नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2015 में बलात्कार के कुल 10,854 मामले दर्ज हुए जबकि 2016 में यह आंकड़ा 19,765 हो गया। असल समस्या है थाने से ही मामला बिगाड़ दिया जाना और अदालत में मुकदमा खड़ा ही न हो पाना। शहरों में तो रेप की शिकायत दर्ज भी हो जाती है, कस्बों और गांवों में तो उलटे शिकायत दर्ज कराने वाले ही गंभीर मुश्किलों में पड़ जाते हैं। जैसे-तैसे मामला अदालत तक पहुंच जाए तो वहां किस्मत वाले ही दोषियों को सजा दिलाने में कामयाब हो पाते हैं। बलात्कार के मामलों में सजा दिए जाने की दर अभी करीब 24 फीसदी है जबकि बच्चियों के मामले में तो यह मात्र 20 फीसदी है। अपराधियों में खौफ न पैदा होने का यही मुख्य कारण है। अगर मौजूदा कानूनों के तहत ही हर अभियुक्त को सजा मिलती तो हालात इतने ज्यादा नहीं बिगड़ते। अब फांसी के प्रावधान के बाद यह आशंका बढ़ गई है कि मामले दर्ज ही न कराए जाएं, क्योंकि रेप के 95 फीसदी मामलों में परिवार के सदस्य ही दोषी होते हैं। पीड़िताओं की हत्या के मामले भी इससे बढ़ सकते हैं। बहरहाल, अभी तो सरकारें किसी तरह सजा की दर बढ़ाकर दिखाएं।
फांसी से क्या होगा (Editorial page) 25th April 2018
By: D.K Chaudhary
ऐसे मामलों से निपटने के लिए नई त्वरित अदालतें गठित की जाएंगी और सभी पुलिस थानों और अस्पतालों को बलात्कार के मामलों की जांच के लिए विशेष फ़रेंसिक किट उपलब्ध कराई जाएंगी। 16 साल से कम उम्र की लड़कियों के बलात्कार मामले में न्यूनतम सजा 10 साल से बढ़ाकर 20 साल की गई है और अपराध की प्रवृत्ति के आधार पर इसे बढ़ाकर आजीवन कारावास भी किया जा सकता है। कठुआ में एक बच्ची के साथ रेप और उसकी हत्या के बाद देश भर में फैले आक्रोश को शांत करने के लिए सरकार यह अध्यादेश लाई है, लेकिन विडंबना यह है कि आज भी बलात्कार की समस्या पर गंभीरता से विचार नहीं किया जा रहा। सत्तारूढ़ राजनेताओं और कई बुद्धिजीवियों को भी लगता है कि कानून सख्त बना देने से संकट खत्म हो जाएगा। जबकि सचाई इसके विपरीत है। निर्भया कांड के बाद सरकार ने बलात्कार संबंधी कानूनी प्रावधानों को बेहद कठोर कर दिया, लेकिन रेप और महिलाओं के प्रति किए जाने वाले अन्य अपराध कम होने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं।