इस तरह ऐथलेटिक्स में यह मिथक टूट गया है कि भारतीयों की मनो-दैहिक संरचना ही विश्वस्तरीय ऐथलेटिक्स के अनुरूप नहीं है। आज तक हम ओलिंपिक में अंतिम दौर में पहुंचकर ही खुशी मनाते रहे हैं। यूं तो भारतीय ओलिंपिक संघ की स्थापना 1923 में हुई, लेकिन मानव जाति की शारीरिक सीमाओं की कसौटी समझे जानेवाले इस क्षेत्र में पहली उल्लेखनीय उपलब्धि 1960 के रोम ओलिंपिक में मिली, जब मिल्खा सिंह ने 400 मीटर दौड़ में चौथे स्थान पर रहकर 45.6 सेकंड का कीर्तिमान बनाया, जो इस स्पर्द्धा में 38 वर्षों तक सर्वश्रेष्ठ भारतीय समय बना रहा। चार वर्ष बाद टोक्यो में गुरबचन सिंह रंधावा 110 मीटर बाधा दौड़ में पांचवें स्थान पर रहे। 1976 में मांट्रियल में श्रीराम सिंह 800 मीटर दौड़ के अंतिम दौर में पहुंचे, जबकि शिवनाथ सिंह मैराथन में 11वें स्थान पर रहे। 1980 में मॉस्को में पी.टी. उषा का आगमन हुआ जो 1984 के लॉस एंजिल्स ओलिंपिक में महिलाओं की 400 मीटर बाधा दौड़ में चौथे स्थान पर रहीं।
एशियाई खेलों में कुछ ऐथलीटिक स्वर्ण जरूर हमारे हाथ लगे। 1951 में प्रथम एशियाई खेलों में लेवी पिंटो ने 100 व 200 मीटर, दोनों दौड़ें जीतीं। मनीला में दूसरे एशियाई खेलों में सरवन सिंह ने 110 मीटर बाधा दौड़ जीती। 1958 में टोक्यो में मिल्खा सिंह ने अपने पदार्पण के साथ ही 200 व 400 मीटर में विजय प्राप्त की। 1970 में बैंकाक में कमलजीत संधू 400 मीटर स्पर्द्धा में पहला स्थान प्राप्त कर एथलेटिक्स में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं। थाईलैंड में 1978 में गीता जुत्शी ने 800 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। ऐथलेटिक्स को लेकर देश में कभी ढंग का माहौल नहीं बन पाया। प्रतिभावान खिलाड़ियों को औसत दर्जे की ट्रेनिंग के साथ शुरुआत करनी पड़ी। खेल संघ को मिलनेवाली राशि का सही इस्तेमाल भी नहीं होता था। इन गलतियों से हमें जल्दी उबरना होगा और इसकी पहली आजमाइश 2020 के टोक्यो ओलिंपिक में हिमा दास के साथ ही करनी होगी।