सुधार की कवायद (Editorial page) 06th March 2018

By: D.K Chaudhary

लगातार बैंकिंग घोटालों से परेशान सरकार ने बैंकों में सुधार के लिए कुछ कदम उठाए हैं। वित्त मंत्रालय ने मंगलवार को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को 50 करोड़ रुपये से अधिक के सारे एनपीए खातों की जांच करने और उनमें किसी तरह की गड़बड़ी मिलने पर इसकी सूचना सीबीआई को देने का निर्देश दिया है। साथ ही पीएमएलए, फेमा और अन्य प्रावधानों के उल्लंघन की जांच के लिए उन्हें प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और राजस्व आसूचना निदेशालय (डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस) के साथ मिलकर चलने को कहा है। तमाम बैंकों को परिचालन और तकनीकी जोखिमों से निपटने के लिए 15 दिनों के भीतर एक पुख्ता व्यवस्था तैयार करने के निर्देश भी दिए गए हैं। वित्तीय सेवा विभाग के सचिव राजीव कुमार ने कहा कि बैंकों के कार्यकारी निदेशकों और मुख्य तकनीकी अधिकारियों को जोखिम से निपटने के लिए अपनी तैयारियों को व्यवस्थित करने के मकसद से एक कार्ययोजना तैयार करने के लिए कहा गया है। उधर रिजर्व बैंक ने सभी बैंकों को 30 अप्रैल तक स्विफ्ट प्रणाली को कोर बैंकिंग प्रणाली के साथ जोड़ने का निर्देश दिया है।

इससे लेन-देन को लेकर बैंकों की अंदरूनी निगरानी प्रक्रिया मजबूत होगी। देखना है, बैंकों के आला अधिकारी इस समस्या से निपटने के लिए अपनी तरफ से क्या कदम उठाते हैं। एक बात तो तय है कि सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय के बूते इस बीमारी का इलाज संभव नहीं। ये एजेंसियां बाकी मामलों में किस तरह से काम कर रही हैं, यह जगजाहिर है। समाधान ऐसा ढूंढना होगा कि जालसाजी की भनक शुरुआत में ही मिल सके और एनपीए का ढेर लगने से पहले उसे रोका जा सके। दरअसल बैंकों की यह हालत काफी कुछ राजनीति के कारण हुई है। बड़े स्तर पर एनपीए की बीमारी 2009 के आसपास शुरू हुई, जब मंदी से मुकाबले के नाम पर बड़े उद्योगपतियों ने भारी-भरकम कर्ज लिए, लेकिन इसका कोई उत्पादक इस्तेमाल नहीं कर सके। उत्पादन बढ़ाने के वायदे और कर्जखोरी के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींची जानी चाहिए थी, जो नहीं खींची जा सकी।

इस तरह कुछेक उद्योगपतियों के लिए बैंक दुधारू गाय बन गए। जब जिसके मनमाफिक सरकार रही उसने उतना ज्यादा दुहा, और यह सिलसिला आज भी रुका नहीं है। इस दौरान बैंक अपने ही नियमों को लागू करने में असमर्थ रहे और जब-तब उनके अफसरों ने भी बहती गंगा में हाथ धोए। दरअसल बैंकों में भी एक दोहरी व्यवस्था चल रही है। उद्योगपतियों के लिए बैंक कुछ और हैं, साधारण लोगों के लिए कुछ और। आखिर वजह क्या है जो सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के कहने के बावजूद सभी डिफॉल्टरों के नाम उजागर नहीं किए? सुधार किए जाएं, पर उससे पहले बैंकों में राजनीतिक दखल बंद हो।

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