By: D.K Chaudhary
इसे तात्कालिक उन्माद भर मानकर किनारे नहीं किया जा सकता। सत्तारूढ़ पार्टी का अतीत ऐसा नहीं रहा है, लेकिन अभी तो वह अपनी हर जीत के बाद कुछ ऐसा दिखाती है, जैसे वह अपने विचारों और नीतियों को ताकत के बल पर ही लागू कराएगी और जो भी उससे असहमत होगा, उसे सबक सिखा दिया जाएगा। ऐसा सिर्फ निचले कार्यकर्ताओं के बर्ताव से जाहिर नहीं होता। पार्टी के बड़े नेता और सहयोगी संगठनों के शीर्ष लोग भी उनके सुर में सुर मिलाते हैं। पार्टी आलाकमान ऐसे बयानों पर कभी-कभार नाराजगी जाहिर कर देता है, लेकिन कोई गंभीर कदम नहीं उठाता। मूर्तिध्वंस का मामला ही लें तो शुरू में लगा कि यह किसी स्थानीय कार्यकर्ता की खुराफात हो सकती है। लेकिन बीजेपी के कई नेताओं ने घुमा-फिराकर इसे सही ठहराया।
वे यह कहकर इस कृत्य को जायज ठहरा रहे हैं कि त्रिपुरावासी वामपंथी शासन से घृणा करते रहे हैं, मूर्ति गिराना इसी की अभिव्यक्ति है। लोकतंत्र में असहमति जताने का सबसे अच्छा तरीका वोटिंग है। त्रिपुरा की जनता ने अपना फैसला सुना दिया। इसके बाद मूर्ति को तोड़ना नफरत भड़काने की कसरत के सिवा और क्या है? और इसे पेरियार से लेकर आंबेडकर तक खींचने का क्या तर्क हो सकता है? क्या बीजेपी के लोग यह बताना चाहते हैं कि वे देश में अब तक चले सारे सामाजिक आंदोलनों को मटियामेट कर देंगे? अगर ऐसा कुछ है तो उन्हें इसके दूरगामी नतीजों का आकलन कर लेना चाहिए। एक सभ्य समाज अपने इतिहास को संजो कर रखता है, भले ही वह उसके वर्तमान से मेल खाता हो या नहीं। इस तरह मूर्तियों की तोड़फोड़ के जरिए प्रतिगामी ध्रुवीकरण का प्रयास देश के लिए नुकसानदेह है। प्रधानमंत्री इससे चिंतित हैं तो इसे यहीं रोक दें