By: D.K Chaudhary
भारत में अदालतों में जजों की भारी कमी और दो करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित होने के आंकड़े सिर्फ रस्मी तौर पर दोहराए जाते हैं।
बहुत सारे विचाराधीन कैदी फैसले के इंतजार में जेल में सड़ने को विवश रहते हैं। छोटे-मोटे मुकदमे, जो लघु वाद कहे जाते हैं और जिनका कुछ ही सुनवाइयों में शीघ्र निपटारा हो सकता है, निचली अदालतों में कई-कई साल लटके रहते हैं। इसके बाद हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमे और भी लंबे खिंचते हैं। ऐसे में न्याय का क्या अर्थ रह जाता है? भारतीय न्यायपालिका की समस्याओं और नियुक्तियों आदि को लेकर विधि आयोग ने 1987 में अपनी रिपोर्ट दी थी, जिसमें जजों की संख्या प्रति दस लाख की आबादी पर अठारह से बढ़ा कर पचास करने की संस्तुति की थी। अमेरिका में दस लाख की आबादी पर जजों की संख्या डेढ़ सौ है, जबकि भारत में यह अनुपात बारह का है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि न्यायिक तंत्र के मामले में भारत तुलनात्मक रूप से कहां खड़ा है। न्यायशास्त्री हों या समाजशास्त्री, सबका यही कहना है कि त्वरित और सस्ते न्याय के बगैर किसी सभ्य समाज या राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती।
आजकल देश में ‘विकास’ शब्द पर बहुत जोर है। अप्रैल 2016 में दिल्ली में हुए मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों के एक सम्मेलन में भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर ने कहा था, ‘न्यायपालिका की क्षमता और देश के विकास के बीच गहरा नाता है।’ उस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मौजूद थे। प्रधान न्यायाधीश भावुक हो उठे थे और उन्होंने यहां तक कहा, ‘कॉन्फ्रेंसों और सेमिनारों में बहुत चर्चा होती है, लेकिन कुछ होता नहीं। केंद्र सरकार कहती है कि वह वचनबद्ध है और राज्य सरकारें कहती हैं कि पहले केंद्र सरकार को धनराशि देने दीजिए।’ इस दुखद प्रसंग के बाद भी हालत में कुछ सुधार नहीं हुआ है। ऐसे में सवाल उठता है कि विकास की वह कौन-सी परिभाषा है, जो अपने न्यायतंत्र को दरकिनार करके गढ़ी जा सकती है!