By: D.K Chaudhary
कानूनों के बारे में एक आम धारणा यह है कि कुछ कानून शासन-प्रशासन और सामाजिक कार्य-व्यवहार को सुचारु रूप से चलाने के लिए होते हैं, कुछ कानून अपराधों को रोकने के लिए होते हैं, कुछ कानून सिर्फ यह दिखाने के लिए होते हैं कि सजग हैं, भले ही उनका जमीनी असर कुछ न हो। कानूनों के ऐसे ही कुछ और भी वर्गीकरण हो सकते हैं। लेकिन हमारे देश में कुछ नहीं, बल्कि बहुत से कानून सिर्फ इसलिए हैं कि किसी दौर में वे बन गए थे, समय बदला और उनकी जरूरत भी खत्म हो गई, लेकिन उन कानूनों की सुध लेने की फुरसत किसी के पास नहीं थी। जिन कानूनों को न जाने कब इतिहास की किताबों में दर्ज होकर रह जाना था, वे अभी भी हमारा वर्तमान बने हुए हैं। ऐसे एकाध कानून का कभी-कभार दुरुपयोग भी हो जाता होगा, लेकिन आमतौर पर वे कानून की भारी-भरकम किताबों में पड़े रहते हैं। बेशक, इसमें बहुत से कानून ऐसे हैं, जिनके होने या न होने का अब कोई मतलब नहीं, लेकिन यह सवाल फिर भी है कि वे वहां हैं ही क्यों? उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐसे एक हजार से ज्यादा कानूनों को रद्द करने का फैसला किया है। मसलन, बेमतलब कानूनों की इस लंबी फेहरिस्त में अवध स्टेट से संबंधित कई कानून हैं। अब जब अवध नाम का कोई राज्य ही नहीं रहा, तो इसके कानूनों का क्या अर्थ है। इसी तरह, तालुकदार्स रिलीफ ऐक्ट भी है, जबकि ताल्लुकेदार जैसा अब कोई ओहदा नहीं है। ये वे कानून हैं, जो ब्रिटिश राज के दौरान बने थे, जब कोई उत्तर प्रदेश नहीं था, बल्कि एक संयुक्त प्रांत था और बाद में ये सारे कानून उत्तर प्रदेश के हिस्से में आ गए।
अगर एक हजार से ज्यादा ऐसे कानूनों की संख्या जिन लोगों को चौंकाती है, उनके लिए एक जानकारी और है। केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के अनुसार केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से अब तक ऐसे 1,800 ब्रिटिश कालीन कानूनों को निरस्त किया जा चुका है। वैसे ऐसा नहीं है कि ये प्रयास इन दिनों पहली बार चल रहे हों। देश ने 1950 में ही ऐसे 1,029 कानूनों को निरस्त किया था। तब से यह सिलसिला रुक-रुककर लगातार ही जारी रहा, लेकिन अभी तक उन सारे कानूनों से पूरी मुक्ति नहीं मिली, जिनका अब कोई अर्थ नहीं है। इन पर अब तक हजारों लेख लिखे जा चुके हैं, बड़े-बड़े कानूनविदों ने इन पर टिप्पणियां की हैं, तमाम विधि आयोगों ने इन्हें हटाने की सिफारिश की है, लेकिन इनसे पूरी तरह मुक्ति नहीं मिल सकी है।
यह भी सच है कि हमारी कानून-व्यवस्था का मूल ढांचा अभी भी ब्रिटिश कालीन है और इसमें बदलाव करते समय सरकारें अपनी सहूलियत को सामने रखती हैं। समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया मानते थे कि आजाद भारत में धारा 144 जैसी कोई चीज नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वह लोगों की राजनीतिक आजादी को बाधित करती है, लेकिन उन्हीं लोहिया के शिष्य जब सरकारों में आए, तो उन्होंने इसे हटाने की कोई बड़ी कोशिश नहीं की। यही बात राजद्रोह कानून को लेकर भी कही जाती है और समलैंगिकता को लेकर बने कानून को लेकर भी। इनका दुरुपयोग भी होता रहा है। लेकिन फिलहाल मुद्दा उन कानूनों का है, जो अब दुरुपयोग के लायक भी शायद ही बचे हों। इनसे मुक्ति स्वागत योग्य है, लेकिन असल जरूरत उन कानूनों पर ध्यान देने की है, जो जनता की जरूरतों से सीधे जुड़ते हैं।