By: D.K Chaudhary
कुछ विपक्षी दल जिस तरह संसद में हंगामा करने के लिए आमादा हैं, उसे देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि इस सत्र के शेष दिनों में लोकसभा अथवा राज्यसभा में कोई कामकाज हो सकेगा। यह सामान्य बात नहीं कि संसद लगातार 21वें दिन भी नहीं चली। विपक्षी दल संसद में कोई कामकाज न होने देने के लिए किस तरह अड़े हैं, इसका पता इससे चलता है कि विगत बुधवार को राज्यसभा की कार्यवाही 11 बार स्थगित करनी पड़ी। नि:संदेह यह पहली बार नहीं जब संसद में गतिरोध कायम है, लेकिन यह बात नई अवश्य है कि विपक्षी दल जिन मसलों को लेकर हंगामा कर रहे हैं, उन पर बहस से भी बच रहे हैं। ऐसे में इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं कि उनका एकमात्र उद्देश्य संसद को काम न करने देना है।
भारत सरीखे बहुदलीय लोकतंत्र में संसद में थोड़ा-बहुत हंगामा और गतिरोध होना स्वाभाविक है, लेकिन अगर संसद चलेगी ही नहीं तो फिर यह अपनी महत्ता खोने का काम करेगी। यदि संसद देश के समक्ष उपस्थित ज्वलंत समस्याओं पर चर्चा और जरूरी विधेयकों पर बहस नहीं कर सकती तो फिर उसे लोकतंत्र का मंदिर अथवा जन-आकांक्षाओं का मंच बताने का क्या मतलब? आखिर ऐसी संसद अपनी गरिमा की रक्षा कैसे कर सकती है, जिसमें कोई काम ही न हो सके? संसद की कार्यवाही में गिरावट कोई आज की समस्या नहीं है, लेकिन यह देखना दयनीय है कि सांसद किसी मसले पर विरोध जताने केलिए संसद की छत पर चढ़ जाएं अथवा शपथ ग्रहण के तत्काल बाद पीठासीन अधिकारी के समक्ष हंगामा करने पहुंच जाएं। हम सब इससे अवगत ही हैं कि संसद में किस तरह सुनियोजित तरीके से नारेबाजी करने और तख्तियां-बैनर लहराने का काम होने लगा है।
इसमें दोराय नहीं कि संसद चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की है और इस जिम्मेदारी के निर्वाह के लिए विपक्ष की मांगों के प्रति लचीला रवैया आवश्यक है, लेकिन तब कुछ नहीं हो सकता जब विपक्ष असहयोग पर अड़ जाए। इसका कोई मतलब नहीं कि पक्ष-विपक्ष के कुछ नेता संसद न चलने के कारण्ा अफसोस प्रकट कर रहे हैं, क्योंकि अब आवश्यकता इसकी है कि सदन चलाने के कुछ नए तौर-तरीके तय किए जाएं और जरूरत पड़ने पर उन्हें कानूनी रूप भी दिया जाए। ऐसा इसलिए, क्योंकि विधायी सदनों की कार्यवाही के संदर्भ में जो आचार संहिता अथवा परंपरा है, उसकी धज्जियां उड़ चुकी हैं। यह वक्त की मांग है कि ऐसे नियम बनें, जिसके तहत विधेयकों पर बहस के लिए अलग से समय तय किया जाए और इस दौरान हंगामा निषेध हो। इसी तरह किसी मसले पर दो-तीन से ज्यादा बार सदन स्थगित न करने का नियम बने। यदि गतिरोध इस पर हो कि बहस किस नियम के तहत हो तो आम सहमति बनाने की अवधि तय की जाए और फिर भी सहमति न बने तो किसी अन्य खास नियम के तहत बहस अनिवार्य की जाए। इस मामले में दुनिया के श्रेष्ठ लोकतांत्रिक देशों से सबक सीखा जा सकता है। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि हम सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भले ही हों, लेकिन बेहतर नहीं हैं।