विकास की कीमत Editorial page 25th July 2018

By: D.K Chaudhary
जीएफएन अपनी सालाना रिपोर्ट के जरिए बताता है कि पृथ्वी हर साल अपने संसाधनों का कितना हिस्सा पुनर्निर्मित कर सकती है और इंसान उसकी इस क्षमता से कितने ज्यादा संसाधन हर साल खपा देता है। यह सिलसिला शुरू हुआ 70 के दशक से। उसके बाद कुछेक अपवादों को छोड़कर साल-दर साल उल्लंघन का दायरा बढ़ता ही गया है। 

20 साल पहले हाल यह था कि साल भर के संसाधनों का कोटा 30 सितंबर तक पूरा हो जाता था। इस तारीख को ओवरशूट डे कहा गया। दस साल में यह तारीख खिसक कर 15 अगस्त तक आ गई। इस साल यह पिछले साल के मुकाबले दो दिन और पीछे खिसक कर 1 अगस्त हो गई है। यानी साल के बचे हुए 5 महीने जो संसाधन खपेंगे, वह भविष्य से लिया जाने वाला कर्ज हैं। 

कहने की जरूरत नहीं कि भविष्य की कीमत पर वर्तमान को चकाचक बनाए रखने की यह प्रवृत्ति सर्वनाश के पल को तेजी से करीब लाती जा रही है। अच्छी बात यही है कि यह प्रक्रिया अभी बेकाबू नहीं हुई है। सचेत प्रयासों के जरिये इसे पलटा जा सकता है। 

चूंकि संसाधनों की यह खपत सीधे तौर पर विकास की हमारी गति से जुड़ी है, इसलिए ज्यों ही विकास की रफ्तार किसी वजह से धीमी पड़ती है, इस मोर्चे पर राहत मिलने लगती है। 2007-08 की मंदी ने ओवरशूट डे को पांच दिन आगे धकेल दिया था। पर किस देश की कौन सी सरकार हमारे परिवहश को बचाने के लिए मंदी को आमंत्रित करना चाहेगी/ कोई नहीं। 

रोजी-रोजगार, काम-धंधा, विकास तो हर किसी को चाहिए। लेकिन क्यों न सरकारें जीडीपी नापते समय यह भी दर्ज करना शुरू करें कि उसकी वह रफ्तार संसाधनों की कितनी बर्बादी की कीमत पर हासिल हुई है। कम से कम हमारी सरकारों को और हमें जानकारी तो रहेगी कि विकास की चाह में हम बर्बादी को किस कदर अपने करीब लाते जा रहे हैं। 

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