By: D.K Chaudhary
मामले को अंत में शायद यहीं पहुंचना था। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह कहा है कि सिनेमाघरों में राष्ट्रगान को बजाया जाना अनिवार्य नहीं होना चाहिए और देश की सर्वोच्च अदालत ने भी इस समझदारी भरी सलाह को स्वीकार कर लिया है। और इसके बाद अब यह भी मान लेना चाहिए कि पिछले कुछ महीनों से चल रहे उस विवाद का भी निपटारा हो गया है, जो सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के बाद हुआ था, जिसमें कहा गया था कि देश भर के सिनेमाघरों में हर शो से पहले राष्ट्रगान अनिवार्य रूप से बजाया जाना चाहिए। इतना ही नहीं, अदालत ने यह भी कहा था कि इस दौरान सिनेमाघर के दरवाजे बंद रहेंगे और वहां मौजूद हर व्यक्ति सावधान की मुद्रा में खड़ा होगा। इस फैसले की चौतरफा आलोचना तो हुई ही, इसके साथ ही कई तरह के विवाद भी खडे़ होने लग गए। गोवा के एक सिनेमाघर में सलिल चतुर्वेदी नाम के एक शख्स को कुछ लोगों ने सिर्फ इसलिए पीट दिया कि वह शो से पहले राष्ट्रगान के समय खडे़ नहीं हुए थे। सलिल विकलांग हैं और वह व्हील चेयर पर बैठकर ही सिनेमाघर पहुंचे थे। इसी तरह, मुंबई में भी एक वृद्ध पर राष्ट्रगान के दौरान न खडे़ होने पर हमला बोला गया। हालांकि अदालत ने बाद में विकलांग और वृद्ध लोगों के लिए खडे़ होने की अनिवार्यता खत्म कर दी थी, लेकिन इन घटनाओं ने यह तो बता ही दिया कि कुछ लोग देशभक्ति के नाम पर कानून को अपने हाथों में लेने का काम भी कर सकते हैं। देश भर के सिनेमाघर अचानक ही देशभक्ति के परीक्षण की प्रयोगशाला बनते दिखाई देने लगे थे। हालांकि ये तमाम घटनाएं बाद की बात हैं, फैसले की आलोचना तो तुरंत बाद ही शुरू हो गई थी।
इस फैसले को न्यायालय की अति-सक्रियता का मामला बताया गया था। यह भी कहा गया कि ऐसा करते हुए अदालत अपने दायरे से बाहर चली गई है। सर्वोच्च न्यायालय का काम संविधान और कानून की व्याख्या करना है, कानून बनाना नहीं है, जबकि इस मामले में उसने देश को एक कानून दे दिया था। संविधान के हिसाब से राष्ट्रगान के समय सावधान की मुद्रा में खडे़ होना हर नागरिक का दायित्व है, यानी यह ऐसा मामला है, जिसमें सजा का कोई प्रावधान नहीं है। सर्वोच्च अदालत के पुराने ऐसे कई फैसले हैं, जिसमें उसने राष्ट्रगान के समय न खडे़ होने को गलत नहीं माना है। इस लिहाज से भी श्याम नारायण चौकसे की याचिका पर न्यायालय के दो सदस्यीय खंडपीठ के फैसले को हैरत से देखा जा रहा था। याचिका दायर करने वाले का तर्क था कि सिनेमाघर में राष्ट्रगान बजाकर लोगों में देशभक्ति की भावना को बढ़ाया जा सकता है। लेकिन सभी शायद इससे सहमत नहीं होंगे। राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज आदि ऐसे प्रतीक हैं, जिनमें हम अपनी राष्ट्रीय पहचान और अपने राष्ट्रीय गर्व को व्यक्त करते हैं। यह एक सहज भाव है, जो बिना किसी अनिवार्यता के ज्यादातर लोगों में आ जाता है। अनिवार्य बनाने से यह भावना बढ़ जाएगी ऐसा कोई प्रमाण नहीं है।’
दुनिया के प्राय: हर देश में ऐसे कुछ लोग हमेशा रहे हैं, जिनमें राष्ट्रभक्ति की भावना बढ़ाने के लिए प्रतीकों का कड़ाई से सम्मान कराना जरूरी होता है। लेकिन न तो आधुनिक मनोविज्ञान ही इसे मानता है, और न ही दुनिया भर के आधुनिक और परिपक्व लोकतंत्र ही इस पर विश्वास करते हैं। यह भी माना जाता है कि ऐसी सख्ती का अंत में गलत किस्म के तत्व ही फायदा उठाते हैं। भारत जिस तरह का देश है, उसमें व्यवस्था के सभी अंगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे परिपक्व ढंग से व्यवहार करें और बेवजह भावनात्मक गुबार में न उलझें। अच्छी बात यह है कि सरकार और न्यायपालिका, दोनों ही इस नतीजे पर पहुंचे हैं।