मानवाधिकारों का सवाल (Editorial Page)30th Nov 2017

By: D.K Chaudhary

भारत में कैदियों की देखभाल के लिए स्टाफ की स्थिति उतनी बुरी नहीं है जितनी दिखाने-बताने की कोशिश होती है।

लंदन की एक अदालत में आर्थिक धोखाधड़ी के आरोपी विजय माल्या के प्रत्यर्पण पर चल रही सुनवाई के दौरान भारत में जेलों की स्थिति को लेकर हुई बहस ने हमें एक बार फिर देश की जेलों के हाल पर विचार करने को विवश किया है। ऐसा पहली बार नही हुआ है जब किसी आरोपी या अपराधी के प्रत्यर्पण के खिलाफ उसके वकीलों ने यहां की जेलों मे कैदियों की सुरक्षा और उससे संबंधित विषयों को उठाया हो। इससे पहले मैच-फिक्सिंग के आरोपी संजीव चावला के प्रत्यर्पण का भी कुछ ऐसी ही दलीलों के आधार पर विरोध किया गया था। चूंकि बात जेलों की दशा को लेकर हो रही है तो उपलब्ध आंकड़ों पर भी नजर डालना उचित होगा। दिसंबर 2015 तक के आंकड़ों के अनुसार देश की विभिन्न 1,401 जेलों में 4,19,623 कैदी थे। इनमें पुरुष कैदियों की संख्या 4,01,789 और महिला कैदियों की तादाद 17,834 थी। यानी कुल कैदियों में 95.7 प्रतिशत पुरुष और 4.3 प्रतिशत महिलाएं हैं। इनमें छह हजार से ज्यादा विदेशी कैदी भी शामिल हैं। यह संख्या जेलों की निर्धारित क्षमता से काफी ऊपर यानी 114.4 प्रतिशत है। जहां तक कैदियों पर आने वाले वार्षिक खर्चे का सवाल है तो वह सबसे ज्यादा बिहार में है तो सबसे कम दिल्ली की तिहाड़ जेल में। बिहार में यह खर्च 83,691 रुपये प्रति कैदी रहा तो दिल्ली की तिहाड़ जेल में 73,543 रुपये। जेल में कैदियों को उनके हुनर के हिसाब से पारिश्रमिक भी दिया जाता है जो सबसे ज्यादा पुद्दुुचेरी जेल में है जहां कुशल/ निपुण कैदी को 180 रुपये प्रतिदिन और अर्ध कुशल को 160 रुपये जबकि अकुशल को 150 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मेहनताना दिया गया। 
हमारे यहां कैदियों की देखभाल के लिए स्टाफ की स्थिति उतनी बुरी नहीं है जितनी दिखाने-बताने की कोशिश होती है। 4,19,623 कैदियों के लिए 53,009 का स्टाफ है और इस हिसाब से आठ कैदियों पर एक जेलकर्मी का औसत है। जेलों की स्थिति को लेकर समय-समय पर आने वाली खबरें चिंतित जरूर करती हैं, लेकिन आंकड़े कोई बहुत खराब तस्वीर पेश नही करते। यद्यपि किसी भी प्रकार के तुलनात्मक नजरिये के लिए जेल मे बंद लोगों के चरित्र को जरूर ध्यान में रखना होगा। भारत में 1993 में गठित राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और फिर 26 राज्यों में स्थापित राज्य मानवाधिकार आयोग देश भर की जेलों मे बंद कैदियों के मानव अधिकारों को लेकर किसी भी मायने में किसी भी विकसित पश्चिमी देश से कम संवेदनशील नहीं हैं। कैदियों की सुरक्षा और उनके रहने, खाने-पीने और अन्य जरूरी सुविधाओं को लेकर जेल प्रशासन पर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के संबंधित विभाग तो सीधा-सीधा नियंत्रण रखते ही हैं, बल्कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और संबंधित राज्य के मानवाधिकार आयोग की भी कड़ी नजर होती है। कैदियों की सुरक्षा को इनमें सबसे अहम मुद्दा माना जाता है जिसकी सीधी जिम्मेदारी संबंधित जेल प्रशासन की होती है। ऐसे में कोई भी जेल प्रशासन कैदियों की सुरक्षा के मामले को हल्के में नही ले सकता। कैदियों से संबंधित मूलभूत सुविधाओं और उदाहरण के तौर पर कैदियों को दी जाने वाली चिकित्सा सुविधाओं को देखें तो हम पाएंगे कि कैदी को आवश्यक चिकित्सा सुविधा और वह भी समय पर मुहैया कराना जेल प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण है। 
इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यदि किसी कैदी को समय रहते आवश्यक उपचार उपलब्ध नहीं कराया गया और उसके चलते उसकी मौत हो गई तो संबंधित जेल अधिकारी के खिलाफ न केवल अनुशासनात्मक कार्यवाही होती है, बल्कि मृतक कैदी के परिवार को उचित मुआवजा भी दिलाया जाता है। मुआवजे की रकम भी सम्मानजनक होती है। देश भर की जेलों को उनके यहां हुई हर प्रकार की मृत्यु की सूचना राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को देनी होती है। वर्ष 2015 में स्वाभाविक रूप से हुई मौतों की संख्या 1,469 थी और अस्वाभाविक मौतों की संख्या 115 थी। कैदियों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए बने प्रावधान हमें देश में मानवाधिकारों की अवधारणा और उनके अनुपालन पर गर्व कराते हैं जो किसी भी पाश्चात्य विकसित राष्ट्रों में लागू व्यवस्था से कम नही हैं। यहां पाश्चात्य देशों से तुलना की बात इसलिए की जा रही है, क्योंकि कतिपय पश्चिमी देश स्वयं को दुनिया भर में मानवाधिकारों के सबसे बड़े पैरोकार के रूप में पेश करते हैं और भारतीय जेलों की दशा को खराब दिखाकर उन्हें आड़ मुहैया कराते हैैं जिनका प्रत्यर्पण भारत में होना होता है। इस दुष्प्रचार से निपटने की जरूरत है। 
भारत में जेल में बंद कैदी की सुरक्षा में चूक के लिए किसी न किसी की जिम्मेदारी तय की गई है। कैदियों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए बने प्रावधान यह भी सवाल खड़ा करते हैैं कि क्या आम आदमी के मानवाधिकारों की रक्षा के भी उपयुक्त प्रावधान हैैं? इस पर गौर करें कि जिस तरह कैदी को समय पर उपयुक्त इलाज न दिला पाने के लिए किसी न किसी को जिम्मेदार ठहराने के प्रावधान हैैं उसी तरह आम आदमी की सुरक्षा और उसे समय पर उपयुक्त उपचार मिले, इसके प्रावधान नहीं हैैं। आम आदमी के इलाज में गफलत पर जेल की तरह किसी को शायद ही जिम्मेदार ठहराया हो जाता हो। हमें यहां इस प्रश्न पर गहराई से विचार करना होगा कि आम आदमी की उतनी ही चिंता क्यों नहीं है? इस प्रश्न पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि कहीं यह न लगने लग जाए कि जेल में बंद कैदी को तो इसलिए बेहतर सुविधाए हासिल है, क्योंकि उसे सुविधाएं सुनिश्चित कराने वाला तंत्र प्रभावशाली है। आखिर आम आदमी के लिए भी प्रभावी तंत्र क्यों नहीं है? गरीब इंसान के इलाज के लिए वैसी ही जवाबदेही क्यों नहीं जैसी जेल मे बंद कैदी के इलाज के लिए है? क्या कारण है कि सड़क पर पड़े हर शव के पोस्टमार्टम और अंतिम संस्कार का जिम्मा तो पुलिस का है, लेकिन कोई जब भूख और ठंड से सड़क पर बेहाल होता है तो कोई उसकी फिक्र नहीं करता। आखिर क्यों? राजधानी दिल्ली की सड़कों पर हम देखते हैं कि जिंदा इंसान की शायद ही किसी को फिक्र हो, जबकि सड़क पर मरने वाले हर इंसान का हिसाब दिल्ली पुलिस के पास जरूर होता है/

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