By: D.K Chaudhary
कर्नाटक में ढाई दिन सरकार चलाने के बाद बीएस येदियुरप्पा ने विधानसभा में शक्ति परीक्षण से पहले ही जब इस्तीफा दे दिया, तो यह तभी साफ था कि अब जनता दल-सेकुलर के नेता एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। राजनीति के समीकरण और अंकगणित सब उनके पक्ष में थे, इसलिए यह तो होना ही था। यही वजह है कि बुधवार को जब वह मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने बेंगलुरु के विधान सौध पहुंचे, तो उनका शपथ ग्रहण समारोह बड़ी खबर नहीं था। वहां सबसे बड़ी खबर थी, देश भर के विपक्षी नेताओं का एकजुट होना। जहां एक तरफ कांग्रेस नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी वहां मौजूद थे, तो वहीं दूसरी ओर ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और अरविंद केजरीवाल जैसे मुख्यमंत्री भी वहां थे। अखिलेश यादव, मायावती, तेजस्वी यादव, सीताराम येचुरी, डी राजा और अजित सिंह जैसे ऐसे नेता भी इस अवसर की शोभा बढ़ा रहे थे, जिनका जनाधार कुछ जगहों पर बाजी पलटने की क्षमता रखता है। पूरे देश के तमाम गैर-भाजपा नेताओं के एक जगह जमा होने से विपक्षी एकता की बड़ी उम्मीद अभी तत्काल भले न बने, लेकिन इस मजमे ने यह तो बताया ही कि देश के विभिन्न दलों में नए ध्रुवीकरण या नए समीकरण बनाने की बेचैनी अब बढ़ने लगी है। हालांकि यह भी तय है कि आगे के रास्ते उतने आसान नहीं होंगे, जितनी कि बेंगलुरु में जमा हुए नेताओं के चेहरों की मुस्कान है।
अगले आम चुनाव के पहले राष्ट्रीय स्तर पर कोई ऐसा नया ध्रुवीकरण उभर आएगा, जो भारतीय जनता पार्टी को बराबरी के साथ चुनौती दे सके, इसकी संभावनाएं अभी भी बहुत ज्यादा नहीं हैं। लेकिन बेंगलुरु के मजमे ने यह तो बताया ही है कि विभिन्न दलों के नेता अपनी पुरानी जिद छोड़कर यथार्थ को स्वीकार करने की ओर बढ़ रहे हैं। क्या कुछ समय पहले तक यह सोचा जा सकता था कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एक ऐसे मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में जाएंगे, जिसकी सरकार पूरी तरह से कांग्रेस के आसरे पर ही टिकी हुई है? इसी तरह कुछ समय पहले तक यह कल्पना भी आसान नहीं थी कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और माकपा नेता सीताराम येचुरी एक ही मंच पर दिखाई देंगे। बेंगलुरु में बुधवार को जो नेता जमा हुए, उनके बीच ऐसे ढेर सारे अंतर्विरोध ढूंढ़े जा सकते हैं, लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से उत्तर प्रदेश में सपा के अखिलेश यादव और बसपा की मायावती एक साथ आए, उससे यह तो कहा ही जा सकता है कि कम से कम कुछ नेताओं को अपनी पुरानी जिद छोड़ना फिलहाल जरूरी लग रहा है।
अगले आम चुनाव के समीकरणों को लेकर अभी से कोई उम्मीद बांधना बहुत जल्दबाजी होगी। आम चुनाव अभी लगभग एक साल दूर है और बेंगलुरु में जिस तरह के नेता और दल जमा हुए हैं, उनके बारे में यह माना जाता है कि वे साल भर तक अलग भले ही रह जाएं, लेकिन छह महीने तक वे एक साथ नहीं रह सकते। यह भी ध्यान रखना होगा कि वे साथ रहें या अलग-अलग, उनका मुकाबला प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की उस जोड़ी से होना है, जिसे चुनाव जीतने की सबसे अच्छी मशीनरी कहा जाता है। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है कि विपक्ष के आंगन में बहुत दिन बाद कोई खुशी का मौका आया है। ऐसे मौकों पर भविष्य की उम्मीदें तो बांधी ही जाती हैं।