महाभियोग का हश्र Editorial page 09th May 2018

By: D.K Chaudhary

सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग का मामला एक ऐसा अफसाना बन गया था, जिसे किसी अंजाम तक पहुंचाना कांग्रेस के लिए अब मुमकिन नहीं रह गया था। महाभियोग को नामंजूर करने के उप-राष्ट्रपति के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका कहीं जाती नहीं दिख रही थी, इसलिए पार्टी ने पूरे मामले को एक खूबसूरत मोड़ देकर याचिका वापस ले ली। कांग्रेस चाहती थी कि मामला दूसरे नंबर के जज जस्टिस चेलमेश्वर की अदालत में तय हो। जाहिर है कि वह उच्चतम न्यायालय के जजों में मतभेद का फायदा उठाना चाहती थी, लेकिन यह हुआ नहीं। याचिका पर सुनवाई के लिए संविधान पीठ का गठन कर दिया गया, जिसमें न्यायालय के पांच वरिष्ठतम जजों में से किसी को भी नहीं रखा गया। इसके बाद याचिकादाताओं के वकील कपिल सिब्बल ने उस प्रशासनिक आदेश की मांग की, जिसके तहत संविधान पीठ का गठन हुआ है। यह आदेश तो उन्हें नहीं मिला, लेकिन इसके साथ ही उन्हें याचिका वापस लेने का बहाना जरूर मिल गया। यह माना जाना चाहिए कि कांग्रेस अब इस मसले को और नहीं बढ़ाएगी, इसे लेकर होने वाली राजनीति अब आगे नहीं होगी। बेशक, न्यायपालिका और सरकार के मतभेदों को लेकर कुछ विवाद अभी बने हुए हैं। ऐसे विवाद कम-ज्यादा हमेशा चलते रहे हैं। महाभियोग का मामला इससे अलग रखकर देखा जाना चाहिए।

भारतीय सांविधानिक व्यवस्था में महाभियोग हमेशा से ही एक ऐसा मामला रहा है, जिसे सिरे चढ़ाना टेढ़ी खीर माना जाता है। इसकी जटिल प्रक्रिया के चलते ही आज तक देश में किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग पास नहीं हो सका। सिर्फ एक ही मौका है, जब इसे लेकर सदन में बहस हुई, लेकिन तब भी यह प्रस्ताव गिर गया। भारत में जजों का कार्यकाल तय होता है और उन्हें हटाने के लिए महाभियोग की काफी जटिल प्रक्रिया है, ये दोनों चीजें मिलकर भारतीय न्यापालिका की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा आधार बनती हैं। यह सब मिलकर भारतीय न्याय-व्यवस्था को राजनीतिक वर्ग के दबाव से भी बचाता है और सरकार के कोप से भी। अगर कांग्रेस का महाभियोग प्रस्ताव आगे बढ़ता, तो यह संतुलन टूटता नजर आता।

यह नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस इस मामले में कितनी गंभीर थी। बाकी विपक्षी पार्टियां भी खुलकर महाभियोग के समर्थन में नहीं आई थीं, इसलिए इसके कमजोर अंकगणित का एहसास कांग्रेस को भी रहा ही होगा। ऐसी खबरें थीं कि इसे लेकर पार्टी के भीतर ही मतभेद हैं और कई वरिष्ठ नेता इसके पक्ष में नहीं हैं। यह सच है कि जिन दो सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, वे पार्टी के वरिष्ठतम सांसदों में तो नहीं ही गिने जा सकते। इसे एक दूसरी तरह से देखें, तो कांग्रेस अपने मकसद में कामयाब रही। जस्टिस दीपक मिश्रा के हटने से उसका कोई राजनीतिक मकसद सधने वाला नहीं था, लेकिन महाभियोग के नाम पर उसने एक राजनीतिक मुद्दा खड़ा किया और उसे पूरे देश तक पहुंचा दिया। सरकार और न्यायपालिका का विवाद अगर बढ़ता है, तो कांगे्रस की आपत्तियां फिर से चर्चा में आ जाएंगी। कांग्रेस चाहे, तो इसे लेकर खुश हो सकती है, मगर इसमें जो दिक्कत की बात है, वह बहुत बड़ी है। न्यायपालिका और सर्वोच्च न्यायालय के महामहिम जजों को जिस तरह से दलगत राजनीति में खींचा गया, वह परेशान करने वाला है।

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