By: D.K Chaudhary
चुनाव लड़ने का गणित काफी कठिन होता है। इसके लिए रणनीति बनाने से लेकर मतदान के दिन तक काफी जूझना होता है, कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन उसके बाद सरकार बनाने की कवायद अक्सर और भी टेढ़ी खीर हो जाती है, खासकर तब, जब किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिला हो। इसके लिए चुनावी सभाओं में बघारे गए सभी आदर्शों को किनारे रखकर हर तरह के तीन-तिकड़म करने होते हैं। विधानसभा चुनाव की लंबी प्रक्रिया के बाद कर्नाटक अब इसी मोड़ पर खड़ा है। हर पक्ष आदर्शों और परंपराओं की दुहाई दे रहा है, हालांकि वह खुद इसका कितना पालन करेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। तरह-तरह के तर्क गढ़े जा रहे हैं, सांविधानिक विकल्पों का विश्लेषण हो रहा है, बोम्मई मामले की व्याख्याएं हो रही हैं। क्या होना चाहिए, इसका हर किसी के पास अपना तर्क है। एक तरफ, यह कहा जा रहा है कि राज्यपाल को सबसे बडे़ दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना चाहिए, जबकि दूसरा तर्क कहता है कि अगर बहुमत वाला गठबंधन बन गया है, तो उसी को सरकार बनाने का मौका दिया जाना चाहिए। दोनों तर्कों के पक्ष में तमाम ताजे और पुराने उदाहरण मौजूद हैं। अब राज्यपाल जो भी फैसला करें, आलोचना का रास्ता हमेशा खुला रहेगा।
चुनाव के बाद जब भी नतीजे में त्रिशंकु विधानसभा मिलती है, राजनीति अक्सर अपने सबसे निचले स्तर पर आ जाती है। नतीजे आने के तुरंत बाद यही कर्नाटक में शुरू हो चुका है। बुधवार को सुबह से ही कुछ विधायकों के गायब होने की बात कही जाने लगी थी। हालांकि इसके पीछे किसी पर विधायकों को गायब करने का आरोप नहीं था, बल्कि यह बताया जा रहा था कि कुछ विधायकों से पार्टी नेतृत्व का संपर्क पूरी तरह खो चुका है। इसका एक दूसरा अर्थ यह भी था कि राज्य में विधायकों की खरीद-फरोख्त शुरू हो चुकी है। दोपहर होते-होते जनता दल-सेकुलर के नेता कुमारस्वामी का यह बयान भी आ गया कि उनके एक-एक विधायक को अपना पाला बदलने के लिए सौ करोड़ रुपये का लालच दिया जा रहा है। इसी के साथ रिजॉर्ट की राजनीति भी शुरू हो गई। जनता की नुमाइंदगी का दावा करने वाले विधायक खुली बिक्री के लिए बाजार में न पहुंच सकें, इसलिए उन्हें पांचतारा सुविधाओं में कैद कर दिया गया। लेकिन इसमें कोई नई बात नहीं है, हर बार त्रिशंकु विधानसभा के बाद ऐसा ही कुछ होता है। कर्नाटक में तो उसका एक्शन रिप्ले हो रहा है।
बेशक, इस तरह की राजनीति निंदनीय है, लेकिन यह सब कब रुकेगा कोई नहीं जानता। ऐसी स्थिति में राज्यपाल को अपने विवेक से फैसला करना होता है। लेकिन ऐसे फैसले की हमेशा ही आलोचना होती है, जो बाद में फैसले के साथ ही इतिहास में दर्ज हो जाती है। यह ऐसा मसला है, जिसमें संविधान विशेषज्ञ भी अक्सर एक स्वर में बोलते नहीं दिखाई देते। आजादी के बाद कई दशक तक यह समस्या आड़े नहीं आई थी, क्योंकि पूरे देश में एक ही दल के बोलबाले की स्थिति थी। लेकिन अब जब यह स्थिति नहीं है, तो खतरा हमेशा बना रहता है। देश की राजनीति को लगभग हर साल, दो साल में ऐसे खट्टे अनुभव से गुजरना पड़ता है। इसलिए बेहतर होगा कि ऐसे मामलों में सांविधानिक संस्थाओं की भूमिका और स्पष्ट की जाए। राजनीतिक सुधार की दिशा में यह पहला बड़ा कदम हो सकता है।