के खिलाफ उपजे हालात पर राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रहीं हैं
इससे खराब बात और कोई नहीं हो सकती कि सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों की ओर से मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस करने से उपजे हालात को राजनीतिक दल अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश करें, लेकिन दुर्भाग्य से कई राजनीतिक दल ठीक ऐसा ही कर रहे हैैं। जब राजनीतिक दलों से यह अपेक्षित था कि वह इस मामले पर सोच-समझ कर बोलें तब वे न केवल ठीक इसके उलट आचरण कर रहे हैैं, बल्कि राजनीतिक रोटियां भी सेंकते नजर आ रहे हैैं। इसकी शुरुआत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी राजा ने तभी कर दी थी जब वह प्रेस कांफ्रेंस करने वाले न्यायाधीशों में से एक से मुलाकात करने उनके घर चले गए थे। हालांकि वह यह साफ नहीं कर सके कि उन्हें ऐसे मौके पर न्यायाधीश के घर जाने की क्या आवश्यकता थी, लेकिन फिर भी वह किंतु-परंतु के साथ अपने कदम को सही ठहराते रहे। जब यह माना जा रहा था कि डी राजा के आचरण से अन्य राजनेता सबक सीखेंगे तब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को प्रेस कांफ्रेंस करना जरूरी लगा? इस प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने जो कुछ कहा उससे यही साफ हुआ कि उनका एकमात्र मकसद चार न्यायाधीशों की इस बात को तूल देना था कि लोकतंत्र खतरे में है। इसी दौरान उन्होंने जस्टिस लोया की मौत से जुड़े विवाद पर यह कहा कि सुप्रीम कोर्ट को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस मामले को वरिष्ठ न्यायाधीशों को सौंपा जाए। अब क्या राजनेता सर्वोच्च न्यायालय को बताएंगे कि किस मामले की सुनवाई किसे करनी चाहिए? अगर ऐसा होने लगा तो फिर न्यायपालिका की उस स्वायत्तता और स्वतंत्रता का क्या होगा, जिसके लिए राहुल गांधी कथित तौर पर चिंतित हो रहे थे?
क्या यह अजीब नहीं कि एक ओर यह कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीश बराबर हैैं और दूसरी ओर कांग्रेस इस जरूरत को रेखांकित कर रही कि उन मामलों की सुनवाई वरिष्ठ न्यायाधीशों को करनी चाहिए जिनका समाज और देश पर गहरा असर होता है। आखिर ऐसे मामलों का निर्धारण कैसे होगा? क्या कांग्रेस ने यह तय कर लिया है कि कार्ति चिदंबरम अथवा नेशनल हेराल्ड मामले की सुनवाई किसे करनी चाहिए? क्या उसके पास यह जानने का कोई पैमाना है कि किन मामलों का समाज और देश पर कितना असर पड़ता है? क्या कांग्रेस के नेताओं को यह स्मरण है कि बहुत दिन नहीं हुए जब कांग्रेसी सांसद नेशनल हेराल्ड मामले को लेकर संसद के भीतर-बाहर यह प्रचारित करने में लगे हुए थे कि अदालतें सरकार के इशारे पर फैसले दे रही हैैं? कांग्रेस को यह आभास हो जाए तो बेहतर कि उसने सुप्रीम कोर्ट के मसले पर राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश करके किसी का भला नहीं किया। यह शायद कांग्रेसी नेताओं की अनावश्यक सक्रियता का ही परिणाम रहा कि कुछ अन्य नेता इस मसले के बहाने सरकार से अपना हिसाब चुकता करने में व्यस्त हो गए। क्या सुप्रीम कोर्ट को लेकर शुरू हुई गैर जरूरी राजनीतिक बयानबाजी से प्रेस कांफ्रेंस करने वाले न्यायाधीशों को यह समझ आएगा कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक समस्या को बाहर लाकर एक और समस्या खड़ी कर दी है?