दिमाग का कूड़ा (Editorial Page)  09th Fab 2018

By: D.K Chaudhary
मामला कचरा प्रबंधन पर सरकारी कोशिशों से जुड़ा था, मगर इसने मोड़ कुछ ऐसा ले लिया कि सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा, सरकार अपना कूड़ा कोर्ट में न डाले। सुनवाई चल रही थी सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स 2016 पर देश भर में हो रहे अमल से जुड़ी याचिका पर। सरकार की ओर से इस पर 845 पेज का एक हलफनामा दायर किया जा रहा था। मगर इस लंबे हलफनामे में बुनियादी सवालों के जवाब हैं या नहीं, इसकी जानकारी सरकार की तरफ से खड़े वकील को भी नहीं थी। मसलन, सरकार की तरफ से कोर्ट को यह भी नहीं बताया जा सका कि 2016 के कानून के मुताबिक राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में सलाहकार बोर्डों का गठन हुआ है या नहीं। 

 

स्वाभाविक रूप से अदालत ने नाराजगी भरे स्वर में इस पर आपत्ति जताई और कहा कि याद रखें, हमारा काम आपका कूड़ा उठाना नहीं है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इस हलफनामे को ठुकराते हुए कड़ाई से यह भी कहा कि तीन हफ्ते के अंदर सरकार पूरा ब्योरा पेश करे, जिसमें बताया गया हो कि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सलाहकार बोर्डों का गठन हुआ है या नहीं, हुआ है तो किस तारीख को हुआ, उनके अध्यक्ष और सदस्य कौन-कौन हैं, और इन बोर्डों की कितनी बैठकें कब-कब हुई हैं…। ऐसे मौके कम ही आते हैं जब अदालत को बताना पड़े कि किसी मामले से जुड़े सरकारी हलफनामे में किन-किन सवालों के जवाब मौजूद होने चाहिए। 

ऐसे बुनियादी सवालों के जवाब के बगैर 845 पेज का हलफनामा अदालत के सामने पेश करने का भला क्या मतलब हो सकता है, सिवाय इसके कि संबंधित विभागों के पास कहने को कुछ नहीं है और वे ये बात अदालत से छुपाए रखने के लिए उसे व्यर्थ ब्यौरों के जंगल में भटकाए रखना चाहते हैं? ये दोनों ही मकसद आपराधिक कहे जाएंगे। कचरा प्रबंधन जैसी गंभीर समस्या पर सरकार क्या ठोस कर सकती है और क्या कर रही है, इस तरह के सवालों की बारी बाद में आती है। पहले तो यह देखना होगा कि हमारी आला नौकरशाही के दिमाग में भरा वह कचरा कैसे साफ हो, जो उसको ऐसे साजिशाना टालमटोल की तरफ ले जाता है। 

 

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