By: D.K Chaudhary
इससे लेन-देन को लेकर बैंकों की अंदरूनी निगरानी प्रक्रिया मजबूत होगी। देखना है, बैंकों के आला अधिकारी इस समस्या से निपटने के लिए अपनी तरफ से क्या कदम उठाते हैं। एक बात तो तय है कि सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय के बूते इस बीमारी का इलाज संभव नहीं। ये एजेंसियां बाकी मामलों में किस तरह से काम कर रही हैं, यह जगजाहिर है। समाधान ऐसा ढूंढना होगा कि जालसाजी की भनक शुरुआत में ही मिल सके और एनपीए का ढेर लगने से पहले उसे रोका जा सके। दरअसल बैंकों की यह हालत काफी कुछ राजनीति के कारण हुई है। बड़े स्तर पर एनपीए की बीमारी 2009 के आसपास शुरू हुई, जब मंदी से मुकाबले के नाम पर बड़े उद्योगपतियों ने भारी-भरकम कर्ज लिए, लेकिन इसका कोई उत्पादक इस्तेमाल नहीं कर सके। उत्पादन बढ़ाने के वायदे और कर्जखोरी के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींची जानी चाहिए थी, जो नहीं खींची जा सकी।
इस तरह कुछेक उद्योगपतियों के लिए बैंक दुधारू गाय बन गए। जब जिसके मनमाफिक सरकार रही उसने उतना ज्यादा दुहा, और यह सिलसिला आज भी रुका नहीं है। इस दौरान बैंक अपने ही नियमों को लागू करने में असमर्थ रहे और जब-तब उनके अफसरों ने भी बहती गंगा में हाथ धोए। दरअसल बैंकों में भी एक दोहरी व्यवस्था चल रही है। उद्योगपतियों के लिए बैंक कुछ और हैं, साधारण लोगों के लिए कुछ और। आखिर वजह क्या है जो सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के कहने के बावजूद सभी डिफॉल्टरों के नाम उजागर नहीं किए? सुधार किए जाएं, पर उससे पहले बैंकों में राजनीतिक दखल बंद हो।