By: D.K Chaudhary
पिछले दिनों विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच जिस शिद्दत से उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव और गुजरात तथा हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव लड़े गए उसने यह तो ठीक से साबित कर ही दिया है कि आज की राजनीति ‘पूर्णकालिक पेशा’ है, जिसके लिए व्यावहारिक समझ के अलावा राजनीति से जुड़े विषयों का सैद्धांतिक ज्ञान भी उपयोगी माना जा रहा है। इस लिहाज से देखें तो अब राजनीति नौसिखियों का खेल नहीं रही। नतीजतन आज के राजनीतिक मैदान में वही शख्स मजबूती से टिक पा रहा है जो इस विधा में या तो पहले से ही पारंगत है या पारंगत होने का माद्दा रखता है। अब आधे-अधूरे मन से सक्रिय, पार्टटाइम या टाइमपास या फिर शौकीन लोगों के लिए राजनीति में बने रहने के दिन लद गए राजनीति का यह दौर देश की आजादी की लड़ाई के दौरान के जज्बे की याद दिला रहा है। उस समय जो लोग स्वाधीनता संग्र्राम में उतरे थे वे सभी पूर्णकालिक रूप से देश की आजादी के लिए लड़ रहे थे, पार्टटाइम या अल्पकालिक लोगों का योगदान एक सीमा तक ही था। लोग देशभक्ति के रंग में इस कदर डूबे हुए थे कि चाहे अपना जमा-जमाया व्यवसाय हो या फिर आइसीएस की नौकरी, इन्हें छोड़ने को लेकर उनके मन में तनिक भी संकोच नहीं था। यह जज्बा केवल युवाओं तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उन्हें अपने परिवारों से भी पूरा समर्थन और प्रेरणा मिल रही थी। हौसला बिल्कुल वैसा ही था जैसा साल 1962, 1965, 1971 और फिर करगिल की लड़ाई के वक्त सीमा पर लड़ने के लिए जाते हमारे सैनिकों के परिवार वालों ने दिखाया था।
देश प्रेम से ओतप्रोत लड़ाई में स्वतंत्रता सेनानी देश को आजाद कराने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार रहते थे। राष्ट्रहित उनके लिए सर्वोपरि था। सियासत के मैदान में जारी आज के दौर की राजनीति में भी जज्बे की कोई कमी नहीं है। भावनात्मक स्तर पर राजनीतिक लड़ाई की तीव्रता में आज भी आजादी की लड़ाई जैसा वेग दिखाई देता है। यद्यपि राजनीतिक दलों के बीच राष्ट्रहित का मुद्दा तो स्थापित हो गया है, लेकिन अब लड़ाई की दिशा और दशा, दोनों बदल गई है। आज की राजनीति में चल रही उठापटक कहीं अपनी पार्टी के लिए है तो कहीं अपने राजनीतिक वजूद को बनाए रखने के लिए तो फिर कहीं सत्ता पर काबिज होने के लिए है। देश का एक बड़ा तबका अपना जमा-जमाया काम छोड़कर राजनीति में कूदने और राजनीति को एक पूर्णकालिक पेशे के रूप में अपनाने को तत्पर है। अन्ना आंदोलन के बाद इस ट्रेंड या फिर सिलसिले ने काफी जोर पकड़ा है। अब तो आलम यह है कि बहुत से लोग अपने बच्चों को भी छात्र राजनीति में जाने के लिए प्रेरित करने लगे हैं, जो किसी जमाने में खराब समझा जाता था।
इसी के मद्देनजर अब देश में पाश्चात्य मुल्कों की तर्ज पर राजनीति के गुर सिखाने के बड़े-बड़े संस्थान भी खुलने लगे हैं, जहां से विधिवत राजनीतिक पेशे की डिग्रियां मिलती हैं। राजनीति को अछूत समझे जाने वाले दिन अब नहीं रहे। बड़े से बड़े कारोबारी, विद्वान, फिल्मकार, खिलाड़ी, पत्रकार, नौकरशाह जैसे लोगों की भी राजनीति में न केवल रुचि बढ़ रही है, बल्कि उन्हें हम संसद और राज्य विधानमंडलों में बैठने की जुगत में लगा देखते हैं। इस रुझान को सकारात्मक नजरिये से देखने की जरूरत है, क्योंकि मौजूदा लोकतांत्रिक परिदृश्य ने साबित कर दिया है कि समाज और व्यवस्था में सबसे तेज बदलाव लाने की कोई क्षमता रखता है तो वह राजनीति ही है। इसलिए समाज की विभिन्न धाराओं से बेहतर लोगों का राजनीति में आना देश और समाज के लिए अच्छे संकेत माने जाने चाहिए, बशर्ते कि ये लोग समाज सेवा की सच्ची भावना और निष्ठा से राजनीति में आएं। हालांकि इस मोर्चे पर कुछ सकारात्मक संकेत जरूर मिले हैं, लेकिन उन्हें लेकर किसी नतीजे पर पहुंचना फिलहाल जल्दबाजी ही कहा जाएगा।
राजनीति के प्रति अतिशय-प्रेम के इस मौजूदा दौर से पहले का जमाना मौटे तौर पर स्वतंत्रता सेनानियों की दूसरी पीढ़ी के राजनेताओं का रहा, जिनमें से बहुत से लोग राजनीति में या तो शौक के तौर पर आए या फिर इत्तेफाकन। शोक इसलिए ताकि खबरों में बना रहा जा सके या फिर अपने कारोबार के लिए राजनीतिक संरक्षण को बनाए रखा जा सके। कुछ लोगों के अपने विशिष्ट या अलग कारण भी हो सकते हैं। इसी तरह इत्तेफाक से राजनीति में आने के भी कई कारण थे। मसलन कुछ लोग पारिवारिक विरासत में मिली पारी को आगे बढ़ाने के लिए राजनीति में आए तो कुछ लोगों को राजनीति में आसानी से प्रवेश इसीलिए मिल गया, क्योंकि वे कहीं किसी बड़े नेता के संपर्क में रहे।
फिर भी राजनीति में प्रवेश करने वालों की बड़ी तादाद सामान्य कार्यकर्ता के रास्ते से हुई है। इसका कारण भी है कि इस क्षेत्र में प्रवेश और कामयाबी की डगर काफी मुश्किलों से भरी होने के साथ ही चुनौतीपूर्ण भी है। यही वजह है कि राजनीति में लंबे समय तक कामयाब भी सामान्य कार्यकर्ता के रूप में आए लोग ही हो पा रहे हैं। इधर राजनीति में वंशवाद के बूते आए लोगों को लेकर भी विभिन्न प्रकार की टीका-टिप्पणियां देखने को मिल रही हैं, लेकिन वंशवादी राजनीतिक परिवारों के इतिहास पर नजर डालें तो मालूम पड़ता है कि इन बहुत से वंशों की शुरुआत भी उनके किसी न किसी वंशज ने सामान्य कार्यकर्ता के रूप में ही की थी। यह अलग बात है कि उनके वारिसों को राजनीतिक सौगात तश्तरी में रखी मिल गई। बावजूद इसके वंशवाद से निकले राजनेताओं को थोड़े दिनों तक भले ही अपने वंशजों द्वारा उगाई गई खेती के बूते कामयाबी मिल जाए, लेकिन आज के दौर के राजनीतिक दंगल में यह सिलसिला अधिक दिनों तक चलने वाला है नहीं। वंशवादियों का आज राजनीति में प्रवेश भले ही सीधे हो जाए, लेकिन मौजूदा पूर्णकालिक राजनीतिक परिवेश में मैदान में तो वही बना रह सकेगा जो अपनी राजनीतिक क्षमता और कौशल को साबित करने का माद्दा भी रखता हो। संकेत साफ है कि यहां भी प्रतिस्पर्धा पहले की तुलना में कई गुना बढ़ी है/