2014 में 99वें संविधान संशोधन अधिनियम के जरिए कलीजियम द्वारा नियुक्ति की व्यवस्था को खत्म कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया गया। मगर दिसंबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस संशोधन को असंवैधानिक ठहराया। कलीजियम पर कई सवाल उठाए जाते हैं। कहा जाता है कि इसका कोई जिक्र संविधान में नहीं है, जुडिशरी ने मनमाने तरीके से यह व्यवस्था लागू कराई है। आरोप है कि कलीजियम नियुक्ति की गुणवत्ता को सुधारने में असफल रही है। यह भी कहा जाता है कि उसके सदस्य अपने-अपने प्रत्याशियों के नाम आगे बढ़ाते रहते हैं। जो भी हो, अगर हमारे तंत्र में कहीं कोई गड़बड़ी आ गई है तो उसे सुधारने की जिम्मेदारी व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे लोगों की ही है। हमारा संविधान विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच तालमेल और संतुलन की बात करता है। इन तीनों के ऊपर एक-दूसरे की गरिमा की रक्षा की जवाबदेही है। अगर इनके लोग आपस में ही लड़ने लगेंगे तो उसका जनता में गलत संदेश जाएगा। अभी कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच जो उलझनें आ गई हैं, उन्हें आपस में बैठकर दूर कर लेना ही ठीक है। किसी भी मुद्दे को नाक का सवाल बनाने से कुछ नहीं होने वाला है। उम्मीद है यह मसला जल्दी सुलझा लिया जाएगा। बेहतर है सरकार इसके लिए पहल करे।
टकराव ठीक नही Editorial page 07th May 2018
By: D.K Chaudhary
लोकतंत्र में व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे लोगों के बीच वैचारिक मतभेद का होना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है, पर उन लोगों से यह अपेक्षा भी की जाती है कि वे समझदारी के साथ कोई न कोई रास्ता निकालेंगे। दुर्भाग्यवश सरकार और जुडिशरी की टकराहट लंबी खिंचती चली जा रही है। जजों की नियुक्ति न होने से अदालतों के कामकाज पर सीधा असर पड़ रहा है। इससे भी बड़ी बात यह है कि सरकार और जुडिशरी में लगातार तनातनी की खबरें उजागर होने से जनता में व्यवस्था को लेकर सवाल उठ रहे हैं, उसमें निराशा फैल रही है। नियुक्तियों को लेकर विवाद पुराना है। 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका के शीर्ष स्तर पर नियुक्तियों और जजों के तबादले का काम पूरी तरह अपने हाथ में ले लिया और सरकार की इसमें भूमिका औपचारिकता भर रह गई। ऐसी व्यवस्था दुनिया में कहीं नहीं है।