By: D.K Chaudhary
पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी के आरएसएस कार्यकर्ताओं को संबोधित करने का न्योता स्वीकार करने के बाद पार्टी के अंदर और बाहर हंगामा बरपा है। खबर सुनकर पहले तो कांग्रेसी सन्न रह गए। उसके बाद आलोचना शुरू हुई। कुछ कांग्रेसियों ने उनसे वहां ना जाने की भी अपील की। अब प्रणब के पूर्व कैबिनेट सहयोगी पी चिदंबरम ने कहा है कि वह वहां जाएं और आरएसएस को बताएं कि उसकी विचारधारा क्यों गलत है। आधिकारिक तौर पर कांग्रेस ने इस पर कुछ नहीं कहा है और प्रणब भी खामोश हैं। आखिर उनके नागपुर जाने से कांग्रेस इतनी घबराई हुई क्यों है? क्या उसे डर है कि जिस विचारधारा के खिलाफ वह लड़ाई लड़ रही है, प्रणब के आरएसएस के कार्यक्रम में जाने से उसे वैधता मिल जाएगी? या सवाल टाइमिंग से जुड़ा है? कहीं उसे यह तो नहीं लग रहा कि जिस दौर में बीजेपी-आरएसएस ने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’का हल्ला बोल रखा है, उसमें उसके साथ किसी तरह का संवाद नहीं होना चाहिए? जहां तक आरएसएस की विश्वसनीयता बढ़ने की बात है तो यह नासमझी है क्योंकि सत्ता पर उसके नियंत्रण से कोई इनकार नहीं कर सकता। आरएसएस जिस हिंदुत्व की नुमाइंदगी करता है, उसे देश के हिंदुओं के एक वर्ग का समर्थन हासिल है, जबकि आम लोगों के लिए हिंदू धर्म एक ऐसी विचारधारा है, जो दूसरे धर्मों का सम्मान करती है और धार्मिक आजादी की हिमायती है।
प्रणब खुद कह चुके हैं कि इस देश का मिजाज धर्मनिरपेक्ष है, जो अपनी धार्मिक आस्थाओं के साथ दूसरे धर्मों का भी सम्मान करता है। अगर आप किसी धर्म की बुनियादी अच्छाई को सामने लाना चाहते हैं तो उस धर्म से जुड़ने में कोई बुराई नहीं है। प्रणब कांग्रेस पार्टी का हिंदू चेहरा भी रहे हैं। अपनी आत्मकथा ‘द कोअलिशन ईयर्स ’ में उन्होंने लिखा है कि 2004 में कांची के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती की गिरफ्तारी के वक्त कैबिनेट मीटिंग में उन्होंने कहा था कि जैसे भारतीय धर्मनिरपेक्षता ईद से पहले किसी मौलवी की गिरफ्तारी की इजाजत नहीं देती, वही बात दिवाली से पहले हिंदू धर्मगुरुओं पर भी लागू होनी चाहिए। इस मामले में शायद प्रणब किसी आम भारतीय हिंदू की तरह हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी मंदिर जाते रहे हैं। इसे लेकर उन पर वोट बैंक पॉलिटिक्स का आरोप लगा तो राहुल ने कहा कि धर्म उनका निजी मामला है। आरएसएस-बीजेपी के हिंदुत्व ब्रांड के सामने आम भारतीय की धर्म संबंधी सोच दब सी गई है, जिसे सामने लाने की जरूरत है। यह एक अच्छा मौका है जब प्रणव अपनी बात उस मंच पर रख सकेंगे, जिससे उनका संवाद वैसे नहीं होता। सियासी डर को किनारे रख फिलहाल विचारों के आदान-प्रदान का स्वागत कीजिए।