नदी और नौकरशाही Editorial page 24th July 2018

By: D.K Chaudhary

सरकार नदियों के सवाल पर खुद को संवेदनशील दिखाने का कोई मौका नहीं चूकती, लेकिन उसका अमला नदी परियोजनाओं को लेकर अपनी उदासीनता और कछुआ चाल नहीं छोड़ पाया है। यही वजह है कि अनेक नदी परियोजनाएं लटकी पड़ी हैं। नमामि गंगे जैसे प्रॉजेक्ट के लिए निर्धारित राशि खर्च नहीं हो पाई है। 
पिछले दिनों पता चला कि ‘नदी विकास और गंगा कायाकल्प’ के तहत केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई पांच परियोजनाओं में काम बाकी पड़ा है। उनकी लागत राशि काफी बढ़ गई है। शुक्रवार को संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने जानकारी दी है कि इन परियोजनाओं पर खर्च में 50 हजार करोड़ तक की वृद्धि हो गई है। इनमें कई जगह तो 99 फीसदी तक काम बाकी पड़ा है। 

कैग के अनुसार राष्ट्रीय स्कीम में शामिल किए जाने से पहले इन पांच परियोजनाओं का खर्चा 32, 802 करोड़ रुपये तक बढ़ चुका था, लेकिन नैशनल स्कीम में शामिल किए जाने के बाद केवल दो परियाजनाओं इंदिरा सागर पोलावरम प्रॉजेक्ट और गोसीखुर्द प्रॉजेक्ट का ही खर्चा 49, 840 करोड़ तक बढ़ गया है। बाकी तीन परियोजनाओं के पूरा होने का निर्धारित समय बीत चुका है, लेकिन उनमें जरा भी काम नहीं हुआ है। 

कैग ने इसके लिए कामकाज में गड़बड़ी को जवाबदेह ठहराया है। उसके मुताबिक प्रशासनिक फैसले में देरी, ठेके देने में गड़बड़ी और निगरानी में कमी की वजह से ही इनका व्यय बढ़ा है। प्रशासन के स्तर पर दुविधा के कारण पुनर्वास में देरी हुई है। 1332 करोड़ तो इस पर इसलिए अतिरिक्त खर्च हुए क्योंकि कई समझौते नए सिरे से किए गए। मुआवजा देने में विलंब के कारण उन पर ब्याज के रूप में 82.35 करोड़ खर्च हुए। सर्वेक्षण और जांच के लिए निर्धारित नियमों का पालन न करने से भी कई समस्याएं पैदा हुई हैं। 

कैग की सलाह है कि सरकार इन परियोजनाओं पर निगरानी रखने के लिए एक नोडल अफसर की नियुक्ति करे और ठेके प्रदान करने संबंधी व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त और पारदर्शी बनाए। पता नहीं इन सुझावों पर कितना अमल हो पाएगा। हमारे देश में पर्यावरण को लेकर पिछले कुछ समय से बातें जरूर होने लगी हैं, लेकिन उन्हें जमीन पर उतारना आसान नहीं है। 

नौकरशाही के सामने कई तरह की मजबूरियां भी होती हैं। आए दिन देश भर से अवैध रेत खनन माफियाओं और प्रशासन के टकराव की खबरें आती हैं। कुछ अफसरों की तो इसमें जान भी गई है। इन माफियाओं को अक्सर राजनीतिक संरक्षण हासिल होता है। प्रदूषण दूर करने के लिए उद्योगों को हटाने की बात होती है, लेकिन स्थानीय स्तर पर उनके मालिकों के प्रभाव के चलते प्रशासन के लिए उन्हें हटाना आसान नहीं होता। मुआवजे वगैरह के मुद्दे को भी कई बार स्वार्थी तत्व उलझाने की कोशिश करते हैं, जिनसे परियोजनाएं लटक जाती हैं। नदियों के सवाल पर सरकार को दृढ़ इच्छाशक्ति दिखानी होगी तभी नौकरशाही भी मुस्तैदी से काम कर सकेगी। 

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