दलित दास्तान (Editorial page)  03rd May 2018

By: D.K Chaudhary

कहने को हमारे संविधान में सबको बराबरी का दर्जा हासिल है, लेकिन ऐसी घटनाएं रोज होती हैं जो बताती हैं कि संवैधानिक प्रावधानों और कड़वे सामाजिक यथार्थ के बीच कितना लंबा फासला है। उदाहरण के लिए दो ताजा खबरों को लें। एक खबर उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले से आई कि अगड़ी जाति के कुछ दबंगों ने एक दलित को इसलिए मारा-पीटा, क्योंकि उसने उनके कहने पर उनकी फसल काटने से इनकार कर दिया। उस दलित का आरोप यह भी है कि उसकी मूंछ खींची गई और जबर्दस्ती उसका मुंह खोल कर पेशाब डालने की कोशिश की गई। जिले के पुलिस अधीक्षक ने प्राथमिक जांच में मारने-पीटने के आरोप को सही पाया है, बाकी आरोपों की जांच चल रही है। पुलिस अधीक्षक ने एफआइआर लिखने में टालमटोल और देरी की बिना पर थाना प्रभारी को निलंबित कर दिया है। दूसरी खबर राजस्थान के भीलवाड़ा जिले की है, जहां विवाह की एक रस्म पूरी करने के दौरान दलित दूल्हे का घोड़ी पर सवार होना कुछ लोगों को रास नहीं आया, और उन लोगों ने उस परिवार पर हमला बोल दिया। नतीजतन तीन-चार व्यक्ति घायल हो गए। पीड़ित परिवार का यह भी आरोप है कि उन्होंने पुलिस की मदद लेनी चाही, पर पुलिस हाथ पर हाथ धरे रही। अलबत्ता पुलिस ने मूकदर्शक बने रहने के आरोप को गलत बताया है।
बहरहाल, ऐसी घटनाओं को कानून-व्यवस्था का सामान्य मामला नहीं माना जा सकता। ऐसी घटनाएं बताती हैं कि कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत और समाज में जो चल रहा है उसके बीच कितनी गहरी खाई है। सदियों से हमारे समाज में कुछ तबके जैसा भेदभाव, अपमान और उत्पीड़न झेलते आए हैं उसे देखते हुए ऐसी घटनाएं कोई आश्चर्य की बात भले न हों, पर कई कारणों से बेहद चिंताजनक जरूर हैं। जिस पैमाने पर ये घटनाएं हो रही हैं, उन्हें सिर्फ अतीत के भग्नावशेष कह कर उनसे पिंड नहीं छुड़ाया जा सकता। सच तो यह है कि पिछले कुछ बरसों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं और सरकारी आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं। दूसरी तरफ, आरोपियों को सजा मिलने की दर घटी है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2010 से 2016 के सात वर्षों के दौरान, साल के अंत में दलितों के खिलाफ लंबित मामले 78 फीसद से बढ़ कर 91 फीसद, और आदिवासियों के खिलाफ लंबित मामले 83 फीसद से बढ़ कर 90 फीसद पर पहुंच गए। यही नहीं, इनमें से ज्यादातर मामलों में आरोपी छूट गए।

दलितों के खिलाफ अपराधों के मामलों में दोषसिद्धि की दर 2010 में अड़तीस फीसद थी, जो कि घट कर 2016 में सिर्फ सोलह फीसद रह गई। आदिवासियों के खिलाफ अपराधों के मामलों में दोषसिद्धि की दर में गिरावट छब्बीस फीसद से आठ फीसद की रही। इसलिए ऐसी घटनाओं और ऐसे मामलों को अतीत की निशानियां कह कर टाला नहीं जा सकता। विडंबना यह है कि दलितों पर अत्याचार की घटनाओं में बढ़ोतरी उन राज्यों में भी दिखती है जो आधुनिक विकास और औद्योगिक प्रगति में आगे हैं। मसलन, गुजरात में। उना कांड से लेकर हाल में भावनगर जिले में घुड़सवारी के शौक के कारण इक्कीस वर्षीय एक दलित नवयुवक की हत्या तक, ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं जो विकास के गुजरात मॉडल पर सवालिया निशान लगाती हैं। क्या विकास का मतलब सिर्फ बड़े बांध, फ्लाइओवर और विदेशी निवेश ही होता है, या सामाजिक बराबरी और सामाजिक सौहार्द भी कोई पैमाना है

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