By: D.K Chaudhary
केंद्र सरकार लोकपाल के मामले में यह दलील देती रही कि चूंकि लोकसभा में कोई मान्यता-प्राप्त नेता-प्रतिपक्ष नहीं है, इसलिए चयन प्रक्रिया की शर्त पूरी नहीं हो पा रही है। लेकिन अगर वह चाहती तो लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता की राय लेकर प्रक्रिया कब की पूरी कर सकती थी।
केंद्र सरकार लोकपाल के मामले में यह दलील देती रही कि चूंकि लोकसभा में कोई मान्यता-प्राप्त नेता-प्रतिपक्ष नहीं है, इसलिए चयन प्रक्रिया की शर्त पूरी नहीं हो पा रही है। लेकिन अगर वह चाहती तो लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता की राय लेकर प्रक्रिया कब की पूरी कर सकती थी। हाल में जब सर्वोच्च अदालत की फटकार लगी तब उसे इसके लिए राजी होना पड़ा। बहरहाल, जिन राज्यों में लोकायुक्त नहीं हैं वहां उनकी नियुक्ति जल्द से जल्द होनी चाहिए। लेकिन क्या उनमें और बाकी राज्यों में कोई खास फर्क नजर आता है? इसका जवाब उत्साहजनक नहीं है। इसकी वजह यही है कि जहां लोकायुक्त हैं भी, उनकी शक्तियां और संसाधन बहुत सीमित हैं। उनके पास कोई स्वतंत्र जांच एजेंसी नहीं है। जांच के लिए उन्हें संबंधित राज्य सरकार का मुंह जोहना पड़ता है। अगर सबूत ही नहीं जुटेंगे तो शिकायत को कार्रवाई के अंजाम तक ले जाना कैसे संभव होगा? लिहाजा, आश्चर्य नहीं कि लोकायुक्तों की भूमिका अमूमन सिफारिशी होकर रह गई है।
मंत्रियों और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के मामलों में जांच और आगे की कार्रवाई के लिए एक स्वतंत्र संस्था के तौर पर लोकपाल और लोकायुक्त की अवधारणा 1966 में प्रशासनिक सुधार आयोग की अंतरिम रिपोर्ट से सामने आई थी। इसके बाद, लोकायुक्त कानून लाने वाला महाराष्ट्र पहला राज्य बना। फिर धीरे-धीरे कई और राज्यों ने भी इस तरह के कानून बनाए। लेकिन सबने अपनी सहूलियत का खयाल रखा- नियुक्ति की प्रक्रिया से लेकर संसाधन तक, लोकायुक्त की संस्था को अपने ऊपर निर्भर बनाए रखा। अलबत्ता कर्नाटक में सख्त लोकायुक्त कानून बना, और इससे क्या लाभ हुआ इसका सबसे बड़ा प्रमाण खनन घोटाले में हुई जांच और कार्रवाई में दिखा। बहरहाल, क्या विडंबना है कि अण्णा हजारे को एक बार फिर अनशन पर बैठने की जरूरत महसूस हुई है, इस बार कानून बनवाने के लिए, कानून को लागू कराने के लिए!