By: D.K Chaudhary
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ इस बात पर विचार कर रही है कि व्यभिचार या विवाहेतर संबंधों के मामलों में क्या पुरुष और स्त्री,
दोनों को अपराधी मानना चाहिए। अभी आईपीसी की धारा 497 के मुताबिक, ऐसा अपराध साबित होने पर केवल पुरुषों को दंडित
किया जा सकता है। अदालत इस कानून से जुड़े तमाम पहलुओं पर विचार करने के बाद उपयुक्त फैसला करेगी, मगर इस बीच
यह देखना दिलचस्प है कि विवाहेतर संबंधों को लेकर सरकार से समाज तक कैसी-कैसी धारणाएं प्रचलित हैं। सबसे पहले तो यही
कि सरकार ने इस मामले में जो हलफनामा अदालत में पेश किया है, उसमें व्यभिचार को दंडनीय अपराध बनाए रखने की गुजारिश
की गई है।
इस दलील के साथ कि अगर इससे संबंधित कानून को हल्का बना दिया गया तो विवाह की पवित्रता प्रभावित होगी और विवाह संस्था
को नुकसान पहुंचेगा। सरकार की इस चिंता को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया जाए तो इसका मतलब यह निकलता है कि अपने देश
में शादियां पति-पत्नी के आपसी प्रेम और विश्वास की बदौलत नहीं, बल्कि कानून के खौफ से टिकी हुई हैं। इधर कानून का डर गया,
उधर तमाम पत्नियां व पति पराए पुरुषों या स्त्रियों से विवाहेतर संबंध बनाना शुरू कर देंगे। हजारों साल से चली आ रही संस्कृति और
विवाह की पवित्रता के सवाल अपनी जगह हैं, पर विवाह अगर सचमुच सिर्फ कानून के डर से चल रहे हैं तो फिर हम इन्हें आखिर कब
तक बचा पाएंगे, और बचाकर भी क्या तीर मार लेंगे?
बहरहाल, सरकार जो भी कहे, सच यही है कि हमारे यहां परिवार अगर आज भी समाज की बुनियादी इकाई बना हुआ है तो इसके पीछे
बहरहाल, सरकार जो भी कहे, सच यही है कि हमारे यहां परिवार अगर आज भी समाज की बुनियादी इकाई बना हुआ है तो इसके पीछे
कानून के डर से ज्यादा सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारक हैं, और इनसे भी बढ़कर हमारी भावनात्मक प्राथमिकताएं हैं। बावजूद
इसके, विवाहेतर संबंध बाकी दुनिया की तरह हमारे यहां भी बनते हैं। ये रेप और धोखाधड़ी के दायरे में नहीं आते और आमतौर पर इनमें
स्त्री-पुरुष दोनों की सहभागिता होती है। कुछ समाजों में इन्हें अपराध माना जाता है, कुछ में नहीं माना जाता, लेकिन हम अगर इन्हें अपराध
ही मानें तो भी बिना इरादे की पड़ताल किए पुरुष को इसकी एकतरफा सजा देना प्राकृतिक न्याय के खिलाफ है।