पादप की सड़ी हुई लकड़ी, सड़ी हुई पत्तियों, मृत जीवों आदि से अपना भोजन प्राप्त करते हैं|
कवक व कई अन्य जीवाणु/बैक्टीरिया ‘मृतोपजीवी’ ही होते है| यह मृतोपजीवी जीव मृत पदार्थों से प्राप्त जटिल अकार्बनिक पदार्थों को सरल अकार्बनिक पदार्थों में बदल देते हैं| बाद में मृतोपजीवी इन सरल अकार्बनिक पदार्थों को अवशोषित (Absorbed) कर लेते हैं|
परजीवी पोषण
जो जीव अन्य जीवों के संपर्क में रहकर उससे अपना भोजन ग्रहण करते हैं ‘परजीवी’ कहलाते हैं| जिस जीव के शरीर से परजीवी अपना भोजन ग्रहण करते हैं, वह ‘पोषी’ (Hosts) कहलाता है| परजीवी जीव, पोषी जीव के शरीर में मौजूद कार्बनिक पदार्थ को अपने भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं|
परजीवी जीव,जोकि कोई पादप या जन्तु हो सकता है, पोषी जीव को मारते नहीं है लेकिन उन्हें हानि जरूर पहुँचाते हैं| अनेक प्रकार के कवक, जीवाणु/बैक्टीरिया तथा अमरबेल जैसे पादपों और प्लाज्मोडियम जैसे जंतुओं में परजीवी प्रकार का पोषण पाया जाता है|
पूर्णभोजी/प्राणीसम पोषण
पूर्णभोजी/प्राणीसम पोषण में जीव भोजन को ठोस रूप में ग्रहण करते हैं| इनका भोजन पादप उत्पाद या जन्तु उत्पाद कुछ भी हो सकता है| इस पोषण में जीव जटिल कार्बनिक पदार्थ को अपने शरीर में अंतर्ग्राहित (Ingests) करता है और उसे पचाता है, जिसका उसकी शारीरिक कोशिकाओं द्वारा अवशोषण किया जाता| कोशिकाओं के भीतर पचे हुए भोजन का स्वांगीकरण कर ऊर्जा प्राप्त की जाती है| गैर-अवशोषित पदार्थ जीव के शरीर द्वारा, बहिष्करण (Egestion) की क्रिया के माध्यम से बाहर निकाल दिया जाता है| मनुष्य, कुत्ता, भालू, जिराफ, मेंढक आदि में पूर्णभोजी/प्राणीसम पोषण पाया जाता है|
भोजन प्रवृत्ति के आधार पर जंतुओं को निम्नलिखित तीन प्रकारों में बांटा जाता है:
i) शाकाहारी (Herbivores)
ii) मांसाहारी (Carnivores)
iii) सर्वाहारी (Omnivores)
शाकाहारी
शाकाहारी ऐसे जन्तु हैं जो अपना भोजन पौधों या उनके उत्पादों, जैसे- पत्तियों, फल आदि, से ग्रहण करते हैं| गाय, बकरी, ऊँट, हिरण, भेड़ आदि शाकाहारी जंतुओं के उदाहरण हैं|
मांसाहारी
मांसाहारी ऐसे जन्तु हैं जो अपना भोजन पौधों केवल अन्य जीवों के मांस को खाकर प्राप्त करते हैं| शेर, बाघ, मेंढक, छिपकली आदि मांसाहारी जंतुओं के उदाहरण हैं|
सर्वाहारी
सर्वाहारी ऐसे जन्तु हैं जो अपना भोजन पौधों तथा अन्य जीवों के मांस दोनों को खाकर प्राप्त करते हैं| कुत्ता, मनुष्य, भालू, चिड़िया, कौवा आदि सर्वाहारी जंतुओं के उदाहरण हैं|
यह चित्र प्रदर्शित करता है कि कैसे सभी जीव अपने भोजन के लिए सूर्य से प्राप्त ऊर्जा पर निर्भर हैं|
जंतुओं में पोषण प्रणाली के विभिन्न चरण
जंतुओं में पोषण प्रणाली के निम्नलिखित पाँच चरण पाये जाते हैं:
1) अंतर्ग्रहण (Ingestion)
2) पाचन (Digestion)
3) अवशोषण (Absorption)
4) स्वांगीकरण (Assimilation)
5) बहिष्करण (Egestion)
अंतर्ग्रहण
भोजन को शरीर के भीतर अर्थात आहारनाल तक पहुँचाने की प्रक्रिया को ‘अंतर्ग्रहण’ कहा जाता है| यह भोजन प्रक्रिया का प्रथम चरण है|
पाचन
ठोस, जटिल तथा बड़े-बड़े अघुलनशील भोजन कणों को अनेक एंज़ाइमों की सहायता से तथा विभिन्न रासायनिक व भौतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से तरल, सरल, और छोटे-छोटे घुलनशील कणों में बदलने की प्रक्रिया को ‘पाचन’ कहा जाता है| यह भोजन प्रक्रिया का दूसरा चरण है|
पाचन की भौतिक क्रियाओं में भोजन को मुँह के अंदर चबाना व मिश्रण (Grinding) शामिल है, जबकि भोजन में शरीर द्वारा विभिन्न पाचक रसों का मिश्रण पाचन की रासायनिक क्रिया कहलाती है|
अवशोषण
भोजन के कण छोटे हो जाते हैं तो वे आंत (Intestine) की दीवार से गुजरते हुए खून में मिल जाते हैं| यह प्रक्रिया ‘अवशोषण’ कहलाती है| यह भोजन प्रक्रिया का तीसरा चरण है|
स्वांगीकरण
अवशोषित भोजन का शरीर के प्रत्येक भाग और प्रत्येक कोशिका तक पहुँचकर शरीर की वृद्धि व मरम्मत के लिए ऊर्जा उत्पादित करना ‘स्वांगीकरण’ कहलाता है| यह भोजन प्रक्रिया का चौथा चरण है|
बहिष्करण
मल के रूप में अनपचे भोजन के गुदा (Anal) मार्ग द्वारा शरीर से बाहर निकलने की प्रक्रिया ‘बहिष्करण’ कहलाती है|यह भोजन प्रक्रिया का अंतिम और पांचवा चरण है|
नोट: एककोशिकीय जीवों में पोषण प्रक्रिया का सम्पादन केवल एक कोशिका द्वारा ही किया जाता है|
11. पादपों में पोषण किस तरह से होता है?
पादप प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन स्वयं तैयार करते हैं, इसलिए उन्हें ‘स्वपोषी’ कहा जाता है| वे सूर्य के प्रकाश को रासायनिक ऊर्जा में बदल देते हैं| पादप क्लोरोफिल की उपस्थिति में कार्बन डाइ ऑक्साइड, जल और सूर्य के प्रकाश के माध्यम से अपना भोजन निर्मित करते हैं|
पादपों में पोषण निम्नलिखित दो तरह से होता है:
1) स्वपोषी (Autotrophic)
2) परपोषी (Heterotrophic)
चूंकि इस लेख में केवल पादपों में पोषण की चर्चा की जा रही है, अतः यहाँ पर केवल स्वपोषी पोषण का ही अध्ययन किया जाएगा|
स्वपोषी पोषण
स्वपोषी पोषण में जीव सरल अकार्बनिक पदार्थों, जैसे-कार्बन डाइ ऑक्साइड और जल, की सहायता से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में अपना भोजन स्वयं बनाते हैं| इसमें कार्बनिक भोजन का निर्माण अकार्बनिक पदार्थों से होता है|
हरे पादपों में स्वपोषी पोषण पाया जाता है और इसी कारण इन्हें ‘स्वपोषी’ कहा जाता है| स्वपोषियों में हरे रंग का एक पिग्मेंट पाया जाता है, जिसे ‘क्लोरोफिल’ कहा जाता है| क्लोरोफिल सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करने में मदद करता है| इसी सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के द्वारा पादप अपने भोजन का निर्माण करते हैं| पादपों द्वारा तैयार किए गए भोजन का उपभोग पादपों और जंतुओं दोनों द्वारा किया जाता है|
पादपों में पोषण
हरे पौधे अपने भोजन का संश्लेषण प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा स्वयं करते हैं| यहाँ ‘प्रकाश’ से तात्पर्य ‘सूर्य का प्रकाश’ है और ‘संश्लेषण’ का अर्थ होता है-‘निर्माण करना’| अतः ‘प्रकाश संश्लेषण’ का अर्थ हुआ-‘प्रकाश के द्वारा भोजन का निर्माण’| स्वपोषियों में हरे रंग का एक पिग्मेंट पाया जाता है, जिसे ‘क्लोरोफिल’ कहा जाता है| क्लोरोफिल सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करने में मदद करता है| इसी क्लोरोफिल की उपस्थिति में सूर्य के प्रकाश का प्रयोग करते हुए प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के द्वारा पादप कार्बन डाइ ऑक्साइड व जल से अपने भोजन का निर्माण करते हैं|
हरे पौधे अपना भोजन स्वयं, प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा, बनाते है|
हरे रंग के पादपों में क्लोरोफिल पाया जाता है, जिसे ‘क्लोरोप्लास्ट’ कहा जाता है| पादपों की पट्टियाँ क्लोरोफिल की उपस्थिति के कारण ही हरी होती हैं|
प्रकाश संश्लेषण की क्रिया निम्न रूप में सम्पन्न होती है:
6CO2 + 6H2O + Light energy → C6H12O6 + 6O2
पादपों में भोजन का निर्माण हरी पत्तियों में होता है| पादपों द्वारा भोजन के निर्माण के लिए आवश्यक कार्बन डाइ ऑक्साइड की प्राप्ति वायु से होती है| हरी पत्तियों की सतह पर छोटे-छोटे छिद्र पाये जाते हैं, जिन्हें ‘स्टोमेटा’ (Stomata) कहा जाता है| स्टोमेटा के माध्यम से ही कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस पादपों की पत्तियों में प्रवेश करती है| पादप प्रकाश संश्लेषण के लिए जल मिट्टी से प्राप्त करते हैं| पादप की जड़ें जल का अवशोषण कर जाइलम के माध्यम से पत्तियों तक पहुंचाती हैं| सूर्य का प्रकाश रासायनिक क्रियाओं के लिए ऊर्जा प्रदान करता है और पत्तियों में पाया जाने वाला क्लोरोफिल इस ऊर्जा के अवशोषण में मदद करता है| ऑक्सीज़न प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का एक उप-उत्पाद है, जोकि वायु में मिल जाता है|
पत्तियों द्वारा तैयार किया गया भोजन सरल शर्करा के रूप में होता है, जिसे ‘ग्लूकोज’ कहा जाता है| यह ग्लूकोज पादप के अन्य भागों में भेज दिया जाता है और अतिरिक्त ग्लूकोज पादप की पत्तियों में स्टार्च के रूप में संचयित हो जाता है| ग्लूकोज और स्टार्च कार्बोहाइड्रेट्स समूह से संबन्धित हैं| अतः पादप सूर्य के प्रकाश को रासायनिक ऊर्जा में बादल देते हैं|
प्रकाश संश्लेषण क्रिया के चरण निम्नलिखित हैं:
- i) क्लोरोफिल द्वारा सूर्य के प्रकाश का अवशोषण होता है|
- ii) सूर्य का प्रकाश रासायनिक ऊर्जा में बदल जाता है और जल हाइड्रोजन व ऑक्सीज़न में टूट जाता है|
iii) कार्बन डाइ ऑक्साइड हाइड्रोजन में अपचयित (Reduced) हो जाता है ताकि ग्लूकोज के रूप में कार्बोहाइड्रेट्स का निर्माण हो सके|
यह आवश्यक नहीं है कि प्रकाश संश्लेषण के ये सभी चरण क्रमिक रूप से एक के बाद एक घटित हों|
प्रकाश संश्लेषण के लिए आवश्यक दशाएँ
प्रकाश संश्लेषण के लिए आवश्यक दशाएँ:
1) सूर्य की रोशनी
2) क्लोरोफिल
3) कार्बन डाइ ऑक्साइड
4) जल
प्रकाश संश्लेषण क्रिया के लिए इन दशाओं या तत्वों की अनिवार्यता को दर्शाने के लिए कुछ प्रयोग नीचे किए गए हैं| इन प्रयोगों द्वारा यह साबित हो जाता है कि हरी पत्तियाँ भोजन के रूप में स्टार्च का निर्माण करती हैं और स्टार्च को जब आयोडीन के घोल में मिलाया जाता है, तो वह नीले-काले रंग में बादल जाता है|
प्रकाश संश्लेषण क्रिया में सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता को दर्शाता एक प्रयोग
- हरी पत्तियों से युक्त किसी पादप को लें और उसे अँधेरे भाग में रख दे ताकि पत्तियों में संचयित स्टार्च का पादप द्वारा उपयोग कर लिया जाए और पत्तियाँ पूरी तरह से स्टार्च से रहित हो जाए या फिर डी-स्टार्च हो जाएँ|
- अब किसी पत्ती के मध्य भाग को एल्युमीनियम चादर (Foil) से इस तरह ढंका जाए कि पत्ती का थोड़ा भाग ढंका रहे और बाकी भाग सूर्य के प्रकाश के लिए खुला रहे| एल्युमीनियम चादर को इतना कसकर बांधा जाए कि पत्ती के ढंके हुए भाग में प्रकाश का प्रवेश नहीं हो पाये|
- अब इस पादप को तीन-चार दिन के लिए सूर्य कि रोशनी में रख दें|
- उसके बाद एल्युमीनियम चादर (Foil) से आंशिक रूप से ढँकी हुई पत्ती को तोड़ लें और एल्युमीनियम चादर हटा दें| इस पत्ती को पानी में उबाल लें ताकि पत्ती की कोशिकाओं कीकोशिका झिल्लीहट जाए और आयोडीन का घोल पत्ती में अच्छी तरह से प्रवेश कर सके|
- पत्ती में स्टार्च की उपस्थिति की जांच करने से पहले पत्ती पर से क्लोरोफिल को हटाना होगा, अन्यथा यह जांच में अवरोध पैदा कर सकता है|
- अब इस पत्ती को एल्कोहल के बर्तन में डाल दें और एल्कोहल के बर्तन को पानी के टब में डाल दें|
- पानी के टब को गरम करें, जिससे एल्कोहल के बर्तन के अंदर का एल्कोहल भी उबलने लगेगा और पत्ती पर से क्लोरोफिल हट जाएगा और पत्ती रंगहीन हो जाएगी|
- रंघीन पत्ती को बाहर निकालकर गरम पानी से धो लें|
- रंगहीन पत्ती पर आयोडीन का घोल डालें और उसके रंग में होने वाले परिवर्तन को देखें|
- ऐसा करने पर पत्ती का वह भाग जो एल्युमीनियम चादर से ढंका हुआ था, नीले-काले रंग में नहीं बदलता है| यह दर्शाता है कि पत्ती के इस भाग में स्टार्च उपस्थित नहीं है, क्योंकि पत्ती के इस भाग को सूर्य का प्रकाश नहीं मिला है और इसी कारण प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा स्टार्च का निर्माण नहीं हो पाया है|
- पत्ती का खुला हुआ भाग आयोडीन घोल के मिलाने पर नीले-हरे रंग में बदल जाता है| इससे यह प्रदर्शित होता है कि पत्ती के इस भाग में स्टार्च उपस्थित है| स्टार्च का निर्माण पत्ती के इस भाग में इसलिए हो पाता है क्योंकि इस भाग को सूर्य का प्रकाश प्राप्त हुआ है|
- अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति के बिना पादप में प्रकाश संश्लेषण कि क्रिया द्वारा स्टार्च का निर्माण नहीं हो पाता है|
प्रकाश संश्लेषण क्रिया में सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता को दर्शाता एक प्रयोग
प्रकाश संश्लेषण क्रिया में क्लोरोफिल की आवश्यकता को दर्शाता एक प्रयोग
- गमले में लगे हुए एक क्रोटोन/जमालघोटे के पादप को लीजिये, क्योंकि उसकी पत्तियाँ आंशिक रूप से सफ़ेद और आंशिक रूप से हरी होती हैं|
- उसे तीन दिन के लिए अंधेरे भाग में रख दें, ताकि उसकी पत्तियाँ डी-स्टार्च हो सकें|
- अब इस पौधे को बाहर निकालकर तीन-चार दिन के लिए सूर्य की रोशनी में रख दें|
- पत्ती को तोड़कर उसे कुछ मिनटों के लिए पानी में उबालें| अब इस पत्ती को एल्कोहल में उबाले ताकि उसका हरा रंग हट जाए|
- इस रंगहीन पत्ती को गरम पानी से धो लें|
- रंगहीन पत्ती पर आयोडीन का घोल डालें और उसके रंग में होने वाले परिवर्तन को देखें|
- ऐसा करने पर पत्ती का वह भाग जो सफ़ेद था, नीले-काले रंग में नहीं बदलता है| यह दर्शाता है कि पत्ती के इस भाग में स्टार्च उपस्थित नहीं है| यह भी साफ हो जाता है कि क्लोरोफिल कि उपस्थिति के बिना पादप में प्रकाश संश्लेषण कि क्रिया द्वारा स्टार्च का निर्माण नहीं हो पाता है|
- पत्ती का अंदरूनी भाग जोकि हरा था,आयोडीन के मिलाने पर नीले-हरे रंग में बदल जाता है| इससे यह प्रदर्शित होता है कि पत्ती के इस भाग में स्टार्च उपस्थित है| इस स्टार्च का निर्माण पत्ती के इस भाग में इसलिए हो पाता है क्योंकि इस भाग में क्लोरोफिल पाया जाता है| अतः प्रकाश संश्लेषण कि क्रिया के लिए क्लोरोप्लास्ट अनिवार्य है|
प्रकाश संश्लेषण क्रिया में क्लोरोफिल की आवश्यकता को दर्शाता एक प्रयोग
प्रकाश संश्लेषण क्रिया में कार्बन डाइ ऑक्साइड की आवश्यकता को दर्शाता एक प्रयोग
- किसे लंबे व संकीर्ण पत्तियों वाले पादप को लीजिये और उसे तीन दिन के लिए अंधेरे भाग में रख दें, ताकि उसकी पत्तियाँ डी-स्टार्च हो सकें|
- चौड़े मुंह वाली एक काँच की बोतल लेकर उसमें पौटेशियम हाइड्राक्साइड का थोड़ा घोल डाल दें| यह घोल बोतल के अंदर की हवा में उपस्थित सारी कार्बन डाइ ऑक्साइड को सोख लेगा|
- बोतल को एक रबड़ की कॉर्क से बंद कर दें और कॉर्क में छोटा सा चीरा लगा दें|
- डी-स्टार्च पत्ती, जो अभी भी अपने पादप से जुड़ी हो, को कॉर्क के चीरे के बीचों-बीच डाल दें| पत्ती को इस तरह से डाला जाए कि उसका ऊपरी आधा भाग बोतल से बाहर बना रहे|
- अब इस पौधे को तीन-चार दिन के लिए सूर्य कि रोशनी में रख दें| इस स्थिति में पत्ती के ऊपरी आधे भाग को वायु से कार्बन डाइ ऑक्साइड मिलती रहती हैं लेकिन बोतल के अंदर वाले भाग को कोई कार्बन डाइ ऑक्साइड नहीं मिलती है|
- पत्ती को पादप से तोड़कर बोतल से भी बाहर निकाल लें| एल्कोहल में उबालकर पत्ती के हरे रंग को हटा दें|
- रंगहीन पत्ती को जल से धो दें और उस पर आयोडीन का घोल गिराएँ| इससे पत्ती के रंग में बदलाव आ जाएगा|
- पत्ती का निचला भाग, जोकि बोतल के अंदर था, नीले-काले रंग में नहीं बदलता है| यह दर्शाता है कि पत्ती के इस भाग में कोई स्टार्च नहीं उपस्थित है|अतः इस आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के माध्यम से पौधों में स्टार्च के निर्माण के लिए कार्बन डाइ ऑक्साइड आवश्यक है|
- पत्ती का ऊपरी भाग, जोकि बोतल के बाहर था, नीले-काले रंग में बादल जाता है| यह दर्शाता है कि पत्ती के इस भाग में स्टार्च उपस्थित है|
प्रकाश संश्लेषण क्रिया में कार्बन डाइ ऑक्साइड की आवश्यकता को दर्शाता एक प्रयोग
पादप प्रकाश संश्लेषण के लिए कार्बन डाइ ऑक्साइड कैसे प्राप्त करते हैं ?
हरे पादप प्रकाश संश्लेषण के लिए कार्बन डाइ ऑक्साइड की प्राप्ति वायु से करते हैं| हरी पत्तियों की सतह पर छोटे-छोटे छिद्र पाये जाते हैं, जिन्हें ‘स्टोमेटा’ (Stomata) कहा जाता है| स्टोमेटा के माध्यम से ही कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस पादपों की पत्तियों में प्रवेश करती है| प्रत्येक स्टोमेटा चारों तरफ से रक्षक कोशिकाओं (Guard Cells) के एक ऐसे जोड़े से घिरी होती है, जोकि स्टोमेटा के छिद्र के खुलने और बंद होने को नियंत्रित करती हैं| जब जल रक्षक कोशिकाओं में प्रवेश करता है तो वे फूल जाती हैं और मुड़ जाती हैं, जिसके कारण स्टोमेटा के छिद्र खुल जाते हैं| इसके विपरीत जब जल रक्षक कोशिकाओं से बाहर निकलता है तो वे सिकुड़ जाती हैं और सीधी हो जाती हैं, जिसके कारण स्टोमेटा के छिद्र बंद हो जाते हैं|
अतः जब पादप को कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस की जरूरत नहीं होती है और वह जल को संरक्षित रखना चाहता है, तो वह स्टोमेटा के छिद्र बंद कर देता है| प्रकाश संश्लेषण के दौरान उत्पन्न ऑक्सिजन भी स्टोमेटा के छिद्रों द्वारा बाहर निकल जाती है| इस तरह पादपों में गैसों का विनिमय स्टोमेटा के छिद्रों द्वारा होता है| पादप के तने में भी स्टोमेटा छिद्र पाये जाते हैं|
चौड़ी पत्तियों में स्टोमेटा केवल पत्ती की निचली सतह पर ही पाये जाते हैं लेकिन संकीर्ण पत्तियों में स्टोमेटा पत्ती के दोनों तरफ समान रूप से वितरित होते हैं|
पादप प्रकाश संश्लेषण के लिए जल कैसे प्राप्त करते हैं ?
पादप प्रकाश संश्लेषण के लिए जल मिट्टी से प्राप्त करते हैं| पादप की जड़ों द्वारा मिट्टी से जल का अवशोषण किया जाता है और जाइलम के माध्यम से पत्तियों तक पहुंचाया जाता है, जिसका उपयोग पादपों द्वारा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में किया जाता है|
पादप कार्बन डाइ ऑक्साइड और जल का उपयोग कर ‘कार्बोहाइड्रेट्स’ के रूप में ऊर्जा का निर्माण किया जाता है| पादप के लिए जरूरी अन्य तत्वों, जैसे-नाइट्रोजन, फास्फोरस, लौह और मैग्नीशियम आदि की आपूर्ति मिट्टी द्वारा की जाती है|
प्रकाश संश्लेषण स्थल:क्लोरोप्लास्ट
हरे पादप के वे कोशिकांग जिनमें क्लोरोफिल पाया जाता है, ‘क्लोरोप्लास्ट’ कहलाते हैं| क्लोरोप्लास्ट में ही प्रकाश संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न होती है| क्लोरोप्लास्ट पत्तियों की ऊपरी एपिडर्मिस के नीचे पाया जाता है|
पत्ती की संरचना, जिसमें क्लोरोप्लास्ट की उपस्थिती को दर्शाया गया है| (ऊपर दिये गए चित्र में छोटी-छोटी गोलाकार रचनाएँ क्लोरोप्लास्ट को दर्शाती हैं)
12. पादप जगत का वर्गीकरण किस तरह से किया जाता है ?
वर्गिकी (Taxonomy) वर्गीकरण का विज्ञान है, जो जीवों की व्यापक विविधता के अध्ययन को आसान बनाता है और जीवों के विभिन्न समूहों के बीच अंतर्संबंधों को समझने में हमारी मदद करता है। पादप जगत में प्रथम स्तर का वर्गीकरण पादप शरीर के अंतर, परिवहन के लिए विशेष ऊतकों की उपस्थिति, बीज धारण करने की क्षमता और बीज के फलों के अंदर पाये जाने पर निर्भर करता है।
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पादप जगत का वर्गीकरण
पादप जगत को निम्न रूप में विभाजित किया जाता हैः
थैलोफाइटाः शैवाल, कवक और बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्म जीवाणुओं के प्रकार को इस श्रेणी में रखा जाता है। शैवाल को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है–लाल, भूरा और हरा शैवाल।
शैवाल की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- शैवाल की कोशिका भित्ति सेल्यूलोज की बनी होती है।
- शैवाल के जननांग एककोशिकीय होते हैं।
- शैवाल अपने भोजन को स्टार्च के रूप में संचयित करता है।
प्रजननः वानस्पतिक (Vegetative), अलैंगिंक (Asexual) और लैंगिक प्रजनन (Sexual) तरह से |
आर्थिक महत्वः यह खाद्य सामग्रियों, कृषि, व्यापार एवं व्यवसाय, जैविक अनुसंधान, घरेलू पशुओं के चारे और दवाओं के निर्माण में उपयोगी होता है। लेकिन कई शैवाल प्रदूषक का काम करते हैं और पेयजल को दूषित कर देते हैं। इसके अलावा, पानी के कई उपकरण शैवाल की वजह से बेकार हो जाते हैं। चाय के पौधों में सेल्फ़ालिओरस (Celphaleuros) शैवाल के कारण ‘रेड रस्ट’ नामक रोग हो जाता है |
ब्रायोफाइटाः पौधे जमीन और पानी दोनों में पाए जाते हैं लेकिन लीवर वार्ट्स, हॉर्न वार्ट्स, मॉस (Moss) आदि की तरह उभयचर होते हैं। ये पौधे भी स्वपोषी होते हैं, क्योंकि इनमें क्लोरोप्लास्ट पाया जाता है।
आर्थिक महत्वः इन पौधों में पानी को अवशोषित करने की अच्छी क्षमता होती है और इसलिए इनका प्रयोग बाढ़ को रोकने के उपाय के तौर पर किया जा सकता है। साथ ही इसे मिट्टी के कटाव को रोकने में भी इस्तेमाल किया जाता है। मॉस पौधे को इस्तेमाल पीट ऊर्जा नाम के ईंधन और एंटीसेप्टिक के तौर पर भी किया जाता है।
ट्रैकियोफाइटाः इन पौधों में संवहनी ऊतकों का अच्छा विकास होता है और वे जाइलम और फ्लोएम में विभाजित होते हैं। ट्रैकियोफाइटा निम्नलिखित तीन उपसमूहों में विभाजित किए जाते हैं– टेरिडोफाइटा, जिम्नोस्पर्म और एंजीयोस्पर्म।
(क) टेरिडोफाइटाः इन पौधों में बीज और फूल नहीं पाये जाते हैं। जैसेः क्लब मॉस, हॉर्सटेल्स, फर्न आदि
गुणः
- ये पौथे स्पोरोफाइट होते हैं, क्योंकि इन पौधों के स्पोर्स स्पोरैंजिया में उत्पादित होते हैं।
- जिन पत्तों में स्पोरैंजिया बनते हैं उन्हें ‘स्पोरोफिल’ कहते हैं।
- गैमेटोफाइट (Gametophyte) पर नर और मादा जननांग मौजूद होते हैं।
- जीनों का प्रत्यावर्तन (Alternation) भी दिखाई देता है।
- जाइगोस्पोर्स (Zygospores) जाइगोट के माध्यम से बनता है।
महत्वः ये पौधे घरेलू पशुओं के चारे के तौर पर इस्तेमाल किए जाते हैं, जबकि इनके बीजों का इस्तेमाल दवाओं के तौर पर किया जाता है।
शैवाल | कवक |
1. इनमें प्रकाशसंश्लेषक रंगद्रव्य (Photosynthetic Pigments) होते हैं।
2. स्वपोषी होता है। 3. इनमें से ज्यादातर जलचर होते हैं। 4. कोशिका भित्ति सेल्युलोज से बनी होती है। 5. भंडारित खाद्य पदार्थ के तौर पर इनमें स्टार्च होता है। |
1. इनमें प्रकाशसंश्लेषक रंगद्रव्य (Photosynthetic Pigments) नहीं होते हैं।
2. परपोषी होते हैं। 3. इनमें से अधिकांश स्थलचर होते हैं। 4. कोशिका भित्ति काइटिन की बनी होती है। 5. भंडारित खाद्य पदार्थ के तौर पर इनमें ग्लाइकोजन और तेल होता है। |
(ख) जिम्नोस्पर्मः वैसे पौधे जिनके बीज पूरी तरह से अनावृत्त (Uncoated ) हों और अंडाशय (Ovary) का पूर्ण अभाव हो जिम्नोस्पर्म कहलाते हैं। जैसेः साइकस, पाइन्स, सेड्रस (देवदार) आदि|
गुणः
- ये पौधे बारहमासी और जेरोफाइटिक (Perennial and Xerophytic) होते हैं।
- इनमें स्पष्ट रूप से वार्षिक वलय पाये जाते हैं।
- इनमें वायु-परागण होता है और एक से अधिक भ्रूण (Polyembryony) का गुण होता है।
- एक भ्रूण में एक या एक से अधिक बीजपत्र (Cotyledons) रेडिकिल और प्लूम्यूल (Radicle and Plumule) के साथ होता है।
आर्थिक महत्वः इनका खाना, लकड़ी और दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। सजावट और घरेलू उपयोग के लिए भी ये महत्वपूर्ण हैं । वाष्पशील तेल, चमड़ा तैयार करने और रेजिन बनाने में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है।
(ग) एंजियोस्पर्मः यह पादपों का सबसे महत्वपूर्ण उपसमूह है जिनके बीज परतदार होते हैं और किसी अंग या अंडाशय में विकसित होते हैं। हमारे प्रमुख खाद्य पदार्थ, फाइबर, मसाले और पेय फसलें फूल वाले पौधे (एंजियोस्पर्म) होते हैं। इनका प्रयोग चिकित्सीय पौधों, प्रतिवादी स्वाद प्रजातियां, लेटेक्स उत्पाद जैसे रबर आदि के रूप में भी होता है। इस पौधों के तेलों का इस्तेमाल इत्र, साबुन और सौंदर्य प्रसाधन बनाने में भी किया जाता है।
गुणः
- इस पौधे का प्रजनन अंग फूल होता है और इनमें दोहरा निषेचन होता है।
- ये स्पैरोफिटिक, सहजीवी और परजीवी होते हैं। कुछ स्वपोषी भी होते हैं।
- आमतौर पर स्थलचर होते हैं लेकिन कुछ जलचर भी होते हैं।
- संवहनी ऊतक बहुत अच्छी तरह विकसित होते हैं।
एंजियोस्पर्म को भी दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है–
(अ) एकबीजपत्री (Monocot): इन वर्ग के पौधों की पत्तियां चौड़ी होने के बजाए अधिक लंबी होती हैं। एकबीजपत्री के तने में कैंबियम की कमी होती है और इसलिए सिर्फ ताड़ के पेड़ को छोड़कर इस श्रेणी के बाकी सभी पौधे बहुत कम ऊँचाई वाले होते हैं। उदाहरणः मक्का, गेहूं, धान, प्याज, गन्ना, जौ, केला, नारियल आदि|
गुणः
- इन पौधे के बीज में एक बीजपत्र (Cotyledon) पाया जाता है।
- इनकी पत्तियाँ समानांतर शिरा-रचना (venation) वाली होती हैं।
- इन पौधों की जड़े अधिक विकसित नहीं होतीं।
- फूल बहुत बड़े होते हैं, यानि तीन या तीन के गुणक में पंखुड़ियां होती हैं।
- संवहनी भाग में, कैंबियम मौजूद नहीं होता है।
(ब) द्विबीजपत्री (Dicot):इन पौधों में दो बीज पत्री होते हैं। सिरे उनकी पत्तियों का जाल बनाते हैं। इसमें सख्त लकड़ी वाले पौधों की सभी प्रजातियां, दालें, फल, सब्जियां आदि आती हैं। जैसे– मटर, आलू, सूर्यमुखी, गुलाब, बरगद, सेब, नीम आदि।
गुणः
–इन पौधों के बीज में दो बीजपत्र पाए जाते हैं।
–संवहनी हिस्से में कैंबियम होता है।
–पौधे के फूल में चार या पांच के गुणक में पत्तियाँ होती हैं।
-इन द्विबीजपत्री पौधों में द्वितीयक वृद्धि (Secondary Growth) पायी जाती है।
13. पौधों में परिसंचरण तंत्र की क्रियाविधि
पौधों में परिसंचरण तंत्र का अर्थ है-किसी पौधे के द्वारा अवशोषित या निर्मित पदार्थों का पौधे के अन्य सभी हिस्सों तक पहुंचाना। पौधों में जल और खनिजों को उसके अन्य हिस्सों में तक पहुंचाने की जरूरत पड़ती है। पौधों को पत्तियों में बने भोजन को भी पौधे के अन्य हिस्सों तक पहुंचाने की जरूरत पड़ती है। पौधे शाखायुक्त होते हैं, ताकि उन्हें प्रकाशसंश्लेषण हेतु कार्बन डाइऑक्साइड और ऑक्सीजन प्रसरण (Diffusion) के माध्यम से हवा से सीधे मिल सके।
पौधों की पोषण प्रणाली के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए क्लिक करें:
पादपों में पोषण किस तरह से होता है?
पौधों में परिसंचरण तंत्र के कार्य करने के लिए दो प्रकार के ऊतक (Tissues) होते हैं। ये हैं–
1) जाइलम
2) फ्लोएम
पौधे में जल और खनिजों का परिसंचरण
पौधों को, प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया के माध्यम से भोजन निर्मित करने के लिए पानी की और प्रोटीन के निर्माण के लिए खनिजों की जरूरत पड़ती है। इसलिए, पौधे अपनी जड़ों के माध्यम से जल और खनिज को अवशोषित करते हैं और पौधे के तने, पत्तियों, फूलों आदि अन्य हिस्सों में इसे पहुंचाते हैं। जाइलम ऊतक के दो प्रकार के तत्वों अर्थात जाइलम वाहिकाओं (Xylem Vessels) और वाहिनिकाओं (Tracheid) से होकर ही जल एवं खनिजों को पौधों की जड़ों से उसकी पत्तियों तक पहुंचाया जाता है।
जाइलम वाहिकाएँ (Xylem Vessels)
जाइलम वाहिकाएँ एक लंबी नली होती हैं, जो अंतिम सिरों पर जुड़ी हुई मृत कोशिकाओं से मिलकर बनी होती हैं। ये एक निर्जीव नली होती है, जो पौधे की जड़ों से होती हुई प्रत्येक तने और पत्ती तक जाती है। कोशिकाओं की अंतिम सिरे टूटे हुए होते हैं, ताकि एक खुली हुई नली बन सके।
जाइलम वाहिकाओं में साइटोप्लाज्म या नाभिक (Nuclei) नहीं होता और वाहिकाओं की दीवारें सेल्यूलोज या लिग्निन से बनी होती हैं। जल और खनिजों के परिसंचरण के अतिरिक्त जाइलम वाहिकाएँ तने को मजबूती प्रदान कर उसे ऊपर की ओर बनाए रखती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लिग्निन बहुत सख्त और मजबूत होता है। लकड़ी लिग्निन युक्त जाइलम वाहिकाओं से ही बनती है। जाइलम वाहिकाओं की कोशिका भित्ति में गड्ढे होते हैं, जहां लिग्निन जमा नहीं हो पाता। या तो जाइलम वाहिकाएँ या फिर जाइलम वाहिकाएँ और वाहिनिकाएँ (Tracheid) दोनों, पुष्पीय पौधों में जल का परिसंचरण करती हैं।
वाहिनिकाएँ (Tracheid)
बिना पुष्प वाले पौधों में वाहिनिकाएँ (Tracheid) ही एक मात्र ऐसे ऊतक होते हैं, जो जल का परिसंचरण करते है। वाहिनिकाएँ मृत कोशिकाएं होती हैं,और इसकी भित्ति लिग्निन युक्त होती हैं और इसमें खुले हुए सिरे नहीं पाये जाते हैं। ये लंबी, पतली और तंतु के आकार वाली कोशिकाएं होती हैं। इनमें गड्ढ़े पाये जाते हैं जिनके जरिए ही एक वाहिनिका से दूसरे वाहिनिका में पानी का परिसंचरण होता है। सभी पौधों में वाहिनिकाएँ पायी जाती हैं।
एक पौधे में जल और खनिजों परिसंचरण प्रक्रिया को समझने से पहले निम्नलिखित महत्वपूर्णशब्दों का अर्थ जानना आवश्यक हैः
बाह्यत्वचा (Epidermis): पौधे के जड़ की कोशिकाओं की बाहरी परत को बाह्यत्वचाकहते हैं। बाह्यत्वचा की मोटाई एक कोशिका के बराबर होती है।
अंतःत्वचा (Endodermis): किसी पौधे के संवहन ऊतकों (जाइलम और फ्लोएम) के आसपास उपस्थित कोशिकाओं की परत अंतःत्वचा कहलाती है। यह कोर्टेक्स की सबसे भीतरी परत होती है।
रुट कोर्टेक्सः यह जड़ में बाह्यत्वचा और अंतःत्वचा के बीच में पाया जाने वाला हिस्सा होता है।
जड़ीय/रूट जाइलमः यह जड़ों में उपस्थित जाइलम ऊतक है, जोकि जड़ के केंद्र में उपस्थित होता है।
बाह्यत्वचा, रूट कोर्टेक्स और अंतःत्वचा जड़ों के रोम (Root Hair) और रूट जाइलम के बीच स्थित होते हैं। इसलिए, जड़ों के रोम द्वारा मिट्टी से अवशोषित जल सबसे पहले बाह्यत्वचा, रुट कोर्टेक्स और अंतःत्वचा से होकर गुजरता है और फिर अंत में रूट जाइलम में पहुंचता है।
इसके अलावा, मिट्टी में खनिज भी पाये जाते हैं। पौधे मिट्टी से इन खनिजों को अकार्बनिक, जैसे-नाइट्रेट और फॉस्फेट, के रूप में लेते हैं। मिट्टी से मिलने वाले खनिज जल में घुलकर जलीय घोल बनाते हैं। इसलिए जब जल जड़ों से पत्तियों तक ले जाया जाता है,तो खनिज भी पानी में घुल जाते हैं और वे भी जल के साथ पत्तियों तक पहुंच जाते हैं।
किसी पौधे में जल और खनिजों का परिसंचरण तंत्र
जड़ों के रोम (Root hair) मिट्टी से खनिज घुले जल को अवशोषित कर लेते हैं। जड़ों के रोम मिट्टी के कणों के बीच मौजूद जल की परत के साथ सीधे संपर्क में होता है। खनिज युक्त जल जड़ों के रोम में जाता है और परासरण (Osmosis) की प्रक्रिया के माध्यम से कोशिकाओं से होता हुआ बाह्यत्वचा, रुट कोर्टेक्स और अंतःत्वचा और रूट जाइलम में पहुंचता है।
पौधे के जड़ की जाइलम वाहिकाएँ तने की जाइलम वाहिकाओं से जुड़ी होती है| इसलिए जड़ की जाइलम वाहिकाओं से जल तने की जाइलम वाहिकाओं में जाता है और फिर पौधे के डंठल (Petiole) से होते हुए पौधे की पत्तियों तक पहुंचता है। प्रकाशसंश्लेषण क्रिया में पौधे सिर्फ एक से दो प्रतिशत पानी का ही प्रयोग करते हैं, बाकी जल जलवाष्प के रूप में वायु में शामिल हो जाता है।
जाइलम वाहिकाएँ जल अवशोषित करती हैं
पौधे के शीर्ष (पत्तियों) पर दबाव कम रहता है, जबकि पौधे के निचले हिस्से में दबाव अधिक होता है। पौधे के शीर्ष पर दबाव के कम होने की वजह वाष्पोत्सर्जन (Transpiration) है। चूंकि पौधे के शीर्ष पर दबाव कम होता है, इसलिए जल जाइलम वाहिकाओं से पौधे की पत्तियों में संचरित होता है।
पौधे की पत्तियों से होने वाला वाष्पीकरण ‘वाष्पोत्सर्जन’ (Transpiration) कहलाता है। पौधे की पत्तियों पर छोटे–छोटे छिद्र होते हैं, जिन्हें ‘स्टोमेटा’ कहते हैं। इसके माध्यम से ही जल वाष्प बन कर वायु में चला जाता है। यह जाइलम वाहिकाओं के शीर्ष का दबाव कम कर देता है और पानी उसमें संचरित होता है।
भोजन और अन्य पदार्थों का परिवहन
प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया में एक पौधे की पत्तियों में तैयार होने वाला भोजन उसके अन्य हिस्सों जैसे तनों, जडों, शाखाओं आदि में पहुंचाया जाता है। ये भोजन एक प्रकार की नली के जरिए पौधों के अलग–अलग हिस्सों में पहुंचता है, ये नली ‘फ्लोएम’ कहलाती है। पौधे की पत्तियों से भोजन का पौधे के अन्य हिस्सों में भेजा जाना ‘स्थानान्तरण’ (Translocation) कहलाता है। पत्तियों द्वारा बनाया जाने वाला भोजन सरल शर्करा के रूप में होता है। फ्लोएम पौधे के सभी हिस्सों में मौजूद होता है।
फ्लोएम में चालनी नलिकाएँ (Sieve Tubes) पायी जाती हैं
फ्लोएम एक लंबी नली होती है। कई जीवित कोशिकाएं अंतिम सिरों पर एक दूसरे से जुड़कर इनका निर्माण करती हैं। फ्लोएम की जीवित कोशिकाएं ‘चालनी नलिकाएँ’ (Sieve Tubes) कहलाती हैं। फ्लोएम में कोशिकाओं की अंतिम भित्ति पर चालनी पट्टियाँ (sieve plates) पायी जाती हैं, जिनमें छोटे–छोटे छिद्र बने होते हैं। इन्हीं छिद्रों से होकर फ्लोएम नलिका के सहारे भोजन संचरित होता है। चालनी नलिकाओं में साइटोप्लाज्म तो होता है, लेकिन कोई केंद्रक नहीं होता है। प्रत्येक चालनी नलिका कोशिका के साथ एक और कोशिका पायी जाती है, जिसमें केंद्रक और कई अन्य कोशिकांग उपस्थित होते हैं। चालनी नलिकाओं की कोशिका भित्ति में सेल्यूलोज होता है, लेकिन लिग्निन नहीं पाया जाता है।
भोजन पत्ती की मेजोफिल कोशिकाओं (Mesophyll Cells) द्वारा बनाया जाता है और यहां से वह फ्लोएम की चालनी नलिकाओं में प्रवेश करता है। ये फ्लोएम नलिकाएँ एक दूसरे से जुड़ी होती हैं और जब भोजन पत्ती की फ्लोएम नलिका में पहुंच जाता है, उसके बाद यह पौधे के दूसरे सभी हिस्सों तक पहुंचाया जाता है।
भोजन का परिसंचरण बहुत आवश्यक है, क्योंकि पौधे के प्रत्येक हिस्से को निम्नलिखित कार्यों के लिए भोजन की जरूरत पड़ती है:
- ऊर्जा
- अपने अंगों के निर्माण के लिए
- अपने जीवन को बनाए रखने के लिए
पौधे की जड़ों और टहनियों के सिरों पर बनने वाले हार्मोन जैसे अन्य पदार्थ भी फ्लोएम नलिकाओं के माध्यम से ही एक जगह से दूसरी जगह ले जाए जाते हैं।
पौधों में भोजन के परिसंचरण की प्रक्रिया
एटीपी (ATP) से मिली ऊर्जा का प्रयोग कर पौधों की पत्तियों में बना भोजन फ्लोएम ऊतक की चालनी नलिकाओं में प्रवेश करता है। उसके बाद परासरण की प्रक्रिया द्वारा शर्करा युक्त जल चालनी नलिका में प्रवेश करता है। इससे फ्लोएम ऊतक में दबाव बढ़ता है। फ्लोएम ऊतक में बना उच्च दबाव पौधे के निम्न दबाव वाले अन्य सभी हिस्सों में भोजन पहुंचाने का काम करता है। इस प्रकार फ्लोएम ऊतक के माध्यम से पौधे के सभी हिस्सों में भोजन पहुंचाया जाता है।
14.पुष्पीय पौधों में लैंगिक प्रजनन
जनक पौधों द्वारा अपनी सेक्स कोशिकाओं या युग्मकों (Gametes) का प्रयोग कर नए पौधे को जन्म देने की क्रिया ‘लैंगिक प्रजनन’ कहलाती है| पादपों या पौधों में भी नर और मादा जनन अंग होते हैं। पौधों के ये जनन अंग पुष्पों और फलों के भीतर पाए जाने वाले बीजों में पाये जाते हैं। ऐसे पौधों को ‘आवृत्तबीजी’ (Angiosperms) या ‘पुष्पीय पौधे’ कहते हैं, क्योंकि ये लैंगिक प्रजनन पद्धति द्वारा प्रजनन करते हैं।
ज्यादातर पौधों के फूलों में ही नर और मादा प्रजनन अंग होते हैं। एक ही पुष्प में नर और मादा प्रजनन अंग होते हैं। ऐसे पुष्प नर और मादा युग्मक बनाकर निषेचन को सुनिश्चित करते हैं, ताकि पौधे के प्रजनन के लिए नए बीज तैयार हो सकें।
पुष्प के अंग
पौधों में लैंगिक प्रजनन के चरण
- पुष्प का नर अंग ‘पुंकेसर’ (Stamen) कहलाता है। यह पौधे के नर युग्मकों के बनने में मदद करता है और परागकणों (Pollen Grains) में पाया जाता है।
- पुष्प का मादा अंग ‘अंडप/ कार्पेल’ (carpel) कहलाता है। यह पौधे के मादा युग्मकों या अंड कोशिकाओं को बनाने में मदद करता है और बीजांड (Ovules) में पाया जाता है।
- नर युग्मक मादा युग्मक से निषेचन करता है।
- निषेचित अंड कोशिकाएं बीजांड (ovules) में विकसित होती हैं और बीज बन जाती हैं।
- अंकुरित होने पर ये बीज ही नए पौधे बनते हैं।
पुष्प के अलग–अलग भाग
- रेसप्टकल (Receptacle):यह पुष्प के तने या डंठल के ऊपर पाया जाने वाला पुष्प का आधार होता है। यह रेसप्टकल ही होता है, जिससे पुष्प के सभी भाग इससे जुड़े होते हैं।
- बाह्यदल (Sepals):ये हरे पत्ते जैसे भाग होते हैं, जो पुष्प के सबसे बाहरी हिस्से में मौजूद रहते हैं। पुष्प जब कली के रूप में होता है, तब बाह्यदल उसकी रक्षा करते हैं। पुष्प के सभी बाह्यदलों को एक साथ बाह्यदल पुंज (Calyx) कहते हैं।
- पंखुड़ियां (Petals):पंखुड़ियां पुष्पों की रंगीन पत्तियां होती हैं। एक पुष्प की सभी पंखुड़ियों को दलपुंज (Corolla) कहते हैं। फूलों की पंखुड़ियों में खुशबू होती है और परागण के लिए वे कीटों को आकर्षित करते हैं। इनका काम पुष्प के मध्य भाग में उपस्थित प्रजनन अंगों की रक्षा करना है।
- पुंकेसर (Stamen):पुंकेसर पौधे का नर प्रजनन अंग होता है। ये पंखुड़ियों के छल्ले के भीतर उपस्थित होते हैं और फूले हुए ऊपरी हिस्सों के साथ इनमें थोड़ी डंठल होती है। पुंकेसर दो हिस्सों से बना होता है – ‘परागकोष’ (Anther) और ‘तंतु’ (Filament)। पुंकेसर का डंठल ‘तंतु’ कहलाता है और फूला हुआ ऊपरी हिस्सा ‘परागकोष’। पुंकेसर का परागकोष परागकण उत्पन्न करता है और उन्हें अपने भीतर रखता है। परागकणों में पौधे के नर युग्मक पाये जाते हैं। एक पुष्प में बहुत सारे पुंकेसर होते हैं।
पुंकेसर: एक पौधे का नर प्रजनन अंग
- अंडप/कार्पेल (Carpel):अंडप मादा प्रजनन अंग है और पौधे के मध्य में पाया जाता है। अंडप का आकार सुराही (flask) जैसा होता है और यह तीन हिस्सों से बना होता है– स्टिग्मा (Stigma), वर्तिका (Style) और अंडाशय (Ovary)। अंडप के शीर्ष हिस्से को ‘स्टिग्मा’ कहा जाता है। यह चिपचिपा होता है और पुंकेसर के परागकोष से परागकण प्राप्त करता है। परागकण स्टिग्मा से चिपक जाते हैं। अंडप का मध्य भाग ‘वर्तिका’ (style) कहलाता है। वर्तिका एक नली है जो स्टिग्मा को अंडाशय से जोड़ती है। अंडप का निचला हिस्सा, जो फूला हुआ होता है, ‘अंडाशय’ कहलाता है। यहीं पर बीजांड बनाए और रखे जाते हैं। अंडाशय में कई ‘बीजांड’ होते हैं और प्रत्येक अंडाशय में पौधे का एक मादा युग्मक पाया जाता है। अंडाशय के भीतर मौजूद पौधे का मादा युग्मक ‘अंडा’ या ‘डिंब’ कहलाता है। इसलिए, अंडप के अंडाशय में मादा युग्मक बनती हैं। पौधे के मादा अंग को ‘जायांग’ (Pistil) भी कहते हैं। इसके अलावा अंडप कई पुंकेसरों से घिरा होता है।
कार्पेल:एक पौधे का मादा प्रजनन अंग।
कई पुष्प एकलिंगी भी होते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि उनमें या तो ‘पुंकेसर’ होता है या ‘अंडप’। पपीता और तरबूज के पुष्प एकलिंगी पुष्पों के उदाहरण हैं। वैसे पुष्प जिनमें नर और मादा, दोनों ही प्रकार के यौन अंग पाए जाते हैं, ‘द्विलिंगी पुष्प’ कहलाते हैं। गुड़हल (Hibiscus) और सरसो के पौधे द्विलिंगी पुष्प के उदाहरण हैं।
नए बीज बनाने के क्रम में परागगण में मौजूद नर युग्मक बीजाणु में मौजूद मादा युग्मकों से मिलते हैं। यह प्रक्रिया दो चरणों में होती है
- परागण
- निषेचन
परागण
जब पुंकेसर से परागकण अंडप के स्टिग्मा में आता है, तो इसे ‘परागण’ कहते हैं। यह महत्वपूर्ण होता है क्योंकि परागण की वजह से ही नर युग्मक मादा युग्मकों के साथ मिल पाता है। परागण मधुमक्खियों, तितलियों और पक्षियों जैसे कीटों, हवा और पानी से होता है।
परागण दो प्रकार के होते हैं– स्व–परागण (Self-Pollination ) और संकर–परागण (Cross-Pollination)। जब एक पुष्प के परागकण उसी पुष्प के स्टिग्मा या उसी पौधे के दूसरे पुष्प के स्टिग्मा तक ले जाए जाते हैं, तो इसे ‘स्व–परागण’ कहते हैं। जब एक पौधे के पुष्प के परागकण को उसी के जैसे दूसरे पौधे के पुष्प के स्टिग्मा तक ले जाया जाता है, तो उसे ‘संकर–परागण’ (Cross-Pollination) कहते हैं।
परागण
परागण में कीट मदद करते हैं। जब कोई कीट एक पौधे के पुष्प पर पराग को पीने के लिए बैठता है तो दूसरे का परागकण उसके शरीर से चिपक जाता है। अब, जब यह कीट उड़ता है और ऐसे ही किसी दूसरे पौधे के पुष्प पर जा कर बैठ जाता है, तब परागकण एक जगह से दूसरी जगह पहुँच जाते हैं और दूसरे पौधे के पुष्प के स्टिग्मा से चिपक जाते हैं। इस प्रकार कीट संकर–परागण (Cross-Pollination) में मदद करते हैं। हवा भी संकर–परागण (Cross-Pollination) में मदद करती है।
निषेचन
परागण के बाद अगला चरण होता है-निषेचन। इस चरण में, परागकणों में उपस्थित नर युग्मक बीजाणु में मौजूद मादा युग्मकों से मिलते हैं।
जब परागकण स्टिग्मा पर गिरते हैं तो फट जाते हैं और खुलकर विकसित पराग नली में पहुँच जाते हैं। यह पराग नली वर्तिका से होकर अंडाशय की तरफ बढ़ती है और बीजाणु में प्रवेश करती है। नर युग्मक पराग नली में जाते हैं। पराग नली का ऊपरी सिरा फटता है, बीजाणु में खुल जाता है और नर युग्मक बाहर निकल आते हैं। बीजाणु में, नर युग्मक मादा युग्मक के केंद्रक से मिलते हैं और निषेचित अंडे बनते हैं। यह निषेचित अंडा ‘युग्मनज’ (Zygote) कहलाता है।
पुष्प में निषेचन
फलों और बीजों का बनना
बीजाणु में, निषेचित अंडा कई बार विभाजित होता है और भ्रूण बनाता है। बीजाणु के चारो तरफ कठोर परत बन जाती है और धीरे–धीरे यह बीज में विकसित हो जाता है। पुष्प का अंडाशय विकसित होकर फल का रूप लेता है, जिसके भीतर बीज होते हैं। फूलों के अन्य हिस्से जैसे बाह्यदल, पुंकेसर, स्टिग्मा और वर्तिका सूखकर गिर जाते हैं। फूलों की जगह फल ले लेते हैं। बीजों की रक्षा फल करते हैं। कुछ फल मुलायम और रसीले होते हैं, जबकि कुछ फल कठोर और सूखे होते हैं।
फल अपने भीतर पौधे के बीज रखता है।
बीज पौधे की प्रजनन इकाई होता है। इस बीज से ही नए पौधे विकसित हो सकते हैं, क्योंकि बीज अपने भीतर नवीन पौधे और उसके लिए भोजन रखता है। बीज में नवीन पौधे का हिस्सा, जो पत्तियों का रूप लेता है, ‘प्लूम्यूल’ (Plumule) कहलाता है। जड़ों के रूप में विकसित होने वाला हिस्सा ‘मूलांकुर’ (Radicle) कहलाता है। शिशु पौधे के लिए भोजन संरक्षित कर रखने वाले बीज के हिस्से को बीजपत्र (Cotyledon) कहते हैं। बीज के भीतर रहने वाला शिशु पौधा निष्क्रिय अवस्था में होता है। जब हम उसे उपयुक्त वातावरण जैसे पानी, हवा, रोशनी आदि प्रदान करते हैं, तभी वह अंकुरित होता है और एक नया पौधा उगता है। गेहूं, चना, मक्का, मटर, सेम आदि बीज के उदाहरण हैं।
बीज के अंग
बीजों का अंकुरण
पौधे से मिला बीज सूखा और निष्क्रिए अवस्था में होता है। जब उन्हें पानी, हवा, मिट्टी आदि मिलती है, तभी वे नए पौधे के रूप में विकसित होना शुरु करते हैं। एक बीज के विकास की शुरुआत ‘बीजों का अंकुरण’ कहलाता है।
बीजों का अंकुरण तब शुरु होता है, जब बीज पानी को सोखना शुरू करता है, फूलता है और बीजावरण (Seed Coat) को तोड़कर फट जाता है। पानी की मदद से बीजों में एंजाइम कार्य करना शुरु करते हैं। एंजाइम संचयित भोजन को पचाते हैं और उसे घुलनशील बना देते हैं। घुलनशील भोजन की मदद से मूलांकुर (Radicle) और प्लूम्यूल (Plumule) विकसित होता है।
नए पौधे को उत्पन्न करने के लिए बीज उपयुक्त परिस्थितियों में अंकुरित होते हैं। ये तस्वीरें सेम के एक बीज के अंकुरण के जरिए नए नवीन पौधे में बदलने की प्रक्रिया दर्शा रही हैं।
सबसे पहले बीज का मूलांकुर (Radicle) जड़ बनाने के लिए विकसित होता है। ये जड़ें मिट्टी के भीतर बढ़ती हैं और मिट्टी से पानी एवं खनिज पदार्थ अवशोषित करती हैं। इसके बाद प्लूम्यूल उपर की तरफ बढ़ते हैं और कोपलें बनती हैं। ये कोपलें हरी पत्तियों का रूप ले लेती हैं। प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा पत्तियां भोजन बनाना शुरु करती हैं और धीरे– धीरे एक नया पौधा विकसित हो जाता है।
15. जंतुओं में लैंगिक प्रजनन
माता–पिता द्वारा अपनी सेक्स कोशिकाओं या युग्मकों (Gametes) का प्रयोग कर नए जीव या संतान को जन्म देने की क्रिया ‘लैंगिक प्रजनन’ कहलाती है| मनुष्य, मछलियाँ, मेढ़क, बिल्लियाँ और कुत्ते-ये सभी लैंगिक प्रजनन द्वारा संतान को जन्म देते हैं।
लैंगिक प्रजनन को समझने से पहले लैंगिक प्रजनन में शामिल होने वाले कुछ महत्वपूर्ण तत्वों , जैसे नर-लिंग, मादा-लिंग, युग्मक (Gametes), शुक्राणु (Sperms), अंडाणु (Ova Or Eggs), निषेचन (Fertilization), युग्मनज (Zygote) और भ्रूण (Embryo) का अर्थ समझना जरूरी है।
- ऐसे जन्तु को जिनके शरीर में नर यौन कोशिकाएं, जिन्हें ‘शुक्राणु’ कहते हैं, होती हैं उन्हें ‘नर’ और ऐसे जन्तु को जिनके शरीर में मादा यौन कोशिकाएं, जिन्हें ‘अंडाणु’ कहते हैं, होती हैं उन्हें ‘मादा’ कहते हैं।
- युग्मकःये ऐसी कोशिकाएं हैं जो लैंगिक प्रजनन में शामिल होती हैं या हम कह सकते हैं कि ये लैंगिक प्रजनन कोशिकाएं हैं। ये दो प्रकार की होती हैं– ‘नर युग्मक’ और ‘मादा युग्मक’। जन्तु में पाये जाने वाले नर युग्मक को ‘शुक्राणु’ और मादा युग्मक को ‘अंडाणु’ कहा जाता है। मादा युग्मक या मादा यौन कोशिका को ‘डिंब’ (Ovum) के नाम से भी जाना जाता है। डिंब (Ovum) का बहुवचन ‘अंडाणु’ (Ova) होता है। डिंब या अंडे में पानी पाया जाता है और ये भोजन को संचयित रखते हैं। ‘केंद्रक’ (Nucleus) डिंब का महत्वपूर्ण हिस्सा है। शुक्राणु कोशिकाएं डिंब या अंडाणु से सैंकड़ों या हजारों गुणा छोटी होती हैं और उनकी लंबी सी पूंछ होती है। शुक्राणु गतिशील होते हैं और अपनी पूंछ की मदद से स्वतंत्र रूप से गति कर सकते हैं।
- निषेचनःलैंगिक प्रजनन के दौरान युग्मनज के निर्माण के लिए नर युग्मक का मादा युग्मक से मिलना, यानि युग्मनज के निर्माण के लिए शुक्राणु के अंडाणु से मिलने को ‘निषेचन’ कहते हैं। युग्मनज को ‘निषेचित अंडा’ या ‘निषेचित डिंब’ भी कहा जाता है। यह युग्मनज विकसित होकर एक नए शिशु में बादल जाता है। युग्मनज और नव निर्मित शिशु के बीच के विकास के चरण को ‘भ्रूण’ कहते हैं।
- आंतरिक और बाह्य निषेचनःमादा शरीर के भीतर होने वाले निषेचन को ‘आंतरिक निषेचन’ कहते हैं| इस तरह का निषेचन मनुष्यों, पक्षियों और सरीसृपों आदि स्तनधारियों में होता है। मादा शरीर के बाहर होने वाले निषेचन को ‘बाह्य निषेचन’ कहते हैं| इस तरह का निषेचन मेंढ़क, टोड और मछलियों जैसे उभयचर प्राणियों में होता है।
अलग– अलग पशुओं में युग्मनज (जाइगोट) के विकसित होकर एक सम्पूर्ण जीव में विकसित होने की पद्धति अलग–अलग होती है। मनुष्यों में युग्मनज (जाइगोट) मादा शरीर के भीतर बढ़ता और शिशु के रूप में विकसित होता है और एक शिशु को जन्म होता है। बिल्लियों, कुत्तों आदि जैसे पशुओं में भी शिशु का जन्म होता है, लेकिन अंडे देने वाले पक्षियों में यह पूरी तरह से अलग होता है। उदाहरण के लिए, मुर्गी अपने अंडे देने के बाद उन पर बैठ जाती है ताकि उसे गर्मी दे सके, युग्मनज विकसित होकर चूजे का रूप ले ले सकें। इसके बाद यह चूजा अंडे की परत तोड़कर बाहर आ जाता है। इसलिए, सभी जीव मनुष्यों की तरह पूर्णा विकसित शिशु को जन्म नहीं देते हैं।
- लैंगिक प्रजनन के दौरान डीएनए की मात्रा दुगुनी क्यों नहीं हो जाती, यह समझना महत्वपूर्ण है?
युग्मकों को ‘प्रजनन कोशिकाएं’ भी कहा जाता है। इनमें किसी जीव के सामान्य शारीरिक कोशिकाओं की तुलना में सिर्फ आधी मात्रा में ही डीएनए पाया जाता है या गुणसूत्रों की आधी संख्या ही मौजूद होती है। इसलिए, लैंगिक प्रजनन के दौरान जब नर युग्मक मादा युग्मक के साथ मिलता है, तो नव निर्मित ‘युग्मनज’ कोशिका में डीएनए की मात्रा सामान्य होती है। मनुष्य के शुक्राणु में 23 गुणसूत्र और मनुष्य के अंडे में भी 23 गुणसूत्र होते हैं, जिनके मिलने के बाद 23+23=46 गुणसूत्र बनते हैं, जो गुणसूत्रों की सामान्य संख्या है।
पशुओं में लैंगिक प्रजनन किस प्रकार होता है?
यह निम्नलिखित चरणों में होता है–
- नर जनक द्वारा शुक्राणु या नर युग्मक पैदा किया जाता है और शुक्राणु में गति करने के लिए लंबी पूंछ अर्थात ‘फ्लजेलम’ (Flagellum) पायी जाती है।
- अंडाणु, अंडा या मादा युग्मक मादा जनक द्वारा पैदा किया जाता है, जो शुक्राणु की तुलना में एक बड़ी कोशिका है। इसमें बहुत बड़ी मात्रा में कोशिका द्रव्य (Cytoplasm) पाया जाता है।
- शुक्राणु अंडाणु या अंडे में प्रवेश करता है और मिलकर एक नई कोशिका बनाता है, जिसे युग्मनज (जाइगोट) कहते हैं। इस प्रक्रिया को ‘निषेचन’ कहते हैं। इसलिए युग्मनज ‘निषेचित डिंब’ होता है।
- इसके बाद जाइगोट बार–बार विभाजित होकर बड़ी संख्या में कोशिकाओं का निर्माण करता है, और अंततः नए शिशु के रूप में विकसित हो जाता है।
युग्मनज (जाइगोट) बनाने के लिए शुक्राणु द्वारा डिंब या अंडे का निषेचन
लैंगिक प्रजनन के लाभ
अलैंगिक प्रजनन की तुलना में लैंगिक प्रजनन के कई लाभ हैं। अलैंगिक प्रजनन में पैदा होने वाली संतान लगभग अपने माता– पिता के समान ही होती है, क्योंकि उनके जीन माता–पिता के जैसे ही होते हैं। इसलिए बहतु अधिक आनुवंशिक परिवर्तन संभव नहीं होता। यह एक प्रकार का नुकसान है, क्योंकि यह जीवों के विकास को रोकता है।
लैंगिक प्रजनन में हालांकि संतान अपने माता–पिता के समान होती है, लेकिन वे बिल्कुल उनके जैसी या किसी दूसरे के जैसी नहीं होती। इसकी वजह है कि संतान में कुछ जीन माता के और कुछ जीन पिता के होते है। इसलिए जीनों का मिश्रण अलग–अलग संयोजन बनाता है। इसी वजह से सभी संतानों में आनुवंशिक विविधता होती है। इस प्रकार लैंगिक प्रजनन प्रजातियों में विविधता लाता है और प्रजातियां अपने आस–पास के पर्यावरण में होने वाले बदलावों के प्रति बहुत तेजी से अनुकूलित हो सकती हैं।
हम कह सकते हैं कि लैंगिक प्रजनन आनुवंशिक विविधता प्रदान कर संतानों के गुणों में विविधता को बढ़ावा देता है। लैंगिक प्रजनन अलग–अलग गुणों वाली नई प्रजातियों की उत्पत्ति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह आनुवंशिक विविधता बेहतर और उससे भी बेहतर जीवों वाले प्रजातियों के विकास का लगातार नेतृत्व करती है जो अलैंगिक प्रजनन में संभव नहीं है।
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16. पौधों में अलैंगिक प्रजनन क्या है और यह किन विधियों से होता है?
अलैंगिक प्रजनन ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें नया जीव एकल जनक से बनता है और इसमें युग्मक या जनन कोशिकाओं की कोई भूमिका नहीं होती। कई एककोशिकीय और बहुकोशिकीय जीव अलैंगिक प्रजनन करते हैं। इस प्रक्रिया में, जनक जीव या तो विभाजित हो जाता है या फिर जनक जीव का एक हिस्सा नया जीव बनाने के लिए अलग हो जाता है। इस प्रजनन में, जनक की कुछ कोशिकाएं समसूत्री कोशिका विभाजन से गुजरती हैं, ताकि दो या दो से अधिक नए जीव बन सकें।
अलैंगिक प्रजनन निम्नलिखित छह प्रकार का होता है –
- विखंडन (Fission)
- मुकुलन (Budding)
- बीजाणु का बनना (Spore formation)
- पुनर्जनन (Regeneration)
- खंडन (Fragmentation)
- कायिक प्रवर्धन (Vegetative propagation)
विखंडन
विखंडन में एक कोशिकीय जीव नए जीवों को बनाने के लिए विभाजित हो जाते हैं। यह प्रोटोजोआ और कई प्रकार के जीवाणु/बैक्टीरिया जैसे जीवों में होने वाले प्रजनन की प्रक्रिया है। विखंडन के दो प्रकार होते हैं–
- द्विखंडन (Binary Fission)
द्विखंडन में, एकल जनक कोशिका पूरी तरह से विकसित होने वाले बिन्दु पर पहुँचकर दो हिस्सों में बंट जाती है। इस प्रक्रिया में, विभाजन के बाद जनक कोशिका समाप्त हो जाती है और दो नए जीवों का जन्म होता है। द्विखंडन की प्रक्रिया से गुजरने वाले एककोशिकीय जीवों के उदाहरण अमीबा, पैरामीशियम, लेशमैनिया आदि हैं।
द्विखंडन द्वारा प्रजनन करता अमीबा
- बहुविखंडन (Multiple Fission)
बहुविखंडन भी अलैंगिक प्रजनन की एक प्रक्रिया है, जिसमें जनक कोशिका कई नए जीवों के निर्माण के लिए विभाजित होती है। ऐसा तब होता है, जब एककोशिकीय जीव के आस–पास पुटी (Cyst) बन जाता है। इस पुटी (Cyst) के भीतर जीव का नाभिक कई छोटे नाभिकों में टूट जाता है। जब अनुकूल परिस्थिति बनती है, पुटी (Cyst) विभाजित होती है और उसके भीतर की कई संतति कोशिकाएं (Daughter Cells) मुक्त हो जाती हैं। प्लाज्मोडियम में बहुविखंडन की प्रक्रिया होती है।
बहुविखंडन द्वारा प्रजनन
मुकुलन
‘अंकुर (Bud)’ शब्द का अर्थ है-‘छोटा पौधा’। मुकुलन की प्रक्रिया में एक छोटा अंकुर जनक जीव के शरीर पर विकसित होता है और समय आने पर नए जीव के निर्माण के लिए खुद को जनक जीव से अलग कर लेता है। हाइड्रा और यीस्ट में मुकुलन होता है।
मुकुलन पद्धति से प्रजनन करता हाइड्रा
मुकुलन विधि से प्रजनन करता यीस्ट
बीजाणु निर्माण
बीजाणु (Spore) का निर्माण एककोशिकीय और बहुकोशिकीय, दोनों ही प्रकार के जीवों में होता है। यह प्रक्रिया पौधों में होती है। बीजाणु निर्माण में, जनक पौधा अपने बीजाणु पेटी (Spore Case) में सैंकड़ों प्रजनन इकाईयाँ पैदा करता है, जिन्हें ‘बीजाणु’ कहते हैं। जब पौधों की यह बीजाणु पेटी फटती है, तो ये बीजाणु हवा, जमीन, भोजन या मिट्टी पर बिखर जाते हैं। यहीं ये उगते हैं और नए पौधे को जन्म देते हैं।
राइजोप्स (Rhizopus), म्यूकर (Mucor) आदि जैसे कवक बीजाणु निर्माण के उदाहरण हैं।
यह सामान्य ब्रेड मोल्ड प्लांट (Common Bread Mould Plant) या राइजोप्स कवक है। यह बीजाणु निर्माण के जरिए प्रजनन करता है।
पुनर्जनन
पुनर्जनन प्रजनन की अलैंगिक विधि है। इस प्रक्रिया में, अगर जनक जीव का शरीर यदि कहीं से कट जाता है, तो कटा हुआ प्रत्येक हिस्सा पुनर्जनित हो जाता है और अपने शरीर के हिस्से से पूरी तरह से एक नया जीव बना लेता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब किसी जीव का शरीर पुनर्जनन से गुजरता है तो उसमें कटान होता है और फिर कटे हुए शरीर के हिस्से की कोशिकाएं तेजी से विभाजित हो जाती हैं और कोशिकाओं का गोलक (Ball) बना लेती हैं। ये कोशिकाएं इसके बाद अपने अंगों और शरीर के हिस्सों के निर्माण के लिए उचित स्थानों पर पहुँच जाती हैं। पुनर्जनन पौधों और जानवरों दोनों में होता है। हाइड्रा और प्लानेरिया (Planaria) में पुनर्जनन होता है।
प्लानेरिया में पुनर्जनन
खंडन
खंडन बहुकोशिकीय जीवों में होता है, चाहे वह पौधा हो या जानवर। इस प्रक्रिया में बहुकोशिकीय जीव परिपक्व होने पर दो या अधिक टुकड़ों में बंट जाते हैं। इसके बाद प्रत्येक टुकड़ा एक नए जीव के रूप में विकसित होता है। स्पायरोगायरा (Spirogyra), जो कि एक पौधा है और समुद्री एनीमोन (Sea Anemones), जो कि एक समुद्री जीव है, में खंडन की प्रक्रिया होती है।
स्पायरोगायरा, रेशे जैसा शैवाल, खंडन विधि से प्रजनन करता है।
कायिक प्रवर्धन
इस प्रकार का अलैंगिक प्रजनन सिर्फ पौधों में होता है। कायिक प्रवर्धन में, पुराने पौधों के हिस्से जैसे तना, जड़ और पत्ती का प्रयोग नए पौधे को उगाने में किया जाता है। पुराने पौधों में निष्क्रिय स्थिति में मौजूद अंकुर को जब अनुकूल स्थितियां जैसे नमी और ताप दिया जाता है, तब वे नए पौधों के रूप में उगने लगती हैं और विकसित होने लगती हैं।
हरी घास, ब्रायोफाइलम (Bryophyllum), मनीप्लांट, आलू, प्याज, केला आदि के पौधों में कायिक प्रवर्धन होता है।
आलू के कंद से आलू के पौधे का कायिक प्रवर्धन
ब्रायोफाइलम की पत्ती के किनारों से निकलता छोटा पौधा।
पौधों का कृत्रिम प्रवर्धन
जब मानव–निर्मित पद्धतियों का प्रयोग कर एक पौधे से कई नए पौधों को विकसित किया जाता है, तो उसे ‘कृत्रिम प्रवर्धन’ (Artificial Propagation) कहते हैं। पौधों के कृत्रिम प्रवर्धन की निम्नलिखित तीन सामान्य विधियाँ हैं –
- i) कलम लगाना (Cuttings)
- ii) लेयरिंग (Layering)
iii) ग्राफ्टिंग (Grafting)
कलम लगाना
पौधे के किसी भी छोटे हिस्से, जो तना या पत्ती कुछ भी हो सकता है और जिस पर अंकुर लगा हो, को काटकर तथा उसे मिट्टी और पानी की सुविधा देकर एक नया पौधा उगाया जाता है। कुछ दिनों के बाद आप नए पौधे को बढ़ता देख सकते हैं।
बोगनविलिया (bougainvillea), गुलदाउदी (chrysanthemum), अंगूर आदि के पेड़ कलम लगाकर उगाये जा सकते हैं।
कलम (कटिंग) विधि से पौधों को उगाना
लेयरिंग
लेयरिंग में जनक पौधे की शाखाओं को मिट्टी में इस प्रकार डाला जाता है कि उस शाखा का एक हिस्सा मिट्टी से बाहर की ओर निकल रहा हो। मिट्टी के भीतर वाली शाखा के हिस्से पर जब जड़े उग आती हैं तो उसे जनक पौधे से काट कर अलग कर लिया जाता है। इस प्रकार मिट्टी में दबी शाखा से नया पौधा उग जाता है।
चमेली, स्ट्रॉबेरी, रसभरी जैसे पौधों के लिए लेयरिंग विधि का प्रयोग किया जाता है।
लेयरिंग विधि द्वारा चमेली के पौधे का प्रवर्धन
ग्राफ्टिंग
ग्राफ्टिंग (grafting) में दो अलग–अलग पौधों के तने को काटा जाता है और इस प्रकार जोड़ा जाता है कि वे एक पौधे के रूप में विकसित हों। काटे गए दो तनों में से, एक तने में जड़ें होती हैं और इसे ‘स्टॉक’ (stock) कहा जाता है। दूसरा तना बिना जड़ों के काटा जाता है और इसे नवपल्लव (scion) कहा जाता है। स्टॉक पौधे का निचला हिस्सा होता है और नवपल्लव ऊपरी हिस्सा। दोनों तनों को तिरछे रूप में काटा जाता है।
नवपल्लव और स्टॉक की कटी हुई सतह को कपड़े के टुकड़े से एक साथ जोड़ा जाता है और बाँध दिया जाता है और फिर पॉलिथीन की शीट से ढँक दिया जाता है। यह तने को किसी भी प्रकार के संक्रमण या अन्य समस्याओं से बचाता है।
जल्द ही स्टॉक और नवपल्लव मिल जाते हैं और एक नया पौधा बनने लगा है। इस नए पौधे के फल में दोनों ही पौधों के गुण होते हैं। सेब, आड़ू, खुबानी आदि ग्राफ्ट किए गए फलों के उदाहरण हैं।
पौधों या वृक्षों के कृत्रिम प्रवर्धन की ग्राफ्टिंग विधि
कृत्रिम कायिक प्रवर्धन (Artificial Vegetative Propagation) के लाभ:
- नए पौधे में जनक पौधे के जैसे ही गुण होंगे।
- ग्राफ्टिंग द्वारा उगाए गए फलों के पौधों में फल बहुत पहले आने लगते हैं।
- आरंभिक वर्षों में पौधों पर कम ध्यान देने की जरूरत होती है।
- एक ही जनक से कई पौधे उगाए जा सकते हैं।
- बीजरहित पौधे भी प्राप्त कर सकते हैं।
17.आनुवांशिकी मानव के वंशानुगत गुणों को कैसे परिभाषित करती है?
माता–पिता से पीढ़ी–दर–पीढ़ी आसानी से संचरित होने वाले मौलिक गुण ‘आनुवांशिक गुण’ कहलाते हैं और आनुवांशिक गुणों के संचरण की प्रक्रिया एवं उसके कारणों का अध्ययन को ‘आनुवांशिकी’ कहा जाता है। ग्रेगर जॉन मेंडल को ‘आनुवांशिकी का जनक’ कहा जाता है। इन्होंने आनुवांशिकता और आनुवांशिक सिद्धांत का वैज्ञानिक अध्ययन किया था। उनके अध्ययन का तरीका बगीचे की मटर की विभिन्न प्रजातियों व स्पष्ट लक्षणों वाले विरोधी युग्मों के संकरण (Crossbreeding) पर आधारित था। उन्होंने अलगाव (Segregation), प्रभुत्व (Dominance) और स्वतंत्र वर्गीकरण (Independent Assortment) का सिद्धांत दिया, जो आनुवांशिकी के विज्ञान का मौलिक आधार बन गया। जीन (मेंडेल द्वारा दिया गया कारक) गुणसूत्र (Chromosome) का मुख्य घटक है, जो आनुवांशिक गुणों का वहन करता है।
मेंडल का प्रयोगः
मेंडल ने संकरण (Crossbreeding) के माध्यम से मटर के कई पौधों का अध्ययन किया और आनुवांशिकता के आधार पर एक व्यापक सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसे ‘मेंडल का वंशानुगत सिद्धांत’ (Mendel’s law of Inheritance) कहा जाता है। मेंडल ने बेतरतीब तरीके से मटर की प्रजातियों के सात जोड़ों को चुना। उन्होंने अपने प्रयोग में पाया कि एक जोड़े की आनुवांशिक विशेषता ने दूसरे जोड़े की आनुवांशिक विशेषता को दबा दिया था। पहले जोड़े को ‘प्रभावी’ (Dominant) कहा गया और इसे बड़े अक्षर में लिखा गया, जैसे-लंबाई के लिए ‘T’| दूसरे जोड़े को ‘अप्रभावी’ कहा गया और इसे छोटे अक्षर में लिखा गया, जैसे-बौनेपन के लिए ‘t’ | ये आनुवांशिक प्रतीक के रूप में आनुवांशिकता के लिए जिम्मेदार होते हैं।
गुण | प्रभावी गुण (प्रमुख गुण) | प्रभावी गुण (प्रमुख गुण) |
बीज का आकार
बीजपत्र का रंग फूल का रंग फल का आकार फल का रंग फूल की स्थिति पौधे की लंबाई या ऊँचाई |
गोलाकार चिकनी बीज
पीला लाल चिकना हरा बंद लंबा |
झुर्रियों वाला बीज1111111111111
हरा सफेद सिकुड़ा हुआ या झुर्रियों से भरा पीला सबसे दूर बौना |
मेंडल के अनुसार प्रत्येक प्रजनन कोशिका में एक ही वंशानुगत गुण को व्यक्त करने वाले दो कारक होते हैं, और जब ये दोनों कारक एक जैसे हों तो उसे ‘होमोजाइगोस’ (Homozygous) कहा जाता है लेकिन जब ये दोनों अलग– अलग होते हैं तो उसे ‘हेट्रोजाइगोस’ (Heterozygous)कहा जाता है। उन्होंने संकर प्रजातियों के वंशानुगत गुणों की पहचान के लिए अलग–अलग गुणों वाले एक या दो युग्मों की प्रजातियों का अध्ययन किया था। इसलिए, एक युग्म के संकर को ‘मोनोहाइब्रिड क्रॉस’ (Monohybrid Cross) और दो युग्म के संकर को ‘डाईहाइब्रिड क्रॉस’ (Dihybrid Cross) कहते हैं।
- मोनोहाइब्रिड क्रॉस और अलगाव का नियम
वंशानुक्रम एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आनुवांशिक रूप से नियंत्रित गुणों का संचरण है। यहाँ हम एक गुण या लक्षण, जैसे-पौधे की ऊँचाई, के बारे में चर्चा करेंगें।
(i) मेंडल ने पहले शुद्ध–नस्ल वाले लंबे मटर के पौधों के साथ शुद्ध–नस्ल वाले बौने मटर के पौधों का संकरण कराया और पाया कि पहली पीढ़ी या F1 में सिर्फ लंबे पौधे ही पैदा हुए। पहले वंश में एक भी बौना पौधा नहीं पाया गया।
(ii) इसके बाद मेंडल ने F1 पीढ़ी के मटर के लंबे पौधों का संकरण कराया और पाया कि दूसरी पीढ़ी यानि F2 में लंबे और बौने दोनों ही प्रकार के पौधे 3:1 के अनुपात में हैं।
3:1 का अनुपात ‘मोनोहाइब्रिड अनुपात’ कहलाता है, यानि 3 लंबे और 1 बौना।
मेंडल के वंशानुक्रम के पहले नियम के अनुसार, किसी भी जीव के गुणों का निर्धारण उन आंतरिक कारकों के द्वारा होता है, जो युग्मों में पाये जाते हैं| एक युग्मक (Single Gamete) में किसी युग्म का सिर्फ एक ही कारक मौजूद हो सकता है।
2. डाईहाइब्रिड क्रॉस और स्वतंत्र वर्गीकरण का नियम
इसमें मेंडल द्वारा चुने गए विपरीत गुणों के दो युग्मों का वंशानुक्रम शामिल है| ये विपरीत गुण थे– आकार और बीज का रंग यानि गोल–पीले बीज और झुर्रीदार–हरे बीज।
(i) उन्होंने पहले गोल–पीले बीजों वाले शुद्ध–नस्ल के मटर के पौधों को झुर्रीदार–हरे बीज वाले शुद्ध–नस्ल के मटर के पौधों के साथ संकरण कराया और पाया कि F1 पीढ़ी में सिर्फ गोल–पीले बीज ही उत्पादित हुए। एक भी झुर्रीदार-हरे बीज नहीं प्राप्त हुए।
(ii) जब स्व–परागण द्वारा गोल–पीले बीज वाली F1 पीढ़ी का संकरण हुआ तब F2 पीढ़ी में अलग–अलग आकार और रंग वाले चार प्रकार के बीज प्राप्त हुए। इसे नीचे तालिका में दिखाया गया है।
F2 पीढ़ी में बीजों के प्रत्येक फीनोटाइप (phenotype) का अनुपात 9:3:3:1 है। यह डाईहाइब्रिड अनुपात कहलाता है।
मेंडल के वंशानुक्रम के दूसरे नियम के अनुसारः जब वंशानुक्रम में एक ही समय पर में गुणों के एक से अधिक युग्मों का संकरण हो,तो गुणों के प्रत्येक युग्म के लिए जिम्मेदार कारक युग्मक में स्वतंत्र रूप से वितरित होते हैं।
संतान में गुण या लक्षण कैसे प्रेषित होते हैं?
यौन प्रजनन की प्रक्रिया के दौरान गुणसूत्रों पर उपस्थित जीन के माध्यम से माता–पिता के गुण या लक्षण उनकी संतान में प्रेषित होते हैं। चूँकि जीन युग्म में काम करते हैं (एक प्रभावी और दूसरा अप्रभावी) और माता व पिता प्रत्येक के गुणसूत्रों के युग्म पर प्रत्येक गुण के लिए जीनों का एक युग्म उपस्थित होता है। इसलिए, नर और मादा युग्मक माता–पिता के जीन युग्मों से प्रत्येक गुण के लिए एक जीन धारण करता है। लेकिन जब निषेचन के दौरान नर और मादा युग्मक मिलते हैं तो युग्मनज (zygote) बनता है, जो नए जीव के रूप में वृद्धि करता है और विकिसत होता है। इसमें माता और पिता दोनों के गुण होते हैं, जो जीन के माध्यम से संचरित होते हैं।
कृपया ध्यान दें: हालांकि संतान अपने माता–पिता से दो जीन या जीन का एक युग्म प्राप्त करती है लेकिन विरासत में मिले दोनों जीनों में से जो जीन प्रमुख होगा, उसी के लक्षण संतान में दिखेंगे।
जीन वंशानुगत गुणों या लक्षणों को कैसे नियंत्रित करते हैं?
जीन गुणसूत्र पर डीएनए का खंड होता है, जो जीव के विशेष लक्षण को नियंत्रित करने के लिए प्रोटीन के निर्माण को कोड (code) करता है। मान लीजिए कि एक पौधे की संतान में ‘लंबाई’ कहे जाने वाले गुण के लिए जीन है। अब, लंबाई के लिए जीन पौधे की कोशिकाओं को पौधे को बढ़ाने वाले ढेर सारे हार्मोन बनाने का निर्देश देगा और इस कारण पौधा बहुत अधिक बढ़ जाएगा और लंबा हो जाएगा | अगर पौधे में बौनेपन के लिए जिम्मेदार जीन हो, तो पौधे के विकास के लिए जिम्मेदार हार्मोन कम उत्पादित होगा और पौधा छोटा और बौना रह जाएगा। पौधों की तरह ही पशुओं में यौन प्रजनन की प्रक्रिया द्वारा जीनों के माध्यम से माता–पिता से गुण उनके बच्चों में संचरित होते हैं।
संतान में रक्त समूह का निर्धारण कैसे होता है?
एक व्यक्ति में चार रक्त समूह होते हैः ‘A’, ‘B’, ‘AB’ या ‘O’। यह रक्त समूह एक जीन द्वारा नियंत्रित होता है, जिसके तीन अलग–अलग रूप होते हैं और इन्हें IA, IB, IO प्रतीक द्वारा चिन्हित किया जाता है। IA और IB जीन एक दूसरे पर कोई प्रभुत्व नहीं दिखाते। इसलिए, ये सह–प्रभावी (co-dominant) होते हैं। हालांकि, जीन IA और IB दोनों ही जीन IO पर प्रभावी होते हैं। दूसरे शब्दों में रक्त जीन IO जीन IA और IB के संबंध में अप्रभावी होता है।
हालांकि रक्त के लिए जीन के तीन रूप (जिन्हें ‘एलील’- alleles कहते हैं) होते हैं लेकिन किसी भी व्यक्ति में इनमें से केवल दो हो सकते हैं। इसलिए, किसी व्यक्ति का रक्त समूह जीन के कौन से दो रूप उसमें मौजूद हैं, पर निर्भर करता है।
(i) अगर जीनोटाइप (जीन संयोजन) IA IA है, तो व्यक्ति का रक्त समूह ‘A’ होगा और अगर जीनोटाइप IA IO हो, तब भी व्यक्ति का रक्त समूह ‘A’ होगा ( क्योंकि IO गौण जीन है)।
(ii) अगर जीनोटाइप (genotype) (जीन संयोजन) IB IB है, तो व्यक्ति का रक्त समूह ‘B’ होगा और अगर जीनोटाइप IB IO तब भी व्यक्ति का रक्त समूह ‘B’ होगा ( क्योंकि IO गौण जीन है)।
(iii) अगर जीनोटाइप IA IB है, तो व्यक्ति का रक्त समूह ‘AB’ होगा।
(iv) अगर जीनोटाइप IO IO है, तो व्यक्ति का रक्त समूह ‘O’ होगा।
18.भिन्न प्रकार के रोग एवं उनके लक्षण
बैक्टीरिया से होने वाले रोग
रोग का नाम | रोगाणु का नाम | प्रभावित अंग | लक्षण |
हैजा | बिबियो कोलेरी | पाचन तंत्र | उल्टी व दस्त, शरीर में ऐंठन एवं डिहाइड्रेशन |
टी. बी. | माइक्रोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस | फेफड़े | खांसी, बुखार, छाती में दर्द, मुँह से रक्त आना |
कुकुरखांसी | वैसिलम परटूसिस | फेफड़ा | बार-बार खांसी का आना |
न्यूमोनिया | डिप्लोकोकस न्यूमोनियाई | फेफड़े | छाती में दर्द, सांस लेने में परेशानी |
ब्रोंकाइटिस | जीवाणु | श्वसन तंत्र | छाती में दर्द, सांस लेने में परेशानी |
प्लूरिसी | जीवाणु | फेफड़े | छाती में दर्द, बुखार, सांस लेने में परेशानी |
प्लेग | पास्चुरेला पेस्टिस | लिम्फ गंथियां | शरीर में दर्द एवं तेज बुखार, आँखों का लाल होना तथा गिल्टी का निकलना |
डिप्थीरिया | कोर्नी वैक्ट्रियम | गला | गलशोथ, श्वांस लेने में दिक्कत |
कोढ़ | माइक्रोबैक्टीरियम लेप्र | तंत्रिका तंत्र | अंगुलियों का कट-कट कर गिरना, शरीर पर दाग |
टाइफायड | टाइफी सालमोनेल | आंत | बुखार का तीव्र गति से चढऩा, पेट में दिक्कत और बदहजमी |
टिटेनस | क्लोस्टेडियम टिटोनाई | मेरुरज्जु | मांसपेशियों में संकुचन एवं शरीर का बेडौल होना |
सुजाक | नाइजेरिया गोनोरी | प्रजनन अंग | जेनिटल ट्रैक्ट में शोथ एवं घाव, मूत्र त्याग में परेशानी |
सिफलिस | ट्रिपोनेमा पैडेडम | प्रजनन अंग | जेनिटल ट्रैक्ट में शोथ एवं घाव, मूत्र त्याग में परेशानी |
मेनिनजाइटिस | ट्रिपोनेमा पैडेडम | मस्तिष्क | सरदर्द, बुखार, उल्टी एवं बेहोशी |
इंफ्लूएंजा | फिफर्स वैसिलस | श्वसन तंत्र | नाक से पानी आना, सिरदर्द, आँखों में दर्द |
ट्रैकोमा | बैक्टीरिया | आँख | सरदर्द, आँख दर्द |
राइनाटिस | एलजेनटस | नाक | नाक का बंद होना, सरदर्द |
स्कारलेट ज्वर | बैक्टीरिया | श्वसन तंत्र | बुखार |
वायरस से होने वाले रोग
रोग का नाम | प्रभावित अंग | लक्षण |
गलसुआ | पेरोटिड लार ग्रन्थियां | लार ग्रन्थियों में सूजन, अग्न्याशय, अण्डाशय और वृषण में सूजन, बुखार, सिरदर्द। इस रोग से बांझपन होने का खतरा रहता है। |
फ्लू या एंफ्लूएंजा | श्वसन तंत्र | बुखार, शरीर में पीड़ा, सिरदर्द, जुकाम, खांसी |
रेबीज या हाइड्रोफोबिया | तंत्रिका तंत्र | बुखार, शरीर में पीड़ा, पानी से भय, मांसपेशियों तथा श्वसन तंत्र में लकवा, बेहोशी, बेचैनी। यह एक घातक रोग है। |
खसरा | पूरा शरीर | बुखार, पीड़ा, पूरे शरीर में खुजली, आँखों में जलन, आँख और नाक से द्रव का बहना |
चेचक | पूरा शरीर विशेष रूप से चेहरा व हाथ-पैर | बुखार, पीड़ा, जलन व बेचैनी, पूरे शरीर में फफोले |
पोलियो | तंत्रिका तंत्र | मांसपेशियों के संकुचन में अवरोध तथा हाथ-पैर में लकवा |
हार्पीज | त्वचा, श्लष्मकला | त्वचा में जलन, बेचैनी, शरीर पर फोड़े |
इन्सेफलाइटिस | तंत्रिका तंत्र | बुखार, बेचैनी, दृष्टि दोष, अनिद्रा, बेहोशी। यह एक घातक रोग है |
प्रमुख अंत: स्रावी ग्रंथियां एवं उनके कार्ये
ग्रन्थि का नाम | हार्मोन्स का नाम | कार्य |
पिट्यूटरी ग्लैंड या पियूष ग्रन्थि | सोमैटोट्रॉपिक हार्मोन थाइरोट्रॉपिक हार्मोन एडिनोकार्टिको ट्रॉपिक हार्मोन फॉलिकल उत्तेजक हार्मोन ल्यूटिनाइजिंग हार्मोन एण्डीड्यूरेटिक हार्मोन |
कोशिकाओं की वृद्धि का नियंत्रण करता है। थायराइड ग्रन्थि के स्राव का नियंत्रण करता है। एड्रीनल ग्रन्थि के प्रान्तस्थ भाग के स्राव का नियंत्रण करता है। नर के वृषण में शुक्राणु जनन एवं मादा के अण्डाशय में फॉलिकल की वृद्धि का नियंत्रण करता है। कॉर्पस ल्यूटियम का निर्माण, वृषण से एस्ट्रोजेन एवं अण्डाशय से प्रोस्टेजन के स्राव हेतु अंतराल कोशिकाओं का उद्दीपन शरीर में जल संतुलन अर्थात वृक्क द्वारा मूत्र की मात्रा का नियंत्रण करता है। |
थायराइड ग्रन्थि | थाइरॉक्सिन हार्मोन | वृद्धि तथा उपापचय की गति को नियंत्रित करता है। |
पैराथायरायड ग्रन्थि | पैराथायरड हार्मोन कैल्शिटोनिन हार्मोन |
रक्त में कैल्शियम की कमी होने से यह स्रावित होता है। यह शरीर में कैल्शियम फास्फोरस की आपूर्ति को नियंत्रित करता है। रक्त में कैल्शियम अधिक होने से यह मुक्त होता है। |
एड्रिनल ग्रन्थि · कॉर्टेक्स ग्रन्थि· मेडुला ग्रन्थि |
ग्लूकोर्टिक्वायड हार्मोन मिनरलोकोर्टिक्वायड्स हार्मोन एपीनेफ्रीन हार्मोन नोरएपीनेफ्रीन हार्मोन |
कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं वसा उपापचय का नियंत्रण करता है। वृक्क नलिकाओं द्वारा लवण का पुन: अवशोषण एवं शरीर में जल संतुलन करता है। ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है। ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है। |
अग्नाशय की लैगरहेंस की | इंसुलिन हार्मोन | रक्त में शुगर की मात्रा को नियंत्रित करता है। |
द्विपिका ग्रन्थि | ग्लूकागॉन हार्मोन | रक्त में शुगर की मात्रा को नियंत्रित करता है। |
अण्डाशय ग्रन्थि | एस्ट्रोजेन हार्मोन प्रोजेस्टेरॉन हार्मोन रिलैक्सिन हार्मोन |
मादा अंग में परिवद्र्धन को नियंत्रित करता है। स्तन वृद्धि, गर्भाशय एवं प्रसव में होने वाले परिवर्तनों को नियंत्रित करता है। प्रसव के समय होने वाले परिवर्तनों को नियंत्रित करता है। |
वृषण ग्रन्थि | टेस्टेरॉन हार्मोन | नर अंग में परिवद्र्धन एवं यौन आचरण को नियंत्रित करता है। |
विटामिन की कमी से होने वाले रोग
विटामिन | रोग | स्रोत |
विटामिन ए | रतौंधी, सांस की नली में परत पडऩा | मक्खन, घी, अण्डा एवं गाजर |
विटामिन बी1 | बेरी-बेरी | दाल खाद्यान्न, अण्डा व खमीर |
विटामिन बी2 | डर्मेटाइटिस, आँत का अल्सर,जीभ में छाले पडऩा | पत्तीदार सब्जियाँ, माँस, दूध, अण्डा |
विटामिन बी3 | चर्म रोग व मुँह में छाले पड़ जाना | खमीर, अण्डा, मांस, बीजवाली सब्जियाँ, हरी सब्जियाँ आदि |
विटामिन बी6 | चर्म रेग | दूध, अंडे की जर्दी, मटन आदि |
- औषधियाँ
औषधियाँ रोगों के इलाज में काम आती हैं। प्रारंभ में औषधियाँ पेड़-पौधों, जीव जंतुओं से प्राप्त की जाती थीं, लेकिन जैसे-जैसे रसायन विज्ञान का विस्तार होता गया, नए-नए तत्वों की खोज हुई तथा उनसे नई-नई औषधियाँ कृत्रिम विधि से तैयार की गईं।
औषधियों के प्रकार (Kinds of drugs)
- अंत:स्रावी औषधियाँ (Endrocine Drugs)– ये औषधियाँ मानव शरीर मे प्राकृतिक हारमोनों के कम या ज्यादा उत्पादन को संतुलित करती हैं। उदाहरण- इंसुलिन का प्रयोग डायबिटीज़ के इलाज के लिए किया जाता है।
- एंटीइंफेक्टिव औषधियाँ (Anti-Infective Drugs)– एंटी-इंफेक्टिव औषधियों को एंटी-बैक्टीरियल, एंटी वायरल अथवा एंटीफंगल के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। इनका वर्गीकरण रोगजनक सूक्ष्मजीवियों के प्रकार पर निर्भर करता है। ये औषधियाँ सूक्ष्मजीवियों की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप करके उन्हें समाप्त कर देती हैं जबकि मानव शरीर इनसे अप्रभावित रहता है।
- एंटीबायोटिक्स (Antibiotics)– एंटीबायोटिक्स औषधियाँ अत्यन्त छोटे सूक्ष्मजीवियों, मोल्ड्स, फन्जाई (fungi) आदि से बनाई जाती हैं। पेनिसिलीन, ट्रेटासाइक्लिन, सेफोलोस्प्रिन्स, स्ट्रेप्टोमाइसिन, जेन्टामाइसिन आदि प्रमुख एंटीबायोटिक औषधियाँ हैं।
- एंटी–वायरल औषधियाँ (Anti-Virul Drugs)– ये औषधियाँ मेहमान कोशिकाओं में वायरस के प्रवेश को रोककर उसके जीवन चक्र को प्रभावित करती हैं। ये औषधियाँ अधिकांशता रोगों को दबाती ही हैं। एड्स संक्रमण के मामलों में अभी तक किसी भी प्रभावी औषधि का निर्माण संभव नहीं हो सका है।
- वैक्सीन (Vaccine)– वैक्सीन का प्रयोग कनफेड़ा (Mumps), छोटी माता, पोलियो और इंफ्लूएंजा जैसे रोगों में, एंटी-वायरल औषधि के रूप में किया जाता है। वैक्सीनों का निर्माण जीवित अथवा मृत वायरसों से किया जाता है। प्रयोग के पूर्व इनका तनुकरण किया जाता है। वैक्सीन के शरीर में प्रवेश से मानव इम्यून प्रणाली का उद्दीपन होता है जिससे एंडीबॉडीज़ का निर्माण होता है। ये एंटीबॉडीज़ शरीर को समान प्रकार के वायरस के संक्रमण से बचाती हैं।
- एंटी–फंगल औषधियाँ (Anti-fungal Drugs)– एंटी फंगल औषधियाँ कोशिका भित्ति में फेरबदल करके फंगल कोशिकाओं को चुनकर नष्टï कर देती हैं। कोशिका के जीव पदार्थ का स्राव हो जाता है और वह मृत हो जाती है।
- कार्डियोवैस्कुलर औषधियाँ– ये औषधियाँ हृदय और रक्त वाहिकाओं को प्रभावित करती हैं। इनका वर्गीकरण उनकी क्रिया के आधार पर किया जाता है। एंटीहाइपरटेन्सिव औषधियाँ रक्त वाहिकाओं को फैलाकर रक्तचाप पैदा कर देती हैं। इस तरह से संवहन प्रणाली में हृदय से पंप करके भेजे गए रक्त की मात्रा कम हो जाती है। एंटीआरिदमिक औषधियाँ (Antiaryrrythmic drugs) हृदय स्पंदनों को नियमित करके हृदयाघात से मानव शरीर को बचाती हैं।
रक्त को प्रभावित करने वाली औषधियाँ
- एंटी–एनीमिक औषधियाँ (Antianemic drugs)जिनमें कुछ विटामिन अथवा आइरन शामिल हैं, लाल रक्त कणिकाओं के निर्माण को बढ़ावा देती हैं।
- एंटीकोएगुलेंट औषधियाँ (Anticoagulants drugs)– हेपारिन जैसी औषधियाँ रक्त जमने की प्रक्रिया को घटाकर रक्त संचरण को सुचारू करती हैं।
- थ्रॉम्बोलिटिक औषधियाँ (Thrombolytics drugs)– ये औषधियाँ रक्त के थक्कों को घोल देती हैं जिनसे रक्त वाहिकाओं को जाम होने का खतरा होता है। रक्त वाहिकाओं में ब्लॉकेड की वजह से हृदय व मस्तिष्क को रक्त व ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं हो पाती है।
केंद्रीय स्नायु तंत्र की औषधियाँ (Central Nervous System Drugs) –
ये वे औषधियाँ हैं जो मेरूदण्ड और मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं। इनका प्रयोग तंत्रिकीय और मानसिक रोगों के इलाज में किया जाता है। उदाहरण के लिए एंटी-एपीलेप्टिक औषधियाँ (antiepilyptic drugs) मष्तिष्क के अतिउत्तेजित क्षेत्रों की गतिविधियों को कम करके मिर्गी के दौरों को समाप्त कर देती हैं। एंटी-साइकोटिक औषधियाँ (anti-pcychotic drugs) सीजोफ्रेनिया (schizophrenia) जैसे मानसिक रोगों के इलाज मेंं काम आती हैं। एंटी-डिप्रेसेंट औषधियाँ (anti-depressent drugs) मानसिक अवसाद की स्थिति को समाप्त करती हैं।
एंटीकैंसर औषधियाँ (Anticancer Drugs)–
ये औषधियाँ कुछ कैंसरों को अथवा उनकी तीव्र वृद्धि और फैलाव को रोकती हैं। ये औषधियाँ सभी कैंसरों के लिए कारगर नहीं होती हैं। पित्त की थैली, मस्तिष्क, लिवर अथवा हड्डïी इत्यादि के कैंसरों के लिए अलग-अलग औषधियाँ होती हैं। ये औषधियाँ कुछ विशेष तंतुओं अथवा अंगों के लिए विशिष्टï होती हैं। एंटी कैंसर औषधियाँ विशेष कैंसर कोशिकाओं में हस्तक्षेप करके अपना कार्य अंजाम देती हैं।