By: D.K Chaudhary
सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता अगर इसी तरह बरकरार रही, तो जल्द ही देश को उसका पहला लोकपाल मिल जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा है कि वह एक हलफनामा देकर यह बताए कि लोकपाल की नियुक्ति कब तक हो जाएगी? कार्यपालिका के ऊंचे स्तरों पर भ्रष्टाचार को रोकने के लिए लोकपाल की निुयक्ति की जो अवधारणा 1963 में दी गई थी, वह साढे़ छह दशक बीतने के बाद भी अभी तक साकार नहीं हो सकी है। यह भी सच है कि इसकी राह इतनी आसान नहीं थी, और लोकपाल हकीकत की तरफ बढ़ता हुआ कदम नहीं, बल्कि एक नारा और एक मुद्दा था। जो विपक्षी दल लोकपाल की बात करते थे, वे भी जब सत्ता में आए, तो उन्होंने कुछ नहीं किया।
कई सारी समितियां बनीं, ढेर सारे सुझाव आए, इसके तमाम विधेयक भी तैयार हुए, उनकी खामियों पर ढेर सारी चर्चाएं भी हुईं, विधेयक संसद में पेश भी हुए, मगर बात कभी आगे बढ़ी नहीं। बात का बढ़ना तभी शुरू हुआ, जब गांधीवादी नेता अन्ना हजारे ने इस मसले को उठाया और देश में एक आंदोलन जैसा माहौल बना। इस माहौल के बनने का एक बड़ा कारण यह भी था कि उन दिनों भ्रष्टाचार के कई बडे़ और बहुत बडे़ मामले एक के बाद एक उजागर हुए, जिसकी वजह से लोगों के मन में गुस्सा था और अन्ना हजारे ने इसी गुस्से को एक आकार दे दिया था। इसके बाद सरकार और तकरीबन सभी दल एक ठीक-ठाक लोकपाल विधेयक पर सहमत हुए। यह विधेयक न सिर्फ संसद में पेश हुआ, बल्कि दिन-रात एक करके तमाम संशोधनों के साथ 2013 में फटाफट पारित भी हुआ। 2014 शुरू होते ही राष्ट्रपति ने इस पर दस्तखत भी कर दिए और देश को पहला लोकपाल कानून मिला। हालांकि चार साल बीत गए और देश अभी भी लोकपाल की नियुक्ति का इंंतजार कर रहा है।
यहां हम चाहें, तो पहले की तमाम सरकारों की तरह ही इस सरकार को भी दोष दे सकते हैं कि उसने लोकपाल मसले पर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, वह भी तब, जब इसका कानून बन चुका था और लोकपाल की नियुक्ति उसकी जिम्मेदारी थी। लेकिन इसके लिए सरकार का जो तर्क है, उस पर भी हमें गौर करना होगा। लोकपाल की नियुक्ति की जो प्रक्रिया है, उसमें लोकसभा में विपक्ष के नेता को भी शामिल किया जाना है। 2014 के आम चुनाव के बाद लोकसभा का जो गणित बना है, उसमें किसी भी दल के पास विपक्षी दल की हैसियत नहीं है। विपक्षी दल नहीं है, इसलिए विपक्ष का नेता भी नहीं है। मामला सुप्रीम कोर्ट के पास पहुंचा, तो उसने कहा कि नियुक्ति को सिर्फ विपक्ष का नेता न होने के कारण नहीं रोका जा सकता, इसलिए इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए। उसके बाद भी प्रगति धीमी थी, इसलिए अदालत ने अब समयबद्ध प्रगति और इस बाबत हलफनामे की बात की है।
यह अच्छी बात है कि लोकपाल की नियुक्ति का काम उस समय होने जा रहा है, जब भ्रष्टाचार के बड़े मसले पहले की तरह से राष्ट्रीय विमर्श में नहीं हैं। विजय माल्या या नीरव मोदी जैसे कुछ उदाहरण जरूर दिए जा सकते हैं, लेकिन ये ऐसे मामले हैं, जिनसे मौजूदा कानूनी व्यवस्थाओं से ही निपटा जा सकता है। आज के माहौल में अगर देश को लोकपाल जैसी सदृढ़ व्यवस्था मिलती है, तो इससे उच्च स्तर पर ऐसे मामलों में कमी भले ही शुरू में न दिखे, लेकिन वे बढें़गे नहीं।