समाज पर उनकी कितनी पैनी नजर है, यह सुप्रीम कोर्ट की स्पष्ट राय के बावजदू पद्मावत के बहाने चल रहे वितंडे पर उनकी असहमति के रूप में दर्ज होता है, जब वह किसी अन्य नागरिक की गरिमा और निजी भावना का उपहास किए बिना इतिहास की किसी घटना के बारे में किसी अन्य के नजरिये से असहमत हो सकने की बात करते हुए समाज में भाईचारे की बात कह जाते हैं व भारतीय संस्कृति के उस मूल समावेशी चरित्र की याद दिला जाते हैं, जो असहमतियों में उदारता की बात करती है। संयोग नहीं हो सकता कि स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर न्यू इंडिया की बात करते राष्ट्रपति नागरिकों से कानून का पालने करने वाला समाज बनाने की बात करते हैं और गणतंत्र दिवस आते-आते उसकी फिर से याद दिला जाते हैं।
युवाओं से उनकी उम्मीद के भी बडे़ अर्थ हैं। वह देश की सारी उम्मीदों का दारोमदार इसी युवा आबादी पर डालते हैं और नवोन्मेष की ओर उत्साह से देखते हैं। उनकी आश्वस्ति कि राष्ट्र का निर्माण और उसे दिशा देने का काम नवोन्मेषी युवा ही कर सकते हैं, नई पीढ़ी में जोश भरने वाला है। राष्ट्रपति की चिंता में हर वह बात दिखाई पड़ती है, जो आज हर खासो-आम की चिंता में शामिल है। वह शिक्षा प्रणाली में रट करके याद करने और सुनाने की बजाय बच्चों को सोचने और प्रयोगधर्मी बनाने के लिए पे्ररित करने की बात करते हैं, तो समझ लेना चाहिए कि उनकी नजर असली नब्ज पर है और वह महज सैद्धांतिक या बड़ी-बड़ी बातें कहकर निकल नहीं जाना चाहते। दरअसल रामनाथ कोविंद समाज के जिस तबके से आते हैं और उनका जीवन जितना सादा और सीधा रहा है, उन्होंने हर उस पीड़ा को करीब से महसूस किया है, ऐसे में समाज की असली नब्ज पर उनका ध्यान जाना स्वाभाविक भी है, और अपेक्षित भी। शिक्षा के बनावटी होते जाने के दौर में यह एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप भी है। यह संबोधन इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है और इसके संदेश दूरगामी असर वाले हैं। यह सिर्फ अकादमिक बातें नहीं करता, वरन हकीकत की जमीन पर बहुत बारीक नजर रखते हुए कानून के शासन, भाईचारा, बेटियों को शिक्षा के साथ समावेशी विकास की बात करता है। राष्ट्रपति बेटियों को बेटों से अलग या बेहतर नहीं, बेटों जैसी ही शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं देने की बात करते हैं, यानी बेटियों को बराबरी का दर्जा देने की बात कर वह स्पष्ट कर देते हैं कि बेटियों को कमतर नहीं समझा जाए। यह सब होगा, नवोन्मेष की नई जमीन तभी तैयार हो सकेगी।