By: D.K Chaudhary
पर सवाल है कि क्या सचमुच स्थिति इतनी विकट हो गई थी कि नाराज न्यायाधीशों के लिए आपस में मिल-बैठ कर कोई व्यावहारिक रास्ता निकालना संभव नहीं रह गया था! फिर, इस तरह मीडिया के सामने अपना आक्रोश और नाराजगी जाहिर करने से आखिर हासिल क्या होगा! इससे लोकतंत्र के तीसरे बड़े स्तंभ की साख पर सवालिया निशान बेशक लग गया है। कहीं इसे नजीर मानते हुए निचली अदालतों के न्यायाधीश भी अपनी नाराजगी प्रकट करने का यही रास्ता तो अख्तियार नहीं करेंगे! अनेक संस्थानों में वरिष्ठ और कनिष्ठ कर्मियों के बीच मतभेद देखे जाते हैं। पर न्यायपालिका चूंकि लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तंभ है, अन्याय के विरुद्ध फैसले सुनाने की जिम्मेदारी उस पर है, लोकशाही को सशक्त बनाने के मकसद से उसे विधायिका और कार्यपालिका के आचरण पर अंगुली उठाने का अधिकार है, इसलिए वहां इस तरह मतभेदों का सतह पर आना उसकी गरिमा के अनुकूल नहीं माना गया है। इसलिए न्यायाधीशों, खासकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वे बिना किसी दलगत या वैचारिक दबाव में आए, आपसी तालमेल से न्याय व्यवस्था को सुचारु बनाने का प्रयास करें। अहं के टकराव या फिर सुर्खियों में बने रहने के मकसद से फैसले सुनाने, बयान देने जैसे कदम से बचें। इस तकाजे का निर्वाह न हो पाने की वजह से ताजा प्रकरण अधिक गंभीर विषय बन गया है।
इस प्रकरण के बाद न सिर्फ देश, बल्कि दुनिया में बहुत गलत संदेश गया है। विपक्षी दलों ने इसे राजनीतिक रंग भी देना शुरू कर दिया है। यह भी ठीक नहीं है। न्यायपालिका को अपनी स्वायत्तता का सम्मान करते हुए, पारस्परिक तालमेल से अपने मतभेदों और अंदरूनी अव्यवस्थाओं को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। यह भी उचित नहीं होगा कि इस प्रकरण की जांच किसी बाहरी एजेंसी से कराने का प्रयास हो। इससे और कालिख उभरेगी। ऐसे में मुख्य न्यायाधीश से अपेक्षा स्वाभाविक है कि वे सर्वोच्च अदालत की गरिमा का ध्यान रखते हुए अपने विवेक से इस मामले को अधिक तूल न पकड़ने दें।