By: D.K Chaudhary
कहते हैं कुछ मूर्तियां मुहब्बत का नतीजा होती हैं। कुछ मूर्तियां आस्था और श्रद्धा के चलते बनाई जाती हैं। कुछ के निर्माण के पीछे वैचारिक प्रतिबद्धता होती है। कुछ मूर्तियों से यह उम्मीद की जाती है कि वे लोगों को प्रेरणा देने का काम करेंगी। कुछ लोग अपनी जीत को यादगार बनाए रखने के लिए भी मूर्ति बनवाते हैं। पर ऐसा भी नहीं है कि सभी मूर्तियों के निर्माण के पीछे की भावना हमेशा महान ही होती हो। कुछ मूर्तियां चापलूसी में भी बनवाई जाती हैं और कुछ मूर्तियां ऐसी भी होती हैं, जो अवाम पर सत्ता की तरफ से थोप दी जाती हैं। मूर्तियों को बनवाने के कारण अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन किसी भी मूर्ति को तोड़ने का कारण एक ही होता है- कुंठा। यहां पर यह सब याद करने का कारण है त्रिपुरा में चुनाव नतीजे आने के तीन दिन बाद ही रूस की साम्यवादी क्रांति के नायक कहे जाने वाले व्लादीमीर लेनिन की मूर्ति का तोड़ दिया जाना। कुछ लोग इसकी तुलना उस वाकये से कर रहे हैं, जब इराक में अमेरिकी आक्रमण के बाद सद्दाम हुसैन की एक चौराहे पर लगी मूर्ति तोड़ी गई, तो उसका सीधा प्रसारण दुनिया भर में हुआ था। वहीं कुछ लोग इसकी तुलना अफगानिस्तान के बामियान प्रांत में सदियों से खड़ी महात्मा बुद्ध की उस मूर्ति को ढहा दिए जाने से भी कर रहे हैं, जिन्हें तालिबान ने सत्ता में आते ही अपना पहला निशाना बनाया था। उस विश्व धरोहर को किन कलाकारों ने बनाया, इतिहास में उनका नाम कहीं नहीं है। जिन्होंने गोलाबारी करके इसे ढहाया था, उनका नाम इतिहास में सदा के लिए दर्ज हो चुका है।
जो लोग सत्ता हासिल होते ही मूर्तियों और स्मारकों के निर्माण का अभियान चलाते हैं, वे कोई बड़ा तीर नहीं मारते। इतिहास किसी भी शासक को उसके कामकाज से याद रखता है, उसके स्मारक और उसकी मूर्तियों से नहीं। इसके विपरीत जो लोग सत्ता हासिल करते ही मूर्तियां तोड़ने के अभियान पर निकल पड़ते हैं, उन्हें इतिहास शायद ही कभी अच्छी नजर से देखता हो। इस तरह से मूर्तियां तोड़े जाने का कई बार कितना उल्टा असर पड़ता है, इसे हम भारतीयों से ज्यादा अच्छी तरह कोई नहीं समझ सकता। इस देश में हमलावरों द्वारा तोड़ी गई ऐसी न जाने कितनी मूर्तियां हैं, जो स्मारक का दर्जा हासिल कर चुकी हैं। लेनिन एक ऐसी परंपरा के नायक हैं, जो अब पूरी दुनिया से लगातार विदा हो रही है, जहां है, वहां भी रस्मी तौर पर ही है। अतीत के तहखाने में पहुुंच चुकी इस शख्सीयत की मूर्ति तोड़ने वाले यह भूल रहे हैं कि ऐसा करके वे उसे अपने वर्तमान में एक बेवजह प्रासंगिकता दे रहे हैं।
दुनिया में कई जगह सत्ता परिवर्तन के साथ मूर्तियां तोड़ी गई हैं। सत्ता परिवर्तन के साथ ही मूर्तियां न तोड़ी जाएं, इसका अच्छा उदाहरण भारत ही है। अगर आप लखनऊ में राजकीय संग्रहालय के पिछले हिस्से में जाएं या फिर दिल्ली के कोरोनेशन पार्क में, तो वहां आपको रानी विक्टोरिया से लेकर कई वायसराय और तमाम बड़े अंग्रेज अफसरों की मूर्तियां खड़ी दिखाई देंगी। आजादी के बाद ब्रिटिश साम्राज्य की इन निशानियों को तोड़ा नहीं गया, बल्कि शहर के सुरक्षित इलाके में पहुंचा दिया गया। इसके विपरीत लाहौर में जिस तरह से सर गंगाराम की मूर्ति को तोड़ा गया, उस पर प्रसिद्ध कहानीकार मंटो ने बाकायदा एक कहानी लिखी थी। यही है, भारत और पाकिस्तान का फर्क। सत्ता बदलने के बाद इतिहास को सहेजने और उसे तोड़ने का फर्क।