देरी से न्याय (Editorial page) 24th Fab 2018

By: D.K Chaudhary

हमारी न्याय व्यवस्था किस कदर पंगु हो चुकी है, यह किसी से छिपा नहीं है। छोटे-छोटे विवादों और मामूली अपराधों के मामलों की सुनवाई में अरसा लग जाता है। किसी-किसी में फैसला आने में कई दशक बीत जाते हैं। इसी की एक मिसाल राजस्थान के सीकर जिले में देखने को मिली, जहां हमले के एक मामले में दोषियों को सजा दिलाने के लिए पीड़ित को बत्तीस साल इंतजार करना पड़ा। घटना 1985 की है जब पीड़ित व्यक्ति पर नौ लोगों ने हमला कर उसे जख्मी कर दिया था। उसके एक हाथ की सारी अंगुलियां और अंगूठा कट गया था। नौ आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चला। चार आरोपियों की मौत हो चुकी है, जाहिर है उनके खिलाफ मुकदमा बंद होना था। जबकि पांच आरोपियों को तीन-तीन साल के कठोर कारावास और एक-एक हजार रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई गई। कहा जाता है कि देरी से मिला न्याय, न्याय नहीं है। इस मामले में आया फैसला तो शायद उपर्युक्त कहावत में बताई गई देरी से भी ज्यादा देरी से आया है। यह देरी अचंभे में डालने वाली जरूर है, पर एक व्यापक और कड़वी हकीकत का एक सिरा भर है।

दूसरी ओर, लंबा अरसा बीतने से आरोपियों को पीड़ित पक्ष को डराने-धमकाने, दबाव डाल कर अनुचित समझौते के लिए मजबूर करने या सबूतों को नष्ट करने का मौका मिलता है। इस तरह, न्यायिक प्रक्रिया की यह सुस्ती अन्याय और अपराध को बढ़ावा देने वाली साबित होती रही है। बहरहाल, मुकदमों की सुनवाई में होने वाली देरी के पीछे जजों की कमी एक बड़ी वजह है। आबादी के अनुपात में जजों की संख्या तो कम है ही, जजों के खाली पद समय से नहीं भरे जाते, कई अदालतो में बरसों तक खाली रहते हैं। विधि आयोग ने समय-समय पर अपनी कई रिपोर्टों में जजों की संख्या बढ़ाने की सिफारिश की है। पर इन सिफारिशों को किसी भी सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया, भले हर सरकार यह दोहराती रही हो कि वह न्यायिक सुधार की राह में वित्तीय बाधा नहीं आने देगी। जजों की कमी न्यायिक व्यवस्था के लिए गंभीर संकट का रूप ले चुकी है। न्याय का शासन लोकतंत्र का आधार है। न्याय में देरी से आम आदमी का न्यायिक प्रक्रिया से भरोसा उठता है। यह भरोसा न टूटे, इसके लिए न्यायिक व्यवस्था को दुरुस्त बनाने की जरूरत है और इस दुरुस्ती की कसौटी यही है कि पीड़ित को वक्त पर न्याय मिले।

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