कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि एक और कानून बना देने से इस समस्या का हल निकलना कठिन है। मॉब लिंचिंग को रोकने के लिए दृढ़ इच्छा की जरूरत है, जिसका सरकार में अभाव है। राज्य सरकारें चाहतीं तो वर्तमान कानूनों के दायरे में ही हिंसा फैलानेवालों पर कार्रवाई कर सकती थीं। विशेषज्ञों ने यूपी के एक मामले का हवाला देते हुए कहा कि पुलिस ने खुद इसे सड़क दुर्घटना से संबंधित विवाद बताकर रफा-दफा करने की कोशिश की। विशेषज्ञों की आपत्ति में दम है। भीड़ की हिंसा को जायज ठहरानेवाले बयानों और राज्य सरकारों के ठंडे रवैये ने संदेह पैदा किया है। कुछ सत्तासीन राजनेताओं द्वारा हमले के आरोपियों को सम्मानित करने से भी लगा कि इन घटनाओं के जरिए सियासी स्वार्थ साधने की कोशिश भी चल रही है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का रवैया उनके लिए एक इशारा है। अगर उन्होंने भीड़ की हिंसा का किसी भी रूप में समर्थन किया तो वे भी दोषी माने जाएंगे। नया कानून बनने में अभी वक्त लगेगा लेकिन निचली अदालतों के लिए दिशा साफ हो गई है। उन्हें मॉब लिचिंग के दोषियों के खिलाफ सख्त रुख अपनाना होगा। आशा है, केंद्र और राज्य सरकारें भी कोर्ट की इन गाइडलाइंस का पालन करेंगी।
भीड़तंत्र पर नकेल Editorial page 20th July 2018
By: D.K Chaudhary
इसके मुताबिक राज्य सरकारें हर जिले में एसपी स्तर के अधिकारी को नोडल ऑफिसर नियुक्त करें, जो ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए स्पेशल टास्क फोर्स बनाएगा। नोडल ऑफिसर को लोकल इंटेलिजेंस के साथ तालमेल बनाकर काम करना होगा। डीजीपी और होम सेक्रेटरी नोडल ऑफिसर के साथ नियमित मीटिंग करें। ऐसे मामलों में आईपीसी की धारा 153 (ए) के तहत तुरंत केस दर्ज हो और फास्ट ट्रैक कोर्ट में केस चलाकर छह महीने के अंदर दोषियों को अधिकतम सजा दी जाए। इसके लिए पीड़ित पक्ष के वकील का खर्च सरकार वहन करे। राज्य सरकारें भीड़ हिंसा पीड़ित मुआवजा योजना बनाएं और चोट के मुताबिक मुआवजा राशि तय करें। सरकार भीड़ द्वारा हिंसा के खिलाफ प्रचार-प्रसार करे।