देश का दलित समुदाय आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां उसे न तो रिपब्लिकन नामधारी पार्टियां संबोधित कर पा रही हैं, न ही सत्ता को सब कुछ मानकर बहुजन से सर्वजन की ओर रुख करती बीएसपी। मंत्री या मुख्यमंत्री बनने की बेकरारी इन दोनों धाराओं को दलित उत्पीड़न से कन्नी काटकर निकल जाने को मजबूर कर रही है। ऐसे में रोहित वेमुला की आत्महत्या से लेकर गौरक्षकों के हमलों तक से बेचैन दलित समुदाय कुछ रेडिकल युवा नेताओं के मार्गदर्शन में नई दिशा लेता दिख रहा है। आगे यह कैसी शक्ल लेता है और कहां तक जाता है, यह देखने की बात है लेकिन संविधान में दलित शब्द का जिक्र न होना कोई इतनी बड़ी बात नहीं कि अदालत को इस मुद्दे पर निर्देश देना पड़े। सिंगल पैरंट से लेकर एलजीबीटी तक तमाम पहचानें नई हैं और संविधान में इनका जिक्र नहीं है, मगर अदालतें अक्सर उनके पक्ष में फैसले सुना रही हैं।
दलित शब्द से दिक्कत (Editorial Page) 25th Jan 2018
By: D.K Chaudhary
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर बेंच ने सरकारों को निर्देश दिया है कि सरकारी दस्तावेजों में दलित शब्द का इस्तेमाल न किया जाए क्योंकि संविधान में कहीं इस शब्द का उल्लेख नहीं है। अदालत का यह निर्देश एक सामाजिक कार्यकर्ता की ओर से दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान आया जिसमें कहा गया था कि यह शब्द अनुसूचित जाति के लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाता है।
दलित शब्द का पहला प्रयोग ज्योतिबा फुले द्वारा किया गया बताया जाता है लेकिन बड़े पैमाने पर इसका इस्तेमाल अस्सी के दशक में बहुजन समाज पार्टी के उदय के साथ शुरू हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन के समय दलित जातियों के लिए ‘अछूत’ शब्द का इस्तेमाल होता था, जिसे आपत्तिजनक मानते हुए महात्मा गांधी ने नया शब्द ‘हरिजन’ दिया। कांशीराम की अगुआई में उभरे दलित आंदोलन ने इस नाम को यह कहते हुए खारिज किया कि हरि ने तो सबको बनाया है, फिर हरिजन एक खास समुदाय को ही क्यों कहा जाए? लेकिन हरिजन शब्द को जातीय उत्पीड़न के महिमामंडन के लिए उस पर डाला गया एक आवरण बताते हुए उसको सिरे से खारिज करने वाला यह आंदोलन आज खुद ही जाति व्यवस्था के सबसे निचले हिस्से की नजर से उतरता दिख रहा है।