सवालों में जवाब Editorial page 05th July 2018

By: D.K Chaudhary
मीडिया से सीधे बात न करने के आरोप को नकारते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले छह महीनों में दो लंबे इंटरव्यू दिए हैं। पहले एक न्यूज चैनल को, और अभी एक पत्रिका को। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि दोनों ही साक्षात्कारों में रोजगार से जुड़े सवालों पर प्रधानमंत्री के जवाब सबसे ज्यादा चर्चा में रहे। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री रोजगार के मसले पर अपना पक्ष स्पष्ट करने की जरूरत काफी शिद्दत से महसूस कर रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान हर साल दो करोड़ रोजगार देने के उनके वादे ने युवा वोटरों का सबसे ज्यादा ध्यान खींचा था। इस वादे पर वे कितने खरे उतर पाए, दूसरे शब्दों में कहें तो रोजगार के मोर्चे पर उनसे की गई अपेक्षाएं किस हद तक पूरी हुईं, इस सवाल का सामना देर-सबेर उन्हें करना ही है। 

जाहिर है कि प्रधानमंत्री चाहते हैं, आम लोग विरोधियों की बातों में आएं, उससे पहले ही अपना पक्ष उन तक मजबूती से पहुंचा दिया जाए। इस संबंध में जो बात थोड़ी अटपटी लगती है, वह यह कि रोजगार से जुड़े सवालों का जवाब उन्होंने दोनों बार कुछ और सवालों से ही देना ठीक समझा। मसलन, टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने रोजगार संबंधी सवाल पर कहा, ‘अगर कोई दिन भर ठेले पर पकौड़ा बेचकर शाम को 200 रुपये घर ले जाता है तो उसे रोजगार मानेंगे या नहीं मानेंगे?’ इसी तरह ताजा इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने कर्नाटक और पश्चिम बंगाल की विपक्षी सरकारों द्वारा दिए गए आंकड़ों का हवाला देते हुए पूछा कि, ‘क्या यह संभव है कि राज्य सरकारें तो रोजगार सृजित करती रहें और केंद्र सरकार रोजगारहीन विकास करें?’ 

फिर उन्होंने कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ) के आंकड़े बताए, गरीबी कम होने संबंधी एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट का जिक्र किया, और फिर एक सवाल कि यह सब क्या रोजगारहीन विकास से संभव है? सबसे बड़ी बात हालिया इंटरव्यू में उन्होंने यह कही कि असल समस्या रोजगार की कमी नहीं, इससे संबंधित आंकड़ों की कमी है। इसमें कोई शक नहीं कि भारत में अमेरिका, जापान और यूरोपीय देशों की तरह रोजगार के सटीक आंकड़े रखने की ठोस व्यवस्था अब तक नहीं बनाई जा सकी है। लेकिन अगर प्रधानमंत्री मोदी को लगता है कि यह समस्या भारत में रोजगार की कमी से भी ज्यादा बड़ी है तो पिछले चार वर्षों के अपने कार्यकाल में आंकड़े जुटाने की फूलप्रूफ व्यवस्था उन्हें बनानी चाहिए थी। एक बात तो तय है कि ईपीएफ के आंकड़े या मुद्रा योजना के तहत बांटे गए कर्जों की संख्या से देश में रोजगार की स्थिति को लेकर कोई साफ खाका नहीं बनाया जा सकता। लगभग सारे अर्थशास्त्री इस बात को लेकर सहमत हैं कि नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद कम से कम नौकरियों के मोर्चे पर कोई खुशहाली नहीं आई है। आंकड़े अपनी जगह, लेकिन सरकार को अपने बाकी कार्यकाल में इस मोर्चे पर मेहनत करनी होगी। 

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