इन्हीं विवादों का दबाव था कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सेंसर बोर्ड को प्रमाणपत्र दे देने के बाद भी फिल्म पर फिर से विचार करना पड़ा। हालांकि दोबारा भी उसे फिल्म की कथा में कोई खोट नजर नहीं आया। बस उसे एक ही चीज समझ में आई कि इसे ऐतिहासिक चरित्र पद्मावती से न जोड़कर देखा जाए, इसलिए इसका नाम मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य पद्मावत पर रखा जाए। हालांकि नाम बदलने का भी बहुत असर नहीं दिखा और विरोध करने वाले विरोध करते रहे। इसी विरोध के दबाव में राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और मध्य प्रदेश की सरकारों ने यह घोषणा कर दी कि उनके राज्य में फिल्म पर पाबंदी रहेगी। इसी पाबंदी का मामला जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, तो कोर्ट ने इसे न सिर्फ गलत ठहराया, बल्कि राज्य सरकारों को यह जिम्मेदारी भी सौंपी कि वे इसकी वजह से कानून-व्यवस्था को न बिगड़ने दें।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का महत्व सिर्फ इतना ही नहीं है कि उसने फिल्म के रिलीज पर लगी पाबंदी को गलत ठहराया, बल्कि यह भी है कि उसने एक संस्था के रूप में सेंसर बोर्ड की हैसियत को भी स्थापित किया है। पिछले कुछ दिनों से यह सवाल पूछा जाने लगा था कि अगर सेंसर बोर्ड द्वारा पास कर दिए जाने पर भी राजनीतिक कारणों से किसी फिल्म पर पाबंदी लग सकती है, तो ऐसे में सेंसर बोर्ड का क्या अर्थ रह गया? इसका संदेश यही जाता कि राजनीति एक संस्था से ज्यादा बड़ी है। अतीत में ऐसा होता भी रहा है कि फिल्म को सेंसर बोर्ड ने तो पास कर दिया, लेकिन राजनीतिक कारणों से फिल्म को कई जगहों पर लोग देख ही नहीं सके। माना जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद सब बंद हो जाएगा। विरोध करने वालों और पाबंदी लगाने वालों को भी यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि इंटरनेट के युग में वैसे भी ऐसी पाबंदियों और विरोध का कोई अर्थ नहीं। अब ऐसे तमाम तरीके हैं, जिनसे लोग आसानी से फिल्म देख सकते हैं, कहीं भी और कभी भी