राष्ट्रपति कार्यालय द्वारा स्पष्टीकरण मांगे जाने के बाद न केवल जिला प्रशासन बल्कि मंदिर का व्यवस्थापक मंडल भी पूरे मामले की जांच करवा रहा है। घटना से जुड़े कुछ अहम पहलुओं की जानकारी जांच पूरी होने के बाद ही मिल सकती है। अभी यह साफ नहीं है कि जब राष्ट्रपति के आगमन की सूचना थी और उनकी सुविधा का ख्याल रखते हुए मंदिर को सुबह 6.35 से 8.40 तक आम भक्तों के लिए बंद कर दिया गया था, तब उनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार आखिर कैसे हो गया। क्या राष्ट्रपति का गर्भगृह की ओर बढ़ना गलत था? उस तरफ उन्हें नहीं जाना चाहिए था? अगर हां तो सवाल यह भी है कि राष्ट्रपति का गर्भगृह जाना किस आधार पर गलत था।
बहरहाल, अभी सबसे ज्यादा प्रासंगिक मसला यह है कि राष्ट्रपति को यह बात समय रहते क्यों नहीं बताई जा सकी? आखिरी पलों में उनकी राह रोकने की नौबत ही क्यों आई? क्या यह मंदिर व्यवस्थापन की लापरवाही का मामला है, जिसके चलते राष्ट्रपति को दर्शन कराने की जिम्मेदारी संभाल रहे सेवादारों को यह जानकारी तक नहीं दी गई थी कि उनके सामने देश का प्रथम नागरिक मौजूद है? अगर ऐसा नहीं है तो फिर दूसरी आशंका यह बनती है कि कहीं यह सेवादारों के मन में गहरे पैठे जातीय पूर्वाग्रहों का नतीजा तो नहीं था? अगर बात सिर्फ लापरवाही की हो, तब भी यह गंभीर है।
चाहे जिस भी स्तर के लोग इसके लिए दोषी हों उन्हें समुचित सजा मिलनी चाहिए। लेकिन अगर मामला जातीय पूर्वाग्रह का है तब तो यह बेहद संगीन है। आजादी के सात दशक गुजर जाने के बाद भी हमारे मंदिर और अन्य धर्मस्थल संवैधानिक व्यवस्थाओं, कानून की धाराओं और प्रगतिशील मूल्यों से इस कदर अछूते बने रहें तो यह पूरे समाज के लिए शर्मनाक है। इसके सिद्ध होने की स्थिति में दोषियों को मिसाली सजा दी जानी चाहिए।