नीति आयोग की भूमिका Editorial page 20th June 2018

By: D.K Chaudhary

रविवार को हुई नीति आयोग गवर्निंग काउंसिल की चौथी बैठक इस लिहाज से महत्वपूर्ण रही कि सरकार के मौजूदा कार्यकाल की यह संभवत: आखिरी बैठक थी। दिलचस्प है कि इस बैठक में भी लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने की जरूरत पर ही सबसे ज्यादा जोर दिखा। यह मसला काउंसिल की पिछली बैठक में भी उठा था। प्रगति तो इसमें क्या ही होनी थी। आखिर यह एक राजनीतिक मसला है। सर्वानुमति के बिना इस पर बात आगे नहीं बढ़ सकती और ज्यादातर राजनीतिक दल इसे अव्यावहारिक बता रहे हैं। नीति आयोग इसमें इतना क्यों उलझा हुआ है, समझना कठिन है। दिक्कत यह है कि न सिर्फ नीति आयोग बल्कि खुद यह सरकार भी 5 साल के पैमाने को अपने लिए निरर्थक मानती है। 2014 में अपने आगमन के साथ ही नरेंद्र मोदी सरकार ने यह चर्चा शुरू कर दी थी कि योजना आयोग को समाप्त कर उसकी जगह कोई नई एजेंसी बनाई जाए। 1 जनवरी 2015 को भारत सरकार के एक पॉलिसी थिंक टैंक के रूप में नीति (नैशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया) आयोग गठित कर दिया गया। 8 फरवरी 2015 को इसकी पहली बैठक हुई। योजना आयोग की तरह इसके भी चेयरमैन प्रधानमंत्री ही होते हैं। 
सभी राज्यों के मुख्यमंत्री इसकी गवर्निंग काउंसिल के स्थायी सदस्य होते हैं, लेकिन योजना आयोग का मुख्य कार्य पंचवर्षीय योजनाएं तैयार करना होता था, जबकि नीति आयोग के साथ पांच वर्ष तो क्या किसी भी निश्चित अवधि की कोई कसौटी नहीं जुड़ी है। कहा गया था कि यह आयोग 15 साल का रोडमैप, सात साल का विजन डॉक्युमेंट और तीन साल का एक्शन प्लान तैयार करेगा। आयोग की गवर्निंग काउंसिल की सालाना बैठक भी नियमित तौर पर होती रही, लेकिन भारत के नीतिगत ढांचे में नीति आयोग की कोई ठोस भूमिका आज भी रेखांकित नहीं हो पाई है। गवर्निंग काउंसिल की इस चौथी बैठक में भी प्रधानमंत्री ने ‘न्यू इंडिया 2022’ का अपना विजन पेश किया। उस समय तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा गया है। 

सरकार का कार्यकाल बीतने जा रहा है, लेकिन उसका यह आला नीति निकाय चार साल आगे का सपना दिखा रहा है। चुनावों से तो खैर योजना आयोग का भी कोई नाता नहीं रहता था, लेकिन पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए उसकी एक ठोस भूमिका देश के सामने बनी रहती थी। नीति आयोग ऐसी किसी भी भूमिका से परे है। एक शीर्ष संस्था के बारे में इतनी जल्दी किसी निष्कर्ष तक पहुंच जाना उचित नहीं है, लेकिन उस पर लगने वाले सरकारी धन का उपयोग सिर्फ प्रचारात्मक आंकड़ेबाजी और महीन बौद्धिक कताई के लिए नहीं किया जा रहा है, इस बारे में कुछ अंदाजा लगाने के लिए 4 साल का वक्त उतना कम भी नहीं है।

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