सवालों भरा फैसला (Editorial Page) 21st Nov 2017

By: D.K Chaudhary

सुप्रीम कोर्ट का यह कहना था कि न्यायाधीशों के खिलाफ आरोपों के कारण संस्था के सम्मान को ठेस पहुंची है।

मेडिकल कॉलेजों को राहत देने के लिए न्यायाधीशों को कथित तौर पर रिश्वत देने संबंधी मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट भले ही इस नतीजे पर पहुंचा हो कि इस मसले की जांच विशेष जांच दल से कराने की जरूरत नहीं है, लेकिन इस पर संदेह है कि इसी के साथ इस प्रकरण का पटाक्षेप हो जाएगा। यह तय है कि इस फैसले की अपनी-अपनी तरह से व्याख्या होगी और इस क्रम में यह प्रश्न अनुत्तरित बना रह सकता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट संदेह का निवारण करने में समर्थ रहा? यह सही है कि इस मामले में कहीं कोई ऐसी एफआइआर नहीं हुई जिसमें सुप्रीम कोर्ट के किसी जज का नाम हो, लेकिन इसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि ओडिशा उच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश की गिरफ्तारी इसी संदेह में की गई कि वह अपनी पहुंच और प्रभाव के चलते सुप्रीम कोर्ट से उन मेडिकल कॉलेजों के पक्ष में फैसला कराने की कोशिश कर रहे थे जिन्हें दो साल के लिए दाखिला लेने के अयोग्य करार दिया गया है। क्या ओडिशा उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त जज की ऐसी कोशिश और इसी के चलते उनकी गिरफ्तारी संदेह नहीं पैदा करती? क्या इस संदेह के दायरे में सुप्रीम कोर्ट के जज नहीं आते? 

अच्छा होता कि न्यायपालिका की साख को प्रभावित करने वाले इस मसले में दूध का दूध और पानी का पानी होते हुए दिखता, क्योंकि खुद सुप्रीम कोर्ट का यह कहना था कि न्यायाधीशों के खिलाफ आरोपों के कारण संस्था के सम्मान को ठेस पहुंची है। और यदि सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि न्यायाधीशों के खिलाफ आधारहीन आरोप लगाकर सर्वोच्च न्यायिक संस्था को अकारण संदेह के घेरे में खड़ा किया गया तो फिर उसने ऐसा करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की? आखिर जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले को उठाने वाले वकीलों के आचरण को अनुचित पाया और उन्हें मनचाहा फैसला हासिल करने की कोशिश करते हुए भी देखा तो फिर उसने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने की जरूरत क्यों नहीं समझी? क्या इससे गंभीर बात और कोई हो सकती है कि याचिकाकर्ता वांछित फैसला पाने की कोशिश में लिप्त दिखें और फिर भी उन्हें केवल फटकार लगाकर बख्श दिया जाए? इसमें संदेह है कि ऐसे याचिकाकर्ताओं को बख्श देने से बार और बेंच के संबंध मधुर बने रह सकते हैैं? दरअसल इस नाजुक मसले ने इस पुराने सवाल को फिर से सतह पर लाने का काम किया है कि न्यायाधीशों के मामले की सही तरह जांच-पड़ताल कैसे हो? ऐसी कोई जांच-पड़ताल तो तभी विश्वसनीय हो सकती है जब उसमें उनकी कोई भूमिका न हो जो खुद सवालों और संशय के घेरे में हों। यह सही समय है कि सर्वोच्च न्यायालय ऐसी कोई व्यवस्था निर्मित करने की दिशा में आगे बढ़े जो न्यायाधीशों पर लगे आरोपों की सही तरह जांच कर सके। ऐसी व्यवस्था का निर्माण करके ही सर्वोच्च न्यायालय अपनी संवैधानिक और साथ ही नैतिक सत्ता को अक्षुण्ण बनाए रख सकता है। एक ऐसे समय जब हर क्षेत्र में सुधार हो रहे हैैं तब न्यायपालिका का सुधारों से अछूता रहना खुद इस संस्था के हित में नहीं

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