बदलाव की ओर 18th Oct 2017

By: D.k Choudhary

एक अच्छा विचार धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहा है। चुनाव आयोग ने कहा है कि वह साल भर के भीतर इस स्थिति में होगा कि देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवा सके। आयोग के इस बयान से उस अभियान को बल मिला है, जो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिल के करीब है। उन्होंने एक से ज्यादा बार यह कहा है कि हमें रोज-रोज चुनाव के चक्कर से बचने के लिए ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हो जाएं। इस पर कई मंत्रालयों की राय भी मांगी गई थी, वे भी इसके समर्थन में हैं। कुछ नागरिक संगठन तो न जाने कब से यह मांग कर रहे हैं, लेकिन उनकी बात अनसुनी ही की जाती रही, अब उन्हें भी उम्मीद बंधी होगी। भारत ने लोकतंत्र को जिस ढंग से अपनाया है, उससे राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से लोकतंत्र उसकी एक ताकत बन गया है। लेकिन एक दिक्कत यह जरूर है कि इसमें बहुत सारे चुनाव हैं। हर समय कोई न कोई चुनाव। कभी किसी प्रदेश का, कभी स्थानीय निकाय का, कभी ग्राम सभाओं का, तो कभी ब्लॉक स्तर का। और जो समय बच जाता है, उसमें तरह-तरह के उप-चुनाव भी चलते रहते हैं। इन चुनावों में खर्च तो होता ही है, साथ ही सरकारों पर लोक-लुभावन नीतियों का दबाव भी बना रहता है। इसके चक्कर में सरकारें दूरगामी   हित वाले कडे़ फैसले करने से  बचती हैं। देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अगर एक साथ हों, तो ऐसी बहुत सारी चीजों से बचा जा सकता है।

हालांकि एक साथ चुनाव वाली यह सोच देखने में जितनी लुभावनी लगती है, उतनी ही खतरों से भरी हुई भी है। अक्सर सैद्धांतिक रूप से हमें किसी विचार के जो फायदे नजर आते हैं, व्यावहारिक धरातल पर वह कई तरह की नई दिक्कतों को जन्म देते हैं। इसे हम कई बार देख चुके हैं। ये समस्याएं कई तरह की हो सकती हैं। मान लीजिए, किसी राजनीतिक असंतुलन की वजह से केंद्र सरकार मध्यावधि में ही गिर जाती है और लोकसभा भंग करके नए सिरे से चुनाव कराने की नौबत आ जाती है, तो क्या उसके साथ ही देश की सभी विधानसभाओं को भी भंग कर दिया जाएगा, जबकि इसमें उनकी कोई गलती नहीं है? एक दूसरी चिंता यह है कि अगर राष्ट्र और प्रदेश, दोनों के चुनाव एक साथ होते हैं, तो पूरे चुनावी विमर्श में राष्ट्रीय मुद्दे ही हावी रहेंगे और प्रदेश या स्थानीय स्तर के मुद्दे दरकिनार हो जाएंगे। इससे प्रादेशिक स्तर के राजनीतिक दलों के लिए भी परेशानियां खड़ी हो सकती हैं। पिछले 70 साल में हमने देश में जिस लोकतांत्रिक संस्कृति का निर्माण किया है, उस पर भी खतरा मंडरा सकता है। फिर स्थानीय निकाय आदि के चुनावों का क्या करेंगे, यह भी एक बड़ा सवाल है।

चुनाव आयोग हालांकि यह कह रहा है कि वह दोनों चुनाव एक साथ करवाने की स्थिति में है, लेकिन अभी छोटे-छोटे प्रदेशों की मतदान प्रक्रिया पूरी होने में एक महीना लग जाता है। यह अवधि लगातार बढ़ रही है। पहले देश में चुनाव एक त्योहार की तरह होता था, अब एक पूरे के पूरे मौसम की तरह होता है। एक समय था, जब यह कहा जाने लगा था कि पूरे देश की मतदान प्रक्रिया एक ही दिन में खत्म की जा सकती है। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के इस्तेमाल से इसे संभव भी बनाया जा सकता है, लेकिन यह समय अब लगातार बढ़ता जा रहा है। अक्सर यह कहा जाता है कि लोकतंत्र बदलाव की एक धीमी प्रक्रिया है, जो हमें उन सब परेशानियों से बचाती है, जो तेज बदलाव से पैदा होती हैं। इसलिए बेहतर होगा कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बदलाव के लिए भी धीरे-धीरे कदम ही बढ़ाएं।

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