By: D.K Chaudhary
पुणे के पास सोमवार को भड़की हिंसा की जद में मंगलवार को महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई समेत कुछ और इलाके भी आ गए। दलित समूहों के विरोध प्रदर्शनों का असर रेल व सड़क परिवहन पर पड़ा। चूंकि इन संगठनों ने बुधवार को ‘महाराष्ट्र बंद का आह्वान किया है, अत: अनुमान लगाया जा सकता है कि आज सामान्य स्थिति बनाए रखने के लिए प्रशासन को खास चौकसी बरतनी होगी। भीमा कोरेगांव लड़ाई की 200वीं बरसी पर दलित संगठनों का सामान्य से कहीं बड़ा जमावड़ा पुणे में लगा। स्पष्टत: प्रशासन ने उसके अनुरूप सावधानी नहीं बरती। नतीजतन, उपरोक्त समारोह में आए लोगों पर हमला करने में उपद्रवी सफल हो गए। इसमें एक व्यक्ति की मौत, अनेक लोगों के जख्मी होने और बड़ी संख्या में वाहनों के क्षतिग्रस्त होने से दलित समूहों में नाराजगी फैल गई। इसके मद्देनजर प्रशासन को पूर्वानुमान लगाना चाहिए था कि अशांति राज्य के दूसरे हिस्सों में भी फैल सकती है। सही समय पर ऐसा ना करने के कारण मुंबई में पथराव और वाहनों को रोकने जैसी घटनाएं हुईं।
स्थिति और ना भड़के, इसे सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी अब सीधे राज्य सरकार पर है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने पुणे की घटना की न्यायिक जांच का एलान कर सही कदम उठाया है। बेहतर होगा कि वे नाराज दलित संगठनों को बातचीत के लिए बुलाएं और उनकी शिकायतें दूर करने का प्रयास करें। भीमा कोरेगांव लड़ाई की सालगिरह मनाना एक संवेदनशील मामला है। ऐसे अवसरों पर सरकार से अत्यंत सतर्कता की अपेक्षा रहती है। भारत जैसे प्राचीन और विविधतापूर्ण देश में ऐतिहासिक घटनाओं पर अलग-अलग राय होना अस्वाभाविक नहीं है। कई बार ऐसे कथानक एक-दूसरे की भावनाओं से टकराते हैं। भीमा कोरेगांव की लड़ाई मराठा पेशवा और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुई थी। कंपनी की फौज में शामिल महार (दलित) सैनिकों ने अद्भुत वीरता दिखाई। जिन लड़ाइयों की वजह से ईस्ट इंडिया कंपनी की जड़ें भारत में जमीं, उनमें भीमा कोरेगांव की जंग भी एक है। दलित इसे अपनी बहादुरी की ऐसी मिसाल के रूप में देखते हैं, जिसे दिखाने के मौके से पारंपरिक जाति व्यवस्था ने उन्हें रोके रखा है। जबकि समाज का एक तबका इसे ब्रिटिश कंपनी के हाथों एक भारतीय शासक की पराजय के मौके के रूप में देखता है। आशा की जाती है कि निरंतर सामुदायिक संवाद और सामाजिक मेलजोल से आगे चलकर एक ऐसा तथ्यपरक कथानक विकसित करने में मदद मिलेगी, जिस पर अधिकतम आम-सहमति हो।
लेकिन इस दिशा में तभी बढ़ा जा सकता है, जब शांति बरकरार रहे। इसे सुनिश्चित करना प्रशासन का काम है। पुणे का स्थानीय प्रशासन ऐसा करने में विफल रहा, तो अब यह सरकार का दायित्व है कि वो वहां हुई चूक के परिणामों को संभाले और सामाजिक समरसता बहाल करने की सक्रिय पहल करे। इसकी शुरुआत पुणे में हिंसा करने वाले तत्वों पर कड़ी कानूनी कार्रवाई करते हुए की जा सकती है। उससे सभी पक्षों के बीच संवाद का मार्ग प्रशस्त होगा। केवल पारस्परिक वार्ता से ही ऐसी समस्याओं का हल निकल सकता है।