राजनीति में हिंसक भाषा (Editorial page) 29th April 2018

By: D.K Chaudhary
 राजनेताओं की लगातार जहरीली होती भाषा देश के लिए चिंता का विषय है। 58 सांसदों और विधायकों ने बतौर उम्मीदवार की जाने वाली अपनी घोषणा में यह बताया है कि उनके खिलाफ नफरत फैलाने वाले भाषण देने के लिए मुकदमे दर्ज हैं। बीजेपी नेताओं की संख्या इनमें सबसे अधिक है। असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है। रिपोर्ट के अनुसार केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्री उमा भारती ने भी अपने खिलाफ ऐसा मामला दर्ज होने का जिक्र किया है। इसके अलावा आठ राज्य मंत्रियों के खिलाफ हेट स्पीच को लेकर केस दर्ज है। पिछले कुछ वर्षों में अपने विरोधियों के खिलाफ आपत्तिजनक बयान देना, उनका मजाक उड़ाना, जाति और समुदाय को लेकर अनाप-शनाप बातें कहना राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बनता गया है। 
यह चलन न्यूज चैनलों के प्रसार के साथ बढ़ा लेकिन सोशल मीडिया के आने के बाद इसमें जबर्दस्त तेजी आई है। एक अध्ययन के मुताबिक मई 2014 से लेकर अब तक 44 नेताओं ने 124 बार वीआईपी हेट स्पीच दी, जबकि यूपीए-2 के दौरान ऐसी बातें सिर्फ 21 बार हुई थीं। इस तरह मोदी सरकार के दौरान वीआईपी हेट स्पीच में 490 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वर्तमान सरकार के दौरान हेट स्पीच देने वालों में 90 प्रतिशत बीजेपी नेता हैं। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि नेताओं के बयानों का लोगों पर सीधा असर होता है। कई जगहों पर इनके आक्रामक बयानों से हिंसा भड़क उठती है और जानमाल का नुकसान होता है, लेकिन नेताओं का कभी बाल भी बांका नहीं होता। 

लीडर किसी भी पार्टी के हों, गाली देकर या अभद्र टिप्पणी करके प्राय: माफी मांग लेते हैं। पार्टी आलाकमान अपने नेता की बात को उसका निजी बयान बताकर मामले से पल्ला झाड़ लेता है। जब तक चुनाव में नुकसान की आशंका न हो, तब तक शायद ही किसी नेता पर कार्रवाई होती हो। कभी ऐसी कोई नौबत आ भी जाए तो थोड़े समय बाद सब कुछ भुला दिया जाता है। पार्टियां अपने ऐसे बदजुबान नेताओं को टिकट देने में कोई कोताही नहीं बरततीं। 

इधर कुछ समय से चुनाव आयोग इस मामले में सचेत हुआ है पर उसकी अपनी सीमा है। इस बारे में सख्त नियम बनाने का काम जन प्रतिनिधियों का है, पर वे अपने ही खिलाफ नियम क्यों बनाने लगे! सबसे बड़ी बात है कि अब लोग ऐसे भाषणों को नियति की तरह स्वीकार करने लगे हैं और इन्हें पॉलिटिक्स का एक जरूरी अंग मानने लगे हैं। नेताओं को समझना चाहिए कि उनकी देखादेखी सामान्य लोगों की बोलचाल में भी आक्रामकता चली आती है, जिससे कटुता फैलती है। इससे विरोध और असहमति की जगह कम होती है और लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर पड़ती है। ऐसी भाषा के प्रति सभी दलों को सख्ती बरतनी चाहिए। 

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