By: D.K Chaudhary
केंद्र सरकार के ताजा निर्णय ने भारतीय नौकरशाही में खलबली मचा दी है। निर्णय है सरकार के संयुक्त सचिव स्तर के पदों पर बाहर से भी प्रतिभाओं को नियुक्ति देना यानी लेटरल एंट्री के दरवाजे खोलना। लगभग पच्चीस केंद्रीय सेवाओं में हजारों पद हैं। हो सकता है आने वाले वक्त में राज्य सरकार और अन्य उपक्रमों में समान पदों पर भी ‘लेटरल एंट्री’ की शुरुआत हो। भारतीय नौकरशाही में बदलाव का यह आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा और गंभीर फैसला है। सरकार के विचाराधीन इतना ही महत्वपूर्ण विचार यह है कि चयनित अधिकारियों को उनके विभागों का आवंटन केवल यूपीएससी के अंकों के आधार पर ही नहीं किया जाए बल्कि प्रशिक्षण प्रक्रिया के दौरान जाहिर हुई उनकी क्षमताओं, अभिरुचियों आदि को मिलाकर हो, जिससे प्रशासन को उनकी योग्यता का पूरा लाभ मिल सके।
पहले बात ‘लेटरल एंट्री’ की। भारतीय प्रशासनिक सेवाएं ब्रिटिश कालीन आईसीएस (इंडियन सिविल सर्विस) की लगभग नकल है। आज़ादी के वक्त इसकी जरूरत भी थी। आईसीएस का ढांचा ब्रिटिश शासकों के हितों के अनुकूल था लेकिन, आज़ादी के वक्त विभाजन से लेकर सैंकड़ों समस्याओं के मद्देनज़र बिना मूलभूत परिवर्तन के इसी ‘उपनिवेशी’ ढांचे को स्वीकृति दे दी गई। अफसोस है कि उम्र, परीक्षा प्रणाली, विषय बदलने के अलावा इसमें कोई बड़ा परिवर्तन आज तक नहीं हुआ। एक बेहद लुंज-पुंज व्यवस्था, भ्रष्टाचार, असंवेदनशीलता व हाथी जैसे आकार की नौकरशाही के रूप में नतीजा सामने है। ज्यादा दोष राजनीतिक स्वार्थों का है, जिसमें उपनिवेशकालीन बुराइयां तो बनी ही रहीं, नए राष्ट्र के वंशवाद, भ्रष्टाचार अनैतिकताएं भी राज्यों के उत्तरदायित्वोंं से पिंड छुड़ाकर इसमें शामिल होती गईं।
मौजूदा उच्च नौकरशाही में भर्ती यूपीएससी द्वारा होती है। नि:संदेह यह देश की सबसे कड़ी तीन स्तरीय परीक्षा है। 2017 में दस लाख से ज्यादा परीक्षार्थियों में से लगभग एक हजार चुने गए। इनकी मेरिट और प्राथमिकता के आधार पर इन्हें भारत सरकार के पच्चीस विभागों, प्रशासन, पुलिस, विदेश, राजस्व, व रेलवे आदि में बांट दिया जाता है। यही अफसर अपनी पदोन्नति के क्रम में अपनी-अपनी सेवाओं के उच्चतम स्तर निदेशक, ज्वॉइंट सेक्रेटरी, सेक्रेटरी, बोर्ड मेम्बर आदि पदों पर पहुंचते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर इसमें ‘बाहरी परिन्दा पर भी नहीं मार सकता’। आपस में अस्थायी आवाजाही जरूर होती है, जिसे ‘डेपुटेशन’ माना जाता है।
अब नए निर्णय के अनुसार उच्च पदों पर सरकार देश की उन प्रतिभाओं को भी नियुक्त कर सकती है, जिन्होंने यूपीएससी की परीक्षा पास नहीं की। वे निजी क्षेत्र, विश्वविद्यालय, सामाजिक, आर्थिक विद्वान, जाने-माने इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, लेखक, कलाकार, पत्रकार कोई भी हो सकता है। ये देश-विदेश में बिखरीं वे प्रतिभाएं होंगी, जिन्होंने अपने क्षेत्रों में ऊंचाई पाई है, परिवर्तन के प्रहरी बने हैं। सरकार यह दरवाजा खोलकर उनकी प्रतिभा, क्षमता का इस्तेमाल पूरे राष्ट्र के परिवर्तन के लिए कर सकती है। उदाहरण के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के धुरंधर नंदन नीलेकणी जिनका आधार कार्ड का विचार देश के लिए सार्थक साबित हुआ। यदि ये प्रतिभाएं यूपीएससी में नहीं बैठीं तो उन्हें सदा के लिए राष्ट्रहित की नीतियों से वंचित नहीं करना चाहिए। यदि कश्मीर या लद्दाख के दुर्गम पहाड़ों में रेल चलाने के लिए ऐसे इंजीनियर उपलब्ध हैं, जिनके अनुभव से दुनिया को फायदा हुआ है तो भारत सरकार या रेल विभाग में उनका योगदान क्योंे न हो? क्यों संस्कृति, शिक्षा मंत्रालय को उस संयुक्त सचिव या सचिव के सुपुर्द कर देना चाहिए, जिसकी पूरी उम्र किताब, कला, नृत्य, नाटक या विश्वविद्यालय से वास्ता ही नहीं रहा हो? नौकरशाह इनसे सीखेंगे और ये लोग सरकार से।
ऐसा नहीं है कि ‘लेटरल एंट्री’ इस सरकार का कोई मौलिक विचार है। मौलिकता निर्णय लागू करने में है। छठे वेतनमान आयोग ने 2008 में भी ‘लेटरल एंट्री’ का विचार दिया था। नब्बे के बाद शुरू हुए उदारीकरण की हवा ने परिवर्तन के रास्ते खोले। स्टार्टअप, निजी उद्योग और सूचना क्रांति ने यह साफ किया कि जितनी तेजी से विश्व व्यवस्था बदल रही है, भारतीय नौकरशाही नहीं। बल्कि राजनीतिक दुरभिसंधियों के चलते भारतीय नौकरशाही दुनिया की ‘भ्रष्टतम, कामचोर, अक्षम, असंवेदनशील व्यवस्था हो गई। इसकी क्षमता में सुधार ‘लेटरल एंट्री’ जैसी प्रक्रिया से ही संभव है! मौजूदा नौकरशाहों को जब निष्पक्ष, साहसी, निर्णयात्मक नौजवान साथियों, संयुक्त सचिवों से चुनौती मिलेगी तो ये अजगर भी बदलेंगे। वरना अभी तो यदि एक बार ये चुन लिए गए तो नब्बे प्रतिशत बिना अपनी प्रतिभा, दक्षता को आगे बढ़ाए भी उच्चतम पदों पर पहुंच जाते हैं और फिर रिटायरमेंट के बाद लाखों की प्रतिमाह पेंशन। यूपीएससी से चुने जाने का दंभ अलग। यही कारण रहा कि यूपीए सरकार भी इन्हीं नौकरशाहों और विशेषकर इनके जातीय संगठनों के दबाव में चुप्पी साधे रही। हालांकि, यूपीए सरकार की कई हस्तियां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, मनटेकसिंह आहलूवालिया समेत कई मुख्य आर्थिक सलाहकार, सेक्रेटरी विज्ञान और तकनीकी मंत्रालयों में पिछले दरवाजे से ही सरकार में शामिल होते रहे हैं। कई यूरोपीय देशों में यह मॉडल पूरी सफलता से चालू है।
नौकरशाही के पुरोहितवाद की इमारत को पहली बार पूरे साहस के साथ धक्का मारा गया है लेकिन, मामला बहुत जटिल है। यदि प्रशासनिक वैज्ञानिक दक्षता की बजाए ‘विचारधारा’, जाति, धर्म, पंथ विशेष के आधार पर लेटरल एंट्री होने लगी तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। क्या यूपीएससी जैसी निष्पक्ष संस्था को यह काम सौंपा जाएगा, जो सामाजिक परिवर्तनों की आहटों को समझते हुए ऐसे अधिकारियों को तैनात करे? उम्मीद की जानी चाहिए यह नियुक्ति पूरक के तौर पर तीन या पांच वर्ष जैसी अवधि के लिए होगी। एक परिवर्तन इसी समय यह लागू किया जाए कि सभी नौकरशाहों की पदोन्नति एक क्षमता परीक्षा से ही हो और उन्हें भी साठ वर्ष की निश्चित सेवा अवधि से पहले भी आज़ाद कर दिया जाए। सेना में यही होता है। मौजूदा नौकरशाही की सबसे बड़ी कमी अतिरिक्त सुरक्षा बोध, नौकरी की गारंटी है। नौकरशाही में यह बदलाव क्रांति से कम नहीं हैै। मगर आप जानते हैं कि यदि क्रांति सही हाथों में न हो तो क्या होता है। सभी क्रांतियां सफल भी नहीं होती हैं फिर भी इस परिवर्तन का स्वागत है।