नोटों की किल्लत Editorial page 19th April 2018

By: D.K Chaudhary

नोटबंदी के दुख भरे दिनों की यादें अभी धुंधली भी नहीं पड़ी थीं कि देश के अलग-अलग हिस्सों से एटीएम और बैंकों में कैश कम पड़ने की खबरें दोबारा आने लगीं। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से शुरू हुई यह दिक्कत देखते-देखते महाराष्ट्र, यूपी, बिहार और गुजरात तक फैल गई है। सरकार ने कहा है कि देश में कैश की कमी जैसी कोई स्थिति नहीं है, लेकिन उसने भी माना है कि कहीं-कहीं समस्या है और हालात सामान्य होने में दो-तीन दिन लग सकते हैं। सरकारी आंकड़ों की बात करें तो ऐसी किसी किल्लत का दूर-दूर तक कोई मामला ही नहीं बनता। जब नोटबंदी की घोषणा हुई थी तब देश में 17.50 लाख करोड़ रुपए के नोट सर्कुलेशन में थे, जबकि अभी 18 लाख करोड़ रुपए चलन में हैं। 
बावजूद इसके, बैंक व एटीएम में कैश कम पड़ गया तो इसके पीछे बड़ी भूमिका इस अफवाह की बताई जा रही है कि प्रस्तावित फाइनैंशल रेज़ॉलूशन एंड डिपॉजिट इंश्योरेंस (एफआरडीआई) बिल ने अगर कानून की शक्ल ले ली तो बैंकों में जमा रकम सुरक्षित नहीं रह जाएगी। सरकार ने इस अफवाह को गलत करार दिया। लेकिन ऐसा लगता है कि नोटबंदी और जीएसटी जैसे प्रयोगों के दौरान सरकार की तरफ से जिस तरह के बयान जारी हुए और परस्पर विरोधी आदेश निकाले गए, उसे देखते हुए लोग अपने पैसों को लेकर किसी तरह का जोखिम नहीं मोल लेना चाहते। जिन लोगों को अपने कामकाज में नकदी की ज्यादा जरूरत होती है, उनको ज्यादा से ज्यादा पैसा निकाल कर अपने पास रखे रहना ही ठीक लग रहा है। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में एटीएम खाली होने के पीछे इसी हड़बड़ी का हाथ है। 

मगर यह समस्या का सिर्फ एक पहलू है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि हजार और पांच सौ के पुराने नोट रद्द करने के बाद सरकार ने पांच सौ और दो हजार के नए नोट छाप दिए, जिनमें दो हजार के नोट तुड़ाना झंझट का काम माना जाता है। यानी बाजार में नोटों का वजन भले ही नोटबंदी के पहले जितना हो गया हो, पर लिक्विडिटी वैसी नहीं हो पाई है। काला धन जमा करने के लिहाज से दो हजार के नोटों का ज्यादा सुविधाजनक होना भी एक बड़ा सिरदर्द है। वजह जो भी हो, एक सच्चाई जगजाहिर है कि 2000 के नोट चलन में कम दिखते हैं। सरकार भी इस संभावना से इनकार नहीं करती कि 2000 के नोटों का कुछ इस्तेमाल पैसों की जमाखोरी के लिए हो रहा होगा। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि बैंकों में जमा की रफ्तार इधर काफी सुस्त पड़ गई है। वित्तीय वर्ष 2016-17 में इसमें 15.3 फीसदी बढ़ोतरी हुई थी जो 2017-18 में महज 6.66 फीसदी रह गई। यानी वित्तीय प्रबंधन को चुस्त-दुरुस्त करने की जरूरत तो है ही, साथ में बैंकिंग के प्रति लोगों का पहले जैसा भरोसा कायम करने की चुनौती भी सरकार के सामने है। 

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