By: D.K Chaudhary
उच्चतम न्यायालय ने जनहित याचिकाओं यानी पीआइएल के दुरुपयोग पर तल्ख टिप्पणी करते हुए एक याचिकाकर्ता पर एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है। न्यायाधीश पहले भी इस पर अनेक बार पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं और इस बारे में विस्तृत नियम भी हैं, फिर भी पीआइएल का दुरुपयोग क्यों नहीं रुक पा रहा है? संविधान के अनुसार संसद को कानून बनाने, सरकार को रोजमर्रा के काम करने और अदालतों को न्याय देने का कार्य-विभाजन किया गया है। सरकार और संसद की विफलताओं की चर्चा आम है, परंतु अदालतों के सुस्त रवैये से त्रस्त करोड़ों परिवार के दर्द पर शायद ही कभी चर्चा होती हो? उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए बनाए गए न्यायिक आयोग को रद कर दिया, लेकिन कॉलेजियम व्यवस्था में सुधार और भ्रष्टाचार रोकने के लिए कोई न्यायिक पहल नहीं हुई। जनता को जल्द न्याय के मौलिक अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए अदालतों को अपना घर ठीक करने की जरूरत है। इस मोर्चे को दुरुस्त किए जाने के बजाय पीआइएल के माध्यम से अदालतों द्वारा ‘वाचडॉग’ बनने की बढ़ती प्रवृत्ति देश के लिए घातक है। फिर यह किसी विषय विशेष तक ही सीमित भी नहीं है। पर्यावरण और प्रदूषण का ही उदाहरण लें। यदि प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए अदालती सख्ती के चलते निवेशक देश में निवेश करने से ही कतराने लगें तो फिर ईज ऑफ डूइंग बिजनेस और मूडी द्वारा ग्रेडिंग सुधार का अर्थव्यवस्था को कैसे लाभ मिलेगा? तमाम अन्य कारणों से प्रदूषण बढ़ रहा है जिसे सरकारी समस्या मानकर अदालती आदेशों से कैसे ठीक किया जा सकता है? इसी तरह से गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और अपराध जैसे देशव्यापी मर्ज पीआइएल के जादुई मंत्र से कैसे दूर हो सकते हैं? यदि पीआइएल ही प्रत्येक मर्ज की दवा है तो फिर अदालतें यह सपाट आदेश पारित कर दें कि अब सभी नेता और अधिकारी ईमानदारी से कानून के अनुसार काम करेंगे।
स्वर्गीय कपिला हिंगोरानी जो खुद वकील थीं, ने 1979 में पीआइएल के प्रभावी इस्तेमाल से जेलों में बंद चालीस हजार कैदियों को मुक्त कराया था। देश में चार लाख लोग जेलों में बंद हैं जिनमें से अधिकांश गरीब, अनपढ़ और वंचित वर्ग से ताल्लुक रखने वाले हैं जिनके पास जमानत या वकील के लिए पैसे नहीं हैं। उच्चतम न्यायालय ने जेलों में बेवजह बंद लोगों को रिहा करने के लिए अनेक आदेश पारित किए हैं जिन पर अमल के बजाय अब एक्टिविस्टों द्वारा बेवजह के मामलों से जुड़ी पीआइएल की शिगूफेबाजी पर ही ज्यादा जोर दिया जाता है। रागदरबारी के दौर से मीटिंग और टूर में व्यस्त रहते अफसरों पर जब पीआइएल का बोझ भी आ जाता है तो निरीह जनता के मामले सबसे निचले पायदान पर पहुंच जाते हैं। देश की अदालतों में तीन करोड़ लंबित मुकदमों में औसतन यदि तीन पक्षकार हों तो लगभग 10 करोड़ परिवार या एक तिहाई आबादी मुकदमेबाजी से पीड़ित हो सकती है। पीआइएल के बढ़ते चलन से अदालतों में पुराने मुकदमों का बोझ और बढ़ जाता है जिसकी सबसे ज्यादा मार ग्रामीण, गरीब और बेबस जनता पर ही पड़ती है। अदालतों में जल्द न्याय न मिलने से कुंठित गरीब लोगों के हिंसा, अपराध और नक्सलवाद की गिरफ्त में आने की आशंका बनी रहती है।
संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के तहत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में याचिका (रिट पिटिशन) के व्यक्तिगत अधिकार को जनहित याचिका में तब्दील करने का श्रेय पूर्व न्यायाधीश पीएन भगवती को दिया जाता है। पीआइएल के माध्यम से अनेक महत्वपूर्ण मामले उठाए गए, परंतु धीरे-धीरे राजनीतिक प्रचार और निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा इनका दुरुपयोग होने लगा। पीआइएल के दुरुपयोग को रोकने के लिए उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2010 में विस्तृत आदेश पारित किए जिन्हें भंडारी गाइडलाइंस कहा जाता है। सात साल बाद भी तमाम उच्च न्यायालयों ने भंडारी गाइडलाइंस के अनुसार अभी तक पीआइएल संबंधी नियम ही नहीं बनाए हैं। उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाड़िया, एचएल दत्तू और अभी हाल के फैसले में न्यायमूर्ति सीकरी ने कहा कि जो लोग खुद अपने अधिकारों की रक्षा करने में असमर्थ हों, उनके लिए पीआइएल की व्यवस्था बनाई गई थी। राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों द्वारा पीआइएल के दुरुपयोग की बढ़ती प्रवृत्ति पर उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई तमाम सख्त टिप्पणियों के बावजूद नेताओं द्वारा पीआइएल का दुरुपयोग के लिए अदालतें भी बराबर जिम्मेदार हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने अनेक फैसलों में यह कहा है कि सरकार के रोजमर्रा के कार्यों में अदालती दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए। रोजमर्रा के मामलों में बड़ी अदालतों के दखल से अब छोटी अदालतों के आदेश का नौकरशाही पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता। अब तो उच्चतम न्यायालय के अनेक आदेशों का सरकारी अधिकारी गंभीर अनुपालन नहीं करते, जब तक उनके खिलाफ अवमानना की कारवाई शुरू नहीं की जाए। इस बात की पुष्टि एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन से होती है जिसके अनुसार प्रशासनिक और पुलिसिया मामलों में पीआइएल के बढ़ते चलन से निचली अदालतों और नियामकों का ह्रास हो रहा है। उच्चतम न्यायालय ने एक पीआइएल में सरकार से यह जवाब मांगा है कि दिल्ली एनसीआर में 24 घंटे बिजली आपूर्ति क्यों नहीं होनी चाहिए? यह अच्छी पहल है, परंतु सवाल यह है कि पूरे देश में निर्बाध बिजली क्यों नहीं होनी चाहिए? ऐसी पीआइएल के माध्यम से याचिकाकर्ता, वकील और जज हीरो भले ही बन जाएं, पर इससे समस्याओं का समाधान या जनहित का असली मकसद कैसे पूरा हो पाएगा?
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र ने एक मामले में अमेरिकी न्यायविद् बेंजामिन एन कार्डोजो के कथन को उद्धृत करते हुए जजों को अति न्यायिक सक्रियता के नायकत्व से बचते हुए कानून के दायरे में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने की सलाह दी। छुटपुट मामलों पर अखबारी खबरों के आधार पर पीआइएल की सुनवाई से सर्वोच्च अदालत का क्षेत्राधिकार भी एनसीआर के दायरे में सिमट कर लुटियंस थाने के प्लेटफॉर्म जैसा हो रहा है। अदालती नियमों के अनुसार पीआइएल अदालत की संपत्ति होती है जिसे याचिकाकर्ता द्वारा बाद में वापस नहीं लिया जा सकता है। अदालतें यदि पीआइएल को स्वीकार कर लें तो प्रतिस्पर्धा आयोग के सक्षम अधिकारी की तर्ज पर न्यायमित्रों की नियुक्ति का प्रावधान होना चाहिए जो अदालतों के क्षेत्राधिकार के साथ मामलों को जनहित की कसौटी पर कस सकें। इस कदम से मामलों के सभी पक्षों पर पूरी जांच, एक मामले में कई पीआइएल पर रोक और याचिकाकर्ता के व्यक्तिगत हितों पर भी नकेल कसी जा सकेगी। बंबई उच्च न्यायालय ने एक आदेश में कहा कि पीआइएल के 80 फीसद मामलों में निहित स्वार्थ या ब्लैकमेलिंग होती है। सात साल पहले भंडारी गाइडलाइंस में स्वार्थपूर्ण मामलों के प्राइवेट या पॉलिटिकल इंटरेस्ट लिटिगेशन पर सख्त जुर्माने के नियम बनाए गए थे। इसके बावजूद पब्लिक इंटरेस्ट के नाम पर पीआइएल के गोरखधंधे पर अदालतों की रोजमर्रा नोटिस क्या न्यायिक त्रासदी नहीं है