By: D.K Chaudhary
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का नोटिस नामंजूर करने के राज्यसभा सभापति के फैसले के विरोध में दायर याचिका को कांग्रेसी सांसद एवं वकील कपिल सिब्बल ने जिस तरह वापस लिया उससे यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर वह चाहते क्या हैं? उनकी ओर से जिस आधार पर यह याचिका वापस ली गई उससे तो यही लगता है कि वह या तो इस मसले को तूल देकर कोई संकीर्ण राजनीतिक हित साधना चाहते हैं या फिर इस कोशिश में हैं कि उनकी मनपसंद बेंच ही इस मामले की सुनवाई करे? आम तौर पर किसी भी याचिकाकर्ता की पहली कोशिश यह होती है कि उसकी सुनवाई जल्द से जल्द हो, लेकिन किन्हीं अबूझ कारणों से कपिल सिब्बल यह जानने पर अड़े कि पांच सदस्यीय संविधान पीठ का गठन किसने और किस आधार पर किया? यह जानने का औचित्य समझना इसलिए कठिन है, क्योंकि न तो सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इस याचिका की सुनवाई करने वाली पीठ का हिस्सा थे और न ही वे चार वरिष्ठ न्यायाधीश जिन्होंने सार्वजनिक रूप से सामने आकर यह शिकायत की थी कि सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ सही नहीं। न्याय और नैतिकता का तकाजा यही कहता था कि इस याचिका की सुनवाई से मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ चार वरिष्ठ न्यायाधीश भी दूर रहें। ऐसी ही व्यवस्था की गई और सुप्रीम कोर्ट के छह से दस नंबर तक के पांच शीर्ष न्यायाधीशों को यह मामला सौंपा गया। जैसे यह जरूरी था कि हितों के टकराव से बचने के लिए मुख्य न्यायाधीश इस मामले की सुनवाई से दूर रहें वैसे ही वे चार वरिष्ठ न्यायाधीश भी जिनकी शिकायत ही एक तरह से महाभियोग नोटिस का आधार बनी। आखिर इस सबसे कहीं भली तरह परिचित होने के बाद भी कपिल सिब्बल चार वरिष्ठ न्यायाधीशों में से एक से ही अपनी याचिका को सूचीबद्ध कराने पर क्यों अड़े?