By: D.K. Chaudhary
भारतीय नौसेना का हाथ इस मामले में इधर काफी तंग चल रहा है। 1970 में पूर्व सोवियत संघ से इस तरह के छह जहाज मंगाए गए थे, जबकि विशेषज्ञों के अनुसार इंडियन नेवी को 24 माइन-स्वीपर्स चाहिए। मुश्किल यह है कि फिलहाल देश में मौजूद इनके बेड़े की सेवाएं 2018 से 2020 के बीच समाप्त हो जाएंगी। जाहिर है, इस करार के टूटने से नौसेना को मजबूत बनाने के प्रयासों को धक्का लगा है और बंदरगाहों की सुरक्षा से जुड़ी चिंता बढ़ी है।
हिंद महासागर में चीन हमें लगातार चुनौती दे रहा है। हाल में इस क्षेत्र में कई बार चीनी युद्धपोत देखे गए हैं। वह हमें घेरने के लिए श्रीलंका में भी अपनी पैठ बढ़ा रहा है। कुछ ही समय पहले पेइचिंग और कोलंबो के बीच हंबनटोटा बंदरगाह को लेकर करार हुआ है। चीन द्वारा पाकिस्तान में नेवल बेस बनाने की खबरें भी आई हैं। ऐसे में नौसेना से जुड़े किसी भी सौदे का टूटना बुरी खबर है। लेकिन ऐसे करारों के टूटने का केवल सामरिक नुकसान नहीं होता। जाहिर है, आने वाले वर्षों में माइन-स्वीपर्स हड़बड़ी में ज्यादा कीमत पर खरीदने होंगे, क्योंकि दक्षिण कोरिया जैसा कोई और सौदा अगर हो भी जाए तो उसके बल पर अगले दो वर्षों में इन्हें बनाकर समुद्र में नहीं उतारा जा सकता।
मामले का एक और पहलू रोजगार से जुड़ा है। मेक इन इंडिया की मुहिम शुरू होने से लेकर अब तक इससे जुड़ा एक भी बड़ा प्रॉजेक्ट आगे नहीं बढ़ पाया है। न तो राजनीतिक स्तर से इन्हें बढ़ावा दिया जा रहा है, न ही नौकरशाही में इन्हें लेकर कोई विशेष उत्साह है। तकनीकी और व्यावसायिक उलझनों को सुलझाने में भी कोई तत्परता नहीं दिखाई जा रही। तीनों सेनाओं से जुड़े करीब 3.5 लाख करोड़ के छह मेगा प्रॉजेक्ट्स अभी अटके पड़े हैं। अभी गोवा शिपयार्ड को नए सिरे से माइन-स्वीपर्स के ग्लोबल टेंडर जारी करने को कहा गया है। यह प्रक्रिया जितनी जल्दी संपन्न हो, उतना अच्छा। मेक इन इंडिया तभी सफल होगा जब सरकार पुराने माइंडसेट और कार्यसंस्कृति से बाहर आकर हर स्तर पर इसे सफल बनाने में जुट जाए।