सरकार संसद के शीतकालीन सत्र से बच रही है, विपक्ष ने ये इल्जाम मढ़ा। इसे बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश भी की गई। पिछले दिनों कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी ने शीतकालीन सत्र बुलाने में हो रही देर को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार पर कड़ा हमला बोला। कहा कि सरकार अपने संवैधानिक उत्तरदायित्व से मुकर रही है। हालांकि संसद में शोरगुल के विपक्ष के रिकॉर्ड का उल्लेख करते हुए भारतीय जनता पार्टी ने ऐसे आरोपों का तुरंत जवाब दे दिया, इसके बावजूद वांछित यही था कि सत्र की तारीख पर यथाशीघ्र फैसला लिया जाता।
संतोषजनक है कि केंद्र ने ऐसा करने में देर नहीं लगाई। इससे उसके इरादों पर उठाए जा रहे तमाम प्रश्न खुद अप्रासंगिक हो गए हैं। इससे ऐसी तमाम चर्चाएं निराधार साबित हुई हैं कि सरकार संसद का सामना करने से बचना चाहती है। यह ठीक है कि संसद का शीतकालीन सत्र सामान्यत: नवंबर के तीसरे हफ्ते में शुरू होता है। लेकिन पहले भी असामान्य परिस्थितियों या सियासी तकाजों के मुताबिक संसदीय सत्र के समय में बदलाव होता रहा है। इस वक्त सारे देश का ध्यान गुजरात चुनाव पर लगा है। भाजपा और कांग्रेस के प्रमुख नेता वहां चुनाव प्रचार में जुटे हैं। इस बीच संसद का सत्र आयोजित करना महज रस्मअदायगी होता। जबकि अब संसद उस समय बैठेगी, जब गुजरात में मतदान पूरा हो चुका होगा। जाहिर है, तब पक्ष और विपक्ष के नेता संसदीय कार्यों पर अपना ध्यान केंद्रित करने की बेहतर स्थिति में होंगे। ये बात बेमतलब है कि गुजरात चुनाव से पहले संसद बैठती, तो विपक्ष सरकार की कथित विफलताओं का पर्दाफाश करता, जिसका असर गुजरात के मतदाताओं पर पड़ता। प्रदेशों के चुनावों में मतदाता वहां के मुद्दों पर मतदान करते हैं।
दरअसल, यह सोचना ही अयथार्थपूर्ण है कि संसदीय वाद-विवाद से राज्यों के चुनाव नतीजे प्रभावित हो सकते हैं। संसद की कार्यप्रणाली और उसकी भूमिका को भारतीय जनता भलीभांति समझती है। अत: शीतकालीन सत्र बुलाने में हुई देर के पीछे बदनीयती ढूंढना एक अकारण प्रयास था। केंद्र सरकार के ताजा फैसले के मुताबिक 15 दिसंबर 2017 से पांच जनवरी 2018 तक अगले सत्र में कुल 14 दिन संसद बैठेगी। कांग्रेस ने कहा था कि वह अर्थव्यवस्था से लेकर कई दूसरे क्षेत्रों में सरकार की कथित नाकामियों और सत्ताधारी दल के नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के कथित आरोपों पर बहस करना चाहती है। तो अब दिसंबर के मध्य से उसके पास ऐसा करने का पर्याप्त अवसर होगा।
सवाल है कि क्या विपक्षी दल ये वादा करेंगे कि अगले सत्र में हंगामा करने के बजाय स्वस्थ संसदीय परंपरा का अनुपालन करते हुए वे बहस और प्रश्न पूछने तक अपने को सीमित रखेंगे? क्या बड़े विपक्षी नेता यह आश्वासन देंगे कि सत्र के दौरान वे पूरे समय सदन में उपस्थित रहकर जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाएंगे? गौरतलब कि लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों से जिम्मेदारीपूर्ण आचरण की अपेक्षा रहती है। सत्र बुलाकर सरकार ने उसके इरादों पर उठाए गए भ्रमों को छांट दिया है। अब कसौटी पर विपक्ष है