By: D.K Chaudhary
हाल में देश की सर्वोच्च अदालत के समक्ष एक बड़ा ही रोचक और महत्वपूर्ण मामला पहुंचा, जिसमें याचिकाकर्ता ने भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को हटा देने की मांग की। अदालत ने याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि अब समय आ गया है कि समाज इस बात को स्वीकर करे कि महिला को पुरुष के समान दर्जा मिल चुका है। इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 198 (1) और (2) के अनुसार केवल पुरुष के विरुद्ध ही व्यभिचार जैसे अपराध के लिए शिकायत की जा सकती है, महिला के विरुद्ध नहीं, क्योंकि उसे केवल शोषित ही माना जा सकता है। दूसरी स्त्री के प्रति आकर्षित होकर जब कोई पति अपनी पत्नी का परित्याग कर देता है तो पत्नी उस दूसरी स्त्री की कोई शिकायत नहीं कर सकती, क्योंकि हमारे कानून के अनुसार इस मामले में स्त्री पीड़िता मानी जाती है, दोषी नहीं। पत्नी की बेवफाई की शिकायत पति भी नहीं कर सकता, क्योंकि यहां भी स्त्री पीड़िता मानी जाती है। व्यभिचार का शिकार भी वही होती है और शोषिता भी वही मानी जाती है और वही पुरुष के विरुद्ध शिकायत भी कर सकती है। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के दो बड़े पुराने निर्णयों के उदाहरण देना आवश्यक होगा। 1985 में सौमित्र विष्णु ने अपनी स्वेच्छाचारी पत्नी को सजा दिलाने के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। इसी तरह 1988 में एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सामने यह प्रश्न आया कि क्या पत्नी की गुहार पर न्यायालय पति की बेवफाई पर उसके संसर्ग में आने वाली महिला को सजा दे सकता है? दोनों ही मामलों में अदालत ने कानूनी व्याख्या की कि ‘कोई भी पत्नी अपने पति को विवाहेत्तर संबंधों के लिए दंड नहीं दिलवा सकती, क्योंकि इस अपराध के होने से प्रभावित होने वाली भी स्त्री होती है और वह शोषित मानी जाती है। हालांकि यह तलाक लेने के लिए एक कारण हो सकता है। 1जस्टिस ठक्कर और जस्टिस चंद्रचूड़ के दोनों फैसलों का आधार मनोविज्ञान था। यद्यपि कानून ने अपने तरीके से व्याख्या की थी कि जहा संबंध कुछ रह ही न गया हो वहां किसको किस बात की सजा दी जाए। 2011 में भी जस्टिस आफताब आलम और आरएस लोढ़ा की खंडपीठ ने कल्यानी के. शैलजा के विरुद्ध दायर याचिका को खारिज करते हुए माना था कि उस पर धारा 497 का केस नहीं बनता, क्योंकि यहां भी तर्क यही था कि महिला के विरुद्ध व्यभिचार का मामला नहीं बनता, किंतु ताजा मामले में जस्टिस दीपक मिश्र की खंडपीठ ने दो बिंदुओं पर चर्चा करने के लिए नोटिस जारी किया है। पहला, धारा 497 के अनुसार क्यों पुरुष को दोषी और महिला को पीड़िता माना जाए? दूसरा, व्यभिचार का दोष उस समय क्यों समाप्त हो जाता है जब महिला के पति की स्वीकारोक्ति प्रमाणित हो जाए और क्या आज भी यह माना जाता रहे कि महिला पति की संपत्ति है, जिसके पास अपना दिमाग नहीं है?1सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि धारा 497 महिलाओं की स्वतंत्र अस्मिता पर तब बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाती है जब यह कहा जाता है कि यदि पति की सहमति प्रमाणित हो जाए तो व्यभिचार अपराध नहीं माना जाएगा। इससे तो महिला का दर्जा पति की पथगामिनि के अतिरिक्त कुछ अधिक नहीं रह जाता, जबकि आज महिलाओं की वैसी स्थिति नहीं है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने इसे संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन माना और प्रश्न उठाया कि क्या यदि पति चाहे तो पत्नी व्यभिचार कर सकती है? ऐसे में तो उसका व्यवहार सिर्फ पति की इच्छा का मोहताज है या फिर यह कहा जाए वह आज भी मात्र एक वस्तु ही है। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि इसी सर्वोच्च अदालत ने 1954, 1985 और 1988 में धारा 497 की वैधता को स्वीकार किया था।1आज के संदर्भ में बड़ी बात जो अदालत मान रही है वह यह कि समाज की तस्वीर बदल रही है। आज लिव-इन रिलेशन को भी मान्यता मिल रही है और इसके तहत रह रही महिलाएं बिना विवाह के भी अपने अधिकार मांगने के लिए खड़ी हो रही हैं। इसी सर्वोच्च न्यायालय ने बीते सालों में अपने एक निर्णय के तहत लिव-इन रिलेशनशिप में कटुता आने पर एक पार्टनर और उसके बच्चों को भरण-पोषण का अधिकार दिया था। जाहिर है कि अदालतें कानून नहीं बनातीं, बल्कि केवल उनकी व्याख्या करती हैं। महिलाओं के प्रगतिशील स्वरूप के अनुरूप ही घरेलू हिंसा रोधी कानून बना। महिलाओं ने ही विवाह न करके लिव-इन रिलेशन स्वीकार किए। हालांकि कोर्ट ने ऐसी महिलाओं को पत्नी का दर्जा नहीं दिया, लेकिन पति-पत्नी की तरह के रिश्ते को अवश्य माना। कुल मिलाकर अब समय आ गया है कि हम अपने पुराने और अनावश्यक हो चुके कानूनों से मुक्ति पा लें। सर्वोच्च न्यायालय ने एक पहल की है कि हम अपनी सोच बदलें। यह जिम्मेदारी केवल अदालतों की नहीं है, पूरी सामाजिक व्यवस्था की है। तीन तलाक के बहुचर्चित प्रसंग के बाद यह बहुत संगत है कि हम अपनी उन प्रथाओं पर भी एक नजर डालें जो कालांतर में कानून बन गईं। केवल मुस्लिम प्रथाएं ही क्यों? विकृतियों के मामले में हिंदू प्रथाएं जैसे-कन्यादान, दहेज आदि भी अपवाद नहीं हैं। प्रथाओं में आए कुछ शब्द अपना अर्थ परंपरा से वहन करते हैं, अलग से उनके कोई मायने नहीं होते। उनके नए अर्थ गढ़े भी जाएं तो वे विकार पैदा कर सकते हैं।